व्यवस्थाएँ, सम्मतियाँ, पत्र आदि / ब्रह्मर्षि वंश विस्तार / सहजानन्द सरस्वती

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यदि प्रथम पक्ष अर्थात बातों से कहने का भी आग्रह हो तो अन्त में उसे भी दिखला कर प्रकरण की पूर्ति करते हैं। इससे प्रथम ही इतना और भी समझ लेना चाहिए कि जब इस प्रकार से अयाचक (भूमिहार) ब्राह्मणों के सम्बन्ध और खान-पान अन्य ब्राह्मणों के साथ सिद्ध हो गए, तो जो पूर्वोक्‍त फिशर साहब ने गाजीपुर के गजेटियर के 42वें पृष्ठ में लिखा है कि : "They may not drink or smoke with Brahmans, and only under some restrictions with Rajputs."

अर्थात 'वे (भूमिहार ब्राह्मण) (इतर) ब्राह्मणों के साथ स्वयं खान-पान नहीं कर सकते और राजपूतों के साथ तो खान-पान करने में केवल बहुत-सी बाधाएँ हैं, इसीलिए नहीं कर सकते।' इसमें जो ब्राह्मणों के विषय में कहा गया है उसका भी खण्डन हो गया है। परंतु राजपूतों के विषय में ठीक ही कहा है। क्योंकि ब्राह्मणों का अन्यों के साथ खान-पान हो ही कैसे सकता है?

अस्तु, जब प्रकृत में आइए। सबसे प्रथम मिथिला के मान्य मीमांसकधुरीण महामहोपाध्याय श्री चित्राधर मिश्र जी की सम्मति इस विषय में देखिए। उन्होंने दरभंगा प्रांतस्थ पतोर ग्रामवासी पं. सर्यूप्रसाद मिश्र और राजेंद्र प्रसाद मिश्र जी की एक व्यवस्था में जिसको आगे दिखलावेंगे, ऐसा लिखा है कि :

श्री दुर्गा

पश्‍चिमदेशाभिजनस्य मिथिलानिवासस्य बाबू श्रीसर्यूप्रसादमिश्रस्य ब्राह्मणस्य प्रश्नानामुत्तारोन्नेयानामुत्तरम् :

ब्राह्मणस्वामिकस्याशीतिरक्‍तिकापरिमितस्यतदधिकस्य वा स्वर्णस्य स्तेयं महापातकप्रायश्‍चित्तस्य प्रयोजम्। ततो न्यूनपरिमाणस्य स्तेयं तु न तत्प्रायश्‍चित्तस्य प्रयोजकम्, किंतु प्रायश्‍चित्तान्तरस्य। अशीतिरक्‍तिकापरिमितत्वंतदधिकत्वं वा एकखण्डस्य समुदायस्य वा नैतावता कश्‍चिद्विशेष:। नह्येकपिंडर्स्यैव यत्राशीतिरक्‍तिकापरिमित्वादि, तत्रैव तत्स्तेयं महापातकमिति कस्यचिच्छास्त्रास्यार्थ। पश्‍चिमदेशाभिजनानां ब्राह्मणानां ब्राह्मणत्तवे चिरकालप्रवृत्तस्य शिष्टानां ब्राह्मणत्वेन परिग्रहस्य दाढर्यमेव दृढ़तरं प्रमाणम्। नह्यन्येषामपि ब्राह्मणानामनादिकालप्रवृत्तां शिष्टानां तत्तवेन परिग्रहदाढर्य मुक्त्वा ब्राह्मणत्वे न्यत्प्रमाणं संभवति, यथा वेदस्य वेदत्वे नादिकालवृत्तो वेदत्वेन शिष्टानां परिग्रह एव प्रमाणं न वेदवाक्यं स्मृत्यादि वा, तद्वदितिसंक्षेप:।

यत्रापूर्वैरुषितं सो भिजन:।

यत्रास्वयमुष्यते स निवास:। श्रीचित्रधरमिश्र:॥

इसका भाव यह है कि सर्यूप्रसाद मिश्र के किसी दामाद के ऊपर सोने की चोरी करने के अपराध में धर्मशास्त्रानुसार उन लोगों ने महापातक का प्रायश्‍चित लगाया था। उस पर किसी मैथिल ने कुछ छल कर के एक ऐसी व्यवस्था लिखी जिसमें उसे निर्दोष ही ठहराया। इस पर श्री सर्यूप्रसाद ने लूटन झा नामक किसी विद्वान से एक व्यवस्था लिखवाई और उस पर बड़े-बड़े पंडितों के हस्ताक्षर करवाए, जिसे आगे दिखलावेंगे। जब उस व्यवस्था पर श्रीचित्राधर मिश्र जी को सम्मति देने का प्रकरण आया, तो स्वतन्त्ररूप से उन्होंने पूर्वोक्‍त वचन लिखे जिनका अर्थ यह है कि पूर्वकाल में पश्‍चिम देश (इसीलिए अयाचक ब्राह्मणों को मिथिला में पश्‍चिम ब्राह्मण कहते हैं) और इस समय मिथिला देशवासी बाबू सर्यूप्रसाद मिश्र नामक ब्राह्मण के उन प्रश्नों के उत्तर हम लिखते हैं जिन्हें लोग उत्तर ही से समझ सकते हैं :

ब्राह्मण का अस्सी रत्ती या उससे अधिक सुवर्ण चुरा लेने पर महापातक का प्रायश्‍चित करना चाहिए। परंतु यदि उससे कम हो तो वह प्रायश्‍चित न हो कर उसके लिए दूसरा ही प्रायश्‍चित होता है। वह अस्सी रत्ती का एक ही टुकड़ा हो, या अनेक इसमें कोई विशेष नहीं है, क्योंकि अस्सी रत्ती के एक ही टुकड़े की चोरी करने से ही महापातक का प्रायश्‍चित करना चाहिए ऐसा कोई भी शास्त्र नहीं कहता। पश्‍चिम देश के पूर्व निवासी ब्राह्मणों (पश्‍चिम या भूमिहार ब्राह्मणों) के ब्राह्मण होने में अत्यन्त प्रबल प्रमाण यही है कि शिष्ट (श्रेष्ठ, विवेकी अथवा आस्तिक) लोग बहुत प्राचीन काल से उन्हें दृढ़तापूर्वक ब्राह्मण कहते चले आते हैं। क्योंकि अन्य ब्राह्मणों के भी ब्राह्मण होने में अनादिकाल से शिष्ट लोगों के 'ये ब्राह्मण हैं' इस कथन या व्यवहार को छोड़ कर दूसरा कोई प्रमाण नहीं हो सकता। जैसे वेदों को वेद मानने में अनादि काल से शिष्ट (श्रेष्ठ) पुरुषों का उनको वेद कहना छोड़ कर और कोई वेदवाक्य अथवा स्मृत्यादि के वचन प्रमाण नहीं हो सकते। उसी तरह ब्राह्मणों के विषय में भी संक्षेप में यही समझ लेना चाहिए।

जिस जगह अपने पूर्वपुरुष रहते थे उसे अभिजन कहते हैं, हस्ताक्षर

और जहाँ स्वयं रहे उसे निवास श्रीचित्राधरमिश्र।

क्या अब इससे भी बढ़ कर स्वीकार (recognition) चाहिए? इतना ही नहीं हैं। अब उस पूर्वोक्‍त व्यवस्था को देखिए, उसमें कितने विद्वानों के हस्ताक्षर हैं। उसमें से भी उसके बहुत बृहत होने के कारण केवल उपयोगी अंशों को लिखते हैं। वह इस प्रकार है:

ओम् स्वस्ति भूयात्। श्रीतारिणी जयति।

धर्मनिर्णयपत्रम्

नमो ब्रह्मण्यदेवाय गोब्राह्मणहिताय च।

जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमोमन:॥

नहि सत्यात्परोधर्मो नानृतात्पातकं परम्।

तस्मात्सर्वात्मना मर्त्य: सत्यमेकं समाश्रयेत्॥

अदंडयान्दण्डयन्राजा दंडयांश्‍चैवाप्यदंडयन।

अयशो महवाप्नोति नरकं चैव गच्छति॥

दरभंगाप्रांतस्थितरघुनाथपुरनगरवास्तव्यो बाबू इतिपदांकितोमिश्रोपाह्न:श्रीयुत: सर्यू प्रसादशर्मा वादी 1

तादृशास्तद्‍दायादादुवंशनारायणशर्मलक्ष्मीनारायणशर्मभोला प्रसादशर्मरामशंकरशर्माण: प्रतिवादिन: 4

तत्रवादिदत्तमेकंविज्ञप्तिपत्रां मयाप्राप्तं। तत्रा यल्लिखितमासीत्तात्पुरस्ताद्विलिखामि। तथाहि वर्षाष्टादशपूर्वसमये मदीयगृहभित्तिच्छेदनं कृत्वा। बहूनि सुवर्णालंकरणादीनि वस्तूनि चोरैरपहृतानि, तत्रा बहुमूल्यं सुवर्णालंकरणत्रायंरामवल्लभमिश्रस्यासीत्, यच्चमृताया: कस्याश्‍चिदंगनायारामवल्लभशर्मणामदीयगृहे समधारि। अनंतरं राजदंडदायकैर्जनैधृतास्ताडिता: कियंतश्चौरास्तत्कर्मस्वीकारंचक्रु स्तत्रौकोरामवल्लीशर्मा येन तत्कर्म न स्वीकृतं, परंतु तदीयगृहाद्रामवल्लभमिश्रस्य पूर्वोक्‍तसुवर्णालंकरणानिबहू-निबहिर्गतानियेषां मूल्यं राजतमुद्राशतकत्रायाधिकं राजकर्मचारिलेखाद्विज्ञायते।

अथेदानीं प्रतिवादिना राजतमुद्राचतु:पंचकपरिमितान्येवसुवर्णानि स्वीकृतानि। किंच नटीसंगमतदीय सिद्धान्नभक्षण दिश्‍वासमाधाय ग्रामीणैर्जातिबाह्यो पिकृत:। तंत्रा स्वामिचौरयोर्ब्राह्मणत्वं स्वकपालकल्पितमश्रद्धेयमितिमृषाविलिख्याभिशप्तप्रायश्‍चित्तां मुसलिशर्मणादत्तां रामवल्लीशर्मणे। सच तावन्मात्रप्रायश्‍चित्तानुष्ठानेन पूतो भवितुमर्हतिनवेति व्यवस्यापत्रमस्मभ्यन्दीयतामिति। अनंतरं मया तदीयवृत्तांजातं राजकीयनिर्णयपत्रतस्सभापत्र-तो न्यतश्‍चावलोक्यपुरस्तादुद्धाटयते।

अथ महापातकभयमादायसुवर्णस्वामिचौरयोर्ब्राह्मणत्वस्य स्वकपोलकल्पितत्वंयदुक्तं मुसलिशर्मणा तद्दुग्धाकन्याचरणं दुष्टकन्याचरणंवेतिविज्ञातम्भवति। तत्रचूडाकरणादिब्राह्मणविहितानांकर्मणां परम्पराचारस्यदर्शनात्, तत्रशर्मान्तनामपाठव्य-वहाराच्च, प्राप्तामुक्‍तिसाम्राज्यमिथिला-महाराज छत्रासिंहाद्यनेक महाराजलिखितेपत्रोषु, महाराजकुमारयोर्बाबूइति पदांकितयोर्वासुदेवसिंहगुणेश्‍वरसिंहयोर्वृत्तान्तपत्रोषु, तद्वंश्यानां बहूनां पत्रोषु च शर्मनमस्कारपदलेखस्य दर्शनाच्च, गतचत्वारिंशदधिकशताब्दसमयलिखित राजकीयमुद्रांकितयवनपत्रो मिश्रोपाह्नस्य दर्शनाच्च, लाटकमिश्‍नरइत्यादिशब्दप्रसिद्धानां बहूनां राजप्रतिनिधीनां हाईकोर्ट इतिप्रसिद्धन्याय स्थानाधीशानां जय्यपदांकितानां महानुभावानां लेखेम्यश्‍च, नाना पंडितदत्त व्यवस्थापत्रोषुब्राह्मणपद लेखस्यदर्शनाच्चशंकोत्थानसामग्र् या एवाभावात्।

तथाचात्रा मिथ्याभिशापप्रायश्‍चिमत्तोन न मूलपाप शोधनमितिविदुषाम्परामर्ष :

(1) सममान्ययमर्थोलूटनशर्मणा।

(2) सम्मतो यमर्थ: श्रीबच्चाशर्मण:।

(3) समीचीनमिदंव्यवस्थापत्रमितिश्रीमुरलीशर्मण: परामर्ष:।

(4) सम्मतिरत्रभ्रीमणीश्‍वरशर्मण:।

(5) सम्मतिरत्रार्थे श्रीनव (लव) सिंहशर्मण:।

(6) व्यवस्थमिमानुमन्यतेव्याकरणतीर्थ: श्रीहरिवंशशर्मा।

(7) व्यवस्थितमर्थं संज्ञापयति श्रीलालजीशर्मा।

(8) पतोरग्रामवास्तव्या: सर्यूप्रसादशर्मप्रभृतयो ब्राह्मणाएवोपनदिसंस्काराविशेषात्। यदि तेषांमध्येकस्यचिदशीतिरक्‍तिका न्यूनंसुवर्णं स्वामिनो समक्षेकश्‍चिदाजहार तदा तस्यमहापातकित्वमेव, स्वीकृतनटीसंगमादिपाप×चाधिमेवप्रतीयते, नहि कृतयत्कि×वत्प्रायश्‍चित्तो पिस संग्राह्योभवितुमर्हतीश्रीरज्जेशर्मा।

