शंकर का सिनेमा: भव्यता एवं अतिरेक / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :15 जनवरी 2015
दक्षिण भारत के निर्देशक सम्राट शंकर की फिल्म आई का प्रदर्शन दक्षिण भारत में पोंगल पर हो चुका है और मकर संक्रांति के महान पर्व पर जब सूर्य उत्तरायण होते हैं फिल्म का प्रदर्शन अनेक देशों में हो रहा है। भारत के कुछ शहरों में यह सोलह जनवरी को प्रदर्शित होगी। शंकर की क्षेत्रीय भाषा की फिल्म का बजट मुंबइया सुपरस्टार अभिनीत फिल्म से अधिक होता है और आय भी अधिक होती है। सबसे बड़ी बात यह है कि शंकर भारत के एकमात्र फिल्मकार हैं जिनकी फिल्म के प्रदर्शन के एक माह पूर्व दक्षिण भारत के सिनेमाघरों से लगभग 100 करोड़ रुपए प्राप्त होते हैं। भारत के फिल्म इतिहास में आज तक कोई ऐसा फिल्मकार नहीं हुआ जिसके नाम पर सौ करोड़ रुपए सिनेमाघरों से प्राप्त होते हों। उन्होंने रजनीकांत के साथ शिवाजी और रोबो बनाई। इस बार आई के नायक विक्रम हैं। जयंतीलाल गढ़ा शंकर आमिर खान के साथ रोबो भाग दो बनाने का प्रयास कर रहे हैं और संभवत: निर्माण मध्य वर्ष तक प्रारंभ हो सकता है।
शंकर की शैली मसाला फिल्मों की ही शैली है परंतु भव्यता और अतिरेक उनके सिनेमा का आवश्यक हिस्सा है। याद कीजिए रोबो का क्लाइमैक्स जिसमें चली गोलियां संभवत: दूसरे विश्वयुद्ध में चली गोलियों से थोड़ी ही कम होंगी। लार्जन दैन लाइफ विचार को वे उसकी इन्तिहा के परे ले जाते हैं। फिल्म आइ का नायक एक सीधा सरल बॉडी बिल्डर है जो उसके अनचाहे ही भेड़िए में बदल जाता है और मनुष्य रूप में उसकी प्रेमिका को वह यह समझाने का प्रयास करता है कि वही व्यक्ति है। अमेरिका में इस विचार पर अनेक फिल्में बनी हैं जैसे हल्क इत्यादि। वर्षों पूर्व महेश भट्ट भी एक ऐसी ही फिल्म बना चुके हैं जिसमें पूनम की रात नायक टाइगर में बदल जाता है।
सन 1933 में पहली बार किंगकांग बनी थी और उस अभिनव विचार की पटकथा सुनकर निर्माता ने कहा था कि इसमें मानवीय प्रेम कहानी डालने पर ही यह सफल होगी तो उस मीटिंग में मौजूद सहायक निर्देशिका ने कहा की भव्य बनमानुष का प्रेम अमेरिकन लड़की से दिखाया जा सकता है। इस फंतासी की यह प्रेमकहानी ही महत्वपूर्ण सिद्ध हुई। इसमें प्रेम की वेदना का एक दृश्य था जब सर्कस वालों की कैद में बनमानुष के चेहरे पर लड़की का लाल स्कार्फ गिरता है और वह वेदना से पागल हो जाता है। दरअसल यह कथा विचार अपने सौम्य रूप में टार्जन शृंखला में प्रारंभ हुआ था।
यह कितने आश्चर्य की बात है कि खूंखाल आदमखोर जानवर प्रेम की प्रक्रिया में हिंसा को त्याग देता है परंतु मनुष्य प्रेम के बावजूद अनावश्यक हिंसा करता है गोयाकि प्रेम भी मनुष्य को उसके आदिम असभ्य स्वरूप से बाहर नहीं निकाल पाता। सोचिए कितनी गहरी है हिंसा और नफरत की प्रवृत्ति कि दिव्य प्रेम भी असफल हो जाता है। यह सचमुच चिंताजनक है कि सभ्यता संस्कृति की महान प्रक्रिया भी हमें बदल नहीं पाई है। क्या मनुष्य के भीतर का पशु कभी मर ही नहीं पाता।
शंकर ने अपनी इस फिल्म के लिए अनेक हॉलीवुड के तकनीशियनों की सेवा ली जो लाॅर्ड आॅफ रिंग्स जैसी अनेक फिल्मों के साथ जुड़े थे। शंकर अपनी फंतासी फिल्मों की तकनीकी गुणवत्ता के प्रति बहुत सजग हैं और इस क्षेत्र में कभी वे समझौता नहीं करते।
क्या यह कभी संभव होगा कि शंकर जैसा प्रतिभाशाली एवं फिल्म का जादूगर कभी मध्यम गरीब वर्ग की कोई मानवीय प्रेम की फिल्म को रचे जैसे स्टीवन स्पिलबर्ग ने कई बार किय है गाेयाकि शंकर रजनीकांत या आमिर खान के बदले कोई अमोल पालेकर नुमा फिल्म बनाएं। लार्जन दैन लाइफ सोच अपने आप में एक नशा है, भव्यता के प्रति जुनूनी रुझान भी एक नशा है जिससे मुक्त होना आसान नहीं होता। कमल हसन तो सदमा जैसी फिल्म भी कर चुके हैं। क्या अब आमिर के लिए भी तारे जमीं पर की तरह फिल्म रचना कठिन है?