शख्सियत बदल गई / राजा सिंह
दिसम्बर का महीना था और पानी टप-टप बरस रहा था, साथ में थोड़ी बहुत हवा भी चल रही थी। पहाडों की तलहटी में बसी यह जगह सिहर, ठिठुर रही थी। गली में छिप-छिप हो गयी थी। दूर से दिखते पहाड़ कोहरे के कारण और भी दूर हो गये थे। यद्यपि सलिल कमरा बन्द करके बैठा था, फिर भी सर्दी रह-रह कर उसे दहला रही थी। उसने ज़्यादा से ज़्यादा कपड़े पहन रखे थे और ऊपर से रजाई ओढ़ रखी थी, परन्तु रह-रह ठंड उसके भीतर घुस कर खेल रही थी और वह कपकपां रहा था। कांपने के साथ ही खांसी का दौरा आता था और वह खंासते-खांसते बेहाल होता जा रहा था। अनवरत खांसी ज्वार-भाटे की तरह उसे बिस्तर पर ऊॅंछाल रही थी। कभी-कभी संास मिलना भी भारी हो रहा था।
अब वह उंकड़ू बैठ गया था एकदम चौपयें के मानिंद। इस तरह से बैठने पर उसे थोड़ी राहत मिलती है। खांसी का दौरा भी जानलेवा नहीं प्रतीत होता था। अगर इस तरह बैठने पर कोई उसकी पीठ सहलाता देता तो थोड़ा आराम मिल सकता था। परन्तु इस समय कोई नहीं था। अगर होता तो भी वह किसी से इस तरह का अनुरोध नहीं करता। उसे अपने दर्द, तकलीफ या गम अकेले सहना ही उचित लगता था। उसे अपनी किसी समस्या को बांटना नहीें आता था ना ही वह चाहता था। उसे उपहांस का पात्र बनना पसंद नहीं था, जो अक्सर लोग हो जाया करतें हैं। वह अपने को हरदम चुस्त-दुरूस्त ही शो करना अच्छा लगता था। अक्सर वह इस तरह की कठिनाईयों से जल्द ही निजात पा जाता था, परन्तु यह समस्यायें अक्सर उसके जीवन में आतीं रहती थी।
सलिल, जिस वक्त अपनी खॉंसी और सांसों को नियंत्रित करने का असफल प्रयास करने में संलग्न था, उसे लगा ठकठक आंवाज आ रही है, उसे लगा कि कोई जीने से चढ़कर ऊपर आ रहा है, शायद उसके कमरे में या बगल वाले छोटे कमरे में। वह उसी तकलीफ में भी अनुमान लगाता है कि बगल के कमरे में बैंक वाला लड़का आ गया था। एक खॉंसी और सांस रूकने का फिर रैला उठा था और वह फिर घों-घों की आवाज के साथ पसर गया था।
छोटे कमरे में बैंक वाला लड़का आ गया था, ताला खुलने और दरवाजा बन्द करने की फिर आवाज उसे सुनाई पड़ी, महसूस हुई. खॉसते-खॉंसते उसका मुंह लाल हो गया था और अनवरत खॉंसनंे से उसकी सॉंसे भी अवरूद्ध हो रही थीं। अनेश ने अपने कमरे से ही अन्दाज लगा लिया था कि सलिल तकलीफ में है। क्योंकि इस समय अकेले वही हो सकता है।
अनेश ने उसके कमरे का दरवाजा हल्के ढ़केला, दरवाजा भिड़ा हुआ था एक हल्की से दराज भर हुयी थी। उसने अपनी सांसों को काबू रखनें की पुरजोर कोशिश की मगर असफल रहा, खॉसी अब भी पूरे वेग में थी। वह ऑंख खोलकर देखनें की स्थिति में नहीं था। दरांज भर खुले दरवाजें के बाहर कोई खड़ा था। शायद जायजा लेने की कोशिश कर रहा था। फिर वह भीतर आ गया। वह समझ गया था आभास हो रहा था कि उसने उसकी पीठ सहलानी शुरू कर दी थी। उसे थोड़ा आराम मिला तो अनेश ने उसे एक नमक की कंकड़ी लाकर दी और उसे हल्के-हल्के चूसने को कहा। उसे धीरे-धीरे आराम मिलने लगा