व्यंग्य पर व्यंग्य / गोपालप्रसाद व्यास
आवश्यकता है साहित्य में ऐसे नये ढंग के व्यंग्य की जो तथाकथित सभ्य समाज में खप सके। आज के नामधारी पत्र-पत्रिकाओं में आसानी से छप सके। जिसे 'कॉफी' के साथ पिया जा सके। जो अपने पर छोड़कर सब पर हो। जिसकी चर्चा हर होंठ पर नहीं, लव पर हो।
जी हां लव ! यानी प्यार, 'आइ मीन मोहब्बत'। उस पर भी हावी हो जाए व्यंग्य की कुव्वत। जो अपनी धार से प्यार को भी मिसमार कर दे। जिसे लोगों ने सामाजिकता या 'कल्चर' के विशेषण दिए हैं, उन पर भी कातिलाना वार कर दे। जो जमी हुई सियासत को उखाड़ दे। उखाड़ न सके तो कम-से-कम कागज पर तो उसे पछाड़ दे। जो माया से कहे कि तुम सिर्फ काया हो। काया से कहे कि तुम भी ब्रह्म हो, ब्रह्म से कहे कि ब्रह्मानंदजी तुम कोरे भ्रम हो। जो रूप को कहे अपरूप। अपरूप ही जिसके लिए हो स्वरूप। हर अनगढ़ को बताए अनूप। जैसे पत्रकारिता में होता है 'स्कूप'। डिनर में होता है 'सूप'। कवियों के लिए होता है पनघट वाला सरस कूप। व्यंग्य वैसा ही हो जैसे कोई मिस्र का पिरामिड या भारत का ऐतिहासिक या अनैतिहासिक स्तूप। परंतु वह इनका समर्थक नहीं, 'बाइ नेचर' विरोधी हो। जु़बान का कड़वा और स्वभाव का क्रोधी हो। ज़रूरत है ऐसे व्यंग्य की। बड़ी कमी है साहित्य के इस अंग की। श्रीमतीजी ने नाश्ते में हलवा बनाया है, 'कटलेट' नहीं। मेज पर 'स्टील' का कटोरा है, 'प्लेट' नहीं। कहती हैं-कॉफी नहीं, दूध मिलेगा। पुराना शरीर चाय से नहीं चलेगा। क्या मज़ाक है ? सुबह-सुबह ही यह क्या 'नानसेन्स टाक' है। नये आदमी को चाहिए नया नाश्ता। उसका दूध, मक्खन और हलवे से क्या वास्ता ? दूध बछड़ों का शोषण है। हलवा आज के आदमी के लिए कुपोषण है। इस बात को हर जगह आज़माया जाता है। मक्खन खाया नहीं, लगाया जाता है। पर बड़ी मुश्किल है। अखबार के पाठकों की कलम की तीखी नोंक से, बातूनी झोंक से, जिस्मानी अर्ज़ से, शैली की नई तर्ज़ से बहकाया जा सकता है, पर घर में अपनी बीवी को नाश्ते की मेज पर कैसे समझाया जा सकता है ?
