शख़्सियत के जुदा-जुदा पहलू (आफ़ताब अहमद) / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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इस संस्मरण के लेखक फ़ैज़ और एलिस से बहुत ही आत्मीय स्तर पर जुड़े रहे हैं। इसीलिए इस स्मृति-आख्यान में बहुत ही विश्वसनीय ढंग से फ़ैज़ के जीवन के विभिन्न पड़ाव और उतार-चढ़ाव का जीवंत ढंग से वर्णन किया गया है। सं.

शायर फ़ैज़ पर लिखने की बात और थी, शख़्स फ़ैज़ पर लिखने में मुझे एक बड़ी मुश्किल का सामना है। और वो ये कि उनसे मेरे 43 बरस के ताल्लुक़ात की दास्तान के इतने पहलू हैं कि जब उन पर एक नज़र डालता हूं तो सोचता हूं, ‘मैं किसको तर्क़ करूं किसका इंतेख़ाब करूं’। तआर्रुफ़ तो शायर फ़ैज़ ही से हुआ था, क्योंकि उनके पहले संग्रह नक़्शे-फ़रियादी के प्रकाशन से पहले ही पत्रिकाओं और मुशायरों के ज़रिये उनकी नज़्मों और ग़ज़लों की शोहरत मेरी नस्ल के नौजवानों में बहुत आम हो चुकी थी।

तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है ....... चंद रोज और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़

जैसे मिसरे कि जिनमें फ़ैज़ की शायरी के रूमानी और इंक़लाबी, दोनों रंग सिमट आये थे, हमारी रोज़मर्रा की गुफ़्तगू में शामिल होने लगे थे। उन्हीं दिनों फ़ैज़ साहब एम.ए.ओ. काॅलेज अमृतसर से हेली काॅलेज आफ़ कामॅर्स में अंग्रेज़ी के लेक्चरर होकर आ गये तो मेरे दोस्तों का और मेरा उनसे मिलने का शौक़ दुगना हो गया। अब तक हम लोगों ने उन्हें दूर-दूर से लाहौर के मुशायरों ही में या एक बार लाहौर के वामपंथी छात्रों के स्टडी सर्किल में देखा था। संयोग से मेरे दोस्त सैय्यद अमज़द हुसैन एम० ए० ओ० काॅलेज में उनके शागिर्द रह चुके थे। उस ताल्लुक़ की बुनियाद पर मेरे दूसरे दोस्त सफ़दर मीर (ज़ीनू) और मैंने ये सोचा कि अमज़द के साथ फ़ैज़ साहब से मुलाक़ात की जाये। उस मुलाक़ात की तस्वीर मेरे ज़हन में इस तरह उभरती है। शायद गर्मियों के दिन थे। हम लोग कोई 5 बजे के क़रीब राबी रोड पर फ़ैज़ साहब के मकान पर पहुंचे। वो बैठने के कमरे में सफ़ेद कुर्ता पाजामा पहने कालीन पर गावतकिये से टेक लगाये नीमदराज़ (अधलेटे) थे। हम तीनों उनके आसपास कालीन पर ही बैठ गये। रस्मी तआर्रुफ़ के थोड़ी देर बाद चाय आ गयी। पहले तो उन्होंने अमज़द से उसका हालचाल पूछा और फिर सफ़दर और मुझसे हमारी दिलचस्पियों के बारे में सवाल किये। बीच में कुछ ख़ामोशी के लम्हे भी आये और मुझे एहसास हुआ कि फ़ैज़ साहब को बातों में लगाने का तरीक़ा ये है कि उनसे सवाल किये जाओ। सो मैंने उनसे उनके संकलन के बारे में पूछा और साथ ही यह भी पूछा कि राशिद (नून मीम राशिद) ने तो ‘मावरा’ की भूमिका कृश्नचंदर से लिखवायी है, आप भी किसी नये अदीब से लिखवायेंगे या तासीर साहब या पितरस बुख़ारी साहब में से किसी एक से! कहने लगे, बुख़ारी साहब और तासीर साहब से तो हरगिज़ नहीं, किसी दूसरे के बारे में अभी कुछ सोचा नहीं। बाद में कृश्नचंदर की भूमिका की बात होने लगी, मगर कुछ ज़्यादा देर नहीं चली। फ़ैज़ साहब ने ये कहकर टाल दिया कि वो तो अफ़सानानिगार हैं और फिर उनके अफ़सानों के बारे में एकाध जुमला कहा। इसके बाद सफ़दर के एक सवाल पर मौलवी नज़ीर अहमद, रतननाथ सरशार और प्रेमचंद का ज़िक्र हआ और फ़ैज़ साहब ने उनकी ख़ास-ख़ास विशेषताओं की तारीफ़ की और ये भी कहा कि नये अदब में तो अफ़साने ही लिखे जा रहे हैं, नाॅवेल की तरफ़ किसी ने तवज्जो नहीं की। फिर कुछ इधर-उधर की बातें हुईं और कोई घंटे-सवा घंटे बाद हम लोगों ने उनसे इजाज़त चाही। ये मुलाक़ात तो कुछ रस्मी ही सी थी, मगर फिर भी हम इस ख़याल से खुश-खुश लौटे कि आज फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ से मुलाक़ात हुई है।

एक दूसरी तस्वीर वो है कि जब अमज़द ‘हल्क़ा-ए-अरबाब-ए-ज़ौक़’ के ज्वाइंट सेक्रेटरी हो गये थे और फ़ैज़ साहब उनकी दावत पर हल्क़े के एक हफ़्तावार इजलास की सदारत करने आये थे। उस ज़माने में हल्क़े के जलसे ऐबट रोड पर निशात सिनेमा के सामने एक दफ़्तर के बड़े कमरे में हुआ करते थे। फ़ैज़ थ्री पीस गरम सूट पहने, बढ़िया क़िस्म की टाई लगाये हुए थे। उनकी खुली और चमकती हुई पेशानी बिजली की रौशनी में कुछ और भी चमक रही थी। मीरा जी (समानउल्ला डार) की एक नज़्म चर्चा में थी, जिसके इब्तदाई मिसरे ये थे :

चूम ही लेगा बड़ा आया कहीं का कौव्वा

उड़ते-उड़ते भला देखो तो कहां आ पहुंचा

कलमुआ काला कलूटा काजल

नज़्म की काॅपियां मीरा जी ने हमेशा की तरह कागज़ की लंबी-लंबी मगर कम चैड़ी कतरनों के रूप में उस मजलिस के लोगों में बांट रखी थीं जो नज़्म के बारे में नये-नये नुक़्ते बयान कर रहे थे। मीरा जी ख़ामोश बैठे सुन रहे थे और लुत्फ़ उठा रहे थे। फ़ैज़ साहब मुस्तक़िल सिगरेट का धुआं उड़ा रहे थे और साथ-साथ नज़्म की काॅपी को भी उलट-पुलट कर देख रहे थे। ज्यों ही नज़्म के विषय पर बहस ख़त्म हुई, फ़ैज़ साहब ने मुस्कुराते हुए मीराजी से मुख़ातिब होकर कहा, ‘भई, इस पर ये महाकाव्य लिखने की क्या ज़रूरत थी?’ इस पर हाज़रीन में हंसी की एक हल्की-सी लहर उठी, जिस पर फ़ैज़ साहब ने तरक़्क़ीपसंद अदब का अपना नुक़्ता-ए-नज़र बयान करते हुए ये कहा, ‘नज़्म का विषय कोई इतना अहम, गंभीर और गहरा नहीं है कि उस पर इतनी लंबी नज़्म लिखी जाये,’ वग़ैरह-वग़ैरह। फ़ैज़ साहब आम तौर पर इस क़िस्म की फ़िक़रेबाज़ी नहीं करते थे मगर मीराजी से उनका एक ज़ाती ताल्लुक़ भी था। और वो ये कि मीरा जी फ़ैज़ साहब के छोटे भाई इनायत अहमद के बड़े बेतकल्लुफ़ और गहरे दोस्त थे और उन्होंने ‘अदबी दुनिया’ में एक ख़ास मक़सद से अहमद के नाम से एकाध नज़्म भी प्रकाशित की थी। इस ज़ाती ताल्लुक़ात की बुनियाद पर फ़ैज़ साहब ने महफ़िल में मीरा जी से ये बेतकल्लुफ़ी क़ायम रखी और हमें इसका इल्म उस वक़्त हुआ जब अमज़द, सफ़दर और मैं उन्हें क़रीब ही निस्बत रोड के एक चायखाने में उनसे गप्प करने के लिए ले गये।

