व्यापक असंतोष / कांग्रेस-तब और अब / सहजानन्द सरस्वती
कहा जाता है , कि साम्राज्यवादी युध्द के बाद का समय क्रांतिकारी होता है। यही कारण है कि देश में व्यापक असंतोष है। किसानों , छात्रों , पुलिस और अधयापकों के अलावे रेलवे , डाक-तार , खानों और कारखानों के मजदूरों के कलेजों में तो सचमुच ज्वलंत असंतोष की लहर उमड़ रही है। हाल की घटनाएँ इसका सबूत हैं। हड़तालें होती हैं , टूटती हैं , उनकी सूचनाएँ दी जाती हैं , रोकथाम होती है। मगर हालत नाजुक है। देर-सवेर किसी दिन विस्फोट हो सकता है। फोड़ा फूटेगा और मवाद बाहर आएगा। दरअसल नौकरीपेशा लोगों की हालत बुरी है। चीजों की कीमत चार से छह गुनी हो गई है। लेकिन वेतन तो सब मिला कर दूना भी शायद ही हुआ है। मलेरिया तो कुनीन की चार गोलियों के बजाय एक-दो से भागेगा नहीं। तीन गज के बजाय एक गज से कुरता भी न बनेगा। धोती-साड़ी भी एकाध गज की हो नहीं सकती। पावभर की जगह एक छटांक से पेट का काम चलने का नहीं। गरीबों को जाड़ा कम सताए सो भी नहीं। वह तो और भी परेशान करता है। फिर तो वे मन ही मन कर्म , तकदीर , भगवान , सरकार और मालिकों को कोसते हैं , उन पर जलते-कुढ़ते हैं और अन्त में हार कर जैसे हो दिल का बुखार निकालते हैं। हड़तालों का यही रहस्य है। मजदूर और नौकरीपेशा लोग गधो नहीं हैं कि उकसाने से सामूहिक रूप से काम छोड़ दें। भूख , बर्खास्तगी और जेल का खतरा मुँह बाए सामने खड़ा जो रहता है। जारशाही ने हड़तालों के विरुध्द क्या नहीं कर रखा था ? फिर भी फरवरी की क्रांति के समय भयानक हड़तालें हुईं जिनने जारशाही को उदरसात करके ही दम ली। और इतिहास का पुनरावर्तन होता ही है।