व्यक्तित्व का उन्नयन एवं साहित्य / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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सबसे पहले व्यक्ति और विकास की व्युत्पत्ति को समझ लिया जाए। वामन शिवराम आप्टे के संस्कृत हिन्दी शब्दकोश के अनुसार-

अक्त, व्यक्त, व्यक्ति ये तीन शब्द हैं। अञ्ज् धातु से यह यात्रा आरम्भ होती है-

1-अञ्ज्= अक्त-स्पष्ट करना, चित्रण करना आदि

2-व्यक्त= [वि+अञ्ज्+क्त] प्रदर्शित, विकसित, प्रकट, विख्यात, अकेला मनुष्य

3-व्यक्ति= [वि+अञ्ज्+क्तिन=दृश्यमान]

4- (अभि+वि+अक्त=अभिव्यक्त)

इस व्यक्ति की जो पहचान एक दृष्टिपात में बनती है, वही व्यक्तित्व है। व्यापक रूप से बात की जाए, तो व्यक्ति केवल वह नहीं होता है, जो प्रकट है, जो दृश्यमान है। जो हमें बाहर दिखाई देता है, वह उसकी बाह्य प्रकृति है, सम्पूर्णता तो वह है, जो उसके अन्त: और बाह्य व्यक्तित्व से मिलकर बनती है। बाहर जो दृष्टिगत हो रहा है, वह उसका हाव जगत् है, चेष्टा-जगत् है, अन्तर्जगत् यानी भाव-कल्पना-मंथन, अन्तर्द्वन्द्व आदि बहुत से कारक ऐसे हैं, जो सरलता से नहीं जाने जा सकते।

1-विकास शब्द की व्युत्पत्ति:

I-कास्-भवादिगण, आत्मनेपद-कासते-कासित=चमकना,

II-विकास- (वि+कस्+घञ्)

1-विकास का स्वरूप निरन्तर बदलता रहता है। उद्देश्य के साथ इसके सोपान भी अलग-अलग हो सकते हैं। जीवन की विभिन्न परिस्थितियाँ इसकी दशा और दिशा का निर्धारण करती हैं, जिनमें प्रमुख हैं-घर-परिवार, (ब) समाज, (स) वैश्विक दृष्टिकोण, (द) प्रतिरोध शक्तियाँ, (य) मानसिक स्तर।

ये उपर्युक्त कारक व्यक्ति को प्रभावित करते हैं। जैसा व्यक्ति का मानसिक स्तर होगा, विषम परिस्थितियों से जूझने की जितनी किसी व्यक्ति की शक्ति होगी, जिस परिवेश में व्यक्ति पोषित हुआ होगा उसी प्रकार का उसका व्यक्तित्व बनेगा।

2-व्यक्ति की ग्रहणशीलता और उसको क्रियान्वित करने की क्षमता-परिवेश, घटनाक्रम और जीवन के प्रति दृष्टि से प्रभावित होते हैं। परिवेश और जीवन में आने वाले घटनाक्रम और जीवन के प्रति जैसा दृष्टिकोण होगा, वैसा ही व्यक्तित्व निर्मित होगा। कुछ लोग प्रतिरोधी घटनाओं और शक्ति के सामने समर्पण कर देते हैं, जिससे उनके विकास की गति अवरुद्ध हो जाती है। व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक है, निरन्तर प्रयासरत रहना, विषम परिस्थितियों का सामना करने की शक्ति को बनए रखना।

3-व्यक्ति को कार्यक्षेत्र में जो सफलता मिलती है, वही उसकी आधारभूमि बनती है। उसके लिए ये गुण आवश्यक हैं-1. कर्मठता, 2. ईमानदारी, 3. नि: स्वार्थपरता, 4. सकारात्मक दृष्टि का सहज ग्राह्य रूप के साथ स्वयं को भी समझना ज़रूरी है। कर्म इन सबका मूलभूत सूत्र है। बिना कर्म के इस संसार में कुछ भी नहीं मिलता।