था। खांसी आ रही थी, मगर धीरे-धीरे, सांस भी कुछ काबू में आती जान पड़ी थी। वह अब सीधा लेट गया था और ऑंख खोलकर देखा अनेश ही था। उंकड़ू वाली स्थिति वह बड़ी मजबूरी में ही लेता था। उसे बड़ा अटपटा-सा लगता था। उसने उसके माथें पर हाथ रखकर देखा, शायद बुखार माप रहा हो। फिर उसने उसे मौन आश्वस्त किया। अनेश बाहर जाकर मेडिकल स्टोर से मेडीसिन लाकर जिद करके उसे खिलायी। फिर वह दो कप चाय बना लाया और उसे बैठा कर पिलाया और खुद भी पी. इस बीच दोनों में कोई भी बातचीत नहीं हुयी, सिर्फ़ एक-दूसरे को देखते रहे। सलिल की तबीयत सामान्य की तरफ अग्रसर हो चुकी थी और उसे आराम मिला तो सों गया और अनेश फिर दरवाजा भीड़ा कर बाहर अपने कमरंे पर।
उसे बड़ा ताज्जुब हुआ था, अनेश के उसके कमरे में आने का। वह पहली बार अपने आप उसके कमरे में आया था। अनेश काफी रिजर्व टाइप का लड़का था। वह अक्सर अपने कमरे में ही व्यस्त रहता था। वह या तो कोई मैगजीन पढ़ा करता या उपन्यास। कभी-कभी वह गाना भी सुना करता था। वह समय पर अपने बैंक चला जाता था। वह अभी कुछेक दिनों पहले ही बगल वाले कमरे में रहने आया था। अनेश का एकाकी व्यक्तित्व उसे आकर्षित करता था। उसे महसूस होता था कि इस अनजानी जगह पर साथ की ज़रूरत है। वह स्वयं इस कमरें में मकान मालिक के लड़के के साथ शेयर करके रहता था। ब्रजेश बाहर बरेली शहर में बी0ए0एम0एस0 की पढ़ाई कर रहा था, उसकी पढ़ाई का तीसरा साल था। भावी डाक्टर साहब महीने में 3-4 दिनों के लिए ही आते थें, जब किराया आदि लेना हो या खाली वक्त काटने के लिए. नीचे के सारे हिस्से में बड़े भाई रहते थे परिवार सहित। उन्होनंे आगे कमरे में सस्ते गल्ले की दुकान खोल रखी थी, जो कि राशन का कोटा आने पर ही महीने में 5-6 दिनांे के लिए खुलती थी। उस दिन काफी चहल-पहल और गहमा-गहमी रहती थी। ऊंपर का सारा पोर्शन किरायें पर उठा था जिसका किराया छोटा भाई ब्रजेश लेता था। ऊंपर के पिछले हिस्से में एक किरायेदार और रहते थे सपरिवार गर्ग साहब, जिनकी खटीमा में ही कहीं कपड़े की दुकान थी, वह बाहर कहीं मेरठ के रहने वाले थे। ऊंपर के पीछे वाले हिस्से में जाने का रास्ता नीचे से ही था। ऊंपर के आगे वाले हिस्से छोटा कमरा अनेश के पास और बड़ा कमरा सलिल के पास जिसे डा0 ब्रजेश शेयर करते थे। इन दोनों कमरों में आने का रास्ता अलग से भी था बाहर से डायरेक्ट।
सलिल यहॉं जल निगम में जूनियर इंजीनियर था करीब डेढ़-दो साल पहले आया था। सलिल को अकेलेपन से एलर्जी थी, अकेलापन उसे परेशान कर देता था इसलिए वह किसी न किसी के साथ शेयर करके ही रहता था। उसे अकेलापन यादों के उस जंगल में ले जाता जहॉं वह वर्तमान से विलुप्त हो जाता था और यादों की उबड़खाबड़ कटीलीं पंगडन्डियों पर चलता हुआ, वह लहुलुहान हो जाता था और यंत्रणा की पंराकाष्ठा पार करता हुआ वह अस्थमा जैसी बीमारी की गिरफ्त में आ जाता था, तभी वह वर्तमान में प्रवेश कर पाता था। यादें उसकी सांसों को अवरूद्ध कर देतीं