व्यंग्य क्यों? कैसे? किस लिए? / हरिशंकर परसाई
मैं व्यंग्य लेखक माना जाता हूँ। व्यंग्य को लेकर जितना भ्रम हिन्दी में है, उतना किसी और विधा को लेकर नहीं। समीक्षकों ने भी इसकी लगातार उपेक्षा की है। अभी तक व्यंग्य की समीक्षा की भाषा ही नहीं बनी। ‘मजा आ गया’ से लेकर ‘बखिया उधेड़ दी’ तक कुछ फ़िकरे इस पर चिपका कर समीक्षा की इतिश्री समझ ली जाती है। अकसर विनोद, हास्य मखौल से व्यंग्य को अलग करके नहीं देखा जाता। मेरी ही कोई रचना पढ़कर प्रबुद्ध पाठक भी कह देता है-बड़ा मजा आया, जब कि मैंने खिजाने के लिए वह चीज़ लिखी है।
आदमी कब हँसता है ? इस सम्बन्ध में बड़ी दिलचस्प और विभिन्न धारणाएँ हैं। एक विचार यह है कि जब आदमी हँसता है, तब उसके मन में मैल नहीं होता। हँसने के क्षणभर पहले उसके मन में मैल हो सकता है और हँसी के क्षणभर बाद भी। पर जिस क्षण वह हँसता है, उसके मन में किसी के प्रति मैल नहीं होता। फिर जिसका हाज़मा अच्छा हो वही हँस सकता है। कब्ज का मरीज़ मुश्किल से हँसता है। फिर जब मनुष्य को चैन की (well being) अनुभूति होती है, तब वह हँसता है। बिना चैन की हँसी खिन्न हँसी होती है, जैसी पंडित नेहरू की अन्तिम वर्षों में हो गयी थी।
आदमी हँसता क्यों है ? परम्परा से हर समाज की कुछ संगतियाँ होती हैं, सामंजस्य होते हैं, अनुपात होते हैं। ये व्यक्ति और समाज दोनों के होते हैं। जब यह संगति गड़बड़ होती है तब चेतना में चमक पैदा होती है। इस चमक से हँसी भी आ सकती है और चेतना में हलचल भी पैदा हो सकती है। शरीर में कितनी बड़ी नाक हो इसका एक अनुपात मानस में बना हुआ है। पर अगर किसी की बहुत मोटी नाक हो तो लोग कहते हैं-अरे, यह तो नाक की जगह आलूबड़ा रखे हैं-और हँस पड़ते हैं। साइकिल पर एक आदमी बैठे, यह संगति है। दो को बरदास्त कर लिया जाता है, पर एक साइकिल पर तीन सवार हों और वे गिर पड़ें तो उनकी चोट के प्रति सहानुभूति नहीं होगी बल्कि दर्शक हँस पड़ेंगे-अच्छे गिरे साले। हमारे यहाँ कंजी आँख बुरी मानी जाती है। कंजी आँख वाले पर लोग हँसते हैं। कहावत है-
सौ में सूर सहस्त्र में काना, सवा लाख में ऐंचक ताना। ऐंचक ताना करे पुकार, मैं कंजे से खाई हार।
पर कंजी आँखें पश्चिम में अच्छी मानी जाती हैं। आमतौर पर पतले ओंठ सुन्दर माने जाते हैं पर नीग्रो लोगों में अच्छे मोटे ओंठ भी अच्छे लगते हैं। भारत में किसी के नीग्रो जैसे मोटे ओंठ हों तो लोग हँसेंगे क्योंकि सौंदर्य बोध की संगति बिगड़ती है।
लोग किसी भी बात पर हँसते हैं। हलकी, मामूली विसंगति पर भी हँस देते हैं। आदमी अगर घोड़े सरीखा हिनहिनाए तो इस पर भी हँस देते हैं। दीवाली पर कुत्ते की दुम में पटाखे की लड़ी बाँधकर उसमें कुछ लोग आग लगा देते हैं। बेचारा कुत्ता तो मृत्यु भय से भागता और चीखता है, पर लोग हँसते हैं।
पर व्यंग्य में जरूरी नहीं कि हँसी आये ही। मार्क ट्वेन ने लिखा है-यदि कोई भूखे कुत्ते को रोटी खिलाए तो वह उसे काटेगा नहीं। मनुष्य और कुत्ते में यही खास फ़र्क है। इस कथन से हँसी नहीं आती पर व्यंग्य की वह करारी यह चोट चेतना पर करता है कि पाठक पहले तो भौंचक रह जाता है और फिर सोचने लगता है।
व्यंग्य के साथ हँसी भी आती है, पर वह दूसरे प्रकार की होती है। मेरी ही एक लघु कथा है-संसद में एक सदस्य ने कहा कि अमुक जगह पुलिस की गोली से ग्यारह आदमी मारे गये। गृहमन्त्री इसका जवाब दें। गृहमन्त्री बड़ी शान्ति से उठे। जिन्हें रोज गोली चलवानी है वे कब तक अशान्त रहेंगे। गृहमन्त्री ने जवाब दिया-गोली का कारखाना जनता के पैसे से चलता है। जनता कै पैसे से जो सामान बनता है, उसे जनता के ही काम आना चाहिए। अब जनतान्त्रिक असूल में यह बात पूरी तरह संगत है। पर यह कितनी बड़ी विडम्बना पैदा करती है और संसदीय प्रणाली पर चोट करती है। इस लघुकथा से हँसी जरूर आती है पर यह हँसी और किस्म की होती है और सोचने को बाध्य करती है।