मानस में कहा है-सकल पदारथ हैं जग माहीं, करमहीन नर पावत नाहीं।

आँख बन्द करके दूसरों के अनुगामी बनेंगे, तो कल्याण नहीं होगा। सोच समझकर आगे बढ़ना आवश्यक है, वह तभी संभव है, जब हम स्वयं में नेतृत्व पैदा करें, किसी के पिछलग्गू न बनें।

हमारा अध्ययन-कक्ष:

हमें प्रेरक पुस्तकों का अध्ययन और मनन करना चाहिए। हमारे वेद उपनिषद्, गीता, रामचरित मानस आदि ऐसे ग्रन्थ हैं, जो साहित्य और समाज के लिए आज भी उत्प्रेरक का काम कर रहे हैं। साहित्य के पात्र हमारे अदृश्य साथी हैं, जो हमारे जीवन के कठिन पलों में हमारे बड़े सहायक होते हैं। ये विषम परिस्थिति में भी हमें निराश नहीं होने देते। निराशा के क्षणों में हमारा स्वर्णिम अतीत प्रेरणा और सम्मान की भावना भाव जगाता है। साहित्य के क्षेत्र में ऐसा बहुत-सा सर्जन है, जो हमारे लिए नित्य प्रेरणा का स्रोत बनकर हमें सुदृढ़ करता है। साहित्य के पात्र वे परम मित्र हैं जो हमारा पथ प्रशस्त करते हैं। कहानियों में प्रसाद की 'पुरस्कार' का देश प्रेम, 'गुण्डा' कहानी के नन्हकू सिंह का प्रेम और त्याग, प्रेमचन्द की 'नमक का दरोगा' ईमानदारी, बड़े घर की बेटी का पारिवारिक सामंजस्य, 'मन्त्र' की मानवीय मूल्य की उदात्तता, गुलेरी की उसने कहा था-प्रेम का उत्कृष्ट उदाहरण बनकर हमें राह दिखाती हैं। ऐसी सैंकड़ों कहानियाँ भारतीय साहित्य का शृंगार बनी हुई हैं।

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता 'आज पहली बार' में हवा के माध्यम से प्रेरित किया है। वह गुण है, दूसरों को सुख देना-

आज पहली बार / थकी शीतल हवा ने / शीश मेरा उठाकर

चुपचाप अपनी गोद में रक्खा, / और जलते हुए मस्तक पर / काँपता-सा हाथ रखकर कहा-

XX

पराजय नें मुझे शीतल किया / और हर भटकाव ने गति दी; / नहीं कोई था / इसी से सब हो गए मेरे /

मैं स्वयं को बाँटती ही फिरी / किसी ने मुझको नहीं यति दी"

लगा मुझको उठा कर कोई खड़ा कर गया / और मेरे दर्द को मुझसे बड़ा कर गया / आज पहली बार।

भवानीप्रसाद मिश्र, अज्ञेय आदि के काव्य में सैंकड़ों सुवासित पुष्प्प मिल जाएँगे। सत्साहित्य सद्गुणों के सहज विकास के द्वारा व्यक्तित्व को निखारने में अपनी भूमिका निभाते हैं। सफलता पाने के लिए विचारों में एवं कर्म में सामंजस्य का होना अनिवार्य है।

जीवन में विश्वास का बहुत महत्त्व है, पर अन्धविश्वास का नहीं। विश्वास आँख मूँदकर नहीं। स्वयं को विश्वसनीय बनाइए। विश्वास से तात्पर्य अपने से जुड़े लोगों में विश्वास जगाना है, लेकिन इस बात का भी ध्यान रहे कि अविश्वासी पर तो विश्वास न करें, लेकिन जो विश्वस्त है उस पर भी आँख बन्द करके विश्वास न करें।

न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्तेऽपि नातिविश्वसेत्। -महाभारत उद्योग पर्व (विदुर नीति)

