शंका का अंकुर / जगदीश व्योम
फोन की घंटी काफी देर से बज रही थी पर कोई उठा नहीं रहा था। उठाता भी कौन क्वाटर घर पर कोई नहीं था। आज ही तो डिप्टी साहब का सामान उनके नए बँगले पर पहुँचा था।टेलीफोन अभी पुराने क्वाटर में ही लगा था। बीरु यह देखने के लिए कि कहीं कुछ सामान तो नहीं रह गया है‚ क्वाटर पर आया। तभी उसे फोन की घण्टी सुनाई दी। बीरु ने फोन उठाया—
“हलो........... हम बीरु बोल रहे हैं‚ साहब के घर सइ। आप कौन साहब हइ” “हलो.......... डिप्टी साहब से बात कराऔ।“—उधर से आबाज आयी।
“डिप्टी साहब नहीं हैं। वह तउ आपन नए बँगला मा पहुँच गए हइ। आजु सुन्दर काण्ड को पाठु हुइ।आप अपनो नामु और काम बताइ देउ‚ हम साहब कउ बताइ दिअइ।“—बीरू ने बिना रुके पूरी सूचना देदी। “अरे भाई ! हम भोपाल से बोल रहे हैं। आप अपने डिप्टी साहब से कहो कि बहुत जरूरी बात है इसलिए तुरन्त हमसे बात करें”—उधर से आबाज आई।
ठीक है साहबॐ हम अबहीं साहब कउ बताउत हइ‚ आप इन्तजार करउ.......”—बीरू ने कहा और फोन को मेज पर रखकर साहब को बुलाने चल दिया।
सभी तन्मय होकर सुन्दर काण्ड का पाठ सुन रहे थे। तभी बीरू ने साहब के कान में कहा‚ “भोपाल सइ कौनो साहब को फून हइ आपके लएँ‚ और जरुरी बात करिबो चाहत है कोई साहब।”
डिप्टी साहब पहले तो झल्लाए‚ फिर न जाने सोचकर फोन सुनने के लिए पुराने क्वाटर की और चल दिए............ फोन सुनकर डिप्टी साहब खड़े न रह सके। पास में पड़ी कुरसी पर बैठ गए।बीरू ने समझ लिया कि कुछ गड़बड़ है‚ इसलिए वह बाहर खड़े मिश्रा जी को बुला ले गया। डिप्टी साहब ने फोन का चोगा रखा और मिश्रा जी की ओर देखा। चेहरे के भावों से मिश्रा जी ने अन्तरमन के भावों को पढ़ लिया। तभी डिप्टी साहब के मुख से सिर्फ इतना निकला— “राजुल नहीं रहा ........ ” राजूल डिप्टी साहब का इकलौता भतीजा था‚ जो उन्हीं के पास रह रहा था। पुत्र के समान प्यार करते थे डिप्टी साहब उसे। दो दिन पहले ही तो गया था राजुल भोपाल‚ अपनी माँ से मिलने के लिए। किसे पता था कि कूर काल ने उसे बुलावा भेज कर बुलवाया है। सुन्दर काण्ड पाठ सम्पन्न होने पर आरती के लिए डिप्टी साहब की प्रतीक्षा की जा रही थी। मिश्रा जी और बीरु के साथ आते डिप्टी साहब की चाल और चेहरे के भावों ने कुछ कह कर भी सब कुछ कह दिया। सब की प्रश्न सूचक निगाहें हैरान थीं कि आखिर क्या हो गया? डिप्टी साहब ने भरे कण्ठ से सिर्फ इतना कहा कि “आरती करो”.......... सब खडे. हो गए। आरती होने लगी। आरती के बाद डिप्टी साहब खड़े न खड़े न रह सके‚ बैठ गए।चारे ओर से भीड़ घिर आई।
फोन पर हुई बातें डिप्टी साहब के कानों में पिघले शीशे की भाँति पीड़ा पहुँचा रही थीं।
कैसे हुआ यह सब?....... पंडित जी ने पूछा।
“राजुल भोपाल गया था। वहाँ साइकिल से कहीं जा रहा था कि पीछे से आते ट्रक ने टक्कर मार दी।मौके पर ही प्राणान्त हो गया‚ राजुल का। फोन पर मिली जानकारी डिप्टी साहब ने भरे कण्ठ से दी। पूरी कॉलोनी के अधिकारी कर्मचारी परिवार सहित सुन्दर काण्ड पाठ में सम्मिलित हुए थे। पूरा घर भरा हुआ था। एक क्षण में पूरा माहौल शोक सभा में बदल गया। सभी को दुःख हो रहा था।
