शक्की पहलवान / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु'

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गंभीरता से सोचा जाए, तो मालूम होगा कि शक करना भी एक कला है। कला से भी एक कदम आगे बढ़कर कहा जाए, तो यह श्रेष्ठ बौद्धिक व्यायाम है। बुद्धिमान् ही शक कर सकता है या यों कहिए कि जो शक कर सकता है वही बुद्धिमान् है। शक करने से बुद्धि प्रखर होती है, विचारों पर लगा जंग छूटता है। दिमाग खाली नहीं रहता। खाली दिमाग न होने से शैतान का प्रवेश संभव नहीं। कहावत है कि वहम की दवा लुकमान के पास भी न थी। इससे सिद्ध होता है कि लुकमान हकीम के झाँसे में केवल कूढ़-मग्ज ही आते थे। बुद्धिमान लोगों पर उनका जादू नहीं चलता है।

जंगली जानवर जब जंगल में होते हैं, तो लोग उनका शिकार करने का अवैध प्रयास करते हैं। आदमी किसी का शिकार हो या न हो_ किन्तु शक का शिकार ज़रूर होता है। ऐसे ही एक महानुभाव हैं-श्री कंठ जी। जब श्री कंठ जी मिडिल स्कूल में पढ़ा करते थे, पढ़ने के साथ-साथ उन्हें पहलवानी का शौक भी चर्राया। शाम को अखाड़े में जाकर चार दिन दंड बैठक क्या लगाईं, वे खुद को सचमुच में पहलवान समझने लगे। वहीं से उनका शक शुरू हुआ। जो बरसों से अखाड़े की मिट्टी खूँद रहे थे, वे उन्हें भुनगे नज़र आने लगी। इसी झोंक में वे दुबले से दिखने वाले प्रकाश को चुनौती दे बैठे। प्रकाश ने कलाई पकड़कर घुमाया, तो श्री कंठ महाराज चारों खानों चित्त, अखाड़े की धूल मनोयागपूर्वक सूँघ रहे थे। चार लोगों ने पकड़कर उठाया, तो विदित हुआ कि कूल्हा उतर गया।

'चार दिन हुए तुम इस अखाड़े में आए और प्रकाश की चुनौती दे बैठे, क्यों?' दीन दयाल ने पूछा।

'मुझे प्रकाश पर शक हो गया था। मैंने सोचा-इस मरियल में ताकत नहीं होगी।'

'अब कैसा लगा?' प्रकाश ने पूछा।

'मेरा शक दूर हो गया है'-श्री कंठ ने कराहते हुए कहा।

उस दिन से 'श्री कंठ' नाम छूट गया और शक्की पहलवान नाम चस्पाँ हो गया।

दशहरे के अवसर पर शक्की पहलवान रामलीला देखने गए। थोड़े ही दिनों में चीख-चीखकर संवाद बोलने का अभ्यास कर लिया। 'लीला' में एक दिन विभीषण बीमार पड़ गया। लीला के संयोजक दीनदयाल परेशान। कोई विभीषण बनने को तैयार नहीं। दीनदयाल ने शक्की पहलवान को इस दिन के लिए चुन लिया। शक्की पहलवान फूलकर कुप्पा हो गए। प्रसंग था-विभिषण को लंका से निष्कासित करने का। जब उन्होंने रावण के सामने अपना संवाद बोला-'महाराज आप सीता को वापस कर दीजिए।'

रावण की भूमिका अदा कर रहे अभिनेता ने-'जा तू भी अपने राम के पास'-कहकर ऐसी ठोकर मारी कि शक्की पहलवान फुटबाल की तरह उछलकर स्टेज के नीचे आ गिरे। पानी के छींटे मारने के बाद होश में आए। तब से नाटकों में भी उन्हें महारत हासिल हो गई। जब किसी से बात करते हैं, तो वह तुकबंदी में ही करते हैं। कक्षा में देर से आने पर एक दिन शिक्षक ने पूछा-'आज तुम इतनी देर से क्यों आए?'

'क्योंकि हमने सुबह पराठे नहीं खाए' , शक्की ने कहा।

'तो मेरे पाए आओ। चार चाँटे तुरंत खाओ' , तुक मिलाकर शिक्षक ने चार चाँटे जड़ दिए। लेकिन चालीस चाँटे खाने वाले के लिए चार चाँटे तो आटे में नमक के बराबर हैं।