कुछ भी बनने से पहले स्वयं को विश्वसनीय बनाइए। आपके मित्र विश्वसनीय हों, यह आवश्यक है, तभी आप सही मार्ग पर अग्रसर हो सकेंगे। पीठ पीछे निन्दा करने वाले तथाकथित मित्रो का त्याग करना अनिवार्य है-

परोक्षे कार्यहन्तारं, प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्। वर्जयेत्तादृशं मित्रं, विषकुम्भं पयोमुखम्। -चाणक्य नीति

विकास का अपना महत्त्व है; लेकिन इसका तात्पर्य पहाड़ी के ढलान पर ताबड़तोड़ दौड़ लगाकर उतरना नहीं। विकास का वास्तविक अर्थ है-जीवन में सब कुछ ग्राह्य नहीं। जो उपयुक्त और सर्वहितकारी है, उसी का चयन आवश्यक है। जो गुणधर्म हमें माँजते हैं, मज़बूत बनाते हैं, उन्हें अपनाना, जो हमारे जीवन लिए बाधक है, अभिनन्दनीय नहीं हैं, उनका परित्याग करना आवश्यक है। निष्कर्षत: जो जीवन मूल्य हमारे राष्ट्र के लिए अहितकर हैं, उनका परित्याग आवश्यक है। परिवार को ही सर्वस्व समझ लेना, राष्ट्र हित में सबसे बड़ी बाधा है। राष्ट्र सर्वोपरि उसके बाद ही समाज है और समाज के बाद हम हैं। राष्ट्र की उन्नति और उपलब्धि से ईर्ष्या, राष्ट्र की उपेक्षा है। हमारी उपलब्धियों से देश की गरिमा की भावना जुड़ी है। किसी भी प्रकार की घृणा को अपने ऊपर हावी न होने दें।

विवेक और अविवेक में चिन्तन का अन्तर है-गुरुत्वाकर्षण की बात करेंगे और भूमि तत्त्व को नकारेंगे, ज्वार-भाटा को मानेंगे और चन्द्रमा की पूजा (पूजा से तात्पर्य उसकी वैज्ञानिक अनिवार्यता को समझना) को हास्यास्पद बताएँगे। इनसे मिलने वाली प्रेरणा और शक्ति का उपहास करेंगे। पर्यावरण को महत्त्वपूर्ण मानेंगे, लेकिन नदी, वृक्ष, पर्वत सबको दूषित करेंगे। दिनचर्या (सुबह जागने से लेकर रात में सोने तक) का क्या महत्त्व है? इसका आरम्भ बिस्तरे से उतरकर धरती का स्पर्श करते ही आरम्भ हो जाता है-

समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले।

विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व में।

(समुद्ररूपी वस्त्र धारण करनेवाली, पर्वतरूपी स्तनोंवाली एवं भगवान श्रीविष्णु की पत्नी हे भूमिदेवी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। मैरे पैरों का आपको स्पर्श होगा। इसके लिए आप मुझे क्षमा करें।) । भूकम्प से लेकर प्रलय तक के कितने आघात पृथ्वी सहन करती है, हमारा पोषण करती है, अपनी वनस्पति और नदियों से हमको जीवन-दान देती है, हमें इसके लिए कृतज्ञ होना चाहिए। यह कृतज्ञता हमारे व्यक्तित्व की शक्ति और संस्कार बनकर हमें तेजोमय बनाती है।

स्वास्थ्य के लिए सजग और सचेत रहना सारे धर्मों का साधन है। बीमार व्यक्ति (शरीर और मन दोनों से) उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कर्म की उपेक्षा करके चाहे जितने मन्त्रों का जाप करे, उसे सफलता नहीं मिलेगी। कुमार सम्भव-में कालिदास ने शिव के माध्यम से पार्वती को कहा है-

शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम् 2-38

इस धर्म शब्द को रिलीज़न के अर्थ में कदापि न लीजिएगा। धर्म से तात्पर्य धारण करने वाले, अपनाने वाले-वाले कार्य हैं।

धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।

धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌॥ (मनुस्‍मृति 6.93)

-धृति (धैर्य) , क्षमा (अपना अपकार करने वाले का भी उपकार करना) , दम (हमेशा संयम से धर्म में लगे रहना) , अस्तेय (चोरी न करना) , शौच (भीतर और बाहर की पवित्रता) , इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियों को हमेशा धर्माचरण में लगाना) , धी (सत्कर्मों से बुद्धि को बढ़ाना) , विद्या (यथार्थ ज्ञान लेना) , सत्यं (हमेशा सत्य का आचरण करना) और अक्रोध (क्रोध को छोड़कर हमेशा शांत रहना) । यही धर्म के दस लक्षण है। अविद्या, क्रोध और असंयम के कारण किसी के प्राण ले लेना कभी धर्म नहीं होता। अत्याचार होते देखकर उसका प्रतिकार करने के लिए क्रोध करना बुरा नहीं। इस प्रकार के सात्त्विक क्रोध को मन्यु कहा जाता है।

विद्या और सत्य विद्या में अन्तर है। जो तात्कालिक ज्ञान है, वह उस समय के लिए विद्या है। व्यक्ति का धर्म है निरन्तर जीवन के सत्य की खोज करना। अज्ञान, हटवादिता और कूप मण्डूकता ने इस संसार का बहुत अहित किया है। बहुत से सम्प्रदाय आज भी अवैज्ञानिक सोच के अंधकार में खोए हैं। कुछ मतान्ध तो आज भी उन्हीं रूढ़ियों में जकड़े हैं। भारतीय मनीषी सदा ॠत् अर्थात् सार्वभौम सत्य के लिए अग्रसर रहे हैं। ईशोपनिषद् का यह श्लोक उसी सत्य विद्या का समर्थक है। अविद्या का अनुसरण करने वाले घोर अन्धकार में गिरते हैं, लेकिन केवल विद्या की उपासना तक सीमित रहने वाले और घने अन्धकार को प्राप्त होते हैं। उन्हें चाहिए कि वे सत्य का अनुसन्धान करें। कुछ नया करने और निरपेक्ष भाव से नया सीखने का प्रयास ही हमारे व्यक्तित्व को निखारता है-

ॐ अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते।

ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायाँ रताः॥9॥ यजुर्वेद 40-12

जयशंकर प्रसाद यही बात इस प्रकार कहते हैं-

इस पथ का उद्देश्य नहीं है, श्रान्त भवन में टिक जाना,

किन्तु पहुँचना उस सीमा तक, जिसके आगे राह नहीं है।

लोभ हमारा बड़ा शत्रु है। हमारे हृदय में त्याग की भावना होनी चाहिए। किसी के धन को हड़पने का लालच नहीं होना चाहिए। जो सार्वजनिक सम्पत्ति की लूट में शामिल हैं, वे इसका दण्ड भी भोगते हैं। जनसेवक के रूप में अनगिन लुटेरे देश को कमज़ोर कर रहे हैं। ईशावास्योपनिषद् में कहा है-

ॐ ईशावास्यं इदं सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत।

तेन त्यक्तेन भुञ्जिथाः मा गृधः कस्य स्विद् धनम्॥ ईशावास्योपनिषद्

जो भी इस जगत् में है, वह सब ईश्वर से व्याप्त है। उनका त्याग करते हुए भोग करो, किसी और के धन का लालच मत करो।

वेदों में हमारे जीव-पथ के विषय में स्पष्ट रूप से बताया है कि हमें सूर्य और चन्द्रमा की तरह कल्याणकारी मार्ग पर ही चलना चाहिए। सूर्य-चन्द्रमा कभी अपने पथ से विचलित नहीं होते-