पर कुछ अर्से के बाद अचानक ये पता चला कि फ़ैज़ साहब जनसंपर्क के महक़मे में कैप्टन बनकर दिल्ली चले गये हैं। उनको ले जाने वाले मजीद मल्लिक साहब थे जो उस महक़मे में एक बड़े ओहदे पर थे। 1942 से 47 के शुरू तक फ़ैज़ साहब देहली और रावलपिंडी में रहे और लेफ़्टिनेंट कर्नल के ओहदे तक पहुंचे। इत्तेफ़ाक की बात है कि मैं इस दौरान कई बार देहली गया मगर मेरी फ़ैज़ साहब से कोई मुलाक़ात नहीं हुई। हां, एक बार मैंने उन्हें इत्तेफ़ाक से लाहौर रेलवे स्टेशन पर देखा। वो वर्दी पहने फ़र्स्ट क्लास के डिब्बे के सामने सिगरेट पी रहे थे। मुझे ये देखकर मज़ा आया। मैंने आगे बढ़कर सलाम किया तो फ़ैज़ साहब मेरी उम्मीद के खि़लाफ़ कुछ तपाक से मिले। वो रावलपिंडी जा रहे थे। जब तक गाड़ी चलने की सीटी नहीं बजी, वो मुझसे खड़े बातें करते रहे। लाहौर की अदबी सरगर्मियों और बाज़ दोस्तों का हाल पूछते रहे।

फ़ैज़ साहब से मेरा बाक़ायदा ताल्लुक़ दरअसल उस वक़्त हुआ जब वो जनवरी 1947 में फ़ौज की मुलाज़मत छोड़कर पाकिस्तान टाइम्स के एडिटर की हैसियत से मुस्तक़िल तौर पर लाहौर आ गये। अब उनसे ज़्यादा मुलाक़ात होने लगी। आम तौर पर पाकिस्तान टाइम्स के दफ़्तर में, जो उस ज़माने में माल रोड पर ‘सिविल मिलिट्री गज़ट’ के दफ़्तर ही में था। मैं एम.ए. पास कर चुका था। इस्लामिया काॅलेज में अंग्रेज़ी की लेक्चररी करते हुए मुझे चंद महीने ही गुज़रे थे और मैं अपनी मुलाज़मत में अभी कुछ जमा नहीं था। एक अंग्रेज़ी अखब़ार में फ़ैज़ साहब के साथ काम करने के ख़याल ने मुझे ऐसा गरमाया कि मैंने एक दिन जुरअत करके फ़ैज़ साहब से कहा कि वो मुझे पाकिस्तान टाइम्स के स्टाफ़ में शामिल कर लें। उन्होंने काॅलेज की मुलाज़मत पर अख़बार की मुलाज़मत को तरजीह देने पर कुछ ताज्जुब का इज़हार किया और फिर कहा कि फ़िलहाल रुक जाओ। देखो कि देश के हालात क्या रुख़ अख़्तियार करते हैं। काॅलेज से गर्मी की छुट्टियों की तनख़्वाह तो वसूल करो। सितंबर में देखेंगे, क्या सूरते-हाल है और फिर कुछ फ़ैसला करेंगे। ये बात शायद अप्रैल 1947 में हुई थी। 3 जून को उपमहाद्वीप के बंटवारे के प्लान का ऐलान हुआ। कुछ दिन के बाद काॅलेज में गर्मियों की छुट्टियां शुरू हो गयीं और मैं अपने घर वालों के साथ कश्मीर आ गया। हम लोग पहले तो श्रीनगर से कोई 15 मील दूर दरियाए झेलम के किनारे एक क़स्बे गांदरबल में ठहरे, फिर वहां से अगस्त के शुरू में श्रीनगर आ गये और बांध पर एक हाउस बोट में रहने लगे। दरिया के उस पार एक बड़े से बंगले ‘हार्मनी’ में तासीर साहब और उनके बच्चे और फ़ैज़ साहब के बीवी-बच्चे रह रहे थे। चुनांचे तासीर साहब से सुबह-शाम मुलाक़ातें होने लगीं।

14 अगस्त के दो-तीन दिन बाद फ़ैज़ साहब भी वहां पहुंच गये। वो शायद सेंट्रल ट्रेनिंग काॅलेज के प्रिंसिपल साहब के साथ उनकी कार में आये थे और शाम को पहुंचे थे। मैं उनसे दूसरे दिन सुबह तासीर साहब के कमरे में मिला जहां उस वक़्त बशीर हाशमी साहब और डाॅक्टर नज़ीर अहमद भी मौजूद थे। फ़ैज़ साहब ने कुछ झिझक के साथ जो बुजुर्गों, ख़ास तौर से तासीर साहब और बुख़ारी साहब, की मौजूदगी में ज़्यादा हो जाती थी, ज़िक्र किया कि लाहौर में एक नज़्म शुरू हुई थी जो लाहौर से श्रीनगर आते हुए मुकम्मल हो गयी है। तासीर साहब के कहने पर उन्होंने नज़्म सुनानी शुरू की :

ये दाग़-दाग़ उजाला ये शबगज़ीदा सहर

वो इंतज़ार था जिसका ये वो सहर तो नहीं

हम सब तो ये पहला मिसरा ही सुनकर अवाक् रह गये, ख़ास तौर पर डाॅ. नज़ीर अहमद, जो नज़्म ख़त्म हो चुकने के बाद भी बार-बार इसको दुहराते रहे। बीच-बीच में तासीर साहब ने भी कुछ मिसरे दोबारा-तिबारा सुनाने को कहा, जैसे :

फ़लक के दस्त में तारों की आखि़री मंज़िल

कहीं तो होगा शबे सुस्तमौज का साहिल

कहीं तो जाके रुकेगा सफ़ीना-ए-ग़मे-दिल

कहां से आई निगारे-सबा किधर को गई

अभी चराग़े-सरे-रह को कुछ ख़बर ही नहीं

फ़ैज़ साहब तो दो-चार दिन बाद श्रीनगर से वापस लाहौर चले गये, मगर उनके बीवी-बच्चे वहीं ठहरे रहे। हम लोग सितंबर के दूसरे हफ़्ते में लाहौर वापस आये तो कुछ दिनों के बाद मैंने फ़ैज़ साहब से फिर से पाकिस्तान टाइम्स में आने की बात छेड़ी। उन्होंने ये कहकर मुझे हैरत में डाल दिया कि तुम्हारे बारे में तो फ़ैसला हो चुका है कि तुम गवर्नमेंट काॅलेज में जा रहे हो। ये बात फ़ैज़ साहब ने बुख़ारी साहब के हवाले से कही जो उस वक़्त गवर्नमेंट काॅलेज के प्रिंसिपल थे। मैं उनसे ‘मजलिसे-इक़बाल’ के जलसों में दो-तीन मर्तबा मिल चुका था। मेरे बारे में उन्होंने तासीर साहब, फ़ैज़ साहब और सूफ़ी ग़ुलाम मुस्तफ़ा तबस्सुम साहब से भी ज़रूर कुछ-न-कुछ सुना होगा। अलबत्ता मेरे गवर्नमेंट काॅलेज में लिए जाने की तजवीज मेरे पुराने उस्ताद प्रो० सिराजुद्दीन साहब ने की थी कि वो उस वक़्त अंग्रेज़ी विभाग के अध्यक्ष थे और उन्हीं की तरफ़ से मुझे दो-चार दिन के बाद इस सिलसिले में बाक़ायदा पैग़ाम मिला।मुख़्तसर ये कि मैं अक्टूबर 1947 को गवर्नमेंट काॅलेज के अंग्रेज़ी विभाग में बतौर लेक्चरर शामिल हो गया।

फ़ैज़ साहब ने अपनी पत्रकारिता की ज़िन्दगी की शुरुआत में वाक़ई बड़ी मेहनत की थी। उन्होंने पाकिस्तान टाइम्स में संपादकीय का एक नया ढंग निकाला और उसको एक अदबी ज़ायका भी दिया। उनके उस ज़माने के संपादकीयों में दो-तीन आज भी मेरी याद में महफ़ूज़ हैं। एक तो शायद 1951 के शुरू में जब लियाक़त अली ख़ां ने काॅमनवेल्थ के प्रधानमंत्रियों की कांफ़्रेंस में शिरकत के लिए इस बुनियाद पर पेशोपेश की कि उसमें कश्मीर का मसला भी चर्चा में लाया जायेगा और फिर किसी निश्चित आश्वासन के वग़ैर ही शिरक़त के लिए रवाना हो गये। तो फ़ैज़ ने 'Westward Ho!’ शीर्षक से एक संपादकीय लिखा जो चार्ल्स किंगस्ली के एक नाॅवेल का नाम है। वहां कश्मीर पर कोई ख़ास बात नहीं हुई और लियाक़त अली ख़ां ख़ाली हाथ वापस आये तो फ़ैज़ के संपादकीय का शीर्षक था — 'The Return of a Native' जो टाॅमस हार्डी के एक नाॅवेल का नाम है। ये संपादकीय सियासी क़िस्म के थे। एक संपादकीय जो उन्होंने वाक़ई दिल की गहराइयों में डूब कर लिखा था, वो मख़ज़न के संपादक, उर्दू के मशहूर लेखक और इक़बाल के दोस्त सर शेख़ अब्दुल क़ादर की मौत पर था जिनसे उनके ख़ानदानी रिश्ते भी थे।

