व्यावसायिक सिनेमा का भावना पक्ष / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 31 मार्च 2014
अफगानिस्तान की पंद्रह वर्षीय शकीला को उसके सिरफिरे पति ने गोली मार दी कि वह अभागी है और उसके बैठने के कारण उसकी मोटर का इंजन फेल हो गया। प्रारंभिक चिकित्सा के बाद शकीला अपनी मां के साथ भारत आ गई। गोली ने उसके चेहरे का एक हिस्सा उड़ा दिया परन्तु गोली जिस्म में धंसी नहीं। अब तक उसके तीन ऑपरेशन डॉ. ईरानी कर चुके हैं जो स्वयं सीमित वीसा पर भारत आते हैं। अपने क्षेत्र की शल्य क्रिया के वे विशेषज्ञ हैं और दुनिया के उस आहत हिस्से में उन्होंने गोलियों से छलनी लोगों की सेवा की है। शकीला के पास भी एक ही महीने का वीज़ा है जबकि उसको अभी अनेक बार शल्य चिकित्सा कराना जरूरी है। धधकते हुए अफगानिस्तान के अनेक झुलसे हुए लोग भारत इलाज कराने आते हैं।
इस भयावह दुर्घटना का जिक्र फिल्म कॉलम में इसलिए किया जा रहा है कि शकीला ने अस्पताल में यह इच्छा जाहिर की कि उसे अपने प्रिय सुपर सितारे सलमान खान से मिलने की इच्छा है और वह जानती है कि उसकी अनेक बार होने वाली शल्य चिकित्सा में उसकी जान भी जा सकती है। बहरहाल अस्पताल से सलमान खान को संपर्क किया गया और उन्होंने शकीला से लंबी मुलाकात की तथा उसे और उसकी मां को कुछ चीजें खरीद कर दीं। वे दोनों खाली हाथ ही भारत आई थीं। शकीला अच्छी हिंदुस्तानी बोल लेती है और उसने अपनी मनपसंद फिल्मों के बार-बार देखकर ही हमारी भाषा सीखी है।
हिंदुस्तानी सिनेमा ने इस तरह की सेवा देश के लिए बहुत की है। छठे दशक के मधुर फिल्म संगीत के कारण अनेक विदेशियों ने हिंदुस्तानी सीखी है। शकीला की मां से पता चला कि उन्होंने अपनी इच्छा से अपनी बेटी का निकाह इतने निर्दयी व्यक्ति के साथ नहीं किया है, उसने उन्हें आतंकित करके जबरन यह विवाह किया है। दशकों से अफगानिस्तान हिंसा की गिरफ्त में है और वहां के आम आदमियों के कष्ट की हम कल्पना भी नहीं कर सकते। रवींद्रनाथ टैगोर की कहानी वाला सहृदय काबुलीवाला अब कहीं नहीं है। वह किताबों के पन्नों में ही सिमट कर रह गया है। याद आता है कि पाकिस्तान में लिखी काबुलीवाला की अगली कड़ी से प्रेरित तन्नी आज़मी अभिनीत नाटक रमेश तलवार कुछ वर्ष पूर्व कर चुके हैं। उस नाटक में टैगोर की कहानी में वर्णित बालिका अब दादी बन चुकी है और उसकी पोती कलकत्ता में एक यशस्वी शल्य चिकित्सक है। उसने अपने बचपन में दादी के बचपन के सहृदय काबुलीवाला की बातें सुनी हैं कि किस तरह सालो पहले अपनी बेटी से जुदा काबुलीवाला इस भारतीय कन्या में अपनी बेटी देखता है और दोनों के बीच एक अलौकिक स्नेह की यह डोर हजारों मील की दूरी को समाप्त कर देती है। दूरियां कई तरीकों से नापी जाती है, केवल मीटर या किलोमीटर ही उसके माप नहीं हैं। डॉ. पोती ने तय किया है कि वह रेडक्रास के माध्यम से काबुल जाकर घायलों की सेवा करना चाहती है और इस प्रक्रिया में जरा सी आशा है कि शायद उस काबुली वाले के कोई पोता-पोती से वह मिल सके और अगर वे घायल हैं तो उनकी चिकित्सा कर सके। इस मार्मिक नाटक में गहरी संवेदना थी। बहरहाल नाटक से परे यथार्थ जीवन में पड़ोसी शकीला गंभीर घाव का इलाज भारत में करा रही है और ईरानी डॉक्टर उसकी चिकित्सा कर रहा है। सरहदों द्वारा विभाजित मानवता के दर्द की दास्तां अनेक हैं और वीसा नामक सरकारी पत्र के अभाव में बहुत हानि हो सकती है। सरहदों पर लगे कंटीले तारों से भी अधिक पैने होते हैं सरकारी कागज। कंटीले तार महज जिस्म को छलनी करते हैं लेकिन ये कागज आत्मा तक को आहत कर देते हैं।
बहरहाल सितारों की लोकप्रियता सरहदों के जाती है। यह सिनेमा माध्यम का जादू है कि अफगानिस्तान की शकीला इतनी सघन और कष्ट देने वाली शल्य चिकित्सा के बीच अपने प्रिय सितारे सलमान खान से मिलने की इच्छा जाहिर करती है। कई सालों से अफगानिस्तान में सामान्य जीवन संभव नहीं रहा परन्तु लोग फिल्में देखते रहे हैं। उनके लिए अपने विषय यथार्थ से पलायन का अवसर देती हैं फिल्में और जो मोहब्बत उनके जीवन से खारिज कर दी गई है, उसका भी अहसास उन्हें फिल्में कराती हैं। जिस व्यवसायिक फॉर्मूला फिल्म की धज्जियां उड़ाते नहीं थकते छद्म बुद्धिजीवी, उस व्यावसायिक सिनेमा को अपने भावना संचार और मनोरंजन की ताकत के कारण सभी सरहदों के पार आम आदमी पसंद करता है।
यही उसकी सामाजिक सोद्देश्यता है। लोकप्रियता के रसायन में कितने तत्वों का समावेश है यह कोई नहीं जानता परन्तु आधार भूमि भावना ही है, यह बात फिल्मकार जानते हैं। सबसे अधिक भावना प्रधान राजनीति को होना चाहिए क्योंकि यह अवाम से जुड़ी है परन्तु व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के कारण सत्तालोलुप नेताओं ने राजनीति को ही भावनाहीन कर िया है। चुनाव को अखाड़ा बना दिया जबकि वह सिद्धांत पर बहस का मंच होना चाहिए।