स्वस्ति पन्थामनु चरेम सूर्याचन्द्रमसाविव।

पुनर्ददताघ्नता जानता सङ्गमेमहि॥ स्वस्तिवाचनम्- (ऋग्वेद) मण्डल 5 / सूक्त 511 / मन्त्र14

हम लोग सूर्य और चन्द्रमा की तरह कल्याणकारी मार्गों पर चलने वाले हों और ज्ञान देकर सुमार्ग बतलाने वाले विद्वान् लोगों की संगति करें। जैसे सूर्य और चंद्रमा नियमपूर्वक दिन-रात अपने पथ पर चलकर सृष्टि को सुख देते हैं, हम भी उसी प्रकार विद्वानों के संङ्ग रहकर निरन्तर धर्म मार्ग पर चलें।

उदात्त मानवीय मूल्यों के विकास के लिए आवश्यक है कि हम किसी के अहित का चिन्तन कभी न करें। वायु का मधुर संचार हो, नदियों का जल माधुर्य युक्त हो, हमारी वनस्पतियाँ, हमारे रात-दिन, पृथ्वी की रज, हमारा द्युलोक सब माधुर्य से पूरित हों। यह कल्याण-कामना किसी व्यक्ति, देश और समाज के लिए नहीं, वरन् पूरे जीव-जगत् के लिए है-

मधु वाता ॠतायते, मधु क्षरन्ति सिन्धव, माध्वी न सन्तु औषधी-म-अ-सू-मंत्र-1-14-90-6

मधुनक्तमुतोषसो मधुम्त्पार्थिवं रज, मधु द्यौरस्तु नः पिता॥ म-अ-सू-मंत्र-1-14-90-6

ऐसा कब और कैसे होगा? जब हमारा मन शिव संकल्प से युक्त होगा, केवल तभी। लोग किसी को नष्ट करने का संकल्प भी लेते हैं। यहाँ तो काम्य है-केवल शुभ संकल्प। सोने से पूर्व के लिए यजुर्वेद का यह मन्त्र देखिए-

ओ3म् यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति।

दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥- (यजुर्वेद 34 / 1)

संकल्प से सब सम्भव है-

संकल्प जगें तो पर्वत भी हिल जाया करते हैं,

टूट-टूटकर शिखर धूल में मिलजाया करते हैं।

मरुभूमि में सहचरी बन, सरिता हरियाली भरती

हथेली पर काँटों की फूल खिल जाया करते हैं। रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

व्यक्तित्व के उन्नयन के लिए शिव संकल्प कब होगा? जब हमारी बुद्धि-मेधा रूप में होगी। बुद्धि तो चोर उचक्के और ठग में भी होती है, षड्यन्त्र करने वालों में भी होती है, लेकिन मेधा का स्वरूप अमरकोश में यह है-धीर्दधारणावती मेधा। (जो धारण करने योग्य बुद्धि हो, उसे ही मेधा कह सकते हैं।) उसी मेधा की कामना की गई है-

यां मेधां देवगणा: पितरश्चोपासते।

तया मामद्य मेधयाग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा॥-यजुर्वेद (32 / 14) -हे मेधावी परमात्मा! जिस मेधा–बुद्धि की उपासना और याचना हमारे देवगण, ऋषिगण तथा पितृगण सर्वदा से करते चले आए हैं, वही मेधा, वही बुद्धि हमें प्रदान कीजिए।

सुख और दुख हमारे जीवन में महती भूमिका निभाते हैं। दोनों ही व्यक्तित्व का परिमार्जन करते हैं। जीवन की परीक्षाएँ हमें सुदृढ़ बनाती हैं। मनुस्मृति में कहा है कि जो अपने वश में है वह सुख है, जो परवश में है वह दुख है-

सर्वं परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम्।

एतद् विद्यात् समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः॥-मनुस्मृतिः 4.159