फ़ैज़ साहब अख़बार के काम से फ़ुर्सत पाते तो अपने बुज़ुर्ग दोस्तों की महफ़िलों में वक़्त गुज़ारते थे जिनके कर्ताधर्ता बुख़ारी साहब थे और जो अक्सर उन्हीं के घर पर होती थीं। इसके अलावा पत्रकारों की अंजुमन और डाकख़ाने के मुलाज़िमों की ट्रेड यूनियन के कामों में भी ख़ासी सरगर्मी से हिस्सा लेते थे। ये दौर जो 1947 की शुरुआत से 1951 के शुरू तक रहा, रचनात्मक दृष्टि से फ़ैज़ की ज़िंदगी में ठहराव का दौर था। इसमें उन्होंने शायद ही कोई क़ाबिले-ज़िक्र नज़्म या ग़ज़ल कही हो। मेरा ख़याल है कि ख़ुद उन्हें भी इसका एहसास होने लगा था। मुझे याद है कि एक शाम मैं इमरोज़ के दफ़्तर में मौलाना चिराग़ हसन हसरत के पास बैठा हुआ था, जो अब पाकिस्तान टाइम्स के साथ धनीराम रोड पर अपनी एलाॅटशुदा बिल्डिंग में शिफ़्ट हो गया था, कि फ़ैज़ साहब आये और कुछ देर बाद वापस जाते समय मुझे पाकिस्तान टाइम्स के दफ़्तर में अपने कमरे में ले गये। वहां बैठते ही वो ताज़ा अदबी रुझानों के बारे में मुझसे पूछने लगे। मैंने कहा कि आजकल नये शायरों, जैसे मुख़्तार सिद्दीक़ी और नासिर काज़मी वग़ैरह के बीच मीर की बड़ी चर्चा है। इस पर उन्होंने कहा कि ‘अफ़सोस है कि लोग सौदा को नहीं पढ़ते, हालांकि उसको खुद मीर ने भी पूरा शायर माना है। सौदा के क़लाम का इंतख़ाब होना चाहिए। मैंने इस सिलसिले में कुछ काम भी किया था मगर अब तो वक़्त ही नहीं मिलता।’ फिर सौदा के शेर सुनाने लगे। मैंने उनके साथ दुहराये तो मुझसे कहने लगे, ‘तुम्हीं सौदा का इंतख़ाब क्यों नहीं कर देते ! फिर मैं भी एक नज़र देख लूंगा।’ इसके बाद कुछ अपनी गुज़री हुई अदबी सरगर्मियों का ज़िक्र करने लगे और इस दौरान ये भी कहा कि ‘देखो, लोग ग़िनाइयत का आम इस्तेमाल करने लगे हैं। Lyricism के तर्जुमे के तौर पर सबसे पहले मैंने ये शब्द वज़ा किया (गढ़ा) था।’ मैंने कहा, ‘लोग ये बात भूल गये हैं और अगर आप इसी तरह ख़ामोश रहे तो वे आपकी बाक़ी अदबी रचनाओं को भी भुला देंगे।’ इस पर ज़रा गंभीर होकर कहा, ‘वाक़ई कुछ करना चाहिए। इस तरह काम नहीं चलेगा।’ मुझे उस शाम पहली बार ये अंदाज़ा हुआ कि जिस क़िस्म की ज़िंदगी फ़ैज़ साहब ने अपना ली थी, उससे बज़ाहिर मुतमइन नज़र आने के बावजूद अपने अंदर के ख़ालीपन से बेख़बर नहीं थे और न वो अपने असली काम को बिल्कुल भूले हुए थे जिसकी सलाहियत उन्हें क़ुदरत से मिली थी। इसीलिए तो उन्हें ताज़ातरीन अदबी रुझानों के बारे में जानने की तलब थी।

अपने सियासी अक़ीदे से फ़ैज़ साहब की जो बावस्तगी थी, उसकी गहराई और शिद्दत का अंदाज़ा इस वाक़ये से भी होता है जो मैंने बरसों बाद मजीद मलिक साहब से सुना। उन्होंने मुझे बताया कि एक शाम कराची में उनके घर पर बुख़ारी साहब और तासीर साहब, फ़ैज़ साहब वग़ैरह जमा थे कि बुख़ारी साहब ने ई० एम० फ़ाॅस्टर के मज़मून ‘व्हाॅट आइ बिलीव’ का ज़िक्र छेड़ दिया, ख़ास तौर से फ़ाॅस्टर के उस मशहूर कथन का कि ‘अगर किसी मौक़े पर मुझे ये फै़सला करना पड़े कि मैं अपने मुल्क से बेवफ़ाई करूं कि अपने दोस्त से, तो मेरी ख़्वाहिश होगी कि मैं अपने मुल्क से बेवफ़ाई करने की हिम्मत पैदा कर सकूं।’

इसको लेकर कुछ बातचीत हुई तो बुख़ारी साहब ने अपने दोस्तों से सवाल किया कि कौन-सा वो ऐसा मक़सद है जिसके लिए वो अपनी जान का नज़राना पेश करने पर तैयार होंगे। फ़ैज़ ने बग़ैर किसी अगर-मगर के, यह कहा, ‘इंक़लाब’ और ये जवाब उन्होंने इस यक़ीन और दो-टूक अंदाज़ में दिया कि सब ख़ामोश हो गये और बातचीत का रुख़ ही बदल गया।

ये हक़ीक़त है कि अपने मक़सद से फ़ैज़ की कमिटमेंट बड़ी मुकम्मल थी। देखने में वो बड़े आसान, धीमी और लापरवाह रफ़्तार से ज़िंदगी गुज़ारने वाले नज़र आते थे। मगर अंदर से वो बड़े पक्के इरादे के मालिक थे। इस मामले में उन्होंने न कभी समझौता किया, न उनके ‘यक़ीन का सबात’ (पूर्ण विश्वास) कभी भटका। न कभी उन्होंने ‘गुमानों के लश्कर’ को इसके क़रीब आने दिया। मुझे याद है कि जब 1956 में हंगरी में हंगामा हुआ, उसे दबाने के लिए सोवियत संघ ने ज़मीनी फ़ौज और टैंकों के दस्ते दिये, तो बड़े-बड़े समाजवादियों और रूस के हामियों के ईमान में भी ख़लल आ गया। मैंने इंग्लिस्तान के हफ़्तावार New Statesman और Nation में फ़ैज़ के अंग्रेज़ दोस्त विक्टर कैरिनन का, जो शायद पार्टी के मेंबर भी थे, एक ख़त देखा जिसमें उन्होंने इस घटना पर सख़्त नाराज़गी ज़ाहिर की थी। उसी ज़माने में फ़ैज़ यूरोप गये, वापस आये और उनसे हंगरी और कैरिनन के ख़त के बारे में बातचीत हुई, तो मैंने महसूस किया कि उन्हें इस सिलसिले में कोई दुविधा नहीं थी। कहने लगे कि भई, एक इतालवी काॅमरेड से मुलाक़ात हुई। उसने जो बातें बतायीं, उससे ये मालूम हुआ कि रूस के पास इसके सिवा कोई चारा ही न था। इस तरह फ़ैज़ ने अपने इत्मीनान के लिए रूसी कार्रवाई की एक वजह ढूंढ़ ली थी। एक तरह से चीज़ों से आंख चुराना और उन्हें टालना, ये उनका एक आम ज़हनी रवैया भी था। मगर समाजवादी निज़ाम के मामले में उनकी नज़र हमेशा लक्ष्य और उद्देश्य पर रहती थी। उनकी हिफ़ाज़त और पैरवी के दौरान होने वाली ग़लतियों को ज़्यादा अहमियत नहीं देते थे।

मार्च 1951 की शाम हुई एक मुलाक़ात मुझे अच्छी तरह याद है। लाहौर में अभी गर्मी शुरू नहीं हुई थी। मगर फ़ैज़ आये तो उन्होंने पतलून के साथ सिर्फ़ कमीज़ पहन रखी थी और पांव में बग़ैर मोज़ों के सैंडिल। मैंने उन्हें देखते ही कहा फ़ैज़ भाई, आपने तो गर्मी मना ली। उन्होंने हमारे साथ चाय पी और कुछ देर इधर-उधर की बातें करने के बाद चले गये। दूसरे दिन सुबह जब मैं दफ़्तर जाने के लिए नीचे उतरा, तो मुहम्मद तासीर की पत्नी ने मुझे बताया कि एलिस का फ़ोन आया है कि रात के पिछले पहर पुलिस फ़ैज़ को गिरफ़्तार करके ले गयी है। मैंने उस वक़्त उसका कुछ ख़ास नोटिस नहीं लिया ओर कहा कि पाकिस्तान टाइम्स में हुकूमत के खि़लाफ़ कुछ छप गया होगा। आज महमूद अली कसूरी ज़मानत करा लेंगे और वो शाम तक घर आ जायेंगे। तीसरे पहर के बाद जब मैं दफ़्तर से लौटते हुए चेयररिंग क्राॅस के क़रीब बस से उतरा तो क्या देखता हूं कि अख़बारों के विशेष अंक बिक रहे हैं और हाॅकर चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे हैं ‘हुक़ूमत का तख़्ता उलटने की साज़िश। फ़ौज के कई जनरल और पाकिस्तान टाइम्स के संपादक फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ गिरफ़्तार प्रधानमंत्री लियाक़त अली ख़ान का बयान।’

मैं हक्का-बक्का रह गया। विशेष अंक लिया और उस पर नज़र डाली। घर पहुंचा तो देखा कि कृश और मेरी बहनें नीचे बरामदे में दुखी बैठी हैं। वो भी विशेष अंक पढ़ चुकी थीं और रेडियो की ख़बरें भी सुन चुकी थीं। कृश फ़ैज़ के घर, एलिस और बच्चों से मिल आयी थीं।

