व्यवस्था / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
"झटपट दूसरे डिब्बे में चले जाओ. जल्दी करो"-कण्डक्टर दहाड़ा।
"साहब, बाल-बच्चे साथ में हैं। गर्मी से हलकान हैं। जनरल डिब्बे में बहुत भीड़ है।
इसमें मैं क्या करूँ? जल्दी कीजिए, वर्ना सामान बाहर फेंक दूँगा।"
कुछ आँखें आपस में मिलीं। हाथ जेब तक पहुँचे। पुलिस का एक सिपाही भी रात की ड्यूटी पर आ धमका। वह भीड़ को चीरता हुआ कण्डक्टर तक आया—" यह क्या बदतमीजी है। सब सिर पर चढ़े आ रहे है। देख लीजिए-रिजवेंशन किस–किस का है? "
इसी बीच में अस्सी रुपये कण्डक्टर तक पहुँच गए. उसने बीस रुपये सिपाही के हाथ पर रखे। कोने की सीट पर बैठकर ऊँघने लगा। इतने में एक यात्री झगड़ पड़ा—मेरे पास रिज़र्वेशन का टिकट है। यह मेरी सीट है।इसे खाली करो। '
दूसरा यात्री टस से मस नहीं हुआ।
झगड़ा करेगा, तो अभी चार डण्डे लगाऊँगा और नीचे उतार दूँगा।
रिज़र्वेशन क्या कराया बाप की गाड़ी हो गई, सिपाही ने डाँटा।
यात्री सिमटकर एक कोने में बैठ गया। बर्थ पर लेटे हुए चेहरे मुस्करा दिए।