शंकरदेव और उनकी कृष्ण-भक्ति / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
(26 सितम्बर1449-23 अगस्त1568)
शंकरदेव असम के उन लोकनायकों में अग्रगण्य है, जिन्होंने तत्कालीन समाज पर अपनी छाप छोड़ी है। भक्ति भारतीय साहित्य के लिए कोई आयातित वस्तु नहीं थी। वेदों और उपनिषदों में भी यह धारा कहीं विरल, कहीं गहन रूप में बहती रही है। शंकरदेव के नाटकों को उनकी भक्ति से अलग रखकर नहीं परखा जा सकता। साहित्य पूर्ण विकसित रूप में होने पर भी उनके लिए साधन रहा और भक्ति साध्य। फिर भी न उनकी भक्ति-भावना में सघनता की कमी है और न साहित्य में भावानुभूति की।
शंकरदेव जाति के कायस्थ थे; परन्तु जातिभेद की संकीर्ण भावना असम की वैष्णव भूमि पर उगने में असमर्थ रही। इसीलिए शंकरदेव के प्रवर्तन में पिछड़ी जाति के लोग भी आगे बढ़ने में समर्थ हुए। आहोम शासकों के कारण भुइँया सामन्तों के राज्य भी खतरे में थे। शंकर भुइँयाओं में सम्मान्य थे।
वैष्णव धर्म-प्रवर्तक होने के नाते उन्होंने सगुण भक्ति पर बल दिया; किन्तु निर्गुण भक्ति की भी उपेक्षा नहीं की। इनका वैष्णव पन्थ मध्यकालीन भारत के 'नव वैष्ण्व मतवाद' का ही अंग था। विष्णु के अवतार के रूप में कृष्ण को ही प्रमुखता मिली; लेकिन ये 'कृष्ण' भागवत के कृष्ण थे, न कि महाभारत के राजनीति के खिलाड़ी कृष्ण।
कृष्ण के जीवन वृत्तान्त और लीलाओं का गान शंकरदेव की परम्परा के कवियों का महत्त्वपूर्ण विषय रहा है। सभी ने एकमात्र उपास्यदेव के रूप में कृष्ण को प्रतिष्ठित किया। नवधा भक्ति में श्रवण, कीर्तन को अधिक महत्त्व दिया गया है; अतः शंकरदेव द्वारा प्रवर्तित धर्म 'नाम धर्म' भी कहलाया। 'राम-विजय' (सन् 1568 ई) की रचना करने पर भी राम को महत्त्व नहीं' मिल सका। सम्भवत: मर्यादावादी राम का काम-क्रीड़ा करने वाला रूप समाज के गले न उतर सका। इससे पहले की कृष्ण-सम्बन्धी रचनाएँ असम के जनमानस में अपना स्थान बना चुकी थी। रामविजय इनकी अन्तिम रचना है।
शंकरदेव का कृष्ण-काव्य: पत्नी-1-प्रसाद, 2-कालिदमन, 3-केलिगोपाल, रुक्मिणी-हरण, 5-पारिजात-हरण इनकी कृष्ण-सम्बन्धी नाट्य रचनाएँ हैं।
कथा-सूत्र: कृष्ण-काव्य की रचना में भागवत् का अनुसरण करने पर भी शंकरदेव की मौलिक उद्भावनाएँ भी इन रचनाओं में कम नहीं हैं; बल्कि अत्यन्त मार्मिक हैं।
शंकरदेव को 'एकशरणीया' भागवत् धर्म की बढ़ती हुई लोकप्रियता के कारण कर्मकाण्डी ब्राह्मणों का विरोध सहना पड़ा। 'पत्नी-प्रसाद' नाटक से इसका आभास मिलता है। कृष्ण के कहने से सब बालक अन्न-प्रार्थना के लिए स्वर्गकाम यज्ञ करने वाले ब्राह्मणों के पास जाकर अन्न की प्रार्थना करते हैं। कृष्ण का नाम सुनकर ब्राह्मण चन्द्रभारती क्रुद्ध होता है। इस पर सब बालक ब्राह्मणों को मूर्ख तक कह देते हैं; ब्राह्मण-पत्नियाँ कृष्ण की भक्ति करने के लिए चल देती हैं।