शाम को मैं और मेरी बहनें भी फ़ैज़ साहब के घर पहुंचीं। कुछ पुलिस के सिपाही और खुफ़िया विभाग के लोग घर के आसपास मंडरा रहे थे। उन्होंने हमसे मामूली पूछताछ की और हम ऊपर चले गये। एलिस और बच्चों से मिले। एलिस ने उनकी गिरफ़्तारी के बारे में बताया। हम कुछ देर वहां बैठे और वापस आ गये।

एलिस से हम लोग बराबर मिलते रहे। मगर ये मालूम नहीं हो सका कि फ़ैज़ साहब हैं कहां। फिर तरह तरह की अफ़वाहें उड़ने लगीं। जैसे ये कि जेल में उनको बहुत यातनाएं दी जा रही हैं। इनसे और भी घबराहट होती थी। मगर ये सब अफ़वाहें ग़लत थीं। जब फ़ैज़ लायलपुर (अब फ़ैज़लाबाद) की जेल से, जहां वो क़ैद-ए-तन्हाई’ में रखे गये थे, मुक़दमा शुरू होने पर हैदराबाद जेल लाये गये और उनसे उनके बड़े भाई तुफ़ैल अहमद की मुलाक़ात हुई, तो उन्होंने खुद इन अफ़वाहों को ग़लत बताया।

1955 में फ़ैज़ क़ैद से रिहा हो गये। मैं जब आखि़री जनवरी 1956 में लाहौर पहुंचा, तो वो लाहौर में ही थे। अब वो पाकिस्तान टाइम्स के मुख्य संपादक बना दिये गये थे। फ़ैज़ का ये ओहदा कुछ यूं ही सा था, क्योंकि उनके पास काम कम और फ़ुर्सत ज़्यादा थी। कोई दो साल बाद अक्टूबर 1958 में जनरल अयूब ख़ान ने सिविल हुकूमत का तख़्ता उलटकर मुल्क में मार्शल लाॅ लगा दिया। फ़ैज़ उस वक़्त ‘एफ्ऱो एशियन राइटर्स कांफ्ऱेंस’ के सिलसिले में पाकिस्तानी डेलीगेशन के साथ, जिसके लीडर हफ़ीज़ जालंधरी थे, रूस गये हुए थे। जब मुल्क में पकड़-धकड़ शुरू हुई तो मजीद मलिक साहब ने, जो हुक़ूमते पाकिस्तान के प्रिंसिपल पब्लिकेशन ऑफ़िसर थे, फ़ैज़ को किसी निजी ज़रिये से पैग़ाम भिजवाया कि वो वापस न आयें, बल्कि मास्को से लंदन चले जायें।

फ़ैज़ ने यही किया। यहां तक कि दिसम्बर का महीना आ गया। मुल्क में हालात नहीं बदले, तो मजीद साहब ने फिर किसी के ज़रिये पैग़ाम भिजवाया कि वो अभी लदंन में ही ठहरे रहें। दिसम्बर के दूसरे हफ़्ते का कोई दिन था कि मज़ीद साहब के घर के अंदर कोई टैक्सी आकर रुकी और बिल्कुल उम्मीद के खि़लाफ फ़ैज़ बरामद हुए। मजीद साहब उनके स्वागत के लिए आगे बढ़े, मगर उनसे रहा नहीं गया और फ़ौरन बोल उठे मैंने तुम्हें पैग़ाम भिजवाया था कि तुम अभी मत आना। फ़ैज़ ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया कि मगर हम तो आ गये। बहरहाल, हम सब उनसे मिलकर बहुत ख़ुश हुए। शाम ज़रा भीगी, तो महफ़िल जमी। हम लोग रात गये तक बातें करते गये। फ़ैज़ रूस में राइटर्स कांफ़्रेंस के क़िस्से, पाकिस्तानी डेलीगेशन के लीडर की हैसियत से हफ़ीज़ जालंधरी साहब के लतीफ़े के क़िस्से सुनाते रहे। फिर लंदन में अपने रुकने का ज़िक्र किया और मजीद साहब से कहा कि मुझे आपका पैग़ाम मिल गया था। मगर मैं लंदन में कब तक बैठा रहता। अब देखिए, जो हो सो हो।

दो-तीन दिन कराची में रहने के बाद वो लाहौर चले गये। दूसरे दिन हमने अपनी बड़ी बेटी सलीमा की शादी की सालगिरह मनायी और उसी रात के पिछले पहर उन्हें गिरफ़्तार करके लाहौर किले की जेल में नज़रबंद कर दिया गया। मैंने वापस आया और पूरे तीन महीने के बाद मेरा तबादला कराची हो गया। जिस दिन मुझे कराची के लिए रवाना होना था, उसी दिन फ़ैज़ की नज़रबंदी ख़त्म हुई और उनको रिहा कर दिया गया। मगर मेरी उनसे मुलाक़ात न हो सकी। सिर्फ़ फ़ोन पर बात हुई। फ़ैज़ यहां होने के बाद फिर पाकिस्तान टाइम्स के दफ़्तर पहुंच गये। मगर अभी चंद ही दिन गुज़रे थे कि जनरल अयूब ख़ान ने प्रोग्रेसिव पेपर्स की संस्थाओं और उनके अख़बारों और पत्रिकाओं में यानी पाकिस्तान टाइम्स, इमरोज़ और लैलोनिहार को हुकूमत ने कब्ज़े में ले लिया, और इसके साथ ही फ़ैज़ साहब की मुख्य संपादकी भी ख़त्म हो गयी।

पाकिस्तान टाइम्स पर हुकूमत के कब्ज़े के कुछ समय बाद, हुकूमत में फ़ैज़ के कुछ दोस्तों और चाहनेवालों ने उनको किसी न किसी काम पर लगाने की कोशिश शुरू कर दी। फ़ैज़ ने मुझे बताया कि एस० एम० शरीफ़ साहब ने, जो उस ज़माने में शिक्षा मंत्रालय के सचिव थे, उन्हें गवर्नमेंट काॅलेज लाहौर में अंग्रेज़ी की प्रोफ़ेसरी की पेशकश की। मगर फ़ैज़ की ईमानदारी देखिए कि उन्होंने ये कहकर माफ़ी मांग ली कि अंग्रेज़ी अदब से उनका रिश्ता उस तरह का नहीं है कि वो एम० ए० की क्लासों को पढ़ा सकें। उन्हें इस विषय के सिलसिले में नये पहलुओं की जानकारी नहीं है। हां, अगर उर्दू की प्रोफ़ेसरी का इंतज़ाम हो सके, तो और बात है। क्योंकि इसमें उनके पास कुछ कहने को होगा।

बहरहाल, कुछ वर्षों बाद उन्हें लाहौर की आर्ट कौंसिल का प्रशासनिक मुख्य अधिकारी बना दिया गया। कौंसिल की बुनियाद 1948 में तासीर साहब, इम्तियाज़ अली ताज, अब्दुल रहमान चुग़ताई ओर फ़ैज़ साहब ने ही डाली थी। फ़ैज़ लाहौर में ही रहते थे और अक्सर कराची आते रहते थे। जब सदर के इलाक़े में आते तो मेरे यहां भी आ जाते। इस दौरान फ़ैज़ और मैं एक-दूसरे के और भी क़रीब आ गये। और हमारे दरमियान से वो पर्दे भी उठने लगे जो अब तक पड़े हुए थे।

मैं फ़ैज़ के दिल के ज़ाती मामलात का ज़िक्र नहीं करूंगा। मैंने उनकी ज़िन्दगी में भी उनके भरोसे को कभी ठेस नहीं पहुंचायी। अब तो ख़ैर उसका सवाल ही पैदा नहीं होता। हां, फ़ैज़ के दिल के मामलात में से एक घटना का ज़िक्र ज़रूर करूंगा। एक दिन तीसरे पहर के क़रीब मेरे यहां आये और थोड़ी देर बैठकर कहने लगे तुम ज़रा मुझे क़रीब ही एक जगह पहुंचा दो। मेरे साथ कार में बैठे और मुझे ई.आईलाइंस की तरफ़ जाने को कहा। वहां एक कोठी के पिछवाड़े की तरफ़ ले गये, जहां नौकरों के क्वार्टर्स थे, और धोबियों की अलगनी लटकी हुई थी, वहीं उतर गये और खुद ये कहकर अंदर चले गये कि मैं वापस आ जाऊंगा। कोई घंटे-डेढ़ घंटे के बाद एक कार उन्हें मेरे घर के गेट तक पहुंचा गयी। बहुत ख़ुश नज़र आ रहे थे। मुझे बताया कि आज बड़ी मुद्दत के बाद मुलाक़ात हुई है। इन ख़ातून से नौजवानी में लायलपुर में जान पहचान हुई थी, जो जल्द ही गहरे जज़्बाती लगाव में तब्दील हो गयी। मगर फिर किसी वजह से उसे भुलाना पड़ा। मगर उसका असर उन पर बहुत देर तक रहा। फ़ैज़ की नज़्म ‘कोई आशिक़ किसी महबूबा से’ अगरचे इस घटना से कोई सत्राह बरस बाद 1978 में लंदन में लिखी गयी, मगर मेरा अंदाज़ा है कि ये उन्हीं महिला के लिए है। यहां मैं ये भी बता दूं कि वो दूसरों के दिल के मामलात का भी बड़ा गहरा एहसास कर सकते थे। एक बार जब वो रूस से लौटे तो कहने लगे कि सोशलिस्ट सिस्टम में ग़मे-रोज़गार यानी रोटी, कपड़ा और मकान के ग़म का इलाज कम-से-कम उसूली तौर पर मौजूद है। मग़र दखिली-ग़म यानी इश्क़ के ग़म, किसी बेवफ़ाई के ग़म का क्या इलाज है? बात ये थी कि इस सफ़र में वो किसी ऐसी महिला से मिलकर आये थे, जो अपनी ज़िन्दगी के बाक़ी हालात से तो बिल्कुल सन्तुष्ट थी, मगर जब उसने फ़ैज़ से अपने महबूब की बेवफ़ाई का क़िस्सा बयान किया तो अंदाज़ा हुआ कि अंदर से वो कितना दुखी है।