सुख-दुःख हमारे जीवन की अनिवार्यताएँ हैं। सुख में बल्लियों उछलना और दुःख में रोकर स्वय और दूसरों को दुखी करना हमारे व्यक्तित्ब को दुर्बल बनाता है। इन सबसे निर्लिप्त रहकर ही जीवन का युद्ध जीता जा सकता है। गीता के अनुसार-

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।

ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥ 2-38॥

इसे निदा फ़ाज़ली ने डाकिये के माध्यम से बहुत खूबसूरती से इस प्रकार व्यक्त किया–

सीधा-सादा डाकिया, जादू करे महान।

एक ही थैले में भरे, आँसू और मुस्कान॥

अभिमान के स्थान पर स्वाभिमान को महत्त्व दें। यह तभी सम्भव है, जब हम सन्मार्ग पर चलने का निश्चय करें। बहुत से नीतिनिपुण लोग निन्दा करके हमार पथ अवरुद्ध करेंगे, लेकिन हमें न्याय के मार्ग से विचलित नहीं होना है-

निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु

लक्ष्मी: समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्। ‬

‪अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा, ‬‬‬‬

न्याय्यात्पथ: प्रविचलन्ति पथं न धीरा‬‬‬‬।

अगर हम अपने कार्य में असफल हों, तो निराश होकर न बैठें। असफलता के कारण की खोज करें और उसका निवारण करें। सुकेश साहनी की 'चिड़िया' और डॉ. कविता भट्ट की 'फिर से तैयारी' लघुकथाएँ और 'दुःख पास बैठाने की चीज़ नहीं है'-डॉ सुषमा गुप्ता- चिन्तन (गद्यकोश) ऐसी ही रचनाएँ हैं। 'चिड़िया' में आत्महत्या के लिए अग्रसर व्यक्ति को अपना नकारात्मक इरादा छोड़ना पड़ता है, 'फिर से तैयारी-जिसमें व्यवस्था और शिक्षा नाम के दो प्रतीकात्मक पात्रों का टकराव है। शिक्षा असफल होने पर कुछ पल के लिए निराश होती है, किन्तु कुछ देर बाद ही स्वयं को सँभाल लेती है। व्यवस्था (जुगाड़) से लाभ उठाने वाले किसी के सकारात्मक निश्चय को सदा के लिए खण्डित नहीं कर सकते। फिर से तैयारी'उनको पुनः आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। 'दुःख पास बैठाने की चीज़ नहीं है' का सन्देश है–' छल- भरे सब दुखों को सीने पर चट्टान की तरह बिठाए रखते हैं और अपनों के मासूम दुःख हमें कभी-कभी याद आते हैं। '

जीवन सुवासित हो इसके लिए सकारात्मक चिन्तन बहुत आवश्यक है, अत: जब सोचना हो, तो सकारात्मक ही सोचिए। अपने आँगन में एक अगरबत्ती जलाएँगे, तो उसकी सुगन्ध पड़ोस तक जाएगी। अँधियारे में चौखट पर एक दिया जलाएँगे, तो पूरा आँगन जाग उठेगा। एक मधुर गीत गाएँगे, तो हवा भी साथ में गा उठेगी। हमें थककर नहीं बैठ जाना। दिनकर जी के शब्दों में-

यह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नहीं है

थक कर बैठ गये क्या भाई मंज़िल दूर नहीं है।

XX

1946 में रची दिनकर जी की 'रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद' में जो चुनौती दी थी, उसकी अनुगूँज देखिए जो 23 अगस्त 2023 को साकार हो गई।

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी कल्पना की जीभ में भी धार होती है,

वाण ही होते विचारों के नहीं केवल, स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।

XX

स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे, " रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,

रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को, स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।

