शतरंजी चाल / सुधा भार्गव
शयनागार में मुझ जैसे थके-मांदे को निंद्रा देवी ने अपने सुखद आँचल में शीघ्र ही छिपा लिया था, परंतु दरवाजे की घंटी बजते ही हड़बड़ाकर कर उठ बैठा। द्वार खोलते ही अपने साले को खड़ा देख मुंह से निकाल पड़ा–
- कबीर तुम! किस तूफान से टकराकर आ रहे हो ?
- जीजा जी, आपको अभी मेरे साथ रांची चलना पड़ेगा। बस कारण न पूछिएगा। मैं बी फार्म के अंतिम वर्ष की परीक्षा देकर आया हूँ। एक विषय में गत तीन वर्षों से फेल हो रहा हूँ। यदि इस साल भी ऐसा हुआ तो मुझे आई फार्म में दाखिला लेना पड़ेगा। मैं तो बर्बाद हो जाऊंगा। मुझे बचा लीजिये।
- -अरे भाई, मैं इसमें क्या कर सकता हूँॽ
- जिस परीक्षक के पास मेरी उत्तर पुस्तिकाएँ गई हैं, वे आपके सहपाठी रह चुके हैं। यदि आप मेरी सिफारिश कर दें तो मैं जरूर उत्तीर्ण हो जाऊंगा।
- -तुम्हारी तिकड़मबाजी से मेरा माथा भन्ना रहा है। मैं खुद एक शिक्षक हूँ और यह जघन्य अपराध मुझे कुचल कर रख देगा। समय रहते तुम क्यों नहीं चेते।
- -मुझे आज तक कोई नहीं समझ पाया। मैं जीवविज्ञान में सबसे अधिक अंक पाने वाला छात्र डॉक्टर बनना चाहता था, पर मेरे माँ–बाप ने अपनी इच्छाओं की वेदी पर मेरी बलि दे दी। चाचा जी को देखकर पापा भी करोड़पति बनने के स्वप्न देखने लगे और जुट गए मुझे नोट छापने की मशीन बनाने में। न जाने मुझ जैसे कितने नवयुवकों को अव्यवहारिक आकांक्षाओं के आगे घुटने टेकने पड़ते हैं।
- मेरे कानों मेँ सहपाठी के शब्द गूंजने लगे–बड़े आत्मा के पुजारी बनते हो। घर से निकलते समय हम इसे निकाल कर ताक पर रख देते हैं। क्योंकि उसका कोई ग्राहक नहीं मिलता। तुम भी एक दिन इससे बच नहीं पाओगे। दूसरे ही क्षण मैं कबीर के साथ लड़खड़ाते कदमों से स्टेशन की ओर बढ़ गया।
- समझ नहीं पा रहा था–एक ज़िंदगी को बचाने के प्रयास मेँ मैं खुद ही बहक गया हूँ या साले साहब मेरी भावनाओं से खिलवाड़ कर रहे हैं। कुछ भी हो, मैं कबीर की शतरंजी चाल का मोहरा तो बन ही गया था।