थीं और बीमारी से आलिंगबद्ध हो जाता था। वह यादों से छुटकारा पाने हेतु किसी नशे का शिकार नहीं होता था परन्तु उससे निजात पाने हेतु वह कोशिश करता था कि जानपहचान वाले या दोस्तों की संगत में रहा जायें। अक्सर वह रात के दस-ग्यारह से पहले कमरें में नहीं लौटता था और कमरें पर कोई न कोई रूम पार्टनर अवश्य रखता था। जब उसने देखा डाक्टर साहब महीने में चार-पांच दिन ही रहते हैं तो उसने अपने आफिस के एक साथी दीपक को अपना रूम पार्टनर और बना लिया था। इस तरह वह बड़ा कमरा कभी-कभी हास्टल के कमरे का भी लुक दिया करता था जब तीनों एक साथ इकठ्ठे होते थे।
इसलिये उसे पड़ोसी कमरे वाला लड़का अनेश अजीब लगता था। उसे लगता था कि उसे साथ की ज़रूरत है। वह अक्सर उसे अपने साथ बातचीत में शामिल करने की कोशिश किया करता था और वह है, तो बाहर जाने पर उसे भी साथ ले जानें की भरसक कोशिश करता था।
वह महसूस कर रहा था कि अनेश भी उसकी पहचान की गिरफ्त में आ रहा था और वह भी उसका साथ, उसके बुलाने पर दे दिया करता था। मगर अनेश अपने आप कभी भी उसके कमरें में नहीं आता था या झांकता भी नहीं था। वह अपनी अकेली दुनियाँ में मस्त था या व्यस्त रहता था। वह छेड़ने पर कहता था कि अकेला तो वह है जो अकेलापन महसूस करें। किन्तु सलिल यह महसूसता था कि अनेश को सहारे की ज़रूरत है, एक साथ की ज़रूरत हैं। वह सोचता था कि अकेलापन एक त्रासदायक स्थिति है, जो अवसाद को जन्म देती है। अकेलापन आदमी जभी ओढ़ता है जब वह किसी भी रूप में मानसिक, शारीरिक या आर्थिक रूप में प्रताणित होता हुआ होता है। वह यह मानने को किसी भी तरह तैयार नहीं था कि अकेलापन किसी को अच्छा लग सकता है। अकेलापन बचाव की अवस्था है समाज यह व्यक्तियों को फेश ना कर पाने की मजबूरी या सामर्थ ना होना। किन्तु अनेश से बात करने पर उसे कभी नहीं लगा कि उसका अकेलापन बचाव का साधन है। वह अकेले में भी प्रसन्न रहता था और उसी में भी व्यस्त था। जबकि वह लाख कोशिशें कर ले, वह अकेलंेपन छायी घनीभूत उदासी और अजगर की तरह लपेटती आयी काली दुःख की परतें, से निजात नहीं पाता था और उसमें डूबता चला जाता था। सबके साथ भी और दोस्तों के बीच भी वह खुलकर खुश नहीं रह पाता था, फिर भी सबके बीच उसे उदासी दुःख निराशा, प्रतारणा का दौरा नहीं पड़ता था जोकि उसे बीमारी की तरफ ढकेल देता था, जिससे उबरने में ही हफ्तों लग जाते थें।
आज आफिस से आने में अनेश को देर हो गई तो देखा दरवाजे के हैंडल पर एक पर्ची लगी थी। निकालकर पढ़ा, लिखा था, 'रस्तोगी के होटल में मिलांे।' सलिल-तीन-चार शब्दों का वाक्य। उसे लगा सलिल को उसकी ज़रूरत है, बुलाया हैं। वह वैसे ही लौट पड़ा रस्तोगी के होटल के लिए. जाकर पता चला कि वह उसकी अकेलेपन की बोरियत दूर करने को बुलाया है। एक-दो दोस्त और बैठे थे, फाहिम और राजेन्दर। दोनों हमउम्र लोकल के लड़के थें। सलिल ने एक पूरी थाली मिठाई की मंगवा रखी थी और चारों लोग हंस-हंस कर उसका भक्षण करने में जुट