(9) श्रीमतां पंडितवरझीणह्नलालजीशर्ममिश्रो पाह्नश्रीरज्जेशर्मझोपाह्नजुडावनशर्मणां लेखेन निश्‍चितब्राह्मस्वर्णापहारोरामवल्ली शर्मामहापातकीति निर्णयतितात्याशास्त्री।

(10) मुनिप्रणीतवचनान्यालोच्य शुभकर्मणाम्।

व्यवस्थास्वीकृतासेयं श्री जुडावनशर्मणाम्॥

इस पूर्वोक्‍त व्यवस्था के 'दरभंगा प्रांतस्थित' इत्यादि भाग का मर्मानुवाद यह है-

'दरभंगा जिले के रघुनाथपुर ग्रामवासी बाबू श्री सर्यूप्रसाद मिश्र शर्मा इस व्यवस्थापत्र में वादी (मुद्दई) है।

उसी ग्राम के उनके दायाद यदुवंश नारायण शर्मा, लक्ष्मी नारायण शर्मा, भोला प्रसाद शर्मा और रामशंकर शर्मा ये चार प्रतिवादी (मुद्दआलह) है।

वादी ने मुझे एक विज्ञापन दिया था। उसमें जो लिखा था वह यह है कि आज से 18 वर्ष पूर्व मेरे घर में सेंध लगा कर बहुत से सोने वगैरह के गहने चोर चुरा ले गए थे। उन गहनों में से तीन गहने अधिक दाम के रामवल्लभ मिश्र के घर की किसी मरी हुई स्त्री के थे। जिन्हें उन्होंने मेरे घर रखा था। इसके बाद पुलिस ने बहुत से चोरों को पकड़ कर मार-पीट प्रारंभ की, जिससे उन्होंने उस चोरी को स्वीकार किया। उनमें से एक रामवल्ली शर्मा भी थे, जिन्होंने गो कि चोरी स्वीकार न की, परंतु उनके मकान में पूर्वोक्‍त रामवल्लभ मिश्र के बहुत से सुवर्ण के आभूषण मिले, जिनका दाम अफसर लोगों ने अपने फैसले में तीन सौ रुपए से अधिक लिखा है।

अब उसके बाद रामवल्ली शर्मा ने यह स्वीकार किया कि 4 या 5 रुपए-भर सोना हमारे घर था, और किसी नट की स्त्री के साथ भोग और उसके बनाए भोजन खाने का विश्‍वास कर के गाँववालों ने उन्हें जाति से बाहर भी निकाल दिया। इस पर मुसली शर्मा ने केवल झूठा ही यह लिखा कि सुवर्ण के स्वामी और चोर दोनों को लोग अपने मन से ही ब्राह्मण मानते हैं। इसीलिए मैं उसे नहीं मानता। ऐसा लिख कर उन्होंने रामवल्ली शर्मा को केवल मिथ्या भाषण या कसम खाने का अपराधी बता कर उसी का प्रायश्‍चित उनको बतलाया। इसलिए मैं पूछता हूँ कि रामवल्ली शर्मा केवल उतने ही प्रायश्‍चित से शुद्ध हो सकते हैं या नहीं इसकी व्यवस्था मुझे दीजिए।'

इस पर मैं इन लोगों के वृत्तांत को अदालती फैसले, सभाओं की व्यवस्थाओं और अन्य प्रमाणों से निश्‍चित कर सबके सन्मुख यह घोषणा करता हूँ कि :

मुसली शर्मा ने महापातक के भय से सुवर्ण के स्वामी और चोर दोनों को जो कल्पित ब्राह्मण ठहराया है, यह या तो केवल मूर्खता, या दुष्टता मात्र है, यही मालूम होता है। क्योंकि जब वादी प्रतिवादी अर्थात भूमिहार ब्राह्मणों में ब्राह्मणों के चूड़ाकरण इत्यादि सभी कर्म परम्परा से किए जाते हैं, इन कर्मों में उन लोगों के नामों के अन्त में शर्मा शब्द का प्रयोग होता है, मुक्‍ति को प्राप्त मिथिला के महाराज छत्रासिंह आदि अनेक मैथिल महाराजाओं, महाराजकुमार बाबू वासुदेवसिंह तथा बाबू गुणेश्‍वरसिंह जी और उनके वंश के और बहुत से लोगों के पत्रों में इस सभी लोगों को शर्मा शब्द और साथ ही नमस्कार भी लिखा गया है, 140 वर्ष पूर्व के मुसलमान बादशाह के मोहर सहित आज्ञापत्र में इनको मिश्र लिखा है, बहुत से लाट और कमिश्‍नर वगैरह के लेखों और हाईकोर्ट के जजों के फैसलों में इन्हें ब्राह्मण लिखा है और बहुत से पंडितों ने अपनी दी हुई व्यवस्थाओं में इन्हें स्पष्ट ब्राह्मण लिखा है, तो ये लोग ब्राह्मण हैं या नहीं इस शंका का तो कोई कारण ही नहीं है।

इसीलिए मिथ्या भाषण और मिथ्या शपथ के प्रायश्‍चित से मूलपातक (महापातक) का शोधन नहीं हो सकता यही विद्वानों की सम्मति है। हस्ताक्षर और विद्वानों की सम्मतियाँ :

(1) मैं इस बात को मानता हूँ।

(2) मेरी इसमें से सम्मति है। हस्ताक्षर श्री बच्चा शर्मा। हस्ताक्षर लूटन शर्मा।

(3) यह व्यवस्थापत्र ठीक है ऐसा मैं मानता हूँ, हस्ताक्षर श्री मुरली शर्मा।

(4) इसमें मेरी सम्मति है,

(6) इस व्यवस्था को मैं स्वीकार करता हूँ, ह. श्री मणीश्‍वर शर्मा। ह. श्री हरिवंश शर्माभ्याकरण तीर्थ।

(5) इस विषय में मैं भी सहमत हूँ,

(7) यह बात बहुत ही उचित है। श्रीलव (नव) सिंह शर्मा। ह. श्रीलाल जी शर्मा।

(8) पतोर गाँव के रहनेवाले श्री सर्यूप्रसाद शर्मा आदि ब्राह्मण ही हैं, क्योंकि इनके उपनयनादि संस्कार अन्य ब्राह्मणों के-से ही होते हैं। इसलिए यदि उनमें से किसी ने 80 रत्ती या उससे अधिक सुवर्ण स्वामी के न रहने पर चुराया हो, तो उसे महापातकी ही समझना चाहिए और यदि नटी के साथ भोग आदि स्वीकार किया तो वह पाप अधिक ही है। इसलिए थोड़े-बहुत किसी प्रायश्‍चित के करने से वह शुद्ध नहीं हो सकता। ह. श्री रज्जे शर्मा।

(9) श्रीमान पंडित प्रवर लालजी झा, रज्जेमिश्र और जुड़ावन झा के लेखों से निश्‍चित है कि रामवल्ली शर्मा ब्राह्मण हैं और उन्होंने ब्राह्मण का सोना चुराया है। इसलिए मेरा निर्णय यही है कि वे महापात की है।

श्री तात्याशास्त्री (काशी)

(10) धर्मशास्त्रों को विचार कर मैं इस व्यवस्था को स्वीकार करता हूँ।

ह. श्री जुड़ावन शर्मा।

इसके अन्तर इस व्यवस्था के लेखक पंडितवर लूटन झा जी का पत्र दिखला कर फिर उन पत्रों को दिखलावेंगे जिनका वर्णन व्यवस्था में किया गया है। वह ऐसा है :

श्रीतारिणी जयति

विविधप्रशंसावलीविराजमानमानोन्नतेषु महोग्रप्रतापकीत्तर्यलंकृतेषु कृततपोनिक-रज्वलितेषु निखिलसज्जनानुरंजकस्वभावललितेषु बाबू इति पदोपशोभितेषु श्री श्री मत्सु सर्यूप्रसादशर्ममिश्रपीताम्बरशर्ममिश्रवेणीप्रसादशर्ममिश्रेषु महतां महत्सु सविनयनमस्कारणतं समर्प्य निवेदयति कश्‍चित्। अपने सबहि कां परम सदाचारी ब्राह्मण जानि तत्वविज्ञान परम अलभ्य वस्तु लिखि पठाओल अधि, अतीव मननीय पदार्थ जानल जायत, कदाचित पत्र लिखावक हो त पता :

ग्वालियर, रेवती फाटक, हरिप्रसाद भैया के मकान पर लूटन झा लिखल जायत।

ह. लूटनशर्मा।

इसका अनुवाद यह है :- विविध विशेषण युक्‍त, अतिप्रतिष्ठित, प्रबल प्रताप एवं कीर्ति से सुशोभित, तपस्या बल से दिव्य शरीर और निखिल सज्जनों के चित्तों को प्रसन्न करनेवाले श्रीमान बाबू सर्यूप्रसाद शर्मा मिश्र जी को सविनय शतश: नमस्कार समर्पण करने के अनंतर निवेदन है, कि आप लोगों को परम सदाचारी ब्राह्मण जान कर परम अलभ्य वस्तु तत्वविज्ञान नामक एक लेख भेजता हूँ, इसको अत्यन्त मनन करने योग्य पदार्थ जानिएगा। कदाचित पत्र लिखना हो तो पता :- ग्वालियर-रेवती फाटक - हरिप्रसाद भैया के मकान पर लूटन झा, ऐसा लिखिएगा।

हस्ताक्षर लूटनशर्मा।

अभी हाल की एक व्यवस्था इस प्रकार है :

नम: सोमाय।

समस्त सृष्टि संरक्षक यज्ञनारायण की अपार दया अथच श्री दाहु चौधरी के उद्योग से सं. 1979 चैत्रा सुदी 7 से 10 तक डुमरिया घाट पर 'महालक्ष्मीयज्ञ'शाला के सन्मुख तथा श्री 108 दंडी स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती, कवि सम्राट पं. श्री देवी प्रसाद जी काशी, व्याकरण केसरी पं. खुद्दी झा कोइलख, पं. धर्मदत्त वेदशास्त्री काशी, पं. देवराज चतुर्वेदी डुमरी, शाहाबाद, श्री राय साहिब रासधारी सिंह छितरौर इत्यादि सज्जनों की उपस्थिति में कतिपय धार्मिक विषयों पर विचार हो कर नीचे लिखा सिद्धांत निश्‍चित हुआ।

1. कान्यकुब्ज, मैथिल, भूमिहार, गौड़, उत्कल अथवा समस्त ब्राह्मण जाति मात्र में परस्पर कैसा व्यवहार होना चाहिए?

उत्तर - समस्त ब्राह्मण जाति मात्र में परस्पर समानता (नमस्कार) का व्यवहार होना चाहिए। किंतु जहाँ अवस्था, विद्या, सम्बन्ध आदि की उच्चता हो वहाँ प्रणाम आदि का व्यवहार हो।

2. भूमिहार ब्राह्मण किस श्रेणी में हैं?

उत्तर - देश भेदानुसार पंच गौड़ों के ही अन्तर्गत हैं।

3. भूमिहार ब्राह्मणों को 6 कर्म का अधिकार है या नहीं?

उत्तर - हाँ, अवश्य 6 कर्मों का अधिकार है।

4. हस्तोदकदान और कुशोदकदान में शास्त्रविहित उत्तम दान कौन है?

उत्तर - हस्तोकदान शास्त्रविहित होने से उत्तम है, कुशोपरि दान ब्राह्मण के अभाव में काल्पनिक है।

5. एकादशाह के दिन आँगन में सामान्य दान के नाम से जो दूसरा शय्यादान होता है वह होना चाहिए या नहीं?