इसलिए मेरा कथन है कि कभी निराश न हों। बादल कुछ समय के लिए सूर्य की किरणों को धरती पर आने से रोकने का प्रयास करता है, लेकिन उसका यह प्रयास अल्पजीवी होता है। सूर्य की किरणें बादलों को चीरकर धरती पर उजाला फैला देती हैं। इसी प्रकार हमारे जीवन में दुःखद क्षण आते हैं। वे हमारी खुशियों को प्रकट होने से रोकते हैं। कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो चेहरा लटकाए रोनी सूरत बनाए नजर आएँगे। लगता है सारी दुनिया का दुख उनके सिर पर सवार है। उनसे जब मिलिए, तभी अपने विभिन्न प्रकार के दु: खों का पोथी-पत्रा खोलकर बैठ जाएँगे। सामने वाला भी दिल पर बोझ लेकर उनके पास से उठता है। यह जीवन जीने का नकारात्मक दृष्टिकोण है। कुछ लोग काम बाद में शुरू करते हैं, असफल रहने की आशंका का बीज पहले ही मन में बो लेते हैं। आशंका का वह काल्पनिक वृक्ष पराजय को सुदृढ़ कर देता है। जो बाजी जीती जा सकती थी, उसे शुरू होने से पहले ही हार जाते हैं। आज के किशोर एवं युवा मन को यह काल्पनिक पराजय अधिक पराजित करती है। हम हारने से पहले अपने मन के 'प्लेग्राउण्ड' में हार जाते है। इस बीमार मानसिकता से बचना होगा। गीतकार समीर ने कहा है-

जग अभी जीता नहीं है, मैं अभी हारा नहीं हूँ।

फैसला होने से पहले हार क्यों स्वीकार कर लूँ।

जीवन में कदम-कदम पर परीक्षाएँ होती है। शिक्षा-जगत् की परीक्षा में उत्कृष्ट अंक पाने वाले भी जीवन की विभिन्न परीक्षाओं में धूल चाटते नजर आएँगे। ऐसे बहुत से व्यक्ति भी मिल जाएँगे, जिन्होंने जीवन में बहुत अच्छा शैक्षिक प्रदर्शन नहीं किया; लेकिन दृढ़ इच्छा शक्ति से जो चाहा, सो पाया। जीवन की व्यावहारिक पाठशाला ने उनकी उन्नति के द्वार खोल दिए।

ईश्वर जब सफलताओं का एक द्वार बन्द करता है, तो हजार द्वार खोल देता है। निराशा के कारण हमारी दृष्टि केवल बन्द द्वार पर लगी रहती है। आस-पास खुले हजारों द्वारों पर नहीं जाती। ऐसा क्यों होता है? निराशा और संकट हमारे मन की एकाग्रता छीन लेते हैं। यदि मन विचलित न हो, तो संकट से निकलने का कोई न कोई उपाय हमें सूझ ही जाएगा। कठिनाइयों में व्यक्ति की बुद्धि निखरती है; इसीलिए अत्यन्त अभाव में जीवन व्यतीत करने वाले उर्दू के शायर जिगर मुरादाबादी ने साहिल (किनारे) के स्थिर जीवन की अपेक्षा सागर के तूफानी जीवन को महत्त्वपूर्ण माना है-

सागर की ज़िन्दगी पर सदके हजार जानें।

मुझको नहीं गवारा साहिल की मौत करना॥

कवि हस्तीमल 'हस्ती' कठिनाइयों के सामने डटे रहने की प्रेरणा देते हैं-

ख़ुद-ब-ख़ुद हमवार हर इक रास्ता हो जाएगा।

मुश्किलों के रूबरू जब हौसला हो जाएगा॥

तुम हवाएँ लेके आओ, मैं जलाता हूँ चिराग़

किसमें कितना दम है यारो, फ़ैसला हो जाएगा।

दुष्यन्त कुमार ने दृढ़ निश्चय की शक्ति को इस रूप में अभिव्यक्त किया है-

इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है

नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है। (साये में धूप)

जीवन रूपी नदी की लहरों से टकराना ही जीवन है। अगर कोई हँसकर जीना चाहता है, तो उसे कोई रोक नहीं सकता, लेकिन उसे अपने व्यक्तित्व में मनसा, वाचा, कर्मणा से कार्य करने का संकल्प लेना होगा। मैं तो यही कहना चाहूँगा—

