व्यक्तिगत आलोचना / भारत यायावर
आज सुबह उठा तो बाहर घना कोहरा छाया हुआ था। दूर की चीज़ें दिखाई नहीं दे रही थीं। ऐसे में कहीं जाने की इच्छा भी नहीं हो रही थी। अचानक दुष्यन्त कुमार की ग़ज़ल के ये शेर गुनगुनाने लगा :
मत कहो आकाश में कुहरा घना है यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से क्या करोगे सूर्य को क्या देखना है
ये पँक्तियाँ यदा-कदा मैं गुनगुनाता रहा हूँ। बहुत अच्छी लगती रही हैं। इनका नज़ीर के रूप में भी प्रयोग करता रहा हूँ। लेकिन सही अर्थ क्या है , कभी जानने की कोशिश नहीं की। आकाश में कोहरा छाया हुआ है, कहना किसी की व्यक्तिगत आलोचना कैसे हो सकती है ? यदि आलोचना है तो कहने में सँकोच या भय कैसा? क्यों सूर्य को देखने की जरूरत नहीं? इन सीधी - सरल पंक्तियों के अर्थ और मर्म को समझ नहीं पा रहा हूँ ?
हिन्दी कविता के दो तेजस्वी कवि धूमिल और दुष्यन्त कुमार की काव्य -पँक्तियाँ विद्यार्थी जीवन से ही हमारी कवि पीढ़ी की ज़ुबान पर रही हैं। जब आठवें दशक में मैं कवि समाज में उपस्थित हुआ, तब ये दोनों कवि दिवँगत हो चुके थे। १९७५ ई० में देश में आपातकाल लगने के पहले धूमिल और बाद में दुष्यन्त कुमार का देहावसान हो गया था। फिर भी लम्बे समय तक इनका प्रभाव बना हुआ था। हमारी कविता के पँख उसी प्रभाव और ऊष्मा से प्रकट हुए थे और उड़ान भरने की लालसा भी बलवती हुई थी। यह पीड़ा और तड़प का दौर था। बदहाल समाज और फटेहाल देश में चीख़-पुकार सुनकर कवि हृदय की विकलता कविताओं के रूप में प्रकट हो रही थी। सत्ता का दमनकारी और विद्रूप चेहरा दहशत का माहौल रच रहा था। इसलिए उस दौर को याद करना एक काले अध्याय से गुज़रने जैसा है।
कभी-कभी कविता अपने अर्थ से, नहीं बल्कि सन्दर्भ से समझ में आती है। धूमिल और दुष्यन्त कुमार की कविताओं का संदर्भ इन्दिरा गान्धी का निरँकुश शासन काल है।
चारों तरफ आकाश में कोहरा भरा है। आप ठीक से देख नहीं सकते। ठीक से कहीं आ - जा नहीं सकते। ठीक से जीवनयापन नहीं कर सकते। सूर्यविहीन जीवन जीने को अभिशप्त हों। सूर्य जो ऊर्जा, ऊष्मा, रोशनी, दृष्टि और समस्त क्रिया-कलापों तथा गतिविधियों के केन्द्र में है, उसे नहीं देख पाने की पीड़ा भरी कसक है। यदि आप धुन्ध और धुएँ भरे माहौल के बारे में कुछ कहते हैं तो यह सत्ताधारिणी लौहकायी माता की आलोचना हो जाएगी।
आज उन सन्दर्भों के परिप्रेक्ष्य में ही उन कविताओं के मर्म को समझने की कोशिश होनी चाहिए। हर रचना का एक काल सन्दर्भ है। कोई महान रचना कालबद्ध होकर ही कालातीत होती है। व्यक्तिगत लाभ-लोभ के चक्कर में पड़कर लिखने वालों को मुक्तिबोध की कविता ’भूल - ग़लती’ बार-बार पढ़नी चाहिए और विचार करना चाहिए कि सत्यनिष्ठा की जगह कहीं हम अपने हृदय के तख़्त पर झूठ को बिठाकर एक व्यूह तो नहीं रच रहे हैं।