वो सांवली-सी लड़की / तुषार कान्त उपाध्याय
अभी स्नातक में प्रवेश ही लिया था कि मेरे एक रिश्ते के चाचाजी का तबादला मेरे इस छोटे से कस्बाई शहर में हो गया और मुझे लॉज में रहने और छोटे-छोटे होटलों में खाने से मुक्ति मिली।
चाची जी इतनी सुंदर थी उतनी ही मिलनसार। थोड़े ही दिनों में उनका घर उनके उम्र की लड़कियों-औरतों का 'क्लब' बन गया था। पर मुझे क्या। दोपहर बाद कॉलेज से लौटना और खाना खाकर सो जाना।
तब इन शहरों में फ्रलैट जैसा कुछ नहीं था। न अजनबीपन, न वैसी तटस्थता चाची ने सबसे अच्छा और बड़ा वाला कमरा दे रखा था। कई खिड़कियाँ खूब हवादार कमरा। एक खिड़की के सामने पढ़ने के लिए एक बड़ा-सा टेबल। टेबल लैम्प की रौशनी में किताब कॉपियों में उलझा जान ही नहीं पाया कि वह बगल की कुर्सी पर आकर कब बैठ गयी।
ठक्...ठक्! और गला खखारने के स्वर ने खींचा। टेबल लैम्प में उसका चेहरा दिखा। आंखों में उदंड-सी मुस्कुराहट। मेरा नाम है माधुरी ... माधुरी गुप्ता।
'जी...' अभी मैं जवाब सोंच ही रहा था कि ण्ण्
'बॉबी देखी है? प्रेम चोपड़ा याद हैं ना। मेरा नाम है प्रेम, प्रेम चोपड़ा। हा...हा...हा...हा...'
अजीब लड़की है मैंने इसे चाची के साथ कई बार देखा था। बगल की बॉलकनी पर कपड़े डालते या कभी-कभार घूम घूमकर किताबें पढ़ते हुए भी।
'हाँ जानता हूँ बगल के घर में रहती हो,'
'अरे! तो मोहल्ले की सारी लड़कियों पर नजर रखते हो...' 'देखने में तो सीधे सादे हो...'
'माध्ुरी!' तभी चाची की आवाज आई.
मैंने कमरे की बत्ती जला दी। सलवार कुर्त्ता पहने माधुरी ऐसे बैठ गई थी जैसे बस शांत।
'ओह! तुम इसके कमरे में आ गई.'
चाची चाय का ट्रे टेबल पर रखते हुए बिस्तर पर बैठ गयी।
'ये विभू है मेरे चचेरे जेठ जी का बेटा।'
ओह! उसने मेरी तरपफ देखा। जैसे पहली बार देख रही हो। साँवली सी, शालीनता से बैठी, लावण्य की प्रतिमूर्ति।
अक्सर हमारे घर आ जाती थी। अपने और चाची के बीच के उम्र के पांच-सात साल की खाई को फलांगती उनकी अच्छी दोस्त बन गयी थी। मेरे कमरे को तो उसने अपनी जागीर समझ रखा था। कोई भी अलमारी खोलती, किताबें पलटती, मेरे बिस्तर पर पालथी मारकर बैठ जाती। मैं भी सहज होने लगा था। आती तो अच्छा लगता था। पर सब के सामने तो ऐसे करती जैसे कि कुछ पहचानती ही न हो।
'क्या ऐक्ट्रेस है भाई!' मैं कई बार सोंचता।
ऑनर्स की पढ़ाई का दूसरा वर्ष शुरू हो गया था। पढ़ाई का दबाव बढ़ता ही जा रहा था। दोपहर बाद आँख खुली तो देखा कि मेरी किताबों वाली अलमारी खोले कुछ अजीब-सी देख रही थी।
'इसमें तो सिपर्फ साहित्य की किताबें और पत्रिकाएँ भरी पढ़ी हैं। तो मैथमेटिक्स ऑनर्स के बीच तुम इतना समय कैसे निकाल लेते हो।' टेबल के बगल वाली कुर्सी पर बैठते हुए माधुरी ने सवाल दागा। मैंने उनंदी आंखों से देखा उसने टोल्सटॉय की 'कज्ज़ाक' हाथ में ले रखी थी।
'अब ये क्या सवाल हुआ। मुझे अच्छा लगता है साहित्य पढ़ना और क्या।'
'तो साहित्य में ही एडमिशन क्यों नहीं लिया।'
'बस! मां-बाबूजी को लगता है कि बेटे के साइंस पढ़ने से उनकी इज्जत बचती हैं। मेरी तो बिल्कुल ही इच्छा नहीं थी, पर क्या करूं। वह सुनते कहाँ हैं।'
'हूँ...' उसने लम्बी सांस छोड़ी।
'पता है, मेरा मन साइंस पढ़ने में लगता है, कैमेस्ट्री तो बिल्कुल दिखती हैं मुझे और सुनों इंटर की परीक्षा में कैमेस्ट्री में मैंने यूनिवर्सिटी भर मे टॉप किया था।'
'अच्छा!' अविश्वास भरे चेहरे से मैंने कहा।
'अच्छा मतलब? विश्वास नहीं होता। रूको...' वह दौड़ती हुई बाहर निकल गयी। थोड़ी देर में लौटी तो हाथ में मार्क्स सीट की कॉपी लिये हुए.