1962 में मेरे लाॅस एंजिलिस पहुंचने के फ़ौरन ही बाद मुझे फ़ैज़ के दिल की बीमारी की ख़बर मिली और चंद दिनों बाद मेरी तसल्ली के लिए एलिस का ख़त कि अब वो स्वस्थ हो रहे हैं। चंद महीने के बाद जब उनको रूस की तरफ़ से ‘लेनिन पीस प्राइज़’ दिये जाने का ऐलान हुआ उस समय पाकिस्तान के कुछ अख़बारों में बहुत ले-दे हुई। ये ख़बर मुझे नून मीम राशिद के एक ख़त से हुई, जो उन्होंने मुझे न्यूयार्क से लिखा था। इससे पहले भी ये अख़बार उनके नाम के साथ ‘पिंडी साज़िश केस के सज़ायाफ़्ता’ लगाकर उनके खि़लाफ़ लिखते रहते थे। अमीर मुहम्मद ख़ां, गवर्नर, पंजाब ने भी उन्हें तरह तरह से तंग करना शुरू कर दिया। आखि़र वो इतने दुखी हुए कि अपनी बड़ी बेटी सलीमा को साथ लेकर जब वो अपना पुरस्कार लेने वसूल करने मसक्वा (मास्को) गये, तो वहां से वापस नहीं आये, बल्कि लंदन चले गये। एलिस और छोटी बेटी मुनीज़ा को अपने पास वहां बुला लिया। लदंन में रहने के दौरान उन्होंने वाशिंगटन मुझे एक ख़त लिखा जिसमें ताज़ा नज़्म और ग़ज़ल भी भेजी। वाशिंगटन में हमारे इतवार के दोस्तों के बीच उस नज़्म और ग़ज़ल की बहुत चर्चा हुई।

1965 के शुरू में मैं और सीमा वाशिंगटन से वापसी पर लंदन में रुके। उनकी बेटी सलीमा से पता चला कि फ़ैज़ जल्द ही लंदन पहुंच रहे हैं। मेरी तो जैसे ईद हो गयी। इसके बाद हम क़रीबन दो महीने इंग्लिस्तान यानी लंदन में रहे और ज़्यादा वक़्त फ़ैज़ के साथ गुज़ारा।

वतन वापसी पर मेरी नियुक्ति फ़ाइनेंस सर्विसेज़ एकेडमी में हुई, जो अब सिविल सर्विसेज़ एकेडमी बन गयी है, और लाहौर के वाल्टन रेलवे स्टेशन के क़रीब है। फ़ैज़ अपने परिवार समेत लदंन की ज़िन्दगी से उकताकर कोई साल भर पहले ही अपने वतन वापस आ गये थे, और अब ‘अब्दुल्ला हारून काॅलेज’ में प्रिंसिपल की हैसियत से कराची में रहते थे। मैं लाहौर में कोई दो साल रहा। इस दौरान फ़ैज़ कई बार लाहौर आये और मैं कई बार कराची गया और उनसे बराबर मुलाक़ातें होती रहीं। जनवरी 1968 में बतौर ज्वाइंट सेक्रेटरी सूचना और प्रसारण मंत्रालय मैं लाहौर से तबादले पर ढाका पहुंच गया। फ़ैज़ उस ज़माने में हुकूमत की एक कमिटी के मुखिया भी थे और पाकिस्तानी संस्कृति पर एक रिपोर्ट तैयार कर रहे थे। इस सिलसिले में वो दो-तीन बार ढाका भी आये। एक बार जब मैं उन्हें लेने एयरपोर्ट गया, तो उसी जगह से जी. अहमद साहब भी उतरे, जो उस ज़माने में किसी सरकारी कमीशन के मुखिया भी थे। उनसे हमारा वाशिंगटन में काफ़ी मिलना-जुलना भी था। उनसे मुलाक़ात हुई तो कहा आज शाम मैंने फ़ैज़ को अपने होटल में खाने पर बुलाया है, तुम भी आ जाना। उस शाम तो खाना इंटरकांटिनेंटल में हुआ। अगली शाम मैंने जी. अहमद साहब और मंज़ूर क़ादिर साहब को, जो फ़ैज़ के पुराने दोस्त थे और इन दिनों अगरतला साज़िश केस के सिलसिले में ढाका में थे, अपने यहां खाने पर बुलाया। जब ये तीनों बुज़ु र्ग जमा हुए, तो जी० अहमद साहब मंज़ूर, क़ादिर साहब से अगरतला साज़िश केस के सिलसिले में पूछने लगे। बात उन्होंने इस तरह से शुरू की मंज़ूर ये बताओ कि ये साज़िश केस है क्या?

एक रावलपिंडी साज़िश केस था, जिसका एक बड़ा मुज़रिम तुम्हारे सामने बैठा है। ये उस समय बड़े अंग्रेज़ी अख़बार का संपादक था। उससे पहले फ़ौज के जन सम्पर्कीय महक़मे में कर्नल था। बाक़ी मुल्ज़िम हाज़िर सर्विस के जनरल और ब्रिगेडियर थे। एक और मुल्ज़िम पाकिस्तान कम्युनिस्ट पार्टी का सेक्रेटरी जनरल सज्जाद ज़हीर था। मुख़्तसर में ये कि सबके सब हैसियत वाले और अहम लोग थे। इल्ज़ाम ग़लत है या सही, ये अलग बात है। तुमने इस साज़िश में कैसे लोगों को पकड़ा है। एक नेवी का लेफ़्टिनेंट कमांडर है, एक कोई सी० एस० पी० का अफ़सर है। बाक़ी सब फ़ालतू क़िस्म के लोग हैं, और फिर तुमने इस केस को सियासी रंग देने के लिए मुजीब को शामिल कर लिया है। मेरी समझ में नहीं आता कि ये किस क़िस्म का साज़िश केस है। फ़ैज़ तो जी० अहमद साहब की बातें ख़ामोशी से सुनते रहे और मज़ा लेते रहे। मंज़ूर क़ादिर साहब ने उस केस का कुछ बयान किया और कुछ विस्तार में बताया भी। मगर जी० अहमद साहब क़ायल नहीं हुए। हम लोग तो साथ-साथ पीते-पिलाते भी रहे। मंज़ूर क़ादिर साहब सिर्फ़ बर्फ़ चबाते रहे, और हमेशा की तरह बहुत अच्छी उर्दू और अंग्रेज़ी में गुफ़्तग़ू करते रहे। फ़ैज़ को पूर्वी पाकिस्तान से ख़ास क़िस्म का लगाव था। वहां उनके बहुत से चाहने वाले भी थे।

ख़ासतौर पर बायें बाज़ू के (वामपंथी) पत्रकार और लेखक, जैसे ज़हूर हुसैन चौधरी, संपादक संवाद, शहीद उल्ला क़ैसर, सहसंपादक संवाद और बांग्ला के मशहूर उपन्यासकार मुनीर चौधरी (ढाका विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर) और उनके भाई कबीर चौधरी और उनके साथी। मेरी भी उन लोगों से अच्छी मुलाक़ात थी और घरों में आना जाना भी। फ़ैज़ जब उनकी महफ़िलों में बुलाए जाते थे, तो अक्सर उनके साथ होता था। उन्हीं दिनों एक शाम शहीदउल्ला क़ैसर आए और फ़ैज़ को अपने साथ ले गए। मुझे पूछा तक नहीं, और न ये बताया कि कहां ले जा रहे हैं। मुझे हैरानी तो हुई, मगर उसकी वजह दूसरे दिन उस वक़्त मालूम हुई जब फ़ैज़ भाई ने मुझे बताया कि शहीदउल्ला कै़सर उन्हें मशहूर बंगाली कम्युनिस्ट लीडर मोनी सिंह से मिलाने ले गए थे, जो उन दिनों ढाका में छुपे हुए थे।