1-डूबे तो मझधार बहुत हैं। दु: ख के पारावार बहुत हैं॥

जो हँसकर के जीना चाहे। खुशियों के उजियार बहुत हैं॥

2-संकल्प जगें तो पर्वत भी हिल जाया करते हैं,

टूट-टूटकर शिखर धूल में मिलजाया करते हैं।

मरुभूमि में सहचरी बन, सरिता हरियाली भरती

हथेली पर काँटों की फूल खिल जाया करते हैं। (रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' कविताकोश)

जीवन की आप्पाधापी से दूर रहें। इन्द्र अग्नि, आदि के लिए हवन के कुछ मन्त्र हैं, जिनमें 'इदन्न मम' की आवृत्ति है, उसकी व्यापकता है-इदम् न मम-यह मेरे लिए नहीं, वरन सबके लिए है-ॐ अग्नये स्वाहा। इदं अग्नये इदं न मम॥

जीवन में संगति का बहुत महत्त्व है। यह किसी भी व्यक्ति के आचरण को बदल सकती है, कुसंगति भले व्यक्ति को भी पथभ्रष्ट कर सकती है। मानस का यह प्रसंग देखिए-

बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ बिधाता॥

नरक में रहना वरन्‌ अच्छा है, परंतु विधाता दुष्ट का संग (कभी) न दे।

हमारा व्यवहार भेदभावपूर्ण न होकर साम्यभाव से युक्त हो, तभी हमारा व्यक्तित्व निखर सकता है, तभी हम अपने समाज से गहराई से जुड़ सकते हैं। मानस में इसकी एक झलक देखिए-

राजघाट सब बिधि सुंदर बर। मज्जहिं तहाँ बरन चारिउ नर॥

पद और सत्ता का अंहकार व्यक्तित्व को पतनशीलता की ओर ले जाता है। परिश्रम की उपेक्षा व्यक्ति को दुर्बल बनाती है। तुलसी दास जी ने भरत की परिश्रमशीलता के विषय में कहा है-भरत ने अपने हाथों से जो वस्त्र बनाए थे, वे सबसे पहली बार सुग्रीव को पहनाए।

सुग्रीवहि प्रथमहिं पहिराए। बसन भरत निज हाथ बनाए॥ -भरत ने अपने हाथों से जो वस्त्र बनाए थे, वे सबसे पहली बार सुग्रीव को पहनाए।

अन्त में मैं यही कहना है कि हम जितना संकल्पित होंगे, उतनी ही ऊँचाई का स्पर्श करेंगे। जीवन में आने वाली बाधाएँ हमारी परीक्षा के अलग-अलग सत्र हैं, जिनको पार करके हमें आगे बढ़ना है। यह आगे बढ़ना ही व्यक्तित्व को गढ़ना है, अन्त: और बाह्य दोनों रूपों में, मन के शिव संकल्प के द्वारा-

भोर हुए जो सूरज निकला, उसको तो ढल जाना है।

माटी की नौका ले निकले, उसको तो गल जाना है॥

धूल-बवंडर आँधी-पानी, सब तो पथ में आएँगे।

इनसे होकर चलते जाना, हमने मन में ठाना है॥ (रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' -कविताकोश)

उच्चकोटि के व्यक्ति के कर्म के केन्द्र में परोपकार का भाव होना चाहिए, क्योंकि इसी से पुण्य का सूत्रपात होता है।

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्। परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्।

हमारी उत्कृष्ट प्रार्थना क्या हो, जो हमारे व्यक्तित्व को उदात्त बना सके? वह है-संसार में दु:ख से सन्तप्त जन के कष्टों का विनाश। वह कामना राज्य, स्वर्ग और मोक्ष की कामना से भी ऊपर है-

न त्वहं कामये राज्यं, न स्वर्गं नापुनर्भवम्।

कामये दुःखतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम्॥

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