'अरे! मैंने तो कभी सपने में भी नहीं सोंचा कि कैमेस्ट्री में इतने नंबर आयेंगे।' विस्मय में भरते हुए मेरे मुंह से निकला।
'तब भी ऑटर्स पढ़ती हूं'
'क्यों?'
'लड़की हूँ ना। पापा को लगता है कौन-सा नौकरी करना है। बस, किसी तरह बी.ए. पास कर जाउं फिर...'
'मेरा मन था कॉलेज में लेक्चरर बनकर कैमेस्ट्री पढ़ाउ।' एक अजीब से अवसाद भरे स्वर में बोलती माधुरी कहीं दूर खोती जा रही थी।
'ये समझौता तो हमारे जीवन का एक अध्याय है। मुझे देखों-बीएचयू से इंग्लिश में एम.ए. किया। वह भी फर्स्ट क्लास में। पीएचडी नहीं कर पाई. क्योंकि शादी हो गई. मेरे तो एम.ए. करने का ही घर पर कितना विरोध झेला था बाबूजी ने और अब इन्हें मेरा नौकरी करना पसंद नहीं बस।' पता नहीं कब से चाची कमरे में आकर हमारी बातों सुन रही थीं।
'माधुरी की माँ तो इसकी शादी की चिन्ता में गली जा रही हैं।'
'अभी से... बड़े शहरों में ऐसा नहीं होता होगा शायद। वहाँ लड़के और लड़कियों में इतना पफर्क तो नहीं ही होगा।' माध्ुरी कहीं दूर से लौट आई थी। मैं अपनी बेटी के साथ ऐसा नहीं होने दूंगी।
'अभी शादी हुई नहीं और बेटी की चिन्ता अभी से।' मुस्कुराते हुए चाची ने माहौल को हल्का करने की कोशिश की।
'माधुरी को शेरों-शायरी का बड़ा शौक हैं।'
'अरे कहाँ। ... वह कॉलेज जाते समय ट्रकों के पीछे एक से एक शेर लिखे मिलते हैं। बस, वहीं लिख लेती हूँ एक कॉपी में।'
'इसकी तो एक पूरी कॉपी भर गई है इसी तरह के शेरों से।' चाची ने बताया। झेंपती हुई-सी माधुरी भी मुस्कुरा रही थी।
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इध्र कई दिनों से माधुरी दिखी नहीं थी। मैंने नजरें बचाकर उसकी बालकनी की ओर देखा। अंदर तक सूना लगा उसके घर का हिस्सा।
'गाँव गई हैं अपने माँ के साथ।' पीछे खड़ी चाची ने मुस्कुराते हुए कहा। अगले हफ्रते लौटगी।
'मैं तो वैसे ही देख रहा था इध्र...'
