व्यंग्य की वैतरणी / हरिशंकर राढ़ी
अपने हिंदीलोक से कितनी मानव-योनिधारी आत्माएँ उहलोक को प्रस्थान कर रही हैं, इसका पता मृत्यु पंजीकरण संस्थाओं को होगा या गरुड़ पुराण को। वे प्रस्थान करने के बाद येन-केन प्रकारेण वैतरणी पार कर पाईं या नहीं, इसका भी पता नहीं। उधर जाने वाले रास्ते को गूगल मैप भी नहीं पकड़ पाता। अंध महासागर और बरमूडा ट्राएँगल को पार कर लेने वाले विमान भी अभी उधर का रूट ट्रेस नहीं कर पाए। लेकिन हिन्दी साहित्य में दैनिक आधार पर मरने वालों में से अधिकतर व्यंग्य की वैतरणी पर अटके पाए जा रहे हैं। विश्वास न हो तो तमाम अखबारों, पत्रिकाओं या कम से कम फ़ेसबुक वॉल को देख लें। इन सभी प्रचार मंडलों में व्यंग्य की वैतरणी की ओर भागता कोई न कोई जीव मिल जाएगा। वैतरणी घाट तक पहुँचने में समय और साधन की समस्या नहीं है। समस्या है तो बस व्यंग्य की वैतरणी को पार करने में। वहाँ घाट पर भारी जाम लगा है।
सुना है कि व्यंग्य की वैतरणी पार करने के बाद व्यंग्यलोक में वास होता है। व्यंग्यलोक की छवि इधर कुछ ज़्यादा ही आकर्षक हो गई है। सुविधाएँ भी ज़्यादा हैं। हाल यह है कि कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक और हाइकूलोक के निवासी भी व्यंग्यलोक की तरफ़ भागे चले जा रहे हैं। आलोचना जैसी राजसी दुनिया के हस्ताक्षर भी व्यंग्यलोक में अपना आरक्षण चाहते हैं, जबकि उन्हें किसी के साहित्य पर या तो गपागप या थू-थू जैसा सहज कार्य करना है। फिर भी, पता नहीं व्यंग्य की वैतरणी में क्यों डूबना चाहते हैं !
सुना है कि व्यंग्यलोक में व्यंग्य की दिव्यात्माएँ वास करती हैं। वहाँ हरिशंकर परसाई, रवीन्द्र नाथ त्यागी, शरद जोशी और श्रीलाल शुक्ल की आत्माएँ हैं। व्यंग्यकार कहता है कि उसे इनका दर्शन करना है। व्यंग्य के इन देवताओं के दर्शन के लिए वह मरने तक को तैयार है। शारीरिक रूप से मरने में डर लगता है तो आत्मा को मार देगा। लेकिन उसे भी व्यंग्यलोक में जाना है। वैतरणी तक अपने पैरों से, नंगे पाँव चला जाएगा। बस, वैतरणी को पार करने का कोई जुगाड़ लग जाए। यह बात अलग है कि इनकी जुगाड़ू बुद्धि से परसाई, त्यागी, जोशी और शुक्ल की आत्माएँ व्यंग्यलोक में भयभीत बैठी हैं।
व्यंग्य की वैतरणी पार कराने के लिए गाय उपलब्ध नहीं है। बेचारी गाय आज किसान के घर में सुरक्षित नहीं है, वैतरणी की तो बात ही दूर है। सो, गरुड़ पुराण में वर्णित गाय की पूँछवाला साधन फेल है। लोगों को पता है कि व्यंग्य में गाय का गुज़ारा नहीं। यहाँ तो लोमड़ी या बिल्ली जैसा दिमाग़ होना चाहिए। उपयोगिता इन्हीं की भाँति भले एक पैसे की न हो। कुछ लोग व्यंग्य की भैंस लेकर जा रहे हैं। भैंस को तैरना अच्छा लगता है। उसमें शक्ति भी ज़्यादा होती है और वह गंदगी को भी अपेक्षाकृत सीमा से बाहर तक सहन कर सकती है। कीचड़ में लोट लेने पर भी सहज महसूस करती है।