1-विचार-पक्ष: शंकरदेव ने वेद, उपनिषद्, व्याकरण आदि का गहन अध्ययन किया था। वेदों के प्रति ब्राह्मणों की निष्ठा कर्मकाण्ड बनकर रह गई-'उचारत वेदमन्त्र अल्प करि हास'। 'मन्त्रों का उच्चारण करते समय मुस्कुराते रहना'-यह वेदों में आस्था की न्यूनता की ओर संकेत करता है। जब कृष्ण के सखा स्वर्गकाम यज्ञ में जाते हैं, तो चन्द्रभारती नामक ब्राह्मण कृष्ण की उपेक्षा करता है-
ओ हामु भू देवता, हामाक सर्वलोके पूज्य। हमाक आगे कौन हय।
'भू देवता' भला अपने सामने यदुवंशी कृष्ण को कैसे महत्त्व देंगे। सर्वपूज्य होने का अभिमान कैसे छोड़ पाएँगे? इसलिए सब कृष्ण-सखा सर्वकाम यज्ञ को 'अवैष्णव थान' (अवैष्णव स्थान) कहते हैं तथा ब्राह्मणों को-'ओहि सब परम मुरुख' की उपाधि दे डालते हैं। यह ब्राह्मण और अब्राह्मण वर्ग का टकराव है। ब्राह्मण-पत्नियाँ जब कृष्ण के पास जाना चाहती हैं, तब ब्राह्मण चिल्ला उठते हैं-
जज्ञ-कार्य परिहरि गोबालक पाछु-पाछु कतिहो जाव? हा, हा! तोरा सब भ्रष्टा भेलि।
(यज्ञ-कार्य का परित्याग करके ग्वालों के पीछे-पीछे क्यों जा रही हो? हा, हा! तुम सब तो भ्रष्ट हो गई हो।) ब्राह्मण-पत्नियाँ जब कृष्ण के पास से वापस आती हैं, तब सब विप्र खेद प्रकट करते हैं-"आ! हामु सब स्त्री तो अधम भेलो"- (हमारी सब स्त्रियाँ तो अधम हो गई हैं।) ; लेकिन यही सब ब्राह्मण कर्म-गर्व छोड़कर श्रवण-कीर्तन में लग जाते हैं।
2-भक्ति-दर्शन: शंकरदेव द्वारा प्रतिपादित भक्ति यद्यपि सगुण है; परन्तु निर्गुण का भी उसमें लोप नहीं है। केवल निकट रहने से ही भक्ति नहीं हो जाती। निरन्तर अमृतपान मुख को नहीं रुचता। कृष्ण कहते हैं-
'निकटे थाकिते से मते भकति करिते नाहिं पावय, जैसे अमृतपान करिते-करिते मुखे रुचये नाहिं' कृष्ण के प्रति शंकरदेव की इतनी आस्था है कि वे अन्य देवताओं की उपेक्षा भी कर जाते हैं। ब्रह्मा और शिव उनके नौकर हैं। कृष्ण ही संसार के कर्त्ता और संहारक हैं। वे ब्रह्मा और शिव से सेवित हैं-
ब्रह्मा महेश्वर चाकर, जाकर ताकर गुण मुँह लेहू।
ओहि ईश्वर तारक, मारक, कारक सब संसार।
ताहे करू सेव देव नाहिं केअ, नाहिं हरि बिने आर।
हरि के अतिरिक्त कोई देवता ही नहीं है। कृष्ण कारण के भी कारण हैं; परन्तु स्वयं अकारण हैं। उनसे ही सृष्टि, स्थित और लय होती है-
कारनरो कारन, तुमिसि अकारण
तोहातेहें हन्ते होवे सृष्टि, स्थित, लय (कालिदमन यात्रा)
कालियदमन के पश्चात् ब्रजवासी कह उठते हैं-' ओहे नन्दनन्दन मानुष नोहे...जे परम पुरुष, पुरुषोत्तम सनातन नारायन, से भूमिक भार-हरन निमित्ते अवतार हये थिक। इहात किछो संका नाहि। (वह नन्दनन्दन मनुष्य नहीं है... परम पुरुष, पुरुषोत्तम सनातन नारायण है, उसी ने भूमि का भार हरण करने के निमित्त अवतार लिया है। उसमें कुछ शंका नहीं)
कृष्ण विषयी नहीं हैं। उनकी सब चेष्टाएँ भक्तों को रिझाने के लिए हैं। कामधेनु जिसके पास हो, वह भला बकरी का क्या करेगा-
जे पूर्णानन्द श्रीकृष्ण तनिकर कुत्सित विसय सुखे कौन अभिलास थिक?