उत्तर - दूसरे शय्यादान की विशेष व्यवस्था शास्त्र में नहीं है; करना, न करना समाज का अधिकार है।

खुद्दी झा रासधनी सिंह (छितरौर)

देवी प्रसाद शुक्ल परमेश्‍वरी प्रसाद सिंह (रहीमपुर)

धर्मदत्त त्रिपाठी देवनाथ कर्मकांडी

दरभंगा के मैथिल महाराजाओं और महाराजकुमारों के पत्र ये हैं :

(1) श्रीगुर्गा, श्रीमाधाव, श्रीगणेश 1

(मोहर) (माही)

महाराजा श्री श्री रुद्रसिंह बहादुर देव देवानां सदा समरविजयिनां श्री कन्हैया शर्मा वो श्री देवी शर्मा ठेकेदारान, तालुका पुसही, प्रगन्ना पडरी देहात मिलकिअति सरकार के नमस्कार। आगां तालुका मजकूरक सन 1256 (बारह सौ छप्पन साल) के जागह मध्ये नौ हजार रुपया (9000 रु.) कलदार बारात कैल अछि कबज लै देव, एहांक तालुका मजकूरक वोआसिलवाकी मध्ये मोजर होएत। 9000 रु.।

इसका अर्थ यह है पूर्वोक्‍त इस पत्र में जिन श्री देवीशर्मा, श्री कन्हैया शर्मा का नाम हैं वे लोग पूर्वोक्‍त पतोरग्राम के श्री सर्यूप्रसाद मिश्र प्रभृति के पूर्वज थे, जिनके नाम से लहेरिया सराय (दरभंगा) में अब तक कन्हैया मिश्र का तालाब प्रसिद्ध है। और ये लोग दरभंगा राज के ठेकेदार थे। इसलिए महाराजा का यह पत्र रुपए के लिए आया है। जिसका अनुवाद यह है कि 'सदा समर विजई देव देव महाराज श्री श्री रुद्र सिंह बहादुर का नमस्कार सरकारी मिलकिअत तालुका पुसही, परगना पड़री देहात के ठेकेदार श्री कन्हैया शर्मा और श्री देवी शर्मा को पहुँचे। आगे पूर्वोक्‍त तालुके की जगह 1256 फसली के लिए 9000 रु. में आपको ठेके में तय की गई है। इसलिए रसीद ले कर रुपए भेजिएगा। आपकी वासिल बाकी में उसका मोजरा दिया जावेगा। इस पत्र में ऊपर राजा की मोहर और मछली का चिह्न बना हुआ है। ऐसा ही अन्य पत्रों में भी है। मही=मछली।

(2) श्रीदुर्गा, श्रीमाधाव, श्रीगणेश 1

(मोहर) (माही)

महाराजकुमार बाबू वासुदेव सिंह देवानां श्री कन्हैयालाल शर्मा के नमस्कार। आगे मौजे वेलौजा गैरह प्रगन्ना जरैल देहात मिलकिअत सरकार बाबति मालगुजारी महाल वैजु पैडीक मौजे मजकूरक सन 1253 (बारह सौ त्रिपन) सालक जागह मध्य बारात कैल अछि कबज लै देव श्री कन्हाई चौधरीक बत्तीस हजार एकानवै रुपैआ मध्य दुई हजार एक सौ तीस रुपैया चौदह आना कयने छी। 2130 =)।

अर्थ यह है :- महाराज कुमार बाबू श्री वासुदेव सिंह देव का कन्हैया लालशर्मा को नमस्कार। आगे मौजे वेलौजा परगना जरैल महाल वैजूपट्टी की सरकारी मिलकिअतकी मालगुजारी का ठीका सन 1253 के लिए आपको दिया गया है, रसीद ले कर रुपए कन्हाई चौधरी को दीजिएगा। उनके जिम्मे 32091 रु. में से 2130 =) किए गए हैं।

(3) श्रीदुर्गा, श्रीमाधाव, श्रीगणेश 1

(मोहर) (माही)

महाराज श्री श्री छत्रसिंह बहादुर देव देवानां सदा समर विजयिनां श्री गिरधारी शर्मा ठेकेदार वो श्री जुपाल शर्मा माल जामीन मौजे हरिआ हरिपुर गैरह, परगना पुडरी देहात मिलकिअति सरकारकं नमस्कार। आगे मौजे मजकूरक 1233 (बारह सौ तैत्तिस) साल क जागह मध्ये बारात कैल अछि कबज लै देव चार रुपैआ आठ आना। एहांक मौजे मजकूरक वोआसिल बाकी मध्य मोजरा होएत। (4 ॥)।

यह अर्थ है :- 'श्री गिरधारी शर्मा और श्रीजुपाल शर्मा ठेकेदार मौजे हरिया हरिपुर परगना पुड़री देहात मिलकिअति सरकारी को देव देव सदासमर विजयी श्री श्री छत्रसिंह महाराज का नमस्कार। आगे पूर्वोक्‍त मौजे की जगह का ठीका सन 1233 के लिए आपको दिया गया है। रसीद लेर 4।।) दीजिएगा। आपकी उस मौजे की वासिल बाकी मैं मोजरा होगा।

(4) श्रीदुर्गा, श्रीमाधाव, श्रीगणेश 1

(मोहर) (माही)

महाराज श्री श्रीमहेश्‍वर सिंह बदादुर देव देवानां सदा समर विजयिनां श्री देवी शर्मा ठेकेदार मौजे नरगा प्रगन्ना नरगा गैरह देहात मिलकिअति सरकार के नमस्कार। आगे मौजे मजकूरक गैरहक सन 1261 सालक जागह मध्ये बारात कैल अछि कबज लै देव रुपैया कलदार। एहांक मौजे मजकूर गैरहक बोआसिलवाकी मध्ये मोजर होयत। 1967।=)।

इसका अर्थ यह है :- श्री देवी शर्मा ठेकेदार मौजे नरगा परगना नरगा देहात सरकारी मिलकिअत को देव देव सदा समर विजयी महाराज श्री श्री महेश्‍वर सिंह बहादुर का नमस्कार। आगे पूर्वोक्‍त मौजा 1261 के लिए आपको ठेके में दिया गया है। इसलिए रसीद ले कर 1967।=) दीजिएगा। वह उस मौजे की वासिल बाकी में आपको मोजरा दिया जावेगा।

(5) श्री दुर्गा, श्री माधाव, श्री गणेश 1 (माही)

महाराजश्री श्री लक्ष्मीश्‍वर सिंह देव बहादुर देव देवानां सदा समर विजयिनां श्री भगवत प्रसाद शर्मा कै नमस्कार। आगां ता. 30 जून मोताबिक आषाढ़ वदी 9, 14 रोज शुक कुमैटी करतथु अछि तँ यहाँ बरोबरी मोकाम दड़िभंगा हाजिर आएब। इति आषाढ़ वदी 15 सन 1290 साल।

अनुवाद यह है :- श्री भगवत प्रसाद शर्मा को देव देव सदासमर विजयी महाराज श्री श्री लक्ष्मीश्‍वर सिंह देव बहादुर का नमस्कार। आगे ता. 30 जून आषाढ़ वदी 9 शुक्रवार को दरभंगा में कमिटी होगी। इसलिए आप अवश्य दरभंगा मुकाम पर आएँगे। इति आषाढ़ वदी 15 सन 1290 फसली।

(6) श्री दुर्गा, श्री माधाव, श्रीगणेश 1 (माही)

महाराज कुमार बाबू श्री गुणेश्‍वर सिंह देवानां श्री देवी शर्मा के नमस्कार। आगां एहांक ऐवाक हजूर जरूर अछि, तं लिखल दिखैत बहुत जल्द हजूर हाजिर होएव, ऐवा अर्सा हरगिज हरगिज जनि करिअ। इति सावन वदि सन 1260 साल।

इसका अर्थ यह है कि श्री देवी शर्मा को महाराज कुमार बाबू श्री गुणेश्‍वर सिंह देव का नमस्कार। आगे दरबार में आपके आने की आवश्यकता है। इसलिए पत्र देखते ही बहुत जल्द आइएगा। आने में हरगिज-हरगिज देर न हो। इति सावन वदी सन 1260 फसली।

इन पूर्वोक्‍त पत्रों के अतिरिक्‍त और बहुत से पत्र महाराज बहादुरों और उनके वंशवालों के पतोर तथा अन्य ग्रामवाले पश्‍चिम ब्राह्मणों के नाम से है, जिसमें स्पष्ट रूप से शर्मा शब्द का प्रयोग हैं और उन लोगों ने पश्‍चिम ब्राह्मणों को नमस्कार ही लिखे हैं। परंतु उनके लिखने से विस्तार हो जावेगा। इसलिए आवश्यकता पड़ने पर वे भी दिखलाए जा सकते हैं। अब दरभंगा महाराजाओं के दो पत्र और दिखला कर दूसरी बातें लिखेंगे। उनमें से एक रामगढ़ (नरहन) के श्री कामेश्‍वर नारायण सिंह द्रोणवार ब्राह्मण के नाम से इस प्रकार है, जो वर्तमान महाराजा बहादुर का है:

(7) श्री दुर्गा, श्रीमाधाव, श्री गणेश 1

स्वस्ति। सर्वोपमा योग्य मर्यादा सागर बाबू श्री कामेश्‍वर नारायण सिंह महाशयेषु विविध विरुदावली विराजमान मानोन्नत महाराजाधिराज मिथिलेश श्री श्री श्री रमेश्‍वर सिंह बहादुर देव देवानां सदा समर विजयिनां नमस्कार। शमिह, तत्रात्य तदनुदिवसमीहामहे। अथोदंत:, एहांक पिताक अचानक परलोक गगन सुनि बहुत खेद भेल, एहां बालक छी शोक बहुत करैत होएब ते जिज्ञासार्थ ओ आश्‍वासन देवाक हेतु म. म. पंडित श्री चित्रधर मिश्र के पठावोल अछि धौर्य कए आश्‍वासन राखब दैवाधीन विषय में साध्य की। विशेष कुशल लिखब इति। माघ शुक्ल पंचम्यां शुक्रे सन 1311 साल।

अनुवाद यह है :- स्वस्ति, सर्वोपमा योग्य मर्याद-सागर बाबू श्री कामेश्‍वर नारायण सिंह महाशय को विविध विरुदावली विराजमान मानोन्न्त महाराजाधिराज मिथिलेश श्री श्री श्री रामेश्‍वरसिंह देव देव बहादुर देव का नमस्कार। यहाँ कुशल हैं, आपकी कुशल चाहते हैं। समाचार यह है कि आपके पिता का अचानक परलोकवास सुन कर बहुत ही खेद हुआ। आप बालक हैं। इसलिए बहुत शोक करते होंगे। इसलिए जिज्ञासा और संतोष देने के लिए महामहोपाध्याय पंडित श्री चित्रधर मिश्र जी को पठाते हैं। धैर्य कर के संतोष रखिएगा, क्योंकि दैवाधीन बात में वश ही क्या है? विशेष हाल लिखिएगा। इति। माघ शुक्ल 5, शुक्र, सन 1311।

निम्नलिखित पत्र काशीराजकुमार श्रीमान प्रसिद्ध नारायण सिंह जी के नाम से आया था, जिसमें मैथिल ब्राह्मण शिरोमणि मिथिलेश महाराज श्री रुद्रसिंह जी ने प्रणाम लिखा है। वह इस प्रकार है :

(8) श्रीदुर्गा, श्रीमाधाव श्रीगणेश 1

मदीश्‍वर।

'स्वस्ति। देवद्विजवर दत्त सदा शोभाराशि सदाशुभधाम गुणिगण गीत यशोभरशारद शशधर द्वीपित नाममहाराजाधिराज कुमार बाबू श्री प्रसिद्धनारायण सिंह महाशयेषु विविध विरुदावली विराजमना मानोन्नत महाराजाधिराज मिथिलाधीश श्री श्री श्रीमद्रुद्र सिंह बहादुर देव देवानां सदा समर विजयिनां प्रणतिराशयो विलसन्तु। शमिह, तत्रत्यं तदीशादीहामहे। अथोदंत: निमन्त्रण पत्र श्री श्री श्रीकाशीराज बहादुरक द्विरागमनक पहुँचल से देखि अत्यन्त चित्त के आनन्द प्राप्त भेल। श्री मथुरानाथ ठाकुर के पठाबोल अछि न्योंताक रसूम बमोजिब तपसील दाखिल करता है। श्री भगवान्क कृपा सं वोतयक सभक कुशल वो ई कार्य संपन्न होयवाक वार्ता शीघ्र लिखल जायत ये चित्त आनन्द होय इति। लेखो यं माधाव सित पंचम्यां चंद्रात्मजे समजनीति। ओम्॥

इसका अर्थ यह है कि देवता और श्रेष्ठ ब्राह्मणों द्वारा दी गई शोभा की राशि, सदा तेजस्वी, गुणी लोग जिनकी कीर्ति का कीर्तन करते हैं, और जिनका नाम द्विजराज पद से शोभित हैं ऐसे महाराजाधिराज श्रीकाशीराज के कुमार श्री बाबू प्रसिद्धनारायण सिंह महाशय जी को विविध विरुदावली विराजमान और मानोन्नत महाराजाधिराज मिथिलाधीश देव देव सदा समर विजयी महाराज श्रीमत रुद्रसिंह बहादुर का प्रणाम। यहाँ कुशल है, आपकी कुशल ईश्‍वर से चाहते हैं। वृत्तांत यह है कि श्री काशिराज बहादुर के द्विरागमन का पत्र पहुँचा। उसे देख कर प्रसन्नता हुई। श्री मथुरानाथ ठाकुर को भेजते हैं, वे नेवता की रस्म यथोचित रीति से पूरी करेंगे। श्री भगवान की कृपा से वहाँ के सब लोगों की कुशल और इस कार्य के पूरा होने का हाल लिखिएगा, जिससे चित्त को आनन्द हो। बैशाख शुक्ल 5 बुधवार।