'मुझे लगा माधुरी को तलाश रहे हो' चाची जी की मुस्कान चौड़ी और व्यंग्यात्मक हो गयी थी।
बहुत तीखी धूप निकल आयी थी सुबह से। होली में अभी सप्ताह दस दिन बाकी था और इतनी गर्मी। चाची गाँव चली गयी थी और चाचा बैंक। जल्दी-जल्दी सभी कमरों को ताला बंद कर बाहरे वाले दरवाजे का ताला बन्द करने ही जा रहा था कि
'छपाक...पूरा देह पानी से नहा गया।'
अरे इसमें तो रंग भी है। कपड़े रंग गये थे। गुस्से में दौड़ा छत की ओर। अपने दोस्त के साथ खिलखिलाती माधुरी हाथ में खाली बाल्टी लिए खड़ी थी।
मेरे तेवर देखकर सहम गयी। डर गयी थी शायद। चेहरा एकदम सफ़ेद पड़ गया।
'मेरा कॉलेज जाना कितना ज़रूरी है और दूसरा कोई प्रेस किया हुआ कपड़ा मेरे पास है नहीं।' गुस्सा मेरे अंदर से उबलने लगा था आवाज उफँची होती जा रही थी। उसने दोनों हाथ जोड़ दिये। होठो पर उँगली रखकर चुप होने का इशारा किया।
'माँ है नीचे...' धीरे से याचना भरे स्वर में कहा
और मैं पता नहीं क्या-क्या भुनभुनाता वापस घर के अंदर चला आया।
इध्र कई महीनों से माध्ुरी मिली नहीं थी। दिख भी जाती तो किनारा काटकर निकल जाती। कभी-कभार बालकनी में दिखती तो अचानक उदास हो जाती। एक-दो बार मैंने बात करने की कोशिश को भी अनसूना कर अंदर चली गयी।
'ओह! क्यों बोल दिया इतने बुरे तरीके से उसे। आखिर रंग ही तो डाला था।' अपफसोस होता है अंदर ही अंदर। अजीब-सा विशाद् घेर लेता।
फाइनल परीक्षा के प्रैक्टिकल का आखिरी पेपर देकर लौटा तो हल्का महसूस हो रहा था। कुछ महीना पहले खरीदी लेकिन समय अभाव के कारण आलमारी में वैसे ही रख दिये गये 'राग दरबारी' को ढूँढ़ने लगा तो पता चला कि कल ही माधुरी ले गयी थी।
'पूछ रही थी तुम्हारे बारे में, जानना चाह रही थी कि तुम कब गाँव जा रहे हो। आज ही लौटा देगी।'
'तो वह आती है घर...'
'हाँ... पर तुमसे कतराती है। जानते हो क्यों?'
मैंने होली वाली घटना बता दी।
'मुझे मालूम है। माधुरी ने बताया था। वह तो हँस रही थी।'
'तो फ़िर...'
'उसकी शादी तय हो गयी है। होली के अगले सप्ताह उसका छेका भी हो गया।'
हँ...मेरे समझ में नहीं आ रहा था क्या कहूँ।
'क्या करता है उसका पति...'
'बड़ी-सी किराना की दुकान है उसकी अपने शहर में। माधुरी की माँ बहुत खुश थी।'
'पर ये पढ़ने-लिखने वाली लड़की, पूछा नहीं इससे'
'कौन पूछता है। बड़े शहरों में रहनेवाले सभ्रांत परिवारों की लड़कियों को शायद यह नसीब हो।'
मेरे और चाची के बीच एक अजीब-सी उदासी तैर रही थी।
शाम का धुधंलका रात में तब्दील हो गया था जब लौट के घर आया। गाँव जाने से पहले परिचितों से मिलने चला गया था। पता नहीं पिफर कब वापस आना हो। आते ही चाची ने बताया की माधुरी ने किताब मेरे टेबल पर रख दी है। इसमें कोई पर्ची रखी है। देख लेने के लिए कहा है।
'अब के बिछड़े तो शायद ख्वाबों में मिले
जैसे सूखे हुए पूफल किताबों में मिले'
एक पूरे पन्ने पर सिपर्फ दो लाइनंे लिखी थी। करीने से तह कर किताब के बीच में रखी थी।
'मैं देखूँ...' चाची ने मेरे हाथ से वह पर्ची झपट-सी ली।
'अरे वह ट्रक के पीछे से उतार लिया होगा। डाल दिया किताब में...' झेंपते हुए मैं दूसरी तरपफ देखने लगा।
चाची ने कई बार पढ़ा। गहरी उदासी से उनका चेहरा तन गया था। मुझे लगा उनकी आँखों में आँसू आ गये।
'पता नहीं किसके लिए इस घर से इतना गहरा नाता जोड़ लिया था इस लड़की ने।'
'मूर्ख हो तुम विभू...' पर्ची मेरे हाथ में थमा दिया। '
'जानते हो लड़कियाँ सिपर्फ पेट में नहीं मारी जाती। कई बार मरती हैं, अपनों के ही हाथों। कोई नहीं समझ पाता। ना हमारा प्यार, न हमारे सपनें। उन्हें सबसे ज़्यादा खतरा अपनों से ही होता है।' गुस्से और हताशा में चाची अपनी आँखें बंद कर ली थी।'