बड़े होने पर श्री कंठ उर्फ शक्की पहलवान का शक दिन-दोगुना, रात-चौगुना बढ़ता ही गया। विद्वान् होने का शक उनके ऊपर जब से सवार हुआ है, तब से वे हर सभा सोसायटी में बिना समझे-बूझे बोलने लगे हैं। उनकी बचकानी बात सुनकर लोग मज़ा लेते हैं। इस तथ्य को किसी साथी ने उनके सामने प्रकट कर दिया, तो वे बुरा मान गए। उन्होंने इसे साथियों की ईर्ष्या कहकर खारिज़ कर दिया। धीरे-धीरे शक्की जी अपने मूर्खतापूर्ण बयानों पर स्वयं ही भावमुग्ध होने लगे। विवाह के उपरांत श्री कंठ में एक और परिवर्तंन हुआ-दोनों की बेमेल जोड़ी को देखकर पड़ोसी अक्सर घूर-घूरकर देखते रहते थे। उन्हें लगा-मोहल्ले वाले सब लम्पट हैं और उनकी परम सुंदरी पत्नी को घूर-घूरकर देखते हैं।

एक दिन इसी तरह घूरने वाले एक युवक पर झपट पड़े और फिर ख़ुद पिटते-पिटते बचे। अब उन्हें लगा शायद उनकी पत्नी साथ में जँचती नहीं होगी। वे पछताने लगे कि व्यर्थ में पत्नी को परम सुंदरी समझ बैठे और उनके नखरे उठते रहे। अब उनका शक दूसरी दिशा में मुड़ गया।

एक दिन घर लौटने पर देखा-किसी ने दीवार पर 'छिपकली' लिख दिया था। उनके शक की सुई सभी पड़ोसियों का पीछा करने लगे। हो न हो, किसी शरारती ने उनकी दुबली-पतली पत्नी का नया नामकरण कर दिया हो। एक-एक करके वे उन सब पड़ोसियों का विश्लेषण करने लगे, जिनसे उनकी अतीत में कभी न कभी झड़प हुई थी। महायोग करने पर पता चला-ऐसा कोई भी पड़ोसी नहीं था, जिसके साथ उनकी बकझक न हुई हो। इसका अर्थ है-पूरा मोहल्ला उनके साथ षड्यंत्र रच रहा है। वे बरामदे में बैठकर एक-एक की हँसी का, आपसी बातचीत का गूढ़ अर्थ निकालने में लगे रहते। वे ज्यों-ज्यों अपनी शंका का प्रयोग करते, प्याज की छिलकों की तरह कई-कई अर्थ उजागर होने लगते। वे चौंक पड़ते-मोहल्ले वाले उन्हें दग़ाबाज़ नजर आने लगते। अगली सुबह देखा-और मकानों की दीवारों पर भी 'छिपकली' लिखा हुआ था। अब उनका शक विश्वास में बदलने लगा। उन्होंने लँगोट लगाकर और दंड बैठक लगाकर ऐलान कर दिया कि वे 'छिपकली' लिखने वाले को मजा ज़रूर चखाएँगे।

अँधेरा होने पर वे मुँह-सिर लपेटकर निकल पड़े। लिखने वाला रात में ही लिखता होगा। किसी ने टोक दिया-'कौन हो भाई? चौकीदार हो क्या?' श्री कंठ जी चुपचाप बराबर से निकल गए। आगे-आगे समीना जा रही थी, अपने बाप की अँगुली पकड़े। बोली-' पापा, मैडम ने कल मुझे बहुत डाँटा था। डिक्टेशन में मेरी एक गलती हो गई थी।

'क्या गलती हो गई थी' हैदर ने पूछा।

'मैंने' छपकली'लिख दिया था, लिखना था छिपकली।'

'अब तो ठीक लिख लेती हो?'

'हाँ अब बिल्कुल ठीक लिख सकती हूँ। मैंने सबकी दीवारों पर' छिपकली'लिख दिया'-समीना बोली।

शक्की पहलवान ठिठक गए। उन्हें अपना शक चूर-चूर होता नजर आया। वे दुखी मन से घर की ओर लौटने लगे। एकाएक उनके मस्तिष्क में बिजली-सी कौंधी-अच्छा! तो यह बात है। कल पता करना पड़ेगा कि इसे हिन्दी कौन पढ़ाता है? ज़रूर उसी की शरारत होगी। वे अपनी सूझबूझ पर मुग्ध थे। वे घर में घुसते ही चहक उठे।

'बहुत खुश नज़र आ रहे हो' , पत्नी ने पूछा।

'साजिश का पता लग गया। यह समीना को हिन्दी पढ़ाने वाले का काम है।' श्री कंठ बोले। वे खुश थे। उनका शक खंडित होने से बाल-बाल बचा।

सुबह जैसे ही चलने को हुए-टीवी पर गाना गूँज उठा-'छिपकली के नाना हो छिपकली के ही ससुर' शक्की पहलवान का पारा सातवें आसमान पर था-'उस मास्टरनी से तो बाद में निपटूँगा, पहले तुम्हारी ही खबर लेता हूँ'-कहकर जूता टीवी के ऊपर चला दिया।

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