इन पत्रों से स्पष्ट है कि जब मैथिल ब्राह्मणों के शिरोमणि लोग इन अयाचक दलीय ब्राह्मणों को नमस्कार या प्रणाम आज तक बराबर करते आए और करते हैं, स्पष्ट शब्दों में 'शर्मा' या 'ब्राह्मण' शब्दों से व्यवहार करते हैं, तो फिर अब ब्राह्मण मानना किसे कहते हैं? इसके अतिरिक्‍त पूर्वोक्‍त व्यवस्था में काशी के प्रसिद्ध गणनीय विद्वान तात्याशास्त्री से ले कर मिथिला के महामहोपाध्याय श्री चित्रधर मिश्र जी और अन्य ब्राह्मणों की सम्मतियाँ दिखला ही चुके हैं।

महामहोपाध्याय तर्कवारिधि श्रोत्रिय श्री श्री कृष्ण सिंह ठाकुर भी अपनी 'ब्राह्मण वंश विवेक, नामक मैथिल वंशावली में यही दिखलाते और स्पष्ट रूप से इन अयाचक दलीय ब्राह्मणों को ब्राह्मण पद से संबोधन करते हुए मैथिलों और भूमिहार ब्राह्मणों को एक ही बतलाते हैं। जैसा कि उस पुस्तक के अन्त में यह विज्ञापन या नोटिस सर्वसाधारण को देते हुए लिखते हैं कि :

मैथिल ब्राम्हणानां भूमिहारा ब्राह्मणानां चोपकार बुद्धया सर्वसीमाग्रामवास्तव्येन तंत्राविन्महेश्‍वरात्मजेन तर्क वारिधिना श्रोत्रियेणखण्डवलावंशजेनठक्कुरोपाह्न श्रीकृष्ण शर्मणा नानानिबन्ध पुराणादीन्यवलोक्य यथामति ब्राह्मणवंश विवेकनामको यंनिबन्ध:खलु विरचय्य मुद्रापयित्वा प्रकाशित:।

इसका अनुवाद यह है कि 'मैथिल ब्राह्मणों और भूमिहार ब्राह्मणों के उपकार के लिए सर्वसीमाग्रामवासी तन्त्रज्ञ महेश्‍वर पंडित के पुत्र तर्कवारिधि, श्रोत्रिय और खण्डवला मूलवाले श्री कृष्ण शर्मा ने पुराणादि नाना ग्रन्थों को देख अपनी बुद्धि के अनुसार इस ब्राह्मणवंश विवेक नामक ग्रन्थ को रच कर प्रकाशित किया।'

इस वाक्य में कई बातें समझने योग्य है। एक तो यह कि उन्होंने अपनी जातिवाले ब्राह्मणों को समझाने के लिए जैसे ब्राह्मण शब्द से पूर्व 'मैथिल', विशेषण जोड़ा है, वैसे ही इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों को बतलाने के लिए ब्राह्मण शब्द से पूर्व भूमिहार विशेषण लगाया है। इसलिए जैसे मैथिलों को वे ब्राह्मण समझते हैं, ठीक वैसे ही भूमिहारों को भी, यह उनकी इस लेखशैली से स्पष्ट है। दूसरी बात यह है कि जब 'ब्राह्मणवंशविवेक' नामक ग्रन्थ मैथिल ब्राह्मणों की वंशावली ठहरी, क्योंकि इस ग्रन्थ के प्रारंभ में ही उनकी यह प्रतिज्ञा हो चुकी है कि :

पंजीप्रबंधसारांशादुद्धस्य विदुषां मुदे।

मैथिल द्विजवंशानां गोत्रदीन वक्‍ति यत्‍नत:॥

अर्थात 'पंजी नामक मैथिल की प्राचीन लिखित बड़ी वंशावलियों से सारांश निकाल कर मैथिल ब्राह्मणों के गोत्रदि का वर्णन किया जाता है, तो फिर यदि उससे उपकार की संभावना है तो केवल मैथिल ब्राह्मणों को ही नहीं तो फिर सभी ब्राह्मणों का उससे उपकार हो सकता है, न कि केवल मैथिलों और भूमिहार ब्राह्मणों का ही। तो फिर अन्त में यह लिखना कि 'मैथिल ब्राह्मणों और भूमिहार ब्राह्मणों के उपकार के लिए यह ग्रन्थ बनाया गया है' क्या यह सिद्ध नहीं करता कि श्रीकृष्ण सिंह ठाकुर के मत में मैथिल ब्राह्मण एक ही है? इसीलिए दोनों की उपाधियाँ और गोत्र एवं मूलादि कम से कम मिथिला में प्राय: एक ही मिलते हैं। नहीं तो क्या पंजी में मैथिलों को छोड़ कर किसी अन्य ब्राह्मण समाज के भी गोत्रदि लिखे गए हैं, जिनके सारांश से भूमिहार ब्राह्मणों का भी उपकार हो सकता है? तीसरी बात यह है कि जब उस ग्रन्थ का नाम 'ब्राह्मणवंशविवेक है और इसीलिए उसमें केवल ब्राह्मणों के ही वंशों का वर्णन हैं, तो फिर उससे भूमिहार ब्राह्मणों का उपकार उसी दशा में हो सकता है यदि वे ब्राह्मण माने जावे। नहीं तो जो ब्राह्मणों के नाम या समाज से बाहर है, उसका ब्राह्मण वंश या गोत्र अथवा मूल के निरूपण से क्या लाभ हो सकता है?

इसके अतिरिक्‍त मैथिल महासभा के भागलपुरवाले अधिवेशन के विवाह संबंधी प्रस्ताव का वर्णन प्रथम ही कर चुके हैं। उस प्रस्ताव में भी, जैसे श्रीकृष्ण सिंह ठाकुर ने 'भूमिहार ब्राह्मण और मैथिल ब्राह्मण' लिखा है, वैसे ही 'बहुत मैथिल ब्राह्मण, भूमिहार ब्राह्मणों से विवाह करते हैं', ऐसा लिखा गया है। इसीलिए श्रीकृष्ण ठाकुर की तरह मैथिल महासभा भी ब्राह्मणों के बराबर दो विशेषण मैथिल और भूमिहार दे कर दोनों को समान ही ब्राह्मण स्वीकार करती है। मैथिल समाज का 'मिथिला मिहिर' पत्र तो बराबर ही इन अयाचकों को ब्राह्मण लिखा ही करता है। इसीलिए मैथिल तो स्पष्ट रूप से पश्‍चिम लोगों को ब्राह्मण मानते हैं। नीचे लिखी हुई व्यवस्था से भी यह बात स्पष्ट है। वह व्यवस्था इस प्रकार की हैं :

श्री गणेशाय नम:

सांढ़ानगरे सम्पादितायां सभायां भूमिहार शब्देन प्रसिद्धानां कान्यकुब्जब्राह्मणानां सर्यूपारीप्रभृतिब्राह्मणान्तरै: सह परस्परं नमस्कारो युज्यते न वेति प्रश्ने उत्तरम्। युज्यते नमस्कार इति। तथाहि सम्प्रदायानुसारि कान्यकुब्जब्राह्मणव्यवहारस्याधिककालव्यापकस्य दर्शनात्, श्रुतिस्मृतिपुराणेतिचनसिद्धस्य चूडाकरणोपनयनादिसंस्कारस्य तथा संध्या-वन्दनादिनामांकित द्विजातिविहितकर्मणां समाचारस्य र्शनात्, गर्भाष्टमेदब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनयनम्। ब्रह्मवर्च्चसकामस्यकार्यं विप्रस्य पंचमे, इति वचनेनैव चोपनयने व्यवस्था दृश्यते, अन्यथाराज्ञामेकादशे सैके विशामुपनयनक्रियेत्यादिना व्यवस्था स्यात्, नच तथा भवति। तथा मिताक्षरायां वर्णाश्रमेतराणां नो व्रूहि धर्मानशेषत इतिवचनव्याख्यायां ब्राह्मणो ब्रह्मचारी पालाशदंडविभृयादित्यादिना प्रदर्शितोव्यवहार एंव भूमिहारन ब्राह्मणानामुपनयनादौ प्रचरित: संगच्छते।

यद्यषिट्कर्मा ब्राह्मणो भवेदित्यादिना सर्वेषां ब्राह्मणानांषट्कर्माणि भवन्ति, एतेषांभूमिहारब्राह्मणानांच त्रीण्येव कर्माणि अध्यायनं, यजनं, दानं चेति दृश्यते, तानि च क्षत्रियाणां वैश्यानांचाप्युपलभ्यन्ते। तथा चैते भूमिहारब्राह्मणाब्राह्मणान्तराणां नमस्कारयोग्यानेति युक्तं वच:। तथापि ब्राह्मणासां सर्वैंषामपि त्रीण्येव कर्माणि यजनमध्यायनं दानंचेतिप्रशस्तानि, अवशिष्टान्यन्यानित्रीणिजीविकार्थान्येव भवन्ति, एवं चाध्यापकस्या-याच्ययाजकस्य शूद्रादित: प्रतिग्रहकस्य च मनुस्मृतिप्रभृतिभिरुक्तं प्रायश्‍चित्तां संगच्छते।

अपि चाभिषेकादिगुणयुक्‍तस्य राज्ञ: प्रजापालनं परमो धर्म इति लिखितवता मिताक्षराजारेण क्षात्रोण कर्मणार्जावेवद्विशा वाप्यापदिद्विजइत्यादित: स्वीकृतं कथंचिद्ब्राह्मण-स्यापि राजधर्मपालयत: प्रतिग्रहादीनि त्रीणि कर्माणि निवर्तन्त इति, नतु क्षत्रिय वैश्यवत्पुत्रादिभ्य आचार्येभ्यो गायत्रीदानादीनि नरिवत्तान्त इति। तथा वरपक्षीयाणां भूमिहारब्राह्मणानां कन्यापक्षीयैर्ब्राह्मणान्तरै: सह नमस्कारो भवति। अतएवान्योन्यं विप्रानमन्तीत्यादान्याप्तवाक्यानिसंगच्छन्ते। अतएवोपनयनकर्मण्येतेषामपि अभिवादयेविष्णु-शर्मा हंभी इत्यभिवादनं तथा युष्मान भव सोम्येति प्रत्यभिवादनं च संगच्छते। कन्यापक्षीयेभ्यो वरपक्षीयाणांनियतंधानादानं कान्यकुब्जेष्वेवहि प्रसिद्धम्।

करिकरभूमिगते ब्दे शिवतिथिशोचवलपक्षे।

इदमन्हिकवौविशुद्ध धर्मावितरतिपंडितमुक्‍तिनाथ शर्मा॥

शके 1828 आषाढ़शुक्ल पक्षीयाष्टमीतिथि युक्‍ते शुक्रदिने व्यवस्थापत्रां समाप्तिमगात्।

(1) सम्मतिरत्राथरें श्री देवकीनन्दनशर्मण:

(2) ' ' श्री हरिवंशशर्मण:।

(3) ' ' श्री रामप्रकाशशर्मण:।

(4) ' ' पं. श्यामानन्दपांडेयस्य।

(5) ' ' ज्योतिर्विद् विद्यानन्दपांडेयस्य

(6) ' ' श्री शिवानन्दशर्मा सम्मन्यते।

(7) ' ' सम्मति: श्रीअवधाशरणशर्मण:।

(8) ' ' सम्मति: श्रीबच्चूशर्मण:।

(9) ' ' विप्राणां विप्रांतरै: सह नमस्कारोयुक्‍ततर

इति श्रीमद्रामलोचनशर्मापि।

इसका मर्मानुवाद इस प्रकार हैं कि 'मुजफ्फरपुर जिले के साँढ़ा गाँव में एक सभा कर के यह प्रश्‍न हुआ कि भूमिहार नाम से प्रसिद्ध जो कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं उनका सर्यूपारी प्रभृति अन्य ब्राह्मणों के साथ परस्पर नमस्कार होना चाहिए अथवा नहीं ? इसका उत्तर यह हुआ कि 'होना चाहिए'। क्योंकि बहुत दिनों के परम्परानुसार इन लोगों के सभी व्यवहार कान्यकुब्जों के-से हैं, जैसे कि श्रुति, स्मृति, पुराण और इतिहास सिद्ध जो ब्राह्मण के चूड़ाकरण प्रभृति संस्कार और संध्यादि हैं वे सभी इन लोगों में पाए जाते हैं। 'गर्भ धारण से अष्टम वर्ष में ब्राह्मण का उपनयन संस्कार होना चाहिए' परंतु यदि ब्रह्म तेज की इच्छा हो तो 5 वर्ष में ही, 'इस मनुस्मृति के अनुसार ही इनके संस्कार होते हैं। नहीं तो क्षत्रिय का 11 और वैश्य का 12 वर्ष बाद उपनयन करना चाहिए, इस वचन के अनुसार होते। और वर्ण, आश्रम और इनसे भिन्नों के धर्म हम लोगों को सुनाइए, इस याज्ञवल्क्यस्मृति के वचन के व्याख्यान के समय मिताक्षराकार ने जो लिखा है कि ब्राह्मण ब्रह्मचारी पलाश का दंड धारण करे इत्यादि, उसी के अनुसार भूमिहार ब्राह्मणों के उपनयन संस्कार होते हैं।