कई व्यंग्यकारों को पता है कि वैतरणी बहुत गंदी है। इसलिए वे साथ में पालतू सुअर लेकर जा रहे हैं। उन्हें विश्वास है कि ये पालतू सुअर उन्हें अपनी पीठ पर बिठाकर पार करा देंगे। वैतरणी में कितना भी रक्त हो, मल-मूत्र हो या कीड़े पड़े हों, इन पालतू सुअरों पर कोई दुष्प्रभाव नहीं होगा। कुछ देर को तकलीफ ही सही, इन पर सवार होकर ये व्यंग्य की वैतरणी पार हो जाएँगे। लेकिन साहित्य गवाह है कि ऐसे तमाम शूकरधारी व्यंग्यकार भी व्यंग्य की वैतरणी को पार नहीं कर पाए।
दरअसल, व्यंग्य के तमाम वरिष्ठ और गरिष्ठ दिग्गज इसी वैतरणी में मगरमच्छ के रूप में डोल रहे हैं। वे भी कभी पार करने आए थे, किंतु पार न कर सके और मगरमच्छ योनि धारण कर यहीं जम गए। आहार की तलाश में कभी प्रकट तो कभी डुबकी लगाए गश्त में व्यस्त रहते हैं। अभी तक वे भैंस या सुअर की पीठ पर बैठकर वैतरणी पार करने वाले ढेर सारे व्यंग्यकारों को निगल चुके हैं।
इधर सुनने में आया है कि व्यंग्य की वैतरणी पार करने की कुछ शर्तें आ गई हैं। पहली शर्त यह है कि वैतरणी पारेच्छुक हर व्यंग्यकार को व्यंग्यश्री, व्यंग्य धुरंधर, व्यंग्य कटार, व्यंग्य चक्रवर्ती जैसे कम से कम एक दर्जन पुरस्कार या सम्मान मिले हों। साहित्य के मुश्तरका पुरस्कारों-सम्मानों को छोड़ भी दें तो व्यंग्य के हजारों निजी पुरस्कारों का सृजन हो चुका है। ये पुरस्कार या सम्मान किसी भी प्रकार की संस्था से मिले हों, बस। व्यंग्यकार ने व्यंग्य लिखे हों या नहीं, कम से कम पाँच उपन्यास ऐसे प्रकाशित हों, जिनके ऊपर ‘व्यंग्य उपन्यास’ लिखा हो। उसके द्वारा कम से कम बीस लेख ऐसे लिखे गए हों, जिसके शीर्षक के बाईं तरफ़ ‘व्यंग्य’ लिखा हो। एक शर्त यह भी है कि किसी भी आलोचक ने उसके विषय में एक भी शब्द नकारात्मक न लिखा हो।
ये सब अर्हताएँ न हों तब भी निराश होने की ज़रूरत नहीं। इधर कई ‘व्यंग्यकार प्रमाणन बोर्ड’ गठित हो चुके हैं। ऐसा ‘व्यंग्य प्रमाणन बोर्ड’ का गठन न हो पाने के कारण किया गया है। यदि किसी के पास ‘व्यंग्यकार प्रमाणन बोर्ड’ द्वारा मान्यता प्राप्त परिचय-पत्र है तो वह भी स्वीकार्य है। अंतिम उपाय यह है कि हर व्यंग्यकार अपनी तरफ़ से एक हज़ार शीर्ष व्यंग्यकारों की ऐसी सूची जारी करेगा, जिसमें उसका अपना नाम शीर्ष पर रहेगा। ऐसी हज़ार सूचियों में से किसी भी सूची में जिस व्यंग्यकार का नाम पाया जाएगा, वह वैतरणी तक साहित्य अकादमियों के वाहन से पहुँचाया जाएगा। उसे इस घाट से उस घाट तक उचित जगह तलाशने की आज़ादी रहेगी।
वैतरणी की तो धारणा ही धर्मप्राण विचारों से आई है। संतों ने कहा है कि वैतरणी पार करने में नाम ही एकमात्र सहारा है। कलयुग केवल नाम अधारा। सो, कुछ व्यंग्यकार परसाई-परसाई, जोशी-जोशी, त्यागी-त्यागी नाम की सुमिरनी फेरे जा रहे हैं। यह नाम भी गुरु ने सुझाया है। कइयों ने तो व्यंग्य के गुरु ही इसलिए बनाए हैं कि वे उन्हें व्यंग्य की वैतरणी पार करा देंगे। लेकिन समस्या यह है कि यहाँ तो गुरु जी स्वयं पुरस्कार-सम्मान वितरण, उठा-पटक, उखाड़-पछाड़, निंदारस और अनुदान की वैतरणी में डूब रहे हैं, चेले को क्या ख़ाक पार कराएँगे?