गये थे और बेफजूल की बातों का भी दौर जारी था। अक्सर सलिल पहले से पहले आडर देता था और भुगतान भी वही सबसे पहले कर देता था। इस कारण भी वह सबके बीच लोकप्रिय व्यक्ति था और उसकी मित्र मंडली भी बढ़ती जा रही थी। परन्तु अनेश को ऐसा लगता था कि वह जानबूझ कर सामाजिक बनने की कोशिश में हैं, व्यस्त होनंे, दिखनें का असफल प्रयास जो उसके स्वयं को खाए जा रहा था। उसके दोस्तों में या परिचितों में सभी नौकरी वाले या प्रतिष्ठित परिवारों के हमव्यस्क ही थंे।
सलिल अपने आफिस करीब नौ बजे के आसपास जाता था, उसके बैंक जाने से पहले। आफिस से निर्माणाधीन साइट पर निकल जाता था या साइट नहीं गया तो दो-एक घन्टे में वापस कमरे आ जाता था। कभी-कभी साइट पर जाने के लिए सुबह आठ बजे से पहले भी निकल जाता था और फिर देर से कमरंे आता था। जब साइट पर नहीं जाना होता तो वह आफिस से जल्दी वापस, तब वह समय पास करने की तलाश में लग जाता था। उसके ठेकेदार भी उसकी दरियादिली का भरपूर फायदा उठाते थे और उसी से भी उधार मांग लेते थे। वह ठेकदारों का भी लोकप्रिय था, क्योंकि वह उसने कुछ लेता नहीं था।
वह अनेश का ध्यान रखता था कि वह खाली होने पर अकेलापन भोगने न पायें और उसने उसे अपना स्थाई साथी बना लिया था। पता नहीं क्यों उसे लगता था कि अनेश उसके स्तर का लड़का है जिस पर विश्वास किया जा सकता है और जिसे अंतरंग बनाया जा सकता हैं। अनेश को भी उसका, साथ अच्छा लगने लगा था। अनेश को साथ रहते हुये ये आभास हो चला था कि सलिल हिन्दी साहित्य का अच्छा जानकार है और उसकी रूचि आधुनिक हिन्दी कविता में ज़्यादा थी। कुअंर बेचैन और दुष्यंत कुमार उसके प्रिय कवि थे। वह कालेज मैंगजीन के अलावा अन्यों में भी कुछ लिखा था। उसे कई तीक्ष्ण कविताऐं कंठस्थ थी, जिन्हें वह अनेश से चर्चा के दौरान सुनाता रहता था या उससे बहस-मुहावसों के दरम्यान। वह अनेश को समझ गया था उसकी अभिरूचि जान गया था। उसने उसके कमरे में आधुनिक कथाकारों के कई कहानी संग्रह एवं उपन्यास देखे थे और उन्हें अनेश को अक्सर पढ़ते देखता रहता था। उसे साहित्यक अभिरूचि के व्यक्ति पसन्द आते थे, क्योंकि उसे लगता था कि ये लोग संवेदनशील संयत एवं ईमानदार होते हैं। परन्तु रवैया उसके प्रति दोस्ताना कम अग्रज जैसा ज़्यादा लगता था। वह चाहता था कि अनेश उसके साथ ज़्यादा से ज़्यादा वक्त गुजारे। उसे अपना एकाकीपन दूर करने के लिए अनेश ही सबसे उपर्युक्त नजर आता था और उसकी अनुपस्थिति में अनेश की किताबें, जब उसका खालीपन बॉंटने के लिए कोई ना मिले।