यद्यपि 'ब्राह्मण षट्कर्मा होते हैं' इत्यादि वचनानुसार सभी ब्राह्मणों के अध्यायन, अध्यापन, यजन, याजन, दान और प्रतिग्रह ये षट्कर्म होते हैं, परंतु इन भूमिहार ब्राह्मणों में तो यजन, अध्यायन और दान ये तीन ही कर्म पाए जाते हैं, जो क्षत्रियों और वैश्यों में भी पाए जाते हैं। इसलिए भूमिहार ब्राह्मण लोग अन्य ब्राह्मणों के नमस्कार योग्य नहीं हैं, यह शंका हो सकती हैं। तथापि सभी ब्राह्मणों के धर्म के लिए उत्तम कर्म यजन, अध्यायन और दान ये तीन ही हैं, शेष तीन तो केवल जीविका के लिए हैं। इसीलिए मनुस्मृति प्रभृति धर्मशास्त्रों में अध्यापनादि करने में दोष भी लिखा है।

एक बात और भी है कि मिताक्षराकार ने 'अभिषेक होने पर राजा का परम धर्म है कि प्रजापालन करे' यह लिखते हुए यह स्वीकार किया है कि धर्म 'ब्राह्मण आपत्तिकाल में क्षत्रिय में क्षत्रिय और वैश्य के धर्मों से भी जीविका कर सकता है। इसलिए किसी प्रकार से ब्राह्मण भी यदि राजधर्म का पालन करे तो प्रतिग्रहादि तीन धर्म वह नहीं कर सकता।' और जैसे क्षत्रिय प्रभृति उपनयन काल में आचार्य बन कर ब्रह्मचारी को गायत्री का उपदेश नहीं कर सकते, वह बात इन भूमिहार ब्राह्मणों में नहीं हैं, किंतु ये लोग आचार्य बन कर उपनयन काल में गायत्री का उपदेश करते ही हैं। और भूमिहार ब्राह्मणों में कन्या और वरपक्षवाले परस्पर नमस्कार करते हैं, क्योंकि लिखा भी हैं कि 'ब्राह्मणों लोग परस्पर नमस्कार ही करते हैं'। उपनयन काल में इन लोगों के यहाँ ब्रह्मचारी यही कह कर नमस्कार करता है कि 'मैं अमुक शर्मा नमस्कार करता हूँ,' और लोग उनके उत्तर में यही कहते हैं कि 'हे सौम्य आयुष्मान हो।' जैसा कि ब्राह्मणों को ही करना चाहिए। एक बात यह भी है कि इन लोगों के यहाँ विवाह में 'तिलक' लेने की प्रबल प्रथा है जो कान्यकुब्ज ब्राह्मणों में ही प्रबल रूप से पाई जाती है। इसलिए ये लोग कान्यकुब्ज ब्राह्मण ही हैं। इसलिए अन्य ब्राह्मणों के साथ इनका परस्पर नमस्कार बहुत ही उचित है। इन व्यवस्था को मैंने 1828 शकाब्द आषाढ़ शुक्लपक्ष शुक्रवार को लिखा है।

(1) हस्ताक्षर पंडित मुक्‍तिनाथ शर्मा।

(2) मेरी भी सम्मति इस विषय में है, ह. श्री देवकीनन्दनशर्मा।

(3) मेरी भी सम्मति इस विषय में है, ह. श्री हरिवंश शर्मा।

(4) मेरी भी सम्मति इस विषय में है, ह. श्रीरामप्रकाशशर्मा।

(5) मेरी भी सम्मति इस विषय में है, ह. पं. श्यामानन्दन पांडेय।

(6) मेरी भी सम्मति इस विषय में है, ह. ज्योतिर्विद् विद्यानन्द पांडेय।

(7) मैं इसे मानता हूँ, हस्ताक्षर श्री शिवानन्दशर्मा।

(8) मैं इसे मानता हूँ, हस्ताक्षर श्री अवधाशरण शर्मा।

(9) मैं इसे मानता हूँ, हस्ताक्षर श्री बच्चू शर्मा।

(10) ब्राह्मणों का परस्पर नमस्कार बहुत ठीक है। हस्ताक्षर श्रीमदरामलोचन शर्मा।

इस व्यवस्था से सिद्ध है कि कान्यकुब्ज और सर्यूपारी ब्राह्मण इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों को स्पष्ट शब्दों में ब्राह्मण स्वीकार करते हैं, बल्कि कान्यकुब्ज ब्राह्मण सिद्ध करते हैं। यह ठीक भी है, क्योंकि इन ब्राह्मणों का 'भूमिहार' विशेषण या नाम कान्यकुब्जों से ही प्रथम चला है, जैसा कि प्रथम ही दिखला चुके हैं। मैथिलों या सारस्वतों के भी इस कथन को कि ये लोग मैथिल या सारस्वत हैं हम मानते हैं और प्रथम सिद्ध भी कर चुके हैं। क्योंकि ब्राह्मणों में यह एकदल भी उसी समय पृथक हुआ जब अन्य कान्यकुब्जादि दल पृथक हुए और जब सभी देश के ब्राह्मणों का व्यवहार प्राय: मिला हुआ था। इसलिए जो जिस दल में मिल गया वह उसी का हो गया। इस प्रकार इस दल में सभी जगह के धनी, मानी और प्रतिष्ठित अयाचक ब्राह्मण मिलते गए।

इस व्यवस्था में दो-एक स्मरण योग्य बातें हैं जिनको प्रसंगवश कह कर पुन: उसी प्रकृत विचार को उठाएंगे। एक मत तो यह है कि इसमें स्पष्ट रूप से लिखा हुआ है कि इतर ब्राह्मण इन अयाचक दल के ब्राह्मणों को नमस्कार करें और ये लोग भी उन्हें नमस्कार ही करें। और महाराज दरभंगा प्रभृति ने अपने पत्रों में भी इन लोगों को नमस्कार ही लिखा है। फिर जो मैथिल या अन्य ब्राह्मण बिलकुल योग्यता से हीन हैं और गुरु या पुरोहित भी नहीं हैं, वे लोग जो प्रथम से ही इन लोगों के लिए बिना पूछे ही 'आशीर्वाद' की टोकरी लिए आते हैं और 'आशीर्वाद बाबू' यह कहते फिरते हैं, उन्हें इससे शिक्षा ग्रहण करना और अपनी भूल और दुर्बुद्धि अब से भी सुधार लेना चाहिए कि वे दूसरे दलवाले योग्य ब्राह्मण को भी यदि करें तो 'नमस्कार', न कि प्रणाम आदि।

दूसरी बात यह है कि इसमें यह दिखलाया गया है कि कम से कम तिरहुत में ये लोग परस्पर अपने संबंधियों के साथ 'नमस्कार' का व्यवहार रखते हैं। इनसे अन्य प्रांतवालों को भी शिक्षाग्रहण कर के परस्पर भी नमस्कार ही प्रचार करना चाहिए और बबुआई ठाट को कम से कम इस विषय में अब छोड़ देना चाहिए।

तीसरी बात ध्यान देने योग्य यह है कि जब इसमें स्पष्ट लिखा है कि कम से कम तिरहुत प्रांत में लड़कों के उपनयन काल में घरवाले ही पिता, चाचा अथवा दायाद प्रभृति आचार्य होते और उन्हें गायत्री का उपदेश करते हैं, न कि गुरु या पुरोहित, जिसे हमने आँखों भी देखा हैं, और यह उचित भी है। क्योंकि जैसा कि प्रथम ही दिखला चुके हैं कि या तो वही ब्राह्मण आचार्य हो सकता है जो वेदादि शास्त्रों को विधिवत् पढ़ावे, या पितादि ही हो सकते हैं। जैसा कि मनु जी ने द्वितीय अध्याय में लिखा है कि :

निषेकादीनि कर्माणि य: करोति यथाविधि।

संभावयति चान्नेन स विप्रो गुरुरुच्यते॥ 142॥

इसका अर्थ भी प्रथम ही कर चुके हैं। इसलिए गर्गस्मृति में लिखा है कि :

पिता पितामहो भ्राता ज्ञातयो गोत्रजाग्रजा:

उपायनेऽधिकारी स्यात्पूर्वाभावे पर: पर:।

अर्थात 'बालक के यज्ञोपवीत संस्कार काल में पिता, पितामह, भाई, दायाद, गोत्रवाले अथवा ब्राह्मण मात्र, यही लोग आचार्य हो कर गायत्री का उपदेश कर सकते हैं। उन में भी क्रमश: पूर्व-पूर्व के श्रेष्ठ हैं। और उनके न रहने पर ही बादवाले हो सकते हैं।' तो फिर पितादि के रहते ही पुरोहित प्रभृति क्यों आचार्य बनने का दावा करते और बनते हैं इसका कारण समझ में नहीं आता। इसलिए इससे उन प्रांतवालों को शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए जहाँ पुरोहितादि ऐसा अत्याचार करते हैं। जिससे यज्ञोपवीत काल में पिता, पितामह और भाई वगैरह ही आचार्य हो और गायत्री का उपदेश करें, न कि कनफुँकवा गुरु या पुरोहित लोग।

अस्तु, इसी प्रकार जौनपुर जिले के रामपुर ग्रामनिवासी पं. शिवराजमिश्र सर्यूपारी रचित और उनके वंशज पं. ताराप्रसाद मिश्र द्वारा संवत् 1957 में प्रकाशित 'गौतमचंद्रिका' नामक ग्रन्थ से स्पष्ट है कि उन्होंने कम से कम इन भूमिहार ब्राह्मणों में मिले हुए गौतम वंश मात्र को सर्यूपारी, पिपरा का मिश्र, गौतम गोत्री माना है। क्योंकि इन गौतम लोगों के आदि पुरुष कृष्णमिश्र या किठ्ठू मिश्र के विषय में ऐसा लिखा है कि :

'पुन: आसुतोस परितोस कृपाचारज के वंशनु।

सर्यूपार निधास कियो सुखसो बलवंतनु॥1॥

पिपरामिश्रकहाइ तहाँ परिवार बढ़यो अति।

केतिकौ पुरुस निवास कियो जेहि कहत धीरमति॥

परितोसवंस अवतंसमणि किठ्ठू मिश्र कहि गायो।

शिवराज भणैंसरुवार तजि सो काशी सेवन आयो॥ 2॥

कह त्रैसत सन ही जरी सत्तरि मध्य सुजान।

काल भूप वन्दार के, काशी करयो टिकान॥ 3॥

हुती पयासी की सुता, ताको प्रेम विचारि।

व्याह्यो तासों प्रगट भो, देवकृष्ण निरधारि॥ 4॥

हुती नाम की कन्या पयासी मिश्र (सर्यूपारी) की रही, वह (उसने) किसी के तिरस्कार से प्रन (ण) किया कि हम अपना विवाह किठ्ठू मिश्र से करेंगी। इस कारण किठ्ठू मिश्र ने उससे विवाह किया।' इत्यादि। इसके बाद उसी किठ्ठू मिश्र ने वंश में काशी या अन्यत्र के गौतम मात्र को बतलाया है। इससे तो स्पष्ट ही उनका स्वीकार सिद्ध हो गया।

काशी में सर्यूपारी ब्राह्मण सभा की तरफ से स्थापित पाठशाला के अध्यक्ष, भदैनी निवासी पं. विजयानन्द त्रिपाठी ने जो पंक्‍तिपावन परिचय नामक सर्यूपारियों का इतिहास लिखा है, उसके अन्त में जब काशी के प्रसिद्ध सर्यूपारियों के नाम गिनाए हैं, तो सबसे प्रथम महाराजाधिराज द्विजराज श्रीमत्प्रभुनारायणसिंह काशी नरेश को लिखा है। उसके बाद स्वामी मनीषानन्द (हरिनाथ शास्त्री), श्री सुधाकर द्विवेदी, पं. विंधएश्‍वरी प्रसाद द्विवेदी, पं. चंद्रभूषण चतुर्वेदी, श्री शिवकुमार शास्त्री, पं. नकछेदराम जी,

पं. रामभवन जी, पं. कुबेरपति जी प्रभृति को उसी श्रेणी में गिनाया हैं

उसी पुस्तक के 28वें पृष्ठ में भी आपने लिखा है कि 'मुझे यह दिखलाना हैं कि काशी में सर्यूपारियों का दृढ़ निवास कब से हुआ। काशी का राजा जिसका नाम नहीं जानते, कदाचित जयचंद के समय में हुआ हो, गोहरण के क्रोध से एक मुसलमान को प्रतिदिन मारता था। स्वप्न में एक तपस्वी ने उसके इस कार्य की निंदा की और उसके राज्यनाश की भविष्यवाणी कही। उसने यज्ञ किया और चारों दिशाओं से ब्राह्मणों को बुलाया। उनमें से एक श्रीकृष्ण मिश्र सर्यूपारी थे। उनको धोखे से पान में लपेट कर एक ग्राम का दान पत्र दिया। वे ही श्रीकृष्णमिश्र जी महाराज बरिवंड सिंह के पूर्वज थे।' इन बरिवंड सिंह जी का ही नाम बलवंत सिंह भी था, जो वर्तमान काशिराज के पूर्वज थे।