नाहिं-नाहिं, जैसे कामधेनु वृन्द अधिकारिक छागलीत कि प्रयोजन थिक (केलि गोपाल)
लीलाधारी कृष्ण के अनेक रूप हैं। वे एक के साथ अनेक रूप धारण कर लेते हैं-'जत गोपी तत मुरुति माधव' (जितनी गोपियाँ हैं कृष्ण उतने ही रूप धारण कर लेते हैं) । जो जिस भाव से कृष्ण की भक्ति करता है, वे उसी रूप में उसे प्राप्त होते हैं। महत्त्व भाव का है। कृष्ण की यह भक्ति मोक्ष प्रदान करने वाली है तथा लोक, वेद प्रमाणित है-
कृष्णक भकति मोक्ष निदान। सुन सब लोक वेद प्रमान॥
इसीलिए 'परम अनाचारी गोपनारी काम भावे हरि गुन गाइ परमगति पावल।' (परम अनाचारी गोपनारी काम-भाव से भी हरि का गुण गाकर परम गति को प्राप्त हो गई।
भक्ति-तन्मयता: कृष्ण के पद-पंकज में ध्यान लगाने से गोपियों ने पति-सुत सभी का परित्याग कर दिया है। कृष्ण के बिना प्राण रख पाना असम्भव है। इसी में भक्त की सार्थकता है-
'पति, सुत सब अब छोड़ि परल, तुआ पद-पंकज आगु।'
'भकत कृपाल गोपाल तेरि कैसे टूटल नव अनुराग।'
गोपियों के प्रेम में एकनिष्ठता है। यही एकनिष्ठता, एकाग्रता सच्ची आराधना का आधार है-
तयु मुख-पंकज छोड़ि हामार चक्षु आन पेखिये नाहिं।
तुया कथा छोड़ि कर्ने आन किछो सुनये नाहिं॥
यह भक्ति एकपक्षीय नहीं है। कृष्ण को अपने भक्त प्राणों से भी प्यारे हैं। केलि-कौतुक केवल परिहास के लिए है, मानव के साथ मानव बन जाने के लिए। कृष्ण का प्रत्येक भाव गोपी-भाव आश्रित है; इसलिए कृष्ण कहते हैं- तोहो सब परम भकत। हामार प्रानतो अधिक।
हामि परिहासे केलि-कौतुक कयल, ताहे नाहिं बूझब। (केलिगोपाल नाट)
कृष्ण का प्रभाव जड़, चेतन (प्रकृति, मानव, पशु-पक्षी) सभी पर है। वेणु की ध्वनि सुनकर नदी भी स्तम्भित हो जाती है। कमल पुलकायमान हो उठते हैं-
सुनि बेनु धेनु करत तृन दसनु, रहे नीर नयन झुराइ।
सुनिय धुनि तम्भित तरंगिनी, पुलक कमल-कुल दोलें।
कृष्ण की महिमा का अन्त ब्रह्मा और शंकर भी नहीं पा सकते। इस देव-दुर्लभ भारत में नर तन धारण करना, बिना हरि की भक्ति के बिना विफल हो जाता है-
जाके महिमा ब्रह्मा, शंकर कबहुँ अन्त न पाइ।
देवक दुर्लभ भारते नर तनु हरि बिने बिफले जाइ।
रुक्मिणी हरण नाट में वेदनिधि ब्राह्मण कृष्ण के अलौकिक रूप का परिचय देते हुए कहता है कि तुम देवकी पुत्र नहीं हो। तुम ब्रह्मा-शिव सेवित श्री नारायण हो। तुमने भूमि का भार हरण करने लिए अवतार लिया है-
तुहु देवकी पुत्र नाहिं, तुँह ब्रह्मा, महेस सेवित श्रीनारायण,
से भूमिका भार-हरण निमित्त अवतार भेलि थिक
शची को जब सत्यभामा की पारिजात ग्रहण करने की इच्छा का पता चलता है, तो वह कह उठती है-
शचीक पारिजात कथाक मानुषी सत्यभामा पिन्धि ते आशा कयल!