वे छै थे। सलिल, अनेश, दीपक, ब्रजेश और तहसील का क्लर्क सुरेश और लैण्ड डिवलपमेंट बैंक का क्लर्क मोहन। वे सभी किच्छा गये थे, सिनेमा देखने। आज रविवार था और सभी की मुलाकात कलुआं के होटल में खाने के दरिम्यान हो गई थी। खटीमा से किच्छा दो घंटे का रास्ता था और 3 से छै पिक्चर देखकर लौटते समय यह प्लान बन गया कि आज किच्छा के ही किसी होटल में खाना खा लिया जाय कुछ चेंज किया जाए. चेन्ज के नाम पर दीपक और ब्रजेश ने प्रस्ताव किया कुछ लगा ली जाए तो खानंे में और भी आनन्द आयेगा। सलिल ने जमकर विरोध किया, अनेश चुप रहा। बाकी सभी राजी थे। अनेश को पहले ऐसा किसी प्रकार का अनुभव नहीं था, इसलिए वह उत्सुक था स्वाद लेने के लिए, सलिल इन चीजों से हारा हुआ था, अन्य सभी कभी-कभार लेने वाले थें। सुरेश और मोहन सिगरेट के कई पैकेट ले आये थंे। खाने में मीट का भी आर्डर दिया गया था। सलिल ने अनेश को भी मना किया, परन्तु वह नहीं माना। उसे सलिल के बड़े भाई वाले रूप को पराजित करना था। वह अपने को उससे अलग सिद्ध करने में लग गया था।
सलिल अकेला पड़ गया था। वह सलाद खाता हुआ, अनेश को गहरी भूरी ऑखों से अविश्वसनीय ढंग से देख रहा था। शायद उसे कुछ टूटता-सा लग रहा था। वह चुप लगा गया था। तभी ब्रजेश ने फिकरा कसा, "सौ-सौ चूहें खाकर बिल्ली हज को चली" और ठहांकें गुंज उठे थे। अनेश भी मुस्कराया और सलिल की तरफ निहारा था। वह बितुष्णा से भर उठा था सभी के प्रति। सलिल के चेहरे पर गहरी पीड़ा उभरी थी, परन्तु प्रत्युत्तर में कुछ नहीं बोला। वह गहरे मौन के आगोश में था। बाकी सभी मग्न थे। अनेश गलत-सही की दुविधा से ग्रस्त था। सिगरेट पीनें में अनेश बुरी तरह खॉंसने लगा था, ऑंखों में पानी भर आया था। सलिल ने कमेंट किया 'मना किया था।' मगर अनेश कट्योक्ति पर ध्यान नहीं दिया और नये शौक में दीक्षित होनें की कोशिश में फिर संलग्न हो गया। वह तनाव में था, परन्तु मौन था। नाखुशी उसके चेहरे पर बदस्तूर जारी थी। खानें का सम्पूर्ण भुगतान अनेश ने किया यह बात भी सलिल को नागवार गुजरी थी।
उसकी नाखुशी जारी थी, कई दिनों से उसने अनेश से बात नहीं की थी और अनेश की कोशिशों को भी वह असफल करता रहा था। परन्तु उसने उसका साथ नहीं छोड़ा था। अनेश को आश्चर्य यह होता था कि अन्यों से तो वह सामान्य ढंग से बात कर रहा था कि जैसे उस दिन कुछ हुआ ही नहीं था, परन्तु उससे क्यों नहीं? क्या सबसे ज़्यादा वह दोषी है। उसने महसूस किया कि सलिल का चेहरा तनाव रहित था और उसकी उपेक्षा भी नहीं कर रहा था, उसे साथ भी रख रहा था, परन्तु उससे बातचीत करना बन्द कर रखा था। उनके बीच बातचीत का माध्यम दीपक या ब्रजेश थे या फिर कागज की पूर्जी. यह माहौल अनेश को अच्छा नहीं लग रहा था, वह भी अकड़ गया था कि अब वह पहल नहीं करेंगा।
अनेश और सलिल कब फिर वापस बोलने लगे पता ही नहीं चला। आपस के मौन टूटने की प्रक्रिया ने काफी वक्त ले लिया था, शायद आठ-दस दिन। अनेश के अपने कोई मित्र नहीं थे, सलिल के सारे जानपहचान के मित्र उसके थंे, किन्तु वह उनसे सलिल के साथ ही मिलता था। कभी अकेले में नहीं मिलता था, अगर कहीं मिल भी गयें तो हाय-हलो से ज़्यादा नहीं। दीपक, चूंकि सलिल का रूम मेट था, हाँ उससे ज़रूर सामान्य बातचीत हो जाती थी। दीपक ने ज़रूर उन दोनों के सम्बन्ध पुनःस्थापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाही थी। अनेश के अपने बैंक आफिस में कोई हमउम्र नहीं था।
