व्यंग्य-कविताओं के अंतःतल में संवेदनशीलता (रामविलास शर्मा) / नागार्जुन
रामविलास शर्मा का संस्मरण
इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय में रामविलास जी से ‘हिदी के प्रगतिशील कवि’ विषय पर एक बातचीत की वीडियो फ़िल्म बनी थी। प्रस्तुत लेख उस बातचीत पर आधारित है ।
नागार्जुन की लिखी कविताओं में सबसे ज़्यादा संख्या राजनीतिक कविताओं की है और उनमें भी अधिकतर व्यंग्यपूर्ण हैं। ये कविताएं साम्राज्यवाद के विरुद्ध हैं, सामंतवाद के विरुद्ध हैं तथा उच्च मध्य वर्ग की जो आकांक्षाएं हैं और जिस तरह की बनावटी ज़िंदगी वह जीता है, उसकी आलोचना भी इन कविताओं में है। शासन किस तरह से जनता से वादे करता है और उन्हें झुठलाता है, इसकी बहुत तीखी आलोचना नागार्जुन ने की है। नागार्जुन की कविताओं में कहीं-कहीं लोकगीतों का स्वर सुनायी पड़ता
है और कहीं-कहीं तो उन्होंने लोकगीतों की पंक्तियां ही उठा ली हैं, जैसेया
‘आओ
रानी हम ढोयेंगे पालकी’।
है। लोग यह भी जानते हैं कि हिंदी में इतना बड़ा व्यंग्यकवि दूसरा और कोई नहीं हुआ। व्यंग्य की धारा तो हिंदी के दूसरे कवियों में भी रही है, भारतेंदु में रही है, निराला में रही है, केदार में भी है, लेकिन व्यंग्य को लगभग एक मुख्य विधा बना लेना, एक पैने अस्त्रा की तरह इस्तेमाल करना और जनआंदोलन को बढ़ाने में इसकी मदद लेना, यह नागार्जुन की विशेषता है।
नागार्जुन की कविता में एक चीज़ जो छिपी हुई है, और जिसे लोग अक्सर भूल जाते हैं, वह है उनकी संवेदनशीलता। उनकी संवेदनशीलता लगभग वैसी ही है, जैसी त्रिलोचन में है, और जैसी केदार में है। कविता में व्यंग्य ऊपर से आच्छन्न रहता है, इसलिए वह दिखायी देता है, लेकिन उसके भीतर जो संवेदनशीलता है, वह दिखायी नहीं देती।
नागार्जुन जब कलकत्ते में थे, तब उन्होंने वहां के रिक्शा चलाने वालों पर एक कविता लिखी थी; वह कविता उन्होंने मुझे सुनायी थी। वह तब तक प्रकाशित नहीं हुई थी। वह दृश्य मुझे अभी तक याद है, कैसे वह कविता सुना रहे थे और सुनाते समय कैसे उनका कंठावरोध-सा हो जाता था। उस कविता में वह रिक्शा चलाने वाले के सिर्फ़ पैरों को देखते हैं। केवल एक बिंब के सहारे पूरे चित्रा को खींचते हैं और इस चित्रा के द्वारा रिक्शेवाले के सारे संघर्ष को उजागर करते हैं। कविता में एक लाइन आती हैμ
‘खुरदरे पैर, धंस गये,
कुसुम कोमल मन में’।
यह कुसुम कोमल मन कवि का है। यह एक वैषम्य है; एक तरफ़ उसके पैर हैं और दूसरी तरफ़ कवि का मन है।
जिस चीज़ पर मैं ज़ोर देना चाहता हूं, वह यह है कि व्यंग्य का आधार संवेदनशीलता है। संवेदनशीलता की अभिव्यक्ति व्यंग्य के माध्यम से होती है और यह अभिव्यक्ति व्यंग्यविहीन माध्यम से भी होती है। नागार्जुन की ऐसी कविताएं भी हैं, जिनमें व्यंग्य नहीं है और केवल संवेदनशीलता है। गांव से जैसा गहरा लगाव केदार को है, वैसा ही नागार्जुन को भी है। बहुत दिनों के बाद एक आदमी गांव जाता है और वहां क्या देखता है, उसका उसके मन पर क्या प्रभाव पड़ता है, यह सब उनकी कविता ‘बहुत दिनों के बाद’ में चित्रित है।
यह व्यंग्यविहीन संसार उनको बहुत प्रिय है और यह संसार उनके गांव का है। इसके विपरीत, नागार्जुन की एक कविता है, जिसमें अकाल का वर्णन है, बहुत दिनों के बाद घर में दाना आता है। नागार्जुन को मैंने इस कविता को सुनाते हुए देखा है। फिरोज़ाबाद में, जहां चूड़ियों का बहुत बड़ा कारोबार होता है, वहां के मज़दूरों की एक सभा में उन्होंने यह कविता सुनायी थी। कितनी आसानी से मज़दूर उनकी कविता को समझ लेते हैं और अपने आनंद की अभिव्यक्ति करते हैं, यह मैंने अपनी आंखों देखा है।
इस कविता में शब्दों का संयम है, बात बढ़ाकर नहीं कही गयी है, कहीं अतिरंजित नहीं। इसमें छोटे-छोटे बिंब हैं, जिनके माध्यम से भारतीय जनता की वेदना को व्यक्त किया गया है। यह एक अद्भुत कविता है। इस तरह से बिंब पकड़ना और उसके माध्यम से जनता की स्थिति को दिखाना, यह कमाल एक जीनियस ही कर सकता था। इसमें कोई शक नहीं कि नागार्जुन एक अत्यंत प्रतिभाशाली कवि थे जो हिंदी के माध्यम से ऐसी बातें कह सकते थे, जिनसे भाषा की शक्ति दिखायी दे।
प्रस्तुति : विजय मोहन शर्मा मो.: 09810018167