जब सत्यभामा नारद के-के द्वारा शची की इस गर्वोक्ति को सुनती है, तो कृष्ण जी को पारिजात लाने के लिए कहती है। कृष्ण जी इन्द्र को युद्ध में हराकर पारिजात ले आते हैं। इस पर सत्यभामा कहती है-
देवक राजा हुया मानुष कृष्णक भये भंग देहल
इस कथन के द्वारा शंकरदेव ने देव सृष्टि की तुलना में मानव-सृष्टि को महान् सिद्ध कर दिया है। ईश्वर मानवरूप में अवतार लेकर भी देवों के सहायक बनते हैं। सत्यभामा की निन्दावाणी से इन्द्र विचलित नहीं होते। वे कहते हैं कि जगत् के परम गुरु कृष्ण से युद्ध में हारना कोई लज्जा की बात नहीं-
ओहि कोटि-कोटि ब्रह्माण्डेश्वर ब्रह्मा, महेशे सेवित पाद-पंकज जगतक परम गुरु नारायण श्री कृष्ण,
ताहेत हामु युद्ध हारल। इहात कौन लज्जा थिक।
शंकरदेव के लिए वासुदेव बनमाली और राम में कोई अन्तर नहीं।
भावपक्ष: कृष्ण अनुपम सौन्दर्य के स्वामी हैं। वे भक्तों के दु: ख में स्वयं दुःखी, वियोग में व्याकुल एवं मिलन में आह्लादित हो उठते हैं, जबकि वे इन सब भावनाओं से परे हैं। 'कालियहृद' का पानी पीने से मृतक गोप बालकों एवं बछड़ों को उलट-पलटकर देखना कि वे मरे या नहीं, कृष्ण को साधारण व्यक्ति के स्तर तक पहुँचाकर शोकमग्न कर देता है-
1-वत्सकान् बालकान् कृष्णो विलोक्य मृतकास्तदा।
चकारं प्रचुरं खेदमद्भुतं भक्त वत्सल:।
2-हा, हा, हमार भकतक ऐसन अवस्था।
भक्ति काव्य की यह ब्रह्मपुत्र नद-सी गम्भीर धारा अनन्तकाल तक बहते रहने की क्षमता रखती है। सर्पराज ने जब कृष्ण को दंशित कर लिया, तो वे निस्पन्द होकर पड़े रहे। गोपियाँ कृष्ण के मुख को देखकर विरह-कातर हो, उठीं। शोकबाण से पीड़ित होकर वे तीव्र स्वर में रोने लगीं- हे प्राने बन्धु माधव, हामु किंकरी सबक छोड़ि कैसे चलै।
छे! हे नाथ हामाक संगे निआ जाब।
तोहों बिना जीवन नाहिं धरब।
भक्तवत्सल कृष्ण भक्तों के विषाद को देखकर सर्पबन्धन को तोड़कर उठ बैठे। नाग-नारी कृष्ण के सम्मुख आँचल फैलाकर अपने पति सर्पराज के लिए प्राणदान माँगती हैं-
हामाक अनाथ करबि नाहिं। तोहाक आगु आँचोल पाति पतिदान मागों।
कृष्ण द्वारा अभयदान दे दिया जाता है। वे कालिय के भक्तिभाव से प्रसन्न हो उठते हैं।
कृष्ण के प्रेम में गोपियाँ इतनी मग्न हो जाती हैं कि पति-पुत्र की उपेक्षा करके चल देती हैं-
1-पति-सुत तेजल भजल प्रेम-सिन्धु