अब वह अनेश को साथ ले जाता था तो ज्यादातर वह किसी और को साथ नहीं रखता था। रास्ते में अन्य मित्र मिल गया भी तो सीमित बातचीत और दोनों फिर आगे बढ़ जाते थे। ऐसा नहीं था कि उसने औरों का साथ छोड़ दिया हो, परन्तु वह अनेश की अनुपस्थित में ही उनका साथ लेता था। वह दोनों अक्सर रेलवे स्टेशन जाते थे टहलने, यहॉं पर एक दो ही यात्री गाड़ी गुजरती थी। परन्तु वहॉं उसे चहल-पहल मिल जाती थी। एक जगह और थी जहॉं पर दोनों एकान्त में जाया करते थे, पीलीभीत रोड पर एक नया मंदिर। वहॉं दोनों उसके चबूतरें पर बैठा करतें थे और सार्थक बातचीत बिना किसी अवरोध के. दोनों को यह जगह काफी पसन्द थी वहॉं पसरी शान्ति के कारण। अनेश तो भगवान को प्रणाम् करके माथा नवाता भी था परन्तु वह यह भी नहीं करता था। अनेश को लगता था क्या वह भगवान से भी नाराज है? परन्तु उसने कभी ऐसा प्रगट नहीं किया था। अनेश अब उससे काफी खुल गया था और कई प्रकार की बातें कर लेता था। उसमें उसके प्रति किसी प्रकार की हिचक खतम हो गयी थीं।
फरवरी का गुलाबी मौसम था, शाम थी और धूप अभी थोड़ी-थोड़ी बची थी। ताबेंई धूप मंदिर और उसके परिसर में फैली थी। वे दोनों उन्मुक्त बैठे थे। उन दोनों के बीच इस समय वार्तालाप् स्थिगित था। बेवजह वह दोनों बात करने के कायल नहीं थे।
मंदिर के पट अभी अब खुल गये थें। एक आध लोगों का आना जाना प्रारम्भ हो चुका था। तभी दो चार लड़कियाँ आती दिखाई पड़ी। नहीं तीन लड़कियाँ और एक स्त्री थी शायद। उनमें एक लड़की दूर से आकर्षक लग रही थी। आकर्षण देहदृष्टि वाली लड़की। वे सब पास आती जा रही थी। अनेश को वह लड़की अपनी पढ़ी प्रेमकथाओं की नायिका जैसी प्रतीत हो रही थी। वे सब पास होते गुजर गयीं थी मंदिर के मुख्य द्वार की तरफ। नायिका ने कुछ इशारा किया सलिल को शायद। अनेश को समझ में नहीं आया। परन्तु सलिल समझ गया और वह उठ गया, वह भी उठा। सलिल वापस घर चलने को और अनेश मंदिर के अन्दर जाने हेतु। परन्तु उसने अनेश पर विराम लगाया।
'चलो, चलते है, भीड़ बढ़ रही हैं, अब कमरे चलते है।' सलिल जल्दी-जल्दी बोला, वह हड़बड़ी में था।
'किन्तु उस लड़की ने तुम्हें रूकने को कहा है।'
'नहीं, रूकनां है। अभी आकर चाटनें लगेगी। बड़ी चाटू है।'
'आखिर! वह है कौन? कवियों की नायिका जैसी और तुम उसकी उपेक्षा कर रहे हो।'
'अरे! वह प्रशान्त चौधरी की बहन है। आसिमा समझे, निकल लो।' और सलिल लम्बे-लम्बे डग भरता काफी आगे बढ़ गया था। अनेश छूट गया था। वह कुछ विस्मित भी था। अनेश को उसका साथ देना पड़ा, अनचहे। अनेश का मन उधर ही लगा था। उसे बड़ी कोेफ्त हो रही थी। क्यों वह तब से यहीं पर था। वह अपनी खुशी और नाखुशी में फर्क नहीं कर पा रहा था। परन्तु यह तय था सलिल उससे बचना चाह रहा था, वह काफी दूर निकल गया था। उसे उसको कवर करने में काफी दिक्कत हुई थी।