पूर्वी पाकिस्तान में जनरल याहिया ख़ां के आर्मी एक्शन के दौरान शहीद उल्ला क़ैसर और मुनीर चौधरी दूसरे लेखकों और बुद्धिजीवियों के साथ गिरफ़्तार हुए और मारे गए। फ़ैज़ को उन दोस्तों के बे-मौत मरने के दुख के अलावा उन सारी कार्रवाइयों से जो दिली तकलीफ़ हुई, उसका इज़हार उस ज़माने की शायरी में हुआ। बहरहाल, 1971 में पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश बन गया। मैं उससे दो साल पहले ही ढाका से वापस आ चुका था। पहले तीन महीने की छुट्टी मैंने कराची में गुज़ारी, जिसमें क़रीबन हर रोज़ फ़ैज़ भाई से मुलाक़ात होती थी। फिर मेरी नियुक्ति लाहौर में हो गई और हम गुलबर्ग में रहने लगे। दिसम्बर 1971 में जुल्फ़िकार अली भुट्टो पाकिस्तान के नए सद्र बने। उनसे फ़ैज़ की पुरानी जान पहचान थी। फ़रवरी 1972 के शुरू में फ़ैज़ लाहौर आए, और अपनी बेटी सलीमा के यहां माॅडल टाउन में ठहरे। मैं जब फ़ैज़ से मिला, तो उन्होंने बताया कि भुट्टो साहब ने उन्हें संस्कृति संस्था क़ायम करने के सिलसिले में पिंडी बुलाया है। दो-चार दिन के बाद जब वो लौटकर फिर लाहौर आए, तो उनसे मालूम हुआ कि एक संस्था ‘नेशनल कौंसिल ऑफ़ दि आर्ट्स’ के नाम से क़ायम की जा रही हैं। और फ़ैज़ को उसका चेयरमैन नियुक्त किया गया है। चुनांचे कुछ दिनों के बाद वो कराची से इस्लामाबाद चले गए और उन्होंने इस नई संस्था का चार्ज संभाल लिया। कोई चार महीने बाद मेरा तबादला भी रावलपिंडी हो गया और मैं मकान मिलने के इंतज़ार में उस ज़माने के माल रोड पर बने पूर्वी पाकिस्तान हाउस के एक कमरे में रहने लगा। फ़िर फ़ैज़ भाई से पिंडी और इस्लामाबाद में बराबर मुलाक़ातें होने लगीं।

फ़ैज़ यों तो बहुत लिए-दिए रहते थे, मगर सरकारी अफ़सरों से संबंध रखने और काम लेने का ढब उन्हें खूब आता था। और इसमें न वो किसी का रोब खाते थे न किसी की ख़ुशामद करते थे। एक फ़ायदा उनको ये ज़रूर था कि हर हुकू़मत में कई एक मंत्री और बड़े सरकारी अफ़सर काॅलेज के ज़माने से या किसी और वजह से उनके जानने वाले होते थे। इसके अलावा उनकी अपनी तबीयत में नरमी और कशिश पाई जाती थी। वो किसी से कोई कड़वी या सख़्त बात नहीं करते थे। इन सब बातों की वजह से वो हर जगह और हर महफ़िल में इज़्ज़त की नज़र से देखे जाते थे। मैंने उनको सरकारी मीटिंग में भी देखा है। उनकी बात हमेशा बड़े ध्यान और आदर से सुनी जाती थी। फिर उनमें सरकारी अफ़सरों के खि़लाफ़ कोई भेदभाव नहीं था क्योंकि वो इनसान को इनसान समझ कर मिलते थे और उनकी बुराइयों और कमियों को इनसानी कमज़ोरियां समझ कर कु़बूल करते थे।

फ़ैज़ कोई चार साल तक नेशनल काउंसिल ऑफ़ द आर्ट्स के चेयरमैन रहे मगर फिर उन्हीं लोगों ने, जिनको वो खुद इस संस्था में अहम जगहों पर लाए थे, ऐसे हालात पैदा कर दिए कि फ़ैज़ का दिल उखड़ गया। हमेशा की तरह न उन्होंने किसी की शिकायत की, न किसी तरह की कड़वाहट ज़ाहिर की, केवल प्रधान मंत्री भुट्टो से मिलकर यह कहा कि मेरी दोनों बच्चियां क्योंकि लाहौर में हैं, मेरी इच्छा है कि मैं उनके पास रहूं। सो, उन्होंने अपने पुराने दोस्त और संगीत के माहिर खुर्शीद अनवर की मदद से ‘आंहग-ए-खु़सरवी’ और ‘कराना घराने’ के संगीत के लिए एक अलग सेण्टर की बुनियाद डाली और उसके मुखिया बनकर लाहौर चले गए।

जुलाई 1977 में जब जनरल ज़िया-उल-हक़ ने देश में मार्शल-लाॅ लगाया तो फ़ैज़ लाहौर में थे। दो तीन दिन के बाद वो पिंडी आये। एक शाम जब हमारे घर फ़ैज़ और कुछ दूसरे दोस्त जमा थे, मार्शल-लाॅ लागू करने की बातों के दौरान जनरल ज़िया-उल-हक़ के नब्बे दिन में चुनाव कराने की बात आयी। मुझे अच्छी तरह याद है कि फ़ैज़ ने मुस्कुराते हुए कहा कि यह काम स्वभाव के खि़लाफ़ होगा। उस समय तो किसी ने इसे यक़ीन नहीं किया मगर बाद में फ़ैज़ की यह बात सचमुच सियासी भविष्य वाणी साबित हुई।

कुछ दिनों बाद हुकूमत की ख़ुफ़िया एजेंसियों ने फिर से ज़िन्दगी मुश्किल कर दी। संदिग्ध लोग लाहौर में उनके घर के आस-पास घूमने लगे। वो बाहर निकलते तो एक जीप उनके पीछे लगी रहती। फ़ैज़ अब जीवन की उस मंज़िल में थे कि उनसे इस तरह की नागवार कार्रवाई बरदाश्त नहीं होती थी। उन्हें यह बहुत बुरा लगा, सो उन्होंने ‘एफ्ऱो-एशियन राइटर्स’ की पत्रिका लोटस का संपादक पद स्वीकार करके देश से बाहर जाने का फ़ैसला कर लिया। फ़रवरी 1978 के शुरू में वो एक बार एलिस के साथ पिंडी में हमारे ‘हाॅरले स्ट्रीट’ वाले घर आये। चंद मिनट से ज़्यादा नहीं बैठे। कहने लगे, हम शाम की फ़्लाईट से कराची जा रहे हैं और वहां से रात को लदंन। बस, तुम्हें ‘खुदा हाफ़िज़’ कहने आये हैं। अब देखो कब मुलाक़ात होती है। फिर सीमा और हमारी दोनों बच्चियां को और मुझे प्यार किया और चले गये। उस दिन फ़ैज़ बहुत उदास और दुखी लग रहे थे।

अगले तीन साल में वो मुस्तक़िल तौर पर बैरूत में तो रहे, मगर वहां से लंदन और मसक्वा (मास्को) और दुनिया के बड़े-बड़े शहरों के चक्कर लगाते रहे, और अदीबों की कांफ़्रेंस में शरीक होते रहे। इस दौरान एक बार फ़ैज़ से लंदन में मुलाक़ात हुई। मुझसे पाकिस्तान और दूसरे दोस्तों का हाल-चाल पूछने लगे। और आखि़र में दो टूक अंदाज़ में मुझसे कहा कि भई, बहुत हो चुका। मैं अगले साल के शुरू में पाकिस्तान आ जाऊंगा। फिर देखा जायेगा कि क्या होता है। मार्शल लाॅ का असल मक़सद तो भुट्टो को ख़त्म करना था, वो तो हो चुका। बातों में जब मैंने उन्हें बताया कि जनरल ज़िया उल-हक़ ने लेखकों की पहली कान्फ्रेंस के मौक़े पर, जो प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की फांसी के हफ़्तेभर बाद 11 अप्रैल 1979 को हुई थी, अपने अध्यक्षीय भाषण में फ़ैज़ का नाम लिए बग़ैर ‘अपने हमवतनों से किनाराकशी’ करने वाले लेखकों पर पाकिस्तान की ज़मीन का अन्न, उसका पानी, उसकी छांव, उसकी चांदनी हराम होने की भविष्यवाणी की थी, तो फ़ैज़ खिलखिलाकर हंस पड़े। उन्हें इसकी ख़बर इससे पहले भी मिल चुकी थी। फिर मुझे उन्होंने एक दिलचस्प घटना सुनाई। पिछले या उससे पिछली गर्मी के एक बड़े सुहाने दिन वो और एलिस और उनकी दुभाषिया महिला मसक्वा (मास्को) के किसी रेस्टोरेंट में बैठे काॅफ़ी पी रहे थे। रेस्टोरेंट पूरा भरा हुआ था, सिर्फ़ उनकी मेज़ पर एक जगह ख़ाली थी। इतने में एक फ़िरंगी व्यक्ति आया और उनकी मेज़ पर बैठने की इजाज़त मांगी। फ़ैज़ ने इजाज़त दी तो उसने अपना परिचय देते हुए बताया कि वो ऑस्ट्रेलिया के किसी विश्वविद्यालय में फ़िजिक्स का प्रोफ़ेसर है। फ़ैज़ ने अपना परिचय कराया कि मैं पाकिस्तान से हूं, और एक शायर हूं। जब उसने ये सुना, तो गर्मजोशी दिखाते हुए कहा कि मैं अभी कुछ पहले ही आपके एक हमवतन नोबेल पुरस्कार प्राप्त डाॅ. अब्दुस्सलाम से मिला था। उन्होंने मुझे बताया कि एक महान पाकिस्तानी शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को ‘लेनिन अम्न इनाम’ मिला है। संयोग देखिए कि आज आपसे यहां मुलाक़ात हो गयी। बातों के दौरान जब प्रोफे़सर साहब को ये पता चला कि फ़ैज़ साहब इन दिनों अपने वतन से बाहर रहते हैं, तो उसने भोलेपन से पूछा कि डाॅ. अब्दुस्सलाम के बारे में तो जानता हूं कि पाकिस्तान से इसलिए बाहर रहते हैं कि धर्म में वो एक ऐसे पंथ को मानते हैं, जिसे वहां ग़लत समझा जाता है। मगर मि. फ़ैज़ आपकी परेशानी क्या है? फ़ैज़ ने फ़ौरन जवाब दिया कि मैं ग़लत किस्म की शायरी करता हूं।