बँगले में प्रवेश का पहला दिन था। प्रवेश की बेला में शोक सभा का होना‚ कूर काल की कूरतम चाल नहीं तो और क्या था?.......... प्रोफेसर दीनानाथ कहने लगे‚ “भई जे बँगला अशुभ है‚ अब जा बात सिद्ध हुइ गई है। नांहि तो आजु प्रवेश के समय पै जे शोक सभा काहे हुइ गइ “—अन्य लोग भी हाँ हूँ करने लगे। पंडित गनेशी लाल को प्रो।दीनानाथ की बात अच्छी नहीं लगी। वे सोचने लगे कि “जो होता है उसे तो कोई रोक नहीं सकता। इस तरह की बातों से व्यक्ति के मन में स्थान विशेष या घर विशेष के प्रति मन शंकालु हो जाता है। शांका का अंकुर व्यक्ति को धीरे–धीरे छीजता रहता है।”
बातो का राम रसरा छिड़ ही गया। सबके होंठों पर बस एक ही बात थी कि “बँगला अशुभ है।” जो आता घूम फिर कर इस बिन्दु पर बात अवश्य चलती। सुख के अवसरों पर भारतीय जनमानस प्रायः भोगवादी हो जाता है‚ वहीं दुःख के अवसर पर सब दार्शनिक हो उठते हैं। भूत‚ प्रेत और आडम्बर वाद ऐसे अवसरों पर ही मन के किसी कोने में बैठ जाया करते हैं। कुछ लोगों को ऐसे अवसरों पर ही भूत–प्रेत और टोना–टोटका आदि की बातो को बढ़वा देने का अवसर मिल पाता है। वे इसका पूरा फायदा उठाते हैं.।“—पंडित गनेशीलाल यही सोच रहे थे कि प्रोफेसर दीनानाथ ने जो राम रसरा छेड़ा है‚ उसे रोका जाना असम्भव है। होता तो वही है जो विघिना ने निर्धारित कर रखा है परन्तु हमारे मन का विश्वास डगमगा जाता है। बड़े–बड़े अधिकारी‚ डाक्टर‚ वकील‚ प्रोफेसर आते और डिप्टी साहब को ढ़ाढ़स बँधाते। परन्तु बातचीत के बीच बँगले की चर्चा अवश्य हाती।
डिप्टी साहब बहुत दृढ़ निश्चय वाले थे। वे इन बातों में बिलकुल विश्वास नहीं करते थे। बँगले के साथ पहले से ही कुछ घटनाएँ जुड़ गई थीं। सिन्हा साहब को इसी बँगले में पैरालाइसिस हुआ था। वे स्थानान्तरण करवा कर चले गए थे। तीन साल पुर्व चौपड़ा साहब सिन्हा साहब के बाद आए। बँगले में आने के दो माह बाद ही उन्हें हार्ट अटैक हुआ‚ किसी तरह बच गए। उसके बाद शर्मा जी इसी बँगले में आए। अच्छे खासे थे कि हार्ट अटैक पड़ा और इस दुनिया से चल बसे। तब से पाच छः महीने हो गए बँगला खाली पड़ा था।डिप्टी साहब ने यह सब घटनाएँ पहले ही सुन रखी थीं। वे इन सबको संयोग मात्र मानते थें। फिर भी शंका का बीज मन की किसी अतल गहराई में छिपा बैठा था। बँगले में प्रवेश के समय सुन्दर काण्ड का पाठ इसी की परिणति थी।
आज की इस घटना ने उस बीज को अंकुरित होने के लिए धूप दी तो प्रो० दीनानाथ जैसे लोगों की चर्चा ने पानी के छोटे लगाने का काम किया। जिससे शंका का बीज अंकुरित हो ही उठी। वही डिप्टी साहब‚ जो भूत–बाथा की बात पर कभी विश्वास नहीं करते थे‚ वे कहने लगे कि हो न हो कुछ बातें अवश्य बँगले से जुड़ी हैं। नहीं तो आज ही शिफ्ट किया और आज ही यह घटना हो गई। किसी ओझा या मौलवी से इसका अनुष्ठान कराना ही होगा।”