रास्ते में उसने बताया। ' प्रशान्त चौधरी यहीं के एक व्यवसायी का पुत्र है। जान पहचान हो गई थी। उसके घर आना जाना भी हो गया था कभी कभार और आसिमा उससे चिपकने लगी थी। उसे मुझसे प्यार हो गया है ऐसा वह दावा करती है, जबकि वह उससे कभी अकेले नहीं मिला है। उसे समझ में नहीं आता है कि उसको कैसे मना करूॅ।
'वह नायिका जिससे प्यार करेगी वह कितना शौभाग्यशाली होगा। उसका जीवन कितना खुुशगवार होगा। यार! अगर तुम्हें उससे प्यार नहीं करना है, तो मेरा ही प्यार करवा दे।'
प्यार क्या ट्रांस्फर हो सकता है? दोस्त! तू भी चाटू बनता जा रहा है।
'क्यों, तुम से मैं कम हॅूं जो तुमसे प्यार कर सकती है वह मुझसे क्यों नहीं।' मुझे तो वह बहुत पसन्द है मेरी ही जानपहचान करवा दें। '
'प्यारे! लड़कियाँ, किसको पसंद करेगीं, कोई कह नहीं सकता। उनकी पसंद का दायरा लड़कों से अलग होता है। किसी को पसंद करने का उनका क्राइटेरिया क्या है, कोई नहीं जान सकता। वह व्यक्ति विशेष को ही पसंद करती है और उनकी राय समय के साथ बदल भी जाती है।' और वह गहरी उदासी में डूब जाता है।
उनके कमरे आ गये थे। दोंनों अपने-अपने कमरों में चले गये थे। सलिल उदास था और अनेश नाखुश। सलिल की उदासी का सबब था। वह बड़ी मुश्किल से इस दरियाँ में डूब कर बचा था। उसे इस दरिया में तैरना नहीं आता था। वह तो डंूबकर मर ही गया था, किसी अनचाहें, अनजाने थपेड़ों के सहारे बचकर वह किनारे लगा था। डूंब गये व्यक्ति को बचाकर लायें व्यक्ति की जो हालत होती, वही हालत उसकी थी। दिल-जिगर और फेफड़ों में, जो पानी भरा था वह निकल नहीं पाया था ना वह निकालने में समर्थ था, ना ही और कोई. ...
...उसके जेहन में सहसा वे आकृतियाँ इस तरह उसके सामने स्पष्ट हांे उठी थीं जैसे अवचेतन की गइराइयों में डूबा हुआ विचार एकाएक चेतना के शिखर पर मूर्तरूप हो उठा हो। ... मंदिर वाली सड़क से गुजरते हुए पेड़ों की लम्बी कतारों के सायें तले गुजरते हुये ... उससे आखिरी मुलाकात्। एक ऐसी मुलाकात जो अपनी गम्भीरता में खामोश थी, मगर उसकी खामोशी एक ऐसे तूफान की तरह थी जो-जो हवा न मिलने के कारण अपने अन्दर ही घुमड़कर रह गया था। नहीं तो वह इतना असमर्थ नहीं था कि उसके गले से एक शब्द भी न निकल पाता...अनिता कह रही थी 'अब क्या करने आये हो, बहुत देर हो गयी... तुम्हारी तो शख्सियत ही बदल गयी मैं जिस व्यक्ति से प्यार करती थी, वह तो तुम रहे नहीं। मुझे तुम्हारा वह कवि रूप ही पसंद था। सबसे अलग। अकेले।' उसकी आंखों में नमी थी और अविश्वसनीय मासूमियत। 'मैं कवि सलिल को प्यार करती थी, इन्जीनियर सलिल को नहीं। वह आवाक! अपलक उसे निहारता रह गया था...दोनों खामोश थे, बहुत-सी बातें थीं जो वे कह नहीं पा रहे थे। ...कुछ क्षणों बाद अनिता ने ऑखें चुराते हुए उसे देखा और अफसोस करते हुये उठ गई थी। ...' मैं यह नहीं चाहती थी कि मेरे खातिर तुम ज़िन्दगी का फलसफा ही बदल लो...तुम्हारी शख्सियत ही बदल गयी हैं ...उसने शख्सियत पर काफी जोर दिया था...यह कहकर वह चली गई थी। वह दुःख पछतावंे और निराशा से जुझता रह गया था, अकेला। ...
