शगुन / पद्मजा शर्मा
हम गाँव में रहते थे। पिताजी दिसावरी करते थे। वहाँ से साल में एक बार आया करते थे। वे दादी का बहुत ख्याल रखते थे। उनके लिए अलग से मनी ऑर्डर भेजते थे। चि_ी भी लिखते-
'माँ सर्दियाँ आ रही हैं। अपनी गाय टल गई तो कोई बात नहीं। दूध की बंधी बांध लेना। भूरिए खाती के यहाँ से गाय का घी मँगवा लेना। लड्डू बनवा लेना। सर्दियों में अपना ध्यान रखना।'
दादी उस चिठ्ठी को लिए गाँव के घर-घर में फिरती थी और सब औरतों से कहती-
'है किसी का ऐसा बेटा।'
सबको चिठ्ठी पढ़वाकर गुमान से भरी रहती थी।
याद आता है पिताजी दिसावर जाते समय दादी का आशीर्वाद लेना कभी नहीं भूलते थे। उनके पाँव छूते थे। दिसावर से आते तब भी दादी के कमरे में पहले जाते थे।
एक बार जब पिताजी दिसावर जाने वाले थे तब दादी ने माँ से कहा-
'अबके जाते हुए बेटे को मैं ना मिलूंगी, मैं ठहरी विधवा। मैंने गाँव की सात सुहागिनों से कह दिया है कि वे उसे सूँण-शगुन देने रास्ते में मिल जाएं। सबके सिर पर पानी से भरे हुए घड़े होंगे। वह उनमें एक-एक सिक्का डालता जाएगा।'
पिताजी के दिसावर जाने का समय आ गया। दादी दूसरे कमरे में चली गई कि मुझे अपने कमरे में न पाकर बेटा निकल जाएगा।
पिताजी ने दादी को अपने कमरे में न पाकर माँ से पूछा-'कहाँ है माँ?'
माँ ने सकुचाते हुए कहा-'बाहर गई हैं।'
'बाहर कैसे जा सकती है? वह यहीं है।' कहकर पिताजी ने इधर-उधर नजर दौड़ाई और वे उस कमरे में दाखिल हो गए जहाँ दादी खुद को छिपाए बैठी थी। पिताजी ने उनके पाँव छुए. दादी ने उन्हें छाती से चेप लिया।
दादी के आँसू पोंछते हुए पिताजी ने रोते हुए कहा-
'माँ विधवा या सधवा नहीं होती, माँ-माँ होती है। उसका होना ही शगुन होता है।'
यह सुनकर सबकी आँखों के घड़े पानी से भर गए.