जनवरी 1982 में फ़ैज़ पाकिस्तान वापस आ गये। कराची और लाहौर में कुछ दिन गुज़ारने के बाद जब वो इस्लामाबाद पहुंचे तो मैं उनसे मिलने गया। फ़ैज़ के इस्लामाबाद पहुंचने के दो-दिन बाद ही जोश साहब का निधन हो गया। मुझे दफ़्तर में जब ये ख़बर मिली तो मैंने फ़ैज़ को फ़ोन किया और फिर उनके पास चला गया। उसी दिन उन्हें शाम के खाने पर हमारे यहां आना था। उन्होंने मुझे बताया कि इससे पहले उन्हें चाय पर जनरल ज़िया-उल-हक़ से मिलना है। मैंने पूछा कि ये कैसे हुआ, तो कहने लगे, अरबाब नियाज़ ने मुलाक़ात का समय तय कराने के बाद मुझे ख़बर दी है। कर्नल अरबाब नियाज़ फ़ैज़ के पिंडी साज़िश केस के सज़ायाफ़्ता साथी और उस ज़माने में जनरल ज़िया-उल-हक़ के मंत्रिमंडल के एक मंत्री थे। मैंने जब ये सुना तो मेरे मुंह से सहसा निकला कि फ़ैज़ भाई, आपके साथियों को इस पर ऐतराज होगा, और वो इस सिलसिले में बातें बनायेंगे। कहने लगे कि भई, हम क्या करें।’ अरबाब नियाज़ हमारे दोस्त हैं, और उनकी ज़िद है। मैं उनके इस जवाब पर चुप हो गया। जोश साहब के कफ़न-दफ़न से निपटकर मैं पिंडी में अपने घर के लिए रवाना हुआ, और फ़ैज़ अपने एक रिश्तेदार अज़फ़र शफ़क़त के साथ उनकी कार में जनरल ज़िया-उल-हक़ से मिलने चले गये। खाने के समय से बहुत पहले ही फ़ैज़ साहब हमारे घर पहुंच गये। मैंने पूछा तो उन्होंने बताया कि बस, आध घंटे की मुलाक़ात रही। हमने चाय पी, और इजाज़त चाही। अपनी बात जारी रखते हुए कहने लगे कि मैंने शुरू में तो ये कहा कि आप उर्दू के बड़े समर्थक हैं, और उसकी बहुत चर्चा करते हैं। आज उर्दू के इतने बड़े शायर की मौत हुई, मगर उनके जनाज़े पर आपका प्रतिनिधि, आपके निजी स्टाफ़ का कोई आदमी मौजूद नहीं था। जनरल ज़िया-उल-हक़ ने जवाब दिया कि हां, ये ग़लती हो गई। मैंने पैग़ाम तो दे दिया है। मगर आप ठीक कहते हैं कि उन्हें जाना चाहिए था। इसके बाद उन्होंने ये बात छेड़ दी कि आप बाहर क्यों रहते हैं, आप वतन वापस आ जाइए और यहां रहिए। मैंने कहा, मैं तो वतन में ही रहना चाहता हूं, मगर पिछले दिनों लंदन से टोकियो जाते हुए कराची से गुज़र रहा था कि मुझे एयरपोर्ट पर रोक लिया गया। बड़ी भाग-दौड़ के बाद और गृहमंत्री के दख़ल देने पर सफ़र जारी रखने की इजाज़त मिली। जनरल ज़िया-उल-हक़ ने कहा, मुझे तो इसकी बिल्कुल ख़बर नहीं। ये तो बड़े अफ़सेास की बात है। ऐसा हरगिज़ नहीं होना चाहिए था। पर फ़ैज़ ने उन्हें बताया कि मुझे कई देशों से दावत आते रहते हैं। मैं अपने वतन में रहना चाहता हूं, मगर मेरे सफ़र पर कोई पाबंदी नहीं होनी चाहिए। जनरल ज़िया-उल-हक़ ने इस बारे में भी उन्हें विश्वास दिला दिया। फ़ैज़ ने कहा इसके बाद न मेरे पास कुछ कहने को बाक़ी था, और न उनके पास। इतने में चाय की प्याली ख़त्म हो गयी, सो मैंने इजाज़त चाही। ये है फ़ैज़ की जनरल ज़िया-उल-हक़ से उस मुलाक़ात की विस्तृत जानकारी, जिस पर फ़ैज़ के कुछ साथियों ने, जैसा कि मैंने उनसे कहा था, बहुत ले-दे की और तरह-तरह की बातें बनायीं। मैंने सुना कि एक महफ़िल में उनमें से एक साहब अपनी सीमा पार करने लगे और बहस पर उतर आये, तो फ़ैज़ अपनी आदत के खि़लाफ़ चिढ़ गये और उनको हल्की-सी डांट पिला दी। कोई आठ महीने बाद फ़ैज़ इस्लामाबाद आये और हफ़्ते भर से ज़्यादा यहां ठहरे। किसे मालूम था कि इस्लामाबाद का ये उनका आखि़री दौरा होगा।

वापसी से दो दिन पहले एक शाम मेरे साथ ड्राइव पर चलने की फ़रमाइश की। वो शाम बहुत ख़ूबसूरत थी। फिर जब शाम ढलने लगी, तो फ़ैज़ कहने लगे कि अपने घर चलो, सीमा से मिलेंगे। देर तक अपने परिवार की और ख़ासतौर पर अपने पिता और उनके इंग्लिस्तान में रहने, और अफ़ग़ानिस्तान के शासकों से उनके संबंधों की बातें करते रहे। फिर अपनी ज़मीनों का ज़िक्र किया जिनको उन्होंने अपने ग़रीब रिश्तेदारों में बांट दिया था। वो बोलते रहे और हम सुनते रहे। एक बार सीमा ने ज़रा शरारत से कहा कि फ़ैज़ भाई, वैसे तो आप इलिटिज़्म के बहुत खि़लाफ़ हैं, मगर आप तो खु़द बहुत इलीट हैं। कहने लगे, वो तो हम हैं।

अगली शाम उनकी मेज़बान के यहां एक बड़ी दावत का इंतज़ाम था। फ़ैज़ के क़रीबन सभी दोस्त जमा थे। वहां फ़िर उनसे मुलाक़ात हुई। उन्होंने फ़रमाइश पर शेर भी सुनाये और देर तक सुनाते रहे। उससे अगले दिन वो लाहौर चले गये और हफ़्ते भर बाद, कि जिसके दौरान वो सियालकोट और उसके क़रीब अपने गांव कालाकादर का चक्कर भी काट आये, 19 नवंबर 1984 को मंगल के दिन लाहौर में उनका देहांत हो गया। मैं दूसरे दिन लाहौर पहुंचा और उसी दिन यानी बुधवार 20 नवंबर, 1984 को उनका अंतिम संस्कार हुआ। हज़ारों लोग जमा थे। सिर्फ़ उनके चाहने वाले ही नहीं, बल्कि वे भी जिन्होंने जीवन भर उनका विरोध किया। शोक सभा के दिन शुक्रवार था। शाम को ‘हल्क़ए अरबाबे ज़ौक़’ की शोक सभा ‘टी हाउस’ में हुई, जिसकी अध्यक्षता के लिए मुझे आमंत्रित किया गया। वहां भी साहित्य, पत्रकारिता और राजनीति के हर विचार के प्रतिनिधि मौजूद थे। उनमें से हर एक ने फ़ैज़ को शायर ही नहीं, बल्कि एक इनसान की हैसियत से भी अपने रंग में श्रद्धांजलि पेश करते हुए उन्हें बड़ी दर्दमंदी से याद किया।

बात ये है कि फ़ैज़ शायर थे, और इस दौर के बड़े शायर थे। मगर वो सही मायने में एक बड़े इनसान भी थे। उनके विरोधी उनकी ज़ाती शराफ़त के भी कायल थे। मैंने कुछ ऐसे लोगों को, जो कई वजह से उनकी शायरी को नहीं मानते थे, ये कहते हुए सुना है कि फ़ैज़ शायर से ज़्यादा बड़े इनसान थे।