कान्यकुब्ज वंशावलियों का हाल कह ही चुके हैं, जिसमें स्पष्ट ही लिख दिया है कि :

अथकाश्यपमाख्यास्ये गोत्रंतु मुनिसम्मतम्।

पूर्ववंशावलि दृष्ट्वा ज्ञातं षष्टिशतत्रयम्॥ 1॥

मदारादिपुराख्यस्य भुइहाराद्विजास्तु ये।

तेभ्यश्‍चयवनेन्द्रैश्‍च महद्युद्धमभूत्पुरा॥ 2॥ इत्यादि।

अर्थात 'कान्यकुब्ज ब्राह्मणों की पूर्व रचित 360 वंशावलियों को देख कर उनके अनुसार ही काश्यप गोत्र का विवरण लिखते हैं। मदारपुर के अधिपति भुइंहार (भूमिहार) ब्राह्मणों और मुसलमानों से युद्ध हुआ', इत्यादि। एक-दो नहीं, किंतु 360 वंशावलियाँ यदि इस बात को स्वीकार करती है कि वर्तमान कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के काश्यप गोत्र से जो दूबे, तिवारी, अवस्थी, दीक्षित, अग्निहोत्री और मिश्र प्रभृति उपाधियों (आस्पदों या पदवियों) वाले ब्राह्मण हैं, वे सभी भूमिहार ब्राह्मणों की संतान हैं, तो फिर यही सिद्ध हो गया कि संपूर्ण कान्यकुब्जवंश ही इस बात को स्पष्ट रूप से मानता है कि ये जमींदार या भूमिहार ब्राह्मण लोग ब्राह्मण ही क्या बल्कि बहुत से कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के पूर्वज हैं। यह बात जिस कान्यकुब्ज वंशावली को आप देखेंगे उसी में काश्यप गोत्र के निरूपण में पावेंगे।

भारतमित्र के संपादक पं. अंबिकाप्रसाद वाजपेयी प्रभृति की सम्मति दिखला ही चुके हैं, जिन्होंने स्पष्ट ही लिख दिया है कि भूमिहारों के ब्राह्मण होने में संदेह नहीं किया जा सकता। और इस बात को उन्होंने खूब ही सिद्ध किया है, जो दिखला ही चुके हैं। इससे निर्विवाद सिद्ध हो गया कि जैसे संपूर्ण मैथिल समाज इन अयाचक दल के सभी ब्राह्मणों को खुले रूप से मानता हैं, वैसे ही कान्यकुब्ज और सर्यूपारी समाज भी। सो भी एक प्रकार से नहीं किंतु हर प्रकार से। और इतने ही ब्राह्मणों के साथ ही इनका घनिष्ठ सम्बन्ध भी है, क्योंकि इस देश में ये ब्राह्मण ही पाए जाते हैं। इसके सिवाय बंगाली ब्राह्मणों की सम्मति के बारे में भी हम यह कहते हैं कि वारेंद्र या राढ़ीय श्रेणी के ब्राह्मण दुर्गादास लहेरी महाशय ने जो पुस्तक 'पृथ्वीवीर इतिहास' नामक वंगभाषा में लिखी और श्री धीरेंद्रनाथ लहेरी ने हावड़ा (कलकत्ता) से प्रकाशित की है, उसके द्वितीय खण्ड के अध्याय 22 के 347वें पृष्ठ में जो कुछ लिखा है वह इस प्रकार है :

मैथिल ब्राह्मण - भूमिहार ब्राह्मण गण मैथिल ब्राह्मण गणेरई एकटी शाखा बलिया प्रसिद्ध1 इहांदेर उत्पत्ति संबंधों किंवदंती एई - परशुराम कत्तरृक पृथ्वी नि:क्षत्रिया हईले ये सकल ब्राह्मण सेई क्षत्रियागणेर भूसंपत्ति ग्रहण करने, ब्राह्मणोचित क्रिया2कर्म परित्याग करिया राज्यशासनादि कार्ये व्रती हन, ताहाँरई भूमिहार-ब्राह्मण बलिया परिचित हइया छिलेन। आदम सुमारी रा तालिकाय ईहाँरा 'बाभन' संज्ञाय अभिहित।

इसका अनुवाद यों है :

भूमिहार ब्राह्मण गण मैथिल ब्राह्मणों की शाखा मात्र है। उनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में किंवदंती है कि जब परशुराम ने क्षत्रियों को नष्ट किया था, उस समय जिन ब्राह्मणों ने क्षत्रियों का राज्य लिया और राज्य कर्म में लगने से ब्राह्मणोचित कर्म (प्रतिग्रहादि) को त्याग दिया, उनकी ही संतान भूमिहार ब्राह्मण हैं। मर्दुमशुमारी में इनको 'बाभन' लिखा है।

इसके अतिरिक्‍त उन लोगों ने वंग देश में रहनेवाले भूमिहार ब्राह्मणों का नाम 'भूम्यधिकारी ब्राह्मण' ही रख दिया है, जैसा कि प्रथम ही कह चुके हैं और मुर्शिदाबाद-लालगोला के राजा साहब, जो गाजीपुर के 'पाली' नामक ग्राम के रहनेवाले कौशिक गोत्री भूमिहार ब्राह्मण हैं, तथा काँदी प्रभृति स्थानों में जो भूमिहार ब्राह्मण रहते हैं, वे वहाँ पर केवल 'ब्राह्मण' ही कहे जाते हैं। वे सभी प्राय: संयुक्‍त प्रांत से गए हैं, और वहाँ पर केवल मिश्र, पांडेय इत्यादि नामों से बोले जाते हैं, जैसे, विकरा ग्राम में पं. गोपीनाथ तिवारी, काजिया खाली में पं. कार्तिकचंद तिवारी, मुर्शिदाबाद-शेख अलीपुर में पं. रमाकांत शुक्ल, पं. हरिनारायण मिश्र, आलमशाही ग्राम में पं. कार्तिक पांडे इत्यादि। मिदनापुर गढ़बीटा में श्री विनाशचंद्र राय वगैरह।

यदि गौड़ों और सारस्वतों की भी सम्मति लेनी हो तो 'सारस्वत ब्राह्मण इतिहास' नामक ग्रन्थ को देखिए, जिसकी बहुत सी बातें प्रथम ही कह चुके हैं। वह सारस्वत ब्राह्मण पं. दुर्गादत्त ज्योतिषी जी का लिखा हुआ है और उसकी सारस्वत सभा तथा अन्य गणमान्य विद्वानों ने प्रशंसा की हैं, जिनकी सम्मतियाँ उस पुस्तक के अन्त में लिखी हुई है, जिनमें सारस्वत लोगों की

1. हमने आनन्दामृतवर्षिणी पुस्तक पढ़ी थी। उसमें लिखा था कि जैसे अंधों ने हाथी पाया हो और उसे हाथों से टटोला हो तो जो जिस भाग में टटोलेगा , वह समझेगा कि हाथी ठीक वैसा ही है। ठीक वैसी ही बात हमारे भूमिहार ब्राह्मणों के विषय में चरितार्थ होती है।

2. ब्राह्मणोचित क्रियाकर्म त्यागने का अर्थ मालूम होता है - दान न लेने और पुरोहिती न करने से है। परंतु जानना चाहिए कि ये जीविका के कर्म हैं , उन्हें हम ब्राह्मणोचित कर्म नहीं कह सकते। दूसरे ब्राह्मणों की दशा , जो अच्छी दशा में है , इनकी-सी ही है।

संख्या विशेष हैं। उस ग्रन्थ में पश्‍चिम या भूमिहार ब्राह्मणों के सभी राजों, बाबुओं, जमींदारों और दोनवार, किनवार, सकरवार, जैथरिया एकसरिया प्रभृति सभी छोटे विभागों को सारस्वत ब्राह्मण लिखा है। यह बात उस पुस्तक में आदि से अन्त तक पाई जाती है।

इसके अतिरिक्‍त बुलंदशहर निवासी पं. गंगा सहाय जी ने, जो संभवत: गौड़ ब्राह्मण हैं, अपनी पुस्तक 'ब्राह्मण कुलदीपक' के 224वें पृष्ठ में ऐसा लिखा है कि:

'और यह कौन नहीं जानता कि हिज हाईनेस महाराजा सर प्रभुनारायण सिंह बहादुर, जी.सी.आई.ई काशी नरेश भी ब्राह्मण हैं इत्यादि।'

इसके सिवाय गौड़ ब्राह्मण वंशावतंस व्याख्यान वाचस्पति पं. दीनदयालु शर्मा जी ने सोनपुर के अखिल भारतवर्षीय सनातन धर्म के सभा भवन में गत 1915 ई. के कार्त्तिक मेले के समय 20 या 25 हजार मनुष्यों के सम्मुख जो सिंहनाद किया था, उसे भी सुन लीजिए। उन्होंने आलंकारिक वाक्य उस समय कहे थे, उनका उल्लेख ता. 27-11-1915 ई. के 'पाटलिपुत्र' में इस प्रकार है :

'सभापति (महाराज दरभंगा) की बगल में बाईं ओर महाराज रीवाँ और दाहिने ओर महाराज हथुवा विराजे। इन लोगों के यथा स्थान विराजने पर व्याख्यान वाचस्पति पं. दीनदयालु शर्मा ने खड़े हो कर आनन्द प्रकाश करते हुए कहा :

'महाराज रीवाँ के शुभागमन से आज यहाँ की अपूर्व शोभा हो गई है। जिस प्रकार हरिहर क्षेत्र में नारायणी, जाद्दवी और मही का संगम हैं, इसी प्रकार यहाँ रीवाँ, दरभंगा और हथुवा नरेशों का सम्मेलन हुआ है। कहना चाहिए कि यहाँ महाराज रीवाँ कृष्णभक्‍त होने के कारण विष्णुरूप से हमारे सभापति महोदय (रामेश्‍वर) शिवरूप से और महाराज हथुवा ब्राह्मण होने के कारण ब्रह्मास्वरूप से एकत्र हुए हैं। आज इन त्रिदेवों को सम्मेलन यथार्थ में धर्मसम्मेलन हुआ है।'

उन्होंने स्पष्टरूप से महाराज हथुआ को ब्राह्मण शब्द से संबोधित किया था। इसलिए इससे बढ़ कर स्वीकार किसे कहते हैं जहाँ मेले के सम्मुख पुकार कर कहा जा रहा हैं? इस प्रकार सिद्ध है कि सभी प्रकार के ब्राह्मण इन अयाचक ब्राह्मणों को स्पष्टरूप से स्वीकार करते थे और करते हैं।

यदि क्षत्रियों के स्वीकार की आवश्यकता हो तो क्षत्रिय मूर्द्धन्य विष्णुपरायण रीवाँ नरेश महाराज श्री रघुनाथसिंह, जी.सी.एस.आई. ने अपने हाथों लिखित 'रामस्वयंवर' के 189वें पृष्ठ में जो वेंकटेश्‍वर प्रेस में संवत्! 1955 में छपा हैं, ऐसा लिखा है:

गबने एक समय हम काशी। विश्‍वेश्‍वर के दर्शन आशी॥

तहं को भूपति परमा सुजाना। गौतम वंश सुविप्र प्रधाना॥

रामनगर गंगा तट माहीं। निवसत गौतम भूप तहांहीं॥

काशिराज महराज कहावैं। पुनिद्विजराज प्रतिष्ठा पावैं॥

जासु नाम ईश्‍वरीं प्रसादा। अन्तमाहिं नारायण वादा॥

मिल्यों जाई तिनसों हुलसि, मोहि लिय अंक लगाय।

निज बालक इव जानि कै, दीन्हीं प्रीति बढ़ाय॥

सुनि मम वचन मुदित काशीशा। फेरत पाणिघ्राण करि शीशा॥

कीन्ह्यो मैं प्रणाम वहु बारा। आशिष दीन्ह्यौ भूप उदारा॥

इसके अतिरिक्‍त इन्हीं पूर्वोक्‍त महाराज बहादुर के सुयोग्य पुत्ररत्‍न वर्तमान रीवाँ नरेश श्रीमान वेंकटरमण सिंह जी ने भी महाराजा हथुवा के साथ पूर्वोक्‍त सनातन धर्म सभा मंडप में जनसमूह के सम्मुख ऐसा ही व्यवहार किया, जिसके साक्षी हजारों हैं। यह उनका कर्तव्य उचित भी है, क्योंकि 'आत्मा वै जायते पुत्र:', 'अर्थात पिता की ही आत्मा पुत्र रूप से उत्पन्न होती है,' इस वेदानुशासन के अनुसार महाराज श्री रघुराज सिंह जी की आत्मा ही ठहरे। उनके इस कर्तव्य का भी उल्लेख पूर्वोक्‍त 'पाटलिपुत्र' के अंक में इस प्रकार किया गया है :