शासन की बात और है, अनुशासन की और। लेखन की बात और है, भाषण की और। भाषण में तो यह बात नये अंदाज से त्यौरी चढ़ाकर, मुंह बिचकाकर बखूबी कही जा सकती है कि साहित्य है क्या बला ? हारमोनियम, सारंगी, ढपली या तबला ? नासमझ लोगों को बहका दिया। ग़मज़दा मासूमों को बहला दिया। सिरफिरों को बरगला दिया। बस, बन गया साहित्य। यही हक़ीकत है। इसके अलावा साहित्य का न कोई मकसद है और न कीमत है। जिसके पास खेती नहीं है, दफ्तर नहीं है, बीवी नहीं है, घर नहीं है, यानी जो बेचारा है, हर तरफ से नाकारा ही नहीं, एक प्रकार से आवारा है, वह लिखे और पढ़े उसे। जिसे कहते हैं साहित्य या अदब अथवा 'लिटरेचर'। यह व्यंग्य नहीं, यथार्थ है। स्वार्थ नहीं, परमार्थ है कि साहित्य से किसी का हित नहीं हुआ। मयख़ाना, साक़ी, प्याला और पैमानों से बहुत नापा, मगर अदब से कोई बाअदब नहीं हुआ। 'लिटरेचर' से लोग धराशायी होकर स्ट्रेचरनशीन ही हुए हैं। कभी समाज के लिए पुरयक़ीन नहीं हुए हैं। साहित्य हमेशा मठों और सिंहासनों का चिलमबरदार ही रहा है। भूखी-नंगी जनता के लिए, सिसकती मानवता के लिए वह सर्वदा निराकार ही रहा है। उसे कंधा नहीं, ठोकर चाहिए। यह कोई ईश्वर या मनुष्य का साम्राज्यवाद नहीं है कि उसे 'जोकर' चाहिए। शाहेईरान गए, रहमान गए, अफगान गए, सुलतान गए। एशिया की ऊसर भूमि में 'कैक्टस' खिल रहे हैं नये-नये। तो व्यंग्य की नोंक तेज़ करो। यूरोप से भारत के लदान के लिए चालू फिर से स्वेज करो। ब्रिटेन से लोकतंत्र, फ्रांस से नंगी मूर्तियां, अफ्रीका से गुलामी, अरबों से अमीरी, हिन्द महासागर से घड़ियाल, घोंघे और केंचुए भारत आने के लिए छटपटा रहे हैं। वे बेवकूफ हैं जो निर्यात के मुकाबले में आयात घटा रहे हैं। चीन ने दरवाजे खोल दिए हैं, तुम कम-से-कम खिड़की तो खोलो। बात-बात में गांधी, गंगा और गीता की जय मत बोलो। देखो, वह देखो, उधर से नहीं, इधर से नई रोशनी आ रही है। तुम्हारी पुराण-पंथिता यानी ज़हालत पर सीना तान खिलखिला रही है।
खिलखिलाहट ! मुस्कान ! इनसे भाषा और साहित्य के ये मुहावरे अब पुराने पड़ गए हैं। लिपी-पुती और मुस्कराती सभ्यता पर व्यंग्य के तेवर चढ़ गए हैं। किंतु व्यंग्य के साथ विनोद। जैसे सांप ने ले लिया हो नेवले को गोद। शिमला समझौते का नवीनतम नमूना, एक कत्था तो दूसरा चूना। नया रंग आएगा। हर चौक, गलियारा और देहरी-दालानों का कोना-कोना, नई-नई पीकों से भर जाएगा। पान भारत की सभ्यता का प्रतीक है। मानो किसी तिरस्कृत, वंचिता और उपेक्षिता को चूसकर उगली हुई का नाम पीक है। रूपक सटीक न हो, किंतु आज के व्यंग्य-विनोद की यही लीक है। कुछ भी कहो, कुछ भी लिखो, सब ठीक है। रेडियो बुलाता नहीं। कवि-सम्मेलनों से निमंत्रण आता नहीं। नौकरी रास आई नहीं, जमा-पूंजी के नाम एक पाई नहीं। बेटा अर्राता है। पत्नी का स्वर भर्राता है। तब कवि कैसे जिए ? व्यंग्य लिखे और शराब पिए।
कविताएं छपती नहीं। कहानियां खपती नहीं। उपन्यास का प्लॉट नहीं। कोई परिचर्चा एलॉट नहीं। तब या तो लिखो कव्वाली या बैठे-ठाले बको गाली। गाली भी व्यंग्य का एक प्रकार है। नये साहित्य में उसी की भरमार है। पेशे से टीचर, लिखने लगे फीचर। जब चढ़ा शनीचर। होगए फटीचर। पूछने लगे अब कैसा लिखता हूं। अब लाला की उधार का हिसाब नहीं, व्यंग्य लिखता हूं।
