व्यंग्य और हास्य / गिरीश पंकज
विसंगतिपूर्ण और अराजक जीवन के विरुद्ध रचनात्मक उपहास व्यंग्य है। सामाजिक, राजनीतिक और जीवन के अन्य सभी क्षेत्र की विद्रूपताओं के विरुद्ध कटाक्षपूर्ण रचना को ही व्यंग्य कहते हैं. व्यंग्य दरअसल सीधी बात नहीं, एक तरह से यह टेढ़ी बात है. मानवीय कमजोरी को विनोदपूर्ण शैली में प्रस्तुत करना ही व्यंग्य है। प्रकृतिगत कमियों पर परोक्ष रूप से किया गया कलात्मक लेखन ही व्यंग्य है. सही और सार्थक व्यंग्य अभिधा में नहीं, व्यंजना में लिखा जाता है. व्यंग्य वास्तव में लेखन की वह कला है, जो रचना को व्यक्ति निरपेक्ष और समाजसापेक्ष बनती है। मनुष्य के पाखंडपूर्ण व्यवहार की परिहासपूर्ण अभिव्यक्ति व्यंग्य है।
हास्य और व्यंग्य में बुनियादी अंतर है। हास्य हमें प्रफुल्लित करता है, मगर व्यंग्य में हमें व्यथित करता है,क्योंकि वह अराजकता के विरुद्ध बौद्धिक हस्तक्षेप होता है। हास्य हमें एक तरह से काल्पनिक लोक में ले जाता है, किंतु व्यंग्य हमें यथार्थ के दर्शन करता है, इसलिए व्यंग्य प्रथम श्रेणी का सृजन है और हास्य का नंबर उसके बाद आता है । हास्य में कोई बुराई नहीं, लेकिन जब समाज विसंगतियों से झुलस रहा हो, तब हँसना फूहड़पन है। तब समाज को चेतना संपन्न बनाने के लिए व्यंग्य अनिवार्य हो जाता है..
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