पंडित गनेशी लाल डिप्टी साहब के दुःख में समरत हो रहे थे। परन्तु इस घटना ने उन्हें डिप्टी साहब के मन में भूत–प्रेत की शंका का जो अंकुर आज अंकुरित हो गया था गनेशी लाल एवं अन्य कतिपय लोगों को इस बात का सबसे बड़ा दुःख था। इधर प्रो।दीनानाथ जैसे लोग अपनी विजय पर इस दुःख की बेला में भी अपनी जीत पर सन्तुष्ट थे कि चलो एक दृढ़ निश्चयी व्यक्ति डगमगाने में उन्हें सफलता तो मिली। पं।गनेशी लाल के मन मे राजुल के दुःख की रेखाए धुँधली पड़ने लगीं थी और समाज के इन विद्वनों और पथ–प्रर्दशकों के वैचारिक सोच तथा उनके दर्शन की बातें उनके मन को व्यथित किए जा रहीं थी। वे सोच रहे थे कि जिस दृढ़ निश्चयी मन को बड़े–बड़े तूफान नहीं हिला पाते उसे भावनात्मक दुःख की थोड़ी सी हवा ऐसा उड़ाती है कि चाहकर भी उसे रोका नहीं जा सकता।
डिप्टी साहब उठकर घर के अन्दर चले गए और दुःखी पत्नी को ढ़ाढ़स बँधाते हुए कहने लगे‚ “शीला! आज मुझे भी लग रहा है कि यह बँगला अशुभ है। तुम्हारा क्या ख्याल है।”
दुःख की भारी परत को चीर कर शीला की संवेदना ने उन्हें झकझोर डाला।अपने पति के विश्वास की नाव को डगमगाता देख‚ पत्नी ने पतवार सँभाल ली। आखिर दुःख के प्रलयंकारी जलप्लावन से विश्वास की नाव को तो बचाना ही होगा।शीला के अन्तरमन ने उससे कहा कि जब–जब पुरुषों का विश्वास डगमगाया है तब–तब नारियों के धैर्य ने विश्वास के डगमगाते कदमो को रोका है।
शीला में न जाने कहाँ से साहस आ गया। वह बोली‚ “कोई स्थान अशुंभ नहीं होता। बेटा तो चलाही गया‚ विश्वास को मत जाने दीजिए। दुर्धटनाएँ सबके साथ होती हैं। कौन सा ऐसा घर है जहाँ मौत न हुई हो। फिर तो प्रत्येक घर अशुंभ है और फिर तीन साल पहले हमारी बेटी पिंकी का एक्सीडेण्ट हुआ था तब हम इस बँगले में नहीं थे। जो होना है वह होगा ही। बँगला पहले भी शुभ था‚ आज भी शुभ है और आगे भी शुभ रहेगा।”
डिप्टी साहब को अपनी पत्नी शीला की बातें किसी पहुँचे हुए ऋषि की भाँति शीतलता प्रदान कर रहीं थीं। उनके विश्वास की डगमगाती नाव को पत्नी ने बड़कर सँभाल लिया था।
“मैं तो समझ रहा था कि तुम इस बँगले में‚ इस घटना के बाद रहना नहीं चाहोगी‚ लेकिन आज मैंने समझा कि तुम्हारा विश्वास तो हिमालय से भी ऊँचा है। तुम्हारे विश्वास को कोई तुफान नहीं डगमगा सकता। आज तुमने मेरे विश्वास को टूटने से बचा लिया।”—डिप्टी साहब ने पत्नी की आँखों के आँसू पोंछते हुए भरे कण्ठ से कहा।
पं।गनेशीलाल ने बरामदे में खड़े–खड़े डिप्टी साहब और उनकी पत्नी की बातों को सुन लिया था। उनके चेहरे पर से विषाद की रेखाएँ मिटने लगीं। डिप्टी साहब रूप में पंडित गनेशी लाल को ‘मनु’ और ‘श्रद्धा’ के दर्शन हो रहे थे।
प्रोफेसर दीनानाथ डिप्टी साहब के बाहर आने से पहले ही वहाँ से खिसक गए‚ क्योंकि उन्होंने भी उनकी बातें सुन ली थीं। डिप्टी साहब के चेहरे पर विश्वास की कुन–कुनी धूप की चमक थी। शंका का अंकुर सूख कर झड़ चुका था। अंधविश्वास की आँधी उनके द्वार पर दस्तक देकर निराश हो चुकी थी और उल्टे पाँव लौट गई थी।
पं। गनेशी लाल को कामायनी की ये पंक्तियाँ डिप्टी साहब के रूप में साकार होती दिखाई दीं—
“उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है
क्षितिज बीच अरुण दिए कांत।”