व्यंग्य लेखन एक गम्भीर कर्म है। कम से कम मेरे लिए। सवाल यह है कि कोई लेखक अपने युग की विसंगतियों को कितने गहरे से खोजता है। उस विसंगति की व्यापकता क्या है और वह जीवन में कितनी अहमियत रखती है मात्र व्यक्ति की ऊपरी विसंगति-शरीर रचना की, व्यवहार की, बात के लहजे की एक चीज़ है। और व्यक्ति तथा समाज के जीवन की भीतरी तहों में जाकर विसंगति खोजना, उन्हें अर्थ देना तथा उसे सशक्त विरोधाभास से पृथक करके जीवन से साक्षात्कार कराना दूसरी बात है। सच्चा व्यंग्य जीवन की समीक्षा होता है। वह मनुष्य को सोचने के लिए बाध्य करता है। अपने से साक्षात्कार करता है। चेतना में हलचल पैदा करता है और जीवन में व्याप्त मिथ्याचार, पाखंड असामंजस्य और अन्याय से लड़ने के लिए उसे तैयार करता है।
जोनाथन स्विफ्ट कहता है-मैं मनुष्य को अपमानित करने और उसे नीचा दिखाने के लिए लिखता हूँ। परन्तु मार्क ट्वेन कहता है-मैं बुनियादी तौर पर एक शिक्षक हूँ। मेरा खयाल है, कोई भी सच्चा व्यंग्य लेखक मनुष्य को नीचा नहीं दिखाना चाहता। व्यंग्य मानव सहानुभूति से पैदा होता है। वह मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाना चाहता है। वह उससे कहता है-तू अधिक सच्चा, न्यायी मानवीय बन। यदि मनुष्य के प्रति व्यंग्यकार को आशा नहीं है, यदि वह जीवन के प्रति कनसर्न्ड नहीं है तो वह क्यों रोता है उसकी कमजोरियों पर। जो यह कहते हैं कि व्यंग्य लेखक निर्मम, कठोर और मनुष्य विरोधी होता है, उसे बुराई ही बुराई दिखती है, तो मैं जवाब देता हूँ कि डॉक्टर के पास जो लोग जाते हैं उन्हें वह रोग बताता है। तो क्या डॉक्टर कठोर है ? अमानवीय है ? अगर डॉक्टर रोग का निदान न कर और अच्छा ही अच्छा कहे तो रोगी मर जायेगा। जीवन की कमजोरियों का निदान करना कठोर होना नहीं है।
अच्छे व्यंग्य में करुणा की अंतर्धारा होती है। चेखव में शायद यह बात सबसे साफ़ है। चेखव की एक कहानी है-बाबू की मौत। इस कहानी को पढ़ते-पढ़ते हँसी आती है पर अन्त में मन करुणा से भर उठता है। जिस बात पर कहानी का ताना-बाना चेखव ने बुना वह यह है-
थियेटर में एक बाबू नाटक देख रहा है। उसके ठीक सामने उसका बॉस बैठा है। बॉस के चाँद है। बाबू को छींक आती है और उसे लगता है कि उसकी छींक के छींटे साहब की चाँद पर पड़ गये हैं। वह घबराता है और इंटरवल में साहब से माफी माँगता है-साहब माफ़ कर दीजिए। मुझसे गलती हो गयी। मैंने जान बूझ कर गुस्ताखी नहीं की। अब मजा यह है कि साहब की चाँद पर छींटे पड़े ही नहीं हैं। वह नहीं जानता कि बाबू माफी किस बात की मांग रहा है। वह उसे डाँटता है-क्या बक-बक लगा रखी है। भागो यहाँ से। इधर बाबू समझता है कि साहब ज्यादा नाराज है। वह खेल छूटने पर फिर माफी माँगता है-साहब मैं क्षमा चाहता हूँ। मुझे जुखाम हो गया है। मैंने जानबूझ कर वैसा नहीं किया है। साहब फिर उसे डाँट कर भगा देता है। तीन दिन तक यह क्रम चलता है। बाबू माफी माँगता है, पर साहब नहीं जानते कि माफी किस बात की माँग रहा है। वह अधिकाधिक खीज कर उसे भगाता है। इधर बाबू समझता है कि साहब को बड़े छींटे पड़े होंगे तभी नाराज है। यहाँ तक तो कहानी में एक कॉमिक का वातावरण रहता है। पर जब साहब उसे चपरासी से बाहर निकलवा देता है तब वह सोचता है-अब नौकरी गयी। मेरी बीवी है। तीन बच्चे हैं। इनका पालन कैसे होगा ? इसी घबराहट में वह घर आता है। कुर्सी पर बैठता है और उसके प्राण निकल जाते हैं।
कैसा करुण प्रसंग है। कहानी में चेखव ने इस कठोर नौकरशाही पर चोट की है जिसमें साहब अहंकार के कारण बाबू से पूछता तक नहीं कि तू माफी क्यों माँग रहा है। सिर्फ इतना पूछ लेता तो बाबू की जान नहीं जाती। व्यंग्य के सम्बन्ध में कुछ बातें मैंने यहाँ कहीं, इस मकसद से कि व्यंग्य का मर्म समझने में इनसे कुछ सहायता मिलेगी। -हरिशंकर परसाई