ओ मेरे बालम ! पत्र-पत्रिकाओं में खुल गए हैं व्यंग्य-विनोद के कालम। कलम-कुल्हाड़ा उठाओ। श्रोताओं की खोपड़ी पर आज़माओ। फोटो के साथ लेख भी निकल जाएगा। गंजों की ज़मात का कोई पुरस्कार तुम्हें भी मिल जाएगा।
नेता पर लिखो। अभिनेता पर लिखो। नेशनल से लेकर इंटरनेशनल पुरस्कार-विजेता पर लिखो। चूरन-चटनी से लेकर पुस्तक-विक्रेता पर लिखो। मंत्री पर लिखो। संतरी पर लिखो। जन्मपत्री पर लिखो। जंत्री पर लिखो। रेल पर लिखो। ढकेल पर लिखो। सैकिंड हैंड सेल पर लिखो और कुछ न लिख सको तो ऊंट की नकेल पर लिखो। उनकी 'नो' पर लिखो, इनकी 'यस' पर लिखो। लड़ती रेल पर लिखो, भिड़ती बस पर लिखो। लिखो अमरूद पर, केले पर। लिखो भीड़ पर, अकेले पर। आदमी को लिखो कद्दू। बुद्धिजीवी को बुद्धू। विचारक को पोंगा और प्रचारक को पद्दू। कहो, आदमी पद्दू से ही पद्मसिंह बनता है और ऐसे ही नर-रत्न पर पद्मश्री का ख़िताब खिलता है। आदमी को लिखो भेड़ और भेड़ को लिखो समर्थक। समर्थक को लिखो चमचा और बाकी को लिखो निरर्थक। कहो, समाज में बड़ी विषमता है। केंचुआई सभ्यता का जीव कीचड़ पर ही जमता है। कुछ रोमांस, कुछ गीत, कुछ डांस, कुछ आंसू, कुछ दर्द। लिखो मेरे कवि, कलाकार यानी नामर्द होकर बेलौस। यथार्थ को भोगो और कहो यह है 'पैथोस'।
साहित्य बाजीगर का पिटारा है। वही बैठे-ठाले लोगों का एकमात्र सहारा है। इस पर पहले हंसो, फिर फब्तियां कसो। व्यंग्य बन जाएगा। नाम सुर्खियों में तन जाएगा। कहो, राजनीति वेश्या है और हम हैं तबलची। हमारी ही संगत से उसके घुंघरू छनकते हैं। इसका आशय समझो कि हम हैं मौलिक ओर वे हैं नकलची। कहो, अर्थ की कमी दूर करने का नाम मदिरालय, गोमांसालय है। विद्यालय का नया नाम रोमांसालय है। सयानी लड़कियां यहां इसलिए आती हैं कि वे अधिक-से-अधिक माता-पिताओं की नज़रों से दूर रहें। लड़के इसलिए आते हैं कि 'एलएसडी' के नशे में चूर रहें। अध्यापक पुस्तकें नहीं पढ़ाते, उन्हें यथार्थ जीवन जीना सिखाते हैं। शकुंतला से लेकर उर्वशी तक का प्रेक्टीकल कराते हैं। सिनेमा कुंज-गृह और रेस्तरां है संकेत-स्थल। हिन्दी भी कोई जुबान है, अंग्रेजी भाषा और साहित्य ही है निर्मल गंगाजल।
लिखो कि ज़माना बदल रहा है। देश नारों और नक्कारों से चल रहा है। करोड़ों लोग भूखे सोते हैं, मगर अन्न का उत्पादन बढ़ रहा है। आर्थिक समृद्धि हो रही है, इसीलिए सोने का भाव चढ़ रहा है। वायदों में क्या रखा है, कायदों के नारे बुलंद करो। अख़बारों को ही नहीं, गुंडों को भी स्वच्छंद करो। नाश गरीबी का तो होगया। अब गरीबों की बारी है। घोड़े की घास से पुरानी यारी है। भारत के आंकड़ेबाज इस बात पर आमादा हैं। देश में शेर अधिक है या गीदड़ ज्य़ादा है। लेकिन बात को सीधी या सपाट कहना व्यंग्य नहीं। इसमें 'हयूमर या 'आइरनी' का रंग नहीं। तीर बाघिन पर नहीं, भैंस पर तानो। दुश्मन मत्सर को नहीं, मच्छर को पहचानो। नारी को नागिन नहीं, छिपकली जानो। फाउंटेनपेन की ट्यूब नहीं 'परखनली' मानो। नई कृति से नये शिशु को जन्म दो मेरे राजा ! तभी बज सकेगा तुम्हारे व्यंग्य-विनोद का बाजा।