2-कृष्णक देखिते अलखित गोपजाया।
चले सचकिते पति-सुत उपेखिया। (केलि गोपाल) ' जो गोपियाँ पति और देवरों द्वारा कृष्ण के पास जाने से रोक दी गईं, उन्होंने हृदय में गोविन्द के चरणों का चिन्तन करते-करते प्राण छोड़ दिए-
या गोप्य! पार्श्वमाप्राप्ता निरुद्धा पतिदेवरै:
हृदि गोविन्द चरणं विचिन्त्य विजहुस्तनु:
गोपियों को भ्रम हो जाता है कि हमारे रूपयौवन अको देखकर कृष्ण मोहित हो गए हैं-
हमार रूप जोबन पेखि श्री कृष्ण भोलल
इस भ्रम को तोड़ने के लिए कृष्ण अन्तर्धान हो जाते हैं, तब गोपियाँ व्याकुल हो उठती हैं और स्वय को कृष्ण मानकर एक दूसरे से तदनुरूप चेष्टा करने लगती हैं-
भक्त्या प्रमत्तास्ता गोप्यो मत्वाऽमानं हि माधवम्।
अन्योन्य्मभिसम्भाष्य विचक्रु: कृष्ण चेष्टितम्।
यह भावविभोरता एवंअनन्यता भक्ति की पराकाष्ठा है। कृष्ण भी गोपियों के बिना नहीं रह सकते। 'तुम सबके अलावा हमारा कोई बन्धु नहीं, तुमको मैं प्राणों से भी प्रिय मानता हूँ'-
तोहों सब बिने नाहिं बन्धु हामारि, प्रान अधिक प्रिय मानि।
जिस कृष्ण को निहारकर देव-पत्नियाँ भी मूर्च्छित हो जाती हैं, उसका विरह कैसे सहा जा सकता है, उस हरि से बिछुड़कर कैसे रहा जा सकता है-
माइ! हरिक बिछुरि कत रहबि।
जाहे नेहारि सुर-रमनि मुरुछि परे, ताहे बिरह कत सहबि॥
रुक्मिणी हरण नाट में कृष्ण और रुक्मिणी एक दूसरे का रूप-वर्णन सुनकर मुग्ध हो जाते हैं। भिक्षुक (सुरभि) के मुख से रुक्मिणी का रूप-गुण सुनकर कृष्ण और सब चिन्ताएँ छोड़ रात-दिन केवल रुक्मिणी के ही ध्यान में डूबे रहे-
भिक्षुक मुखे रुकमिनीर रूप-गुन सुनिये श्रीकृष्ण आन चिन्ता सब छोड़ि, रात्रि-दिवसे रुकमिनीक मात्र ध्यान कयले रहल।
उधर हरिदास नामक भिक्षुक भाट रुक्मिणी के आगे कृष्ण-सौन्दर्य का वर्णन करता है-
नयन-पंकज नव पाता। करतल उतपल राता॥
मदनक धनु भ्रुव भंग। भुज जुग वलिन भुजंग॥
तब रुक्मिणी को यही लगन हो जाती है कि केशव का दर्शन कैसे हो? हरि के बिना अब मेरा जीवन विफल है। इस विकलता में भक्ति और प्रगाढ़ हो गई है-
कैसन केसव दरसन होइ। हरि बिने बिफल जनम अब मोइ॥
लेकिन कृष्ण-रुक्मिणी विवाह में रुक्मिणी का भाई रुक्मी बाधा डालता है। वह शिशुपाल के साथ उसका विवाह कराना चाह्ता है। इस कारण रुक्मिणी बार-बार मूर्च्छित होकर गिरती है, सिसकती रहती है। आँखों से आँसू बहते रहते हैं-
