शतरंज की बिसात पर बिछाया जीवन : अमितेश्वर / अशोक अग्रवाल
वर्ष 1974। संभावना के दफ्तर में एक युवक ने प्रवेश किया। खादी के कुर्ता-पजामा पहने, पैरों में चप्पल जिसका अंगूठा उखड़ा हुआ था। हाथ में एक रजिस्टर थामे। स्थानीय ‘हिन्दी साहित्य परिषद’ की गोष्ठी के लिए वह आमन्त्रित लेखकों, कवियों को सूचित करने का कार्य कर रहा था।
मेरे हस्ताक्षर लेने के बाद वह कुछ क्षण खड़ा रहा तो मैंने उससे चाय के लिए पूछा। वह संकोच से बोला, ‘‘मैं नगरपालिका लाइब्रेरी में चपरासी हूँ। वहाँ जो पत्रिकाएँ आती हैं उन्हें पलट लेता हूँ। आपकी कुछ कहानियाँ मैंने ‘धर्मयुग’, ‘सारिका’ में पढ़ी है। बहुत दिनों से आपसे मिलने की इच्छा मन में थी।’’ मुझे खुशी हुई कि गुड़ की मंडी से ख्यात इस कस्बे में तुकबंदी-गिरोह वाले कवियों से भिन्