असल में, फ़ैज़ के व्यक्तित्व में कोई ऐसे कोने-क़तरे या एैंच-पैंच नहीं थे कि जिनसे लोग बिदक जायें। उनमें न तो हमारे कुछ दूसरे शायरों जैसी अदाएं थीं और न किसी तरह का नाज़ो-अंदाज़। वो कभी कोई ऐसी हरकत नहीं करते थे जो किसी को नागवार गुज़रे। वो सही मायने में बहुत सभ्य आदमी थे। उनका सहज स्वभाव उनके आम मिलनेवाले के दिल को मोह लेता था। इसकी वजह शायद वो धार्मिक माहौल भी हो, जिसमें उनकी बचपन की परवरिश हुई, और जिसका उन्होंने अपने कुछ लेखों में ज़िक्र भी किया है। एक इंटरव्यू में उन्होंने साफ़ कहा कि वो अपने-आप को मामूली तरीक़े से तसब्वुफ़ (इस्लामी भक्ति) का मानने वाला समझते हैं, और जेल से एलिस के नाम एक ख़त में भी अपने-आप को कुछ inhibited (संकोची) सूफ़ी की तरह की किसी चीज़ का नाम दिया था।

शायद ये भी धार्मिक माहौल में परवरिश पाने का ही असर था कि फ़ैज़ की शायरी में पुराने संस्कारों और नयेपन का एक बहुत अच्छा संयोजन पाया जाता था। बचपन और लड़कपन में वो मौलवी इब्राहिम साहब सियालकोटी और सैय्यद मीर हसन साहब जैसे ज्ञानियों के ओरियेंटल काॅलेज में एम० ए० अरबी के ज़माने में मोहम्मद सफ़ी साहब के शागिर्द रहे थे। इन बुज़ुर्गों का ज़िक्र वो बड़ी श्रद्धा और इज़्ज़त से करते थे। बुख़ारी साहब गवर्नमेंट काॅलेज में उनके अंग्रेज़ी के उस्ताद थे। इसके अलावा दूसरे दोस्त अब्दुल मजीद सालिक, तासीर साहब, मजीद मलिक साहब, अब्दुर्रहमान चुग़ताई साहब, सूफ़ी ग़ुलाम मुस्तफ़ा तबस्सुम साहब और इम्तियाज़ अली ताज साहब को भी अपना बुज़ुर्ग समझते थे, और उनका बड़ा आदर करते थे। और उनसे बातचीत में भी रख-रखाव का ध्यान रखते थे। उनका ये अंदाज़ देखकर मैंने एक बार उनसे कहा कि ‘फ़ैज़ भाई, हम भी आपको अपना बुज़ुर्ग समझते हैं। आदर और सम्मान में तो नहीं, मगर कुछ रख-रखाव में कमी रह जाती है। आपसे कभी-कभी असहमति भी कर लेते हैं, और बहस भी।’ हंसकर कहने लगे, ‘ठीक हैं, हम इसे जेनरेशन गैप समझते हैं, जो हमें क़बूल है।’

गुज़रे समय के ये और दूसरे कई संस्कार, जो फ़ैज़ की ज़िन्दगी के आम रवैयों में नज़र आते थे, उनमें एक दोस्ती भी थी और उसमें ये जरूरी नहीं था कि दोस्त हमेशा हमख़याल और हमक़बील ही हो। उनके बुज़ुर्ग दोस्तों में, जिनके दरमियान उनके दिन-रात गुज़रते थे, तासीर साहब के अलावा कोई भी उनका हमख़याल नहीं था। बुख़ारी साहब तो उनके सामने ही तरक़्क़ीपसंद अदब का मज़ाक उड़ाया करते थे। हसरत साहब ने ‘तरक़्क़ीपसंद’ की फ़ब्ती कस रखी थी। काॅलेज के दोस्तों में आग़ा अब्बुल मजीद, नून मीम राशिद, रशीद अहमद वग़ैरह भी दूसरी तरह के लोग थे। मगर फ़ैज़ से उनके संबंधों में कभी इस बुनियाद पर ख़लल नहीं आया।

इनके अलावा, उनके मिलने वालों में नवाब मुश्ताक़ अहमद गोरमाती और नवाब मुजफ़्फर अली कजलबाश जैसे जागीरदार और रईस भी शामिल थे। ये ढकी-छुपी बात नहीं है कि इसी दोस्ती की बुनियाद पर गोरमानी साहब ने फ़ैज़ से रिपब्लिकन पार्टी का मैनिफ़ेस्टो लिखवाया और एस० एम० शरीफ़ साहब ने, जो जनरल अयूब ख़ां के मार्शल लाॅ के ज़माने में शिक्षा मंत्रालय के सचिव थे, अपने शिक्षा कमीशन की रिपोर्ट पर उनसे एक नज़र डालने के लिए कहा था। संक्षेप में ये कि फ़ैज़ अपने राजनीतिक विचारों के बावजूद दूसरे लोगों से नफ़रत नहीं करते थे, बल्कि कई बार तो यूं लगता था कि वो उनसे संबंध क़ायम रखना ज़रूरी और फ़ायदेमंद समझते थे। यूं तो वर्ग-संघर्ष के मार्क्सी नज़रिये के क़ायल थे, मगर उन्हें किसी भी वर्ग के लोगों से मेल-मुलाक़ात रखने में कोई बुराई दिखायी नहीं देती थी।

फ़ैज़ से उनके कुछ दोस्तों को ये शिकायत भी थी कि हर ऐरे-ग़ैरे का दावत स्वीकार कर लेते हैं और इस मामले में कोई एहतियात नहीं बरतते। इस सिलसिले में फ़ैज़ का जवाब अक्सर होता था कि भई, जो शख़्स हमें मुहब्बत से बुलाता है, हम उसकी नीयत पर शक क्यों करें। जहां तक छोटी-बड़ी हैसियत के लोगों में फ़र्क़ करने का सवाल है, तो उन्हें ये किसी तरह गवारा नहीं था। वो शेर सिर्फ़ फरमाइश पर सुनाते थे और वही कुछ सुनाते थे जो उनकी याद में महफ़ूज़ होता था। वो घर से शायरी की नोटबुक साथ लेकर नहीं निकलते थे। मगर उन्हें महफ़िल की तलाश ज़रूर रहती थी। मुझे अक्सर ये ख़याल होता था कि वो तन्हाई से डरते हैं।

हो सकता है, ये जेल की ज़िंदगी का असर हो। तन्हाई से डर की वजह से ही उन्होंने जमकर लिखने-लिखाने का कोई काम नहीं किया। वो अपने-आप को इस क़िस्म के अनुशासन का पाबंद नहीं बना सकते थे। अगरचे, अपने हर दायित्व को उन्होंने हमेशा बड़ी ज़िम्मेदारी से निभाया। उनको किताबों से ज़्यादा इनसानों से मुहब्बत थी। मैंने उन्हें कभी किसी पर गुस्सा करते नहीं देखा। नफ़रत नाम की चीज़ तो वो जानते ही न थे। उनको लोग अच्छे लगते थे। हंसते-खेलते लोगों में बैठकर वो वाक़ई बड़े खु़श रहते थे। वो बहुत कम उदास या दुखी रहते थे। इस मामले में भी वो बहुत प्राइवेट आदमी थे। ज़ाती दुख को वो ख़ुद ही झेलते थे। बर्दाश्त, सब्र और सुकून उनके व्यक्तित्व की ख़ूबी थी। वो अपने दुख से महफ़िल को दुखी नहीं करते थे। मुझे याद है कि कराची के पुराने और क़रीबी दोस्त की तरफ़ से उन्हें बहुत ज़ाती क़िस्म की तकलीफ़ पहुंची तो मेरे सिवा, कि मुझे इस मामले में दोनों तरफ़ से भरोसे में लिया गया था, उन्होंने कभी किसी से इसका ज़िक नहीं किया, और मुझसे भी शिकायत करने के लिए नहीं, सिर्फ़ दिल हलका करने के लिए किया। मैंने कहा था कि फ़ैज़ की शायरी की तरह उनके व्यक्तित्व में भी नये और पुराने का एक खूबसूरत संयोजन था। यही संयोजन उनकी तबीयत में नर्मी और मजबूरी का भी था। और ‘इस-इश्क’ और ‘उस-इश्क’ में भी वो अनीस-ए-हल्क़ए रिंदा (पीने-पिलाने वालों के दोस्त) और रफ़ीक़े अहले जुनूंशी (दीवानों के साथी) थे।

इस तरह देखा जाये तो उन्होंने बड़ी रंगारंग और भरपूर जिंदगी गुज़ारी। एक व्यक्ति की हैसियत से उनकी सबसे बड़ी खूबी उनका रचा और गुंथा हुआ व्यक्तित्व था, जिसने ज़माने के उतार-चढ़ाव को बड़े सलीक़े के साथ अपने अंदर समो रखा था। मेरा उनसे जो सम्बन्ध रहा है, वो शुरू में तो रस्मी नौईयत का था मगर समय के साथ-साथ मुहब्बत और फुर्क़त के एक ऐसे रिश्ते में बदल गया था, जिसे मैं अपनी जिन्दगी की सबसे क़ीमती चीज़ समझता हूं।

उर्दू से अनुवाद : नजमा रहमानी, संजीव कुमार और प्रदीप कुमार मो.: 09968281762, 09818577833, 09818725066