घन-घन मुरुछि परय बर नारी। फोकारय स्वास नयन झुरे वारि॥
कृष्ण का नाम रटते-रटते विरह-व्याकुल रुक्मिणी सखियों के साथ रो पड़ती है-
लपन्ती कृष्ण कृष्णेति हरेर्विरह कातरा।
रुरोद दुहिता राज्ञः सखीभि सहिता सती।
वेदनिधि ब्राह्मण के द्वारा रुक्मिणी समाचार भेजती है कि हमने तन-वचन-मन से तुमको पतिरूप में मान लिया है-
हामु काय-वाक्य-मने तोहाक पति भावे बरैछि।
वेदनिधि के माध्यम से शंकरदेव ने हास्य की योजना भी है। कृष्ण अपने वेगवान रथ पर जब वेदनिधि को बैठाकर चलते हैं, तो वह भयभीत हो जाता है। डर के मारे उसके हाथ-पाँव फूल जाते हैं और अचेत हो जाता है-
श्रीकृष्णक रथ वाड़ वेगे चले। तथि आलोच्य ब्राह्मण वेदनिधि रथ बेगे श्रुतिभंग हुया परल!
हात-पाव थिर भेल, पेट उफन्दल। नासात निश्वास नाहिं निःसरे जैसे मृतक तद्वत अचेतन भेल।
सचेत होने पर वेदनिधि भौंचक्का होकर कृष्ण से पूछता है-
हे बापू! तुहु बा के? हामु बा कौन? कि निमित्त एथा आवल थिक?
शिशुपाल के साथ युद्ध में कृष्ण की वीरता भी चित्रित की गई है-
वारि बारिषा जस अम्बुद बरिषल, हरि करु सरक संधान रे।
काहुक बाहु, काहु उरू काटि, हर्दय बिदारल बान रे॥
हरि के बाण बरसात के बादल की भाँति बरसने लगे। किसी की भुजा किसी की जाँघ काट दी, तो किसी का हृदय बाण से बेध दिया। रुक्मिणी कृष्ण के हाथों अपने भाई की मृत्यु निश्चित जानकर व्यग्र हो उठती है-
चरन कु आगु आँचोल पाति माँगों, देहु नेरि सोदर दान।
भाई के प्रति रुक्मिणी का प्रेम असीम है-'हामाक देखिते आहि दोष मरष स्वामी'(हे स्वामी हमको देखकर उसके पाप क्षमा कर दो।)
भाषा की बात करें तो आश्चर्य होगा कि शंकरदेव की भाषा को ब्रजबुलि (ब्रजबोली) नाम दिया गया। यह भाषा आज के आसाम की भाषा से हटकर है। संस्कृत और अपभ्रंश जानने वाला इस ब्रजबुलि को आसानी से समझ सकता है। इसका कारण है शंकरदेव का तीर्थाटन। इन्होंने 32 वर्ष और 92 वर्ष की अवस्था में दो बार उत्तर भारत की तीर्थ-यात्राएँ कीं। एक ओर कृष्ण-भक्ति को स्थापित किया, तो दूसरी ओर समाज की कुरीतियों और जड़ता पर भी प्रहार किया। इनकी रचनाओं में कबीर की तरह समाज सुधारक रूप भी शामिल है। अत: इन्हें निर्विवाद रूप से लोकनायक कहा जा सकता है। इनके साहित्य पर और अधिक काम करना आवश्यक है।
(27-03-1981, गौहाटी)