'इसी समय महाराज रीवाँ ने सभामंडप के दरवाजे पर दर्शन दिया। जनता ने बड़े प्रेम से महाराज रीवाँ का स्वागत और अभिनन्दन किया। महाराज रीवाँ के सभामंडप में प्रवेश करते ही महाराज दरभंगा और हथुवा ने सभामंडप के बीच अग्रसर हो महाराज की अभ्यर्थना की। ब्राह्मणभक्‍त महाराज रीवाँ ने इन दोनों नरेशों के पैर छू प्रणाम किया। यह दृश्य इस गिरे जमाने में भी ब्राह्मणगौरव का महात्म्य बढ़ानेवाला था।'

इसके अलावा भूतपूर्व खंग विलास प्रेस, बाँकीपुर के अधिष्ठाता बाबू रामदीन सिंह ने 'विहार दर्पण' के 139वें पृष्ठ में ऐसा लिखा है कि :

'बहुत दिनों से यह झगड़ा चला आता था कि बाभन (भुइंहार) कौन वर्ण हैं। महाराज रामकृष्णसिंह (टेकारी के भूतपूर्व महाराजा) ने निश्‍चय करवाया कि बाभन शब्द ब्राह्मण शब्द का अपभ्रंश है।'

उसी ग्रन्थ के 122, 123वें पृष्ठों में भी लिखा है कि :

'महाराज रामकृष्णसिंह देव बहादुर की जन्मभूमि सारन में एक गाँव रूसी है। इनके पिता का नाम बाबू कैलाशपति सिंह था। और ये जाति के एकसरिया बाभन थे। इनके जीवन-चरित्र के पहले यह जान लेना बहुत जरूरी हैं कि ये एकसरिया बाभन क्यों कहलाते हैं। लोग कहते हैं कि पंडितवर जगन्नाथ दीक्षित नामक एक ब्राह्मण कन्नौज से आ कर एकसार गाँव में बसे (यह गाँव छपरा के इलाके में हैं) इसीलिए इस देशवाले एकसरिया ब्राह्मण और दीक्षित कहलाने लगे। उसी का अपभ्रंश अब एकसरिया बाभन हो गया है। यथार्थ में ये लोग कन्नौजिया ब्राह्मण हैं।'

उसी ग्रन्थ के 125-126वें पृष्ठों में इस प्रकार लिखा मिलेगा :

'और अब बाबू कैलाशपति सिंह का ब्याह भी इनके पिता ने कस्बे शिवहर (तिरहुत में हैं) राजा यदुनन्दन सिंह के भाई बाबू राधामोहन सिंह (यह जाति के जैथरिया बाभन थे) की लड़की से बड़ी धूमधाम से किया।'

इनके अतिरिक्‍त ब्राह्मणादि वर्णों की ही कुछ स्फुट सम्मतियाँ दिखला देते हैं : पं. विष्णुकांत झा बी.ए. संपादक 'मिथिला मिहिर' ने संवत् 1967 आषाढ़ के 2 मंडल 6 प्रकाश में लिखा है कि 'अभी थोड़े दिन हुए कि टेकारी के ब्राह्मण महाराज ने एक मेम से विवाह किया है,' महाराज गोपालशरण सिंह जी की बात हैं।

स्वर्गीय डॉ. राजा राजेंद्रलाल मित्र ने अपने बंगला मासिक पत्र 'विविधार्थ संग्रह' के पर्व 4, खण्ड 40, पृष्ठ 73 (शकाब्द 1979 श्रावण मास) में लिखा है कि 'कान्यकुब्ज ब्राह्मण दीगेर पाँच ठो दल आछे, यथ सरवरिया, सनौढ़ा (सनाढ्‍य) जिझौतिया, भूमिहार एवं प्रकृत कन्नौजिया।'

बाबू गोपाल जी वर्मन ने अपनी पुस्तक 'जीव इतिहास प्रसंग' के तृतीय खण्ड के 52वें पृष्ठ में लिखा है कि 'भूमिहार बाभन लोग निस्संदेह ब्राह्मण हैं।'

स्वर्गीय महामहोपाध्याय पं. सुधाकर द्विवेदी, काशी सदा भूमिहार ब्राह्मणों को ब्राह्मण कहा करते थे। आप ने गत 30 अगस्त, सन 1910 ई. को बनारस के टाउनहाल में जो व्याख्यान दिया था उसमें आपने महाराज काशीराज को 'हमारे पूजनीय काशीनरेश' कह कर सम्बोधन किया था, जैसा कि 'नवजीवन' समाचार-पत्र भाग 2, अंक 20 के देखने से विदित हो सकता है।

काशी के प्राय: सभी विद्वान चिरकाल से महाराज काशीराज को 'द्विजराज' और 'शर्मा' कह कर सम्बोधन करते और लिखते हैं, जैसा कि स्वर्गीय महामहोपाध्याय पं. बापूदेवशास्त्री सी. आई. ई. का पंचांग और काशी धर्म सभा का पंचांग देखने से स्पष्ट हो जावेगा। इस पंचांग को पं. बलदेवदत्त जी ज्योतिषी के पुत्र पं. गणेशदत्त जी ज्योतिषी रचते हैं, जिस पर काशी के सुप्रसिद्ध प्राय: 40-50 विद्वानों के हस्ताक्षर रहते हैं।

नदिया पंडित सभा के सभापति 'कमेंटरीज और हिंदू ला' (Commentaries on Hindi law) और 'व्यवस्थाकल्पद्रुम' आदि ग्रन्थों के रचयिता पं. योगेंद्रनाथ भट्टाचार्य एम.ए.डी.एल. ने अपनी पुस्तक 'हिंदू कास्ट्स एंड सेक्ट्स' (Hindu Castes and Sects) के प्रथमाध्याय में बिहार और बनारस प्रांत के भूमिहार ब्राह्मणों के सम्बन्ध में यों लिखा है :

"The clue to the exact status of the Bhumihar Brahmans is afforded by their very name. The word litterrally means a landholder. In the language of the Indian feudal spstems, Bhoom is the name given to a kind of tenure similar to the Inams and Jaggirs of Mohamedan times. By a Bhoom according to the Rajputana gazatteer an herditary, non-resumable and inalienble property in soil was inseparably bound up with a revenue-free title. Bhoom was given as compensation for bloodshed in order to quell a feud, for distinguished services in the field, for protection of a boarder or for the watch and ward of a village.

The meaning of the desiganation Bhumihar being as stated above, the Bhumihar Brahmans are evidently these Brahmans who held grants of land for secular service. Whoever held a secular fief was Bhumihar. Where a Brahman held such a tenure he was called a Bhumihar Brahman. Where the holder was a Kshatriya he was called Bhumihar Kshatria. Bhumihar Brahmans are sometimes called simply Bhumihars, just as the masons, whose class name in Bengalee is Raj mistri (Royal architect) are generally called Raj.

The Bhumihars observe all their religious ceremonies in the same manner as the good Brahmans, but as they practice secular occupations they like the Laukik Brahmans of Sothern India, are not entitled to accept religious gift or to minister to any one as priests. The usual surnames of the Bhumihar Brahmans are the same as those of other Brahmans of Northern India. Being fighting castes a few of them Rajput surnames.

इसका मर्मानुवाद यह है कि 'भूमिहार ब्राह्मणों की असल स्थिति उनके नाम नाम से ही झलक जाती है, क्योंकि इसका अर्थ जमीन रखने या स्वीकार करनेवाला, अथवा जमींदार हैं। भारतवर्षीय 'जागीर प्रदान की रीति' की भाषा में 'भूमि' एक प्रकार के अधिकार का नाम है, जैसा कि मुसलमानी समय का 'इनाम' या 'जागीर'। राजपूताना 'गजेटियर' के अनुसार 'भूमि' उस पृथ्वी संबंधी अधिकार का नाम होता था जो एक वंश परम्परा के लिए छीनी और बेची न जा सके और सर्वथा कर (मालगुजारी) रहित हो। किसी के यहाँ मार-काट होने पर बतौर खेसारा या तावान के कहीं विद्रोह के दमन के लिए, लड़ाई के मैदान में कोई महान कार्य करने के उपलक्ष्य में, सीमा प्रांत की रक्षा के लिए, अथवा किसी गाँव की पहरा, चौकी या रक्षा के लिए 'भूमि' दी जाती थी।

'जैसा कि ऊपर 'भूमिहार' शब्द का अर्थ कर चुके हैं, उसके अनुसार भूमिहार ब्राह्मण वे ब्राह्मण हैं जिन्होंने पूर्वोक्‍त सांसारिक कामों के करने के बदले पूर्वोक्‍त भूमि संबंधी अधिकार प्राप्त किए थे। जिस किसी को उक्‍त लौकिक कार्यों के करने के बदले उक्‍त अधिकार मिलता था, वह 'भूमिहार' कहलाता था। इसलिए जब वह भूमि संबंधी अधिकार किसी ब्राह्मण को मिलता था, तो वह भूमिहार ब्राह्मण कहलाता था। और जब किसी क्षत्रिय को अधिकार मिलता था तो वह भूमिहार क्षत्रिय कहलाता था। भूमिहार ब्राह्मण कभी-कभी केवल भूमिहार कहे जाते हैं जैसे कि बंगाल में जिनका नाम राजमिस्त्री हैं, वे केवल 'राज' बोले जाते हैं। भूमिहार ब्राह्मण अपने कुलधर्म, आचार-व्यवहार उसी प्रकार संपादन करते हैं जैसे कि उत्तम ब्राह्मण लोग करते हैं। ये लोग चूँकि सांसारिक व्यवसाय करते हैं, अतएव ये लोग दाक्षिणात्य लौकिक ब्राह्मणों की तरह दानग्रहण और पुरोहिती नहीं करते।'

'भूमिहार ब्राह्मणों की उपाधियाँ साधारणत: वे ही हैं जो उत्तरीय भारत के अन्य ब्राह्मणों की है। केवल युद्धप्रिय होने के कारण इनमें किसी-किसी की उपाधियाँ क्षत्रिय लोगों की उपाधियों के सदृश भी है।'

बहुत ही युक्‍तियुक्‍त विचार किया गया है। इसका आभास (तात्पर्य) हम 'भूमिहार' शब्द का अर्थ करते हुए प्रथम ही दे चुके हैं और इन्हीं महाशय की सम्मति दिखलाने के लिए प्रथम ही कह भी चुके हैं। भट्टाचार्य महोदय के इस युक्‍तियुक्‍त लेख के विचार ने उस संशय का भी उच्छेद कर दिया, जो केवल अज्ञानमूलक कहीं-कहीं 'भूमिहार' नामवाले क्षत्रियों को देख या सुन कर इन अयाचक दलीय ब्राह्मणों के विषय में हुआ करता है। इस शंका का विशेष रूप से खण्डन द्वितीय प्रकरण में भी किया जावेगा।

ता. 11 दिसंबर, सन 1910 ई. के 'वीर भारत' पत्र में ऐसा लिखा गया है: 'काशी नरेश इस समय कलकत्ते में हैं। आपको लार्ड मिण्टो सामंत राजा का अधिकार दे गए हैं। महाराज की जाति हैं ब्राह्मण। आप बनारस के हिंदुओं के शिरोमणि कहे जाते हैं। इसी से कहना पड़ता है कि सरकार ने महाराज को सम्मानित कर सनातन धर्मावलंबी मात्र को सम्मानित किया है। महाराज को कलकत्ते की कई सभाओं ने बड़ी धूमधाम से अभिनन्दन पत्र दिया है।

यथा :

स्वस्ति, विविधविरुदावलीविराजमान मानोन्नत महाराज श्री काशिराज प्रभुनारायण सिंह शर्मा, जी.सी.आई.ई. महोदय महोदारचरितेषु इत्यादि।

काशी नरेश को 'ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन' ने उस दिन जो यह एड्रेस दिया था, उसके उन श्‍लोकों को हम नीचे छापते हैं, जो उनके सम्मानार्थ पढ़े गए थे :

कारुण्याद्‍भवतेश्‍वरप्रतिकृतेर्यद्‍भारताधीशितु:,

स्वाम्यं लब्धाखण्डिताक्षमधुना श्रीकाशिकामण्डन

स्वे राज्ये द्विजराज! तेन मुदितैर्वीयविद्वदि्द्वजै:,

दत्तां प्रीतिमयं गृहाण कृपया सद्‍भावपुष्पांजलिम्॥ 1॥

सार्द्धं कुमारसचिवादिभिराप्तवर्गैंदीर्घायुराधिरहितोयशसा

प्रदीप्त:। वाराणसीक्षितिपते विजयस्व शश्‍वत्प्रोल्लासयन्न-

खिलभारतमुज्वली:॥ 2॥ राजकीय संस्कृतविद्यालयध्य-

क्षस्य संस्कृतपरीक्षासमितिसंपादकस्य वंगीयाध्यापकवर्गं-

प्रतिनिधिभूतस्य श्रीकालीप्रसन्नदेवर्शर्मण:॥

'मर्यादा' भाग 1, संख्या 2, पृष्ठ 23 में लिखा गया है कि 'यों तो ब्राह्मणों में कई विभाग हैं, तो भी दो प्रसिद्ध विभाग हैं, एक दान लेने और पुरोहिती करनेवाले और दूसरे इन कर्मों से पृथक रहनेवाले। इनमें से कोई किसी को ऊँचा-नीचा नहीं कह सकता।'