एक बेगानापन उस पर हावी हो रहा था, इस जगह से। वह यादों के जंगल में भटक रहा था-वे दोनों उन्ही जानी पहचानी राहों पर पहाड़ों की पगडंडियों पर चलते हुए... कहीं वियाबान पहाड़ों के किसी चबूतरे पर कोहरे के बादल चलते हुए, देवदार के वृक्षों पर लिखी हुयी उसकी अनिश्चित भाग्य लिपि ... राह पर चलती हुयी पीले पत्तों की कुचलने की आवाजें ...वही आवाजें आज फिर उसे रौंद रही थी। सलिल के स्नायुुओं में एक तनाव व्याप्त हो रहा था... उसके अरमानों अकांक्षाओं को रौंदने का रूदन जारी था। अनिता उसके लिये कवियों की कल्पना से ज़्यादा खूबसूरत थी...वह ऐसा कैसे कर सकती थी...वह किसी का कैसे दिल दुखा सकती थी...उसने ना केवल उसका दिल दुखाया बल्कि उसका तिरस्कार भी किया। ...अनिता के लिए वह बदनाम हुआ, उसका नाम शोहदों में गिना गया था...उसकी हर कविता की प्रेरणा ...उसकी हर बात की प्रसंशक उसके साथ विचरना... उसका ख्याल...एक अलौकिक दुनियाँ में ले जाता था।
...उसके भाई और-और उसके दोस्तों से पिटता हुआ...अनिता के लिए गली, राहों, पगडंडियों, पहाड़ों पर भटकता हुआ...उसके देखने को तरसता हुआ। सिगरेट, शराब को अपना हमसफर बनाता हुआ... उससे मिलने की नाकामयाब कोशिशें करता हुआ वह। ... घर बाहर बेइज्जत होता हुआ। ... अनिता के साथ उन्माद के क्षणों को भोगता हुआ। ...दोनों की प्रतिज्ञायें ...वह प्रतिज्ञायें जो मूक-बधिर थी...अनिता की शैतानियाँ और उन शैतानियों से उपजी प्यार की गहराइयाँ... उसकी खामोशी से आश्वस्त होता वह। उसका अकेला मन, अकेलापन छोड़कर अनिता की परिचित गंध, परिचित सांसों और पहचाने स्पर्शो में भटकने लगा था और फिर वह घटना ...जब उसने अनिता के लिये उसके पिता से मिला...एक खतरनाक निर्णय, जिसने उसकी आत्मा को मार दिया था अपने प्यार को पाने की एक असफल कोशिश...तब नहीं पता था...फिर अहसास हुआ...उसके पिता का चैलेंज ' कविता से पेट नहीं भरता, ज़रूरतें पूरी नहीं होती...पहले अनिता के काबिल बन कर दिखाओ...तो बात करना और वह काबिल बनने के लिये साहित्य की पढ़ाई छोड़कर पालिटेक्निक में कैद हो गया। जब निगम से जुनीयर इंजीनियर बनकर खटीमा में पोस्ंिटग मिली, तब वह अनिता से मिला था। जब अनिता के पिता के अनुसार काबिल बना तो अनीता के लिए नाकाबिल हो चुका था। ...
...उसे यह समझ नहीं आया था कि व्यक्ति विशेष से प्यार करने वाले, उससे विमुख क्यों हो गये...वह तो वहीं था...फिर क्या बदला...सोच बदल गयी...या प्यार बदल गया...सब कुछ मिट गया था...वह हार गया था।
सलिल खामोश हो गया था, एक गहरी उदासी में डूब गया था। उसकी खामोशी अस्वाभाविक हो गयी थी। वह लम्बी-लम्बी सांसें लेने लगा था। एक गहरी आंतरिक यंत्रणा से गुजरने लगा था और अस्थमा का अटैक उस पर तारी हो रहा था। अनेश कब उसके कमरे में आ गया था उसे पता नहीं चला था और अनेश को उसकी स्थिति उसके दिल में चुभ गयी थी, वह विस्फरित और अस्पष्ट था। उसे लगा उसने उसके दुःख को उभारा है। वह उसके उपचार में व्यस्त हो गया था।