'बालहितैषी' नामक मासिक पत्र के संपादक श्री विनोदविहारी सेन राय एम.ए. ने फरवरी 1911 ई. के अंक के 24वें पृष्ठ में यों लिखा है :- 'अट्ठारहवीं शताब्दी के आदि में राजा मनसाराम मिश्र ने मुगल बादशाहों की अवनति होने पर बनारस के निकटवर्ती गाँवों और नगरों को अपने अधिकार में ला कर अपने राज्य को प्रबल किया था। उनके दादा गौतम ब्राह्मण, जिनकी पदवी मिश्र थी, पुरोहित का काम छोड़ कर जमींदार हो गए थे।' स्मरण रखना चाहिए कि यही राजा मनसाराम काशिराज के पूर्वज थे, जिनके विषय में उक्‍त सम्मति दी गई है।

बाबू साधुचरण प्रसाद कृत 'भारतभ्रमण' के दूसरे अध्याय के पृष्ठ 10 में ऐसा लिखा है :-हथुआ-सिवान से 8 मील उत्तर हथुआ ग्राम के एक राजा हैं। राजवंश भूमिहार ब्राह्मण हैं।

तीसरा खण्ड, पृष्ठ 56 - 'टिकारी के राजा भूमिहार ब्राह्मण हैं।'

सन 1910 के बुधवार की संध्या के 'इंपायर' पत्र मास दिसंबर की संख्या 16 में लिखा है कि "The Hitbadi observes that Pandit K.P. Bhattachary, the Principal of the Sanskrit College, will retire on the 30th current, and will succeeded by Mr. S.G. Udayabhushan. The sam, paper, while expressing joy at the elevation of Benares to semi-independent state, points out that, while other Indian chief are either Rajputs or Kshatriyas etc the Maharaja of Berares is the only Brahmans Prince."

इसका अर्थ यह है कि 'हितवादी' पत्र ने लिखा है कि पं. काली प्रसन्न भट्टाचार्य, जो संस्कृत कॉलेज के प्रिंसिपल हैं अब 30 तारीख को पेंशन पावेंगे और उनकी जगह मिस्टर एस.सी. उदयभूषण नियत होंगे। वही पत्र बनारस राज्य के अर्द्धस्वतन्त्र राज्य होने पर खुशी मनाता हुआ लिखता हैं कि जब कि भातर के अन्य सभी स्वतन्त्र राजे राजपूत, क्षत्रिय इत्यादि हैं, केवल महाराजा बनारस ही ब्राह्मण हैं।'

मीमांसकप्रवर महामहोपाध्याय श्री चित्रधर मिश्र जी ने मुंगेर में होनेवाली गत भूमिहार ब्राह्मण महासभा के विषय में वहाँ ये श्‍लोक कहे थे :

एषा मुद्गगिरौ नृपैर्बहुबिधैरांत्य संशोभिता,

सद्धर्मादिविशोधिनी निजसभा देन्द्रसंराजिता।

मन्ये देवसभाद्य भूमिममलां कर्तुं स्वतो वातरत्,

किन्त्वस्या यदि भूमिहारघटिता नस्यात्समाख्या तदा॥ 1॥

विप्रा: सर्वविधा: समेत्य सकलं स्वं स्वं चरित्रां सदा,

एतस्या नियमेन सम्मततरं संशोध्यकुर्युर्मुदा।

एवं चेदखिलस्य भारतदलस्यैषा महाव्यापिका,

कुर्यादिष्टफलानि हानिरियता नैवास्ति काचित्पुन:॥ 2॥

इसका अनुवाद यह है कि 'मुंगेर नगर में एकत्रित हुए बहुत से राजा बाबुओं से शोभित और सद्धर्मों का शोधन करनेवाली भूमिहार ब्राह्मण सभा ऐसी प्रतीत होती है कि गोया इंद्र से शोभित देवसभा ही स्वर्ग से यहाँ पर आज इस भूमि को पवित्र करने के लिए स्वयं आ गई है। परंतु यदि इस महासभा के नाम में भूमिधार शब्द न रहता, अर्थात भूमिहार ब्राह्मण महासभा की जगह केवल 'ब्राह्मण महासभा' इसका नाम होता, तो सभी प्रकार के ब्राह्मण इस महासभा में प्रसन्नतापूर्वक उपस्थित हो इसके सुंदर नियमों के अनुसार अपने-अपने चरित्रों का संशोधन कर के उन्हें अच्छी तरह संपन्न करते। ऐसा करने से यह सभा महाव्यापक हो कर भारतवर्ष के ब्राह्मण दल मात्र की अभिलषित वस्तुओं की साधिका हो जाती और मेरी समझ में ऐसा करने से आप लोगों की कोई हानि भी नहीं है।'

पाठक ही विचारें कि अब इससे बढ़ कर और कौन सी सम्मति वा स्वीकार भूमिहार ब्राह्मणों की ब्राह्मणता के विषय में हो सकता है, जिसका न होना पूर्वोक्‍त मनुष्यगणना के विवरण के लेखक अंग्रेज महोदय जी ने बतलाया हैं। सुरसर के पास नेपाल राज्य के पिपरा सूबा के पं. गोपाल मिश्र या उनके वंशज, जो गर्गगोत्री वसमैत मूल के भूमिहार ब्राह्मण हैं, नेपाल राजदरबार में ब्राह्मणवत ही माने जाते थे और हैं।

सब लोगों को इतने से ही विदित हो गया कि भारतवर्ष की सभी उच्च और प्रतिष्ठित जातियाँ इन भूमिहार ब्राह्मणों को स्पष्ट रूप से ब्राह्मण स्वीकार करती है, क्योंकि उनके नेता लोगों ने, सभाओं ने स्पष्टरूप से कह दिया है। इसलिए सन 1911 ई. की बिहार की मनुष्यगणना के सुपरिन्टेंडेंट की यह बात, कि भूमिहार ब्राह्मणों को इतर हिंदू केवल ब्राह्मण नहीं मानते किंतु भूमिहार ब्राह्मण, नितान्त भ्रममूलक होने के कारण मिथ्या है।

दूसरा कारण जो उन्होंने भूमिहार ब्राह्मणों के इतर ब्राह्मणों से पृथक लिखने में दिखलाया है कि 'ये लोग सभी ब्राह्मणों में मिल जावेंगे जिससे इनका पता न चल सकेगा।' वह यद्यपि सत्य है, तथापि उतने मात्र के लिए ये लोग अन्य ब्राह्मणों से पृथक लिखे नहीं जा सकते, क्योंकि गौड़, कान्यकुब्ज, सर्यूपारी और सारस्वत प्रभृति जैसे एक ही साथ लिखे जाते हैं वैसे ही ये भी क्यों न लिखे जावे? यदि उन सबों की संख्या के लोप हो जाने का डर या विचार साहब बहादुर को नहीं है, तो फिर केवल भूमिहार ब्राह्मणों पर ही इतने अनुग्रह की कौन सी आवश्यकता ठहरी? और यदि संख्या का पता लगाना चाहेंगे तो जैसे मैथिल महासभा या अन्य ब्राह्मण दलवाली महासभाएँ डायरियाँ बना कर अपने समाज की संख्या का यथावत पता लगाती है, वैसे ही इन भूमिहार ब्राह्मणों की महासभा भी अपने समाज की डायरी तैयार करा सकती हैं। इससे यह भी लाभ हो सकता है कि उसके तैयार करने में समाज भर का पता चल जावेगा और यह विदित हो जावेगा कि किसी जगह किस बात की आवश्यकता, त्रुटि अथवा बुराई है, जिसके लिए महासभा यत्‍न कर के, उसकी पूर्ति का निवारण कर सकती है। यदि न भी संख्या का पता लगे ओैर सभी ब्राह्मण एक में मिल जावे, तो इसके लिए उन्हें चिंता करने की क्या आवश्यकता है? जिसके मकान में आग लगेगी वह स्वयं उसे बुझा लेगा। जो अपने समाज की उन्नति करना चाहेगा वह उसके लिए यत्‍न कर लेगा आपको तो यदि अनुग्रह करना है, तो गौड़, कान्यकुब्ज प्रभृति सभी ब्राह्मण दलों पर करिए, न कि किसी विशेष पर। और साहब बहादुर का यह कहना कि 'इनके एक पृथक समाज होने का सभी विवरण लुप्त हो जावेगा' भी ठीक नहीं है। क्योंकि प्रथम तो पृथक दल होने में प्रमाण ही नहीं हैं। क्योंकि सभी ब्राह्मणों के साथ विवाह सम्बन्ध तथा खान-पानादि दिखला चुके हैं। यदि मान भी ले, तो केवल भूमिहार ब्राह्मण ही क्यों पृथक दलवाले हैं? क्या गौड़ों और कान्यकुब्जों के आचार, व्यवहार अथवा इतिहास वगैरह परस्पर मिलते हैं? बल्कि ये (भूमिहार ब्राह्मण) तो सभी से मिलते हैं। परंतु न तो मैथिल कान्यकुब्जों या सर्यूपारियों से मिलते और न सर्यूपारी या कान्यकुब्ज ही परस्पर मिलते हैं। इसलिए यदि पृथक दल कहा जावे, तो प्रथम उन्हीं लोगों को कहा जा सकता है, पश्‍चात् इन भूमिहार ब्राह्मणों को किसी प्रकार से कह सकते हैं। इसलिए इनके पृथक लिखे जाने की कोई आवश्यकता नहीं है, जब तक कि कान्यकुब्ज वगैरह भी अलग-अलग न लिख जावें।

यदि आपको इनके ऊपर विशेष अनुग्रह करना है, तो 'ब्राह्मण' शीर्षक (heading) वाला एक खाना बना कर उसके (अ) और (ब) दो विभाग कर के एक 'भूमिहार ब्राह्मण' और दूसरे में 'अन्य ब्राह्मण' ऐसा लिख सकते हैं। जैसे:-

ब्राह्मण

भू. ब्रा. अन्य ब्रा.

ऐसा ही त्यागियों और महियालों आदि के विषय में भी कर सकते हैं। ऐसा करने से इनकी संख्या का भी पता लग सकता है और बात भी ठीक हो सकती हैं। बल्कि युक्‍त प्रांत (U.P.) की सरकार तो कुछ विचार न कर के भूमिहार ब्राह्मणों और अन्य ब्राह्मणों को केवल 'ब्राह्मण' लिखा करती है। जैसा कि डाइरेक्टर का सर्क्यूलर स्कूलों और कॉलेजों में जारी है, जिसके विषय में भूमिहार ब्राह्मण सभा काशी के सेक्रेटरी के पास नीचे लिखा हुआ डाइरेक्टर का पत्र आया है। वह इस प्रकार है:

G 15320

No --- -1911-12

X-25

From,

The Hon'ble Mr. C. F. De La Fosse M.A.

Director of Public Instruction

United Provinces.

To

The Secretary,

Bhumihar Brahman Sabha. Benares.

Dated Allahabad. 8th Feb., 1912.

With reference to his letter dated the 7th September, 1912, has the honour to inform him that the Inspectors of schools have been requested to show Bhumihars as Brahmans in the Annual Statistical Returns.

S/d P.S.Barell M.A.

Assistant Director of P.I.

For C.F. De La Fosse M.A.

Director of P.I., U.P.

इस पत्र का भावानुवाद इस प्रकार हैं:-

जी 15320

नंबर... 1911-1912

एक्स-25

आनरेब्ल मिस्टर सी.एफ. डेलाफोस एम.ए. डाइरेक्टर, शिक्षा विभाग, संयुक्‍त प्रांत के पास से।

सेक्रेटरी, भूमिहार ब्राह्मण सभा बनारस, के पास।

इलाहाबाद, ता. 8वीं फरवरी 1912 ई.।

आपके ता. 7 सितंबर सन 1911 ई. के पत्र के उत्तर में यह निवेदन है कि स्कूलों के इन्स्पेक्टरों को कह दिया गया है कि सरकारी कागजों में भूमिहारों को ब्राह्मण लिखा करें।

द. पी. एस. बरल एम. ए.

शिक्षा विभाग के असिस्टेंट डाइरेक्टर।

सी. एफ. डेलाफोस एम.ए.,

डाइरेक्टर, शिक्षा विभाग, युक्‍त प्रांत के स्थानापन्न।

इसलिए बिहार प्रांत या अन्यत्र की सरकार को भी यही उचित है कि युक्‍त प्रांत की सरकार की तरह या तो अन्य ब्राह्मणों की तरह केवल ब्राह्मण ही लिखा करे अथवा यदि विशेष अनुग्रह या पृथक लिखने का ही आग्रह हो तो उस प्रकार से ही लिखे जैसा कि हम अभी बतला चुके हैं। इससे अन्यथा लिखना उचित नहीं है, जैसा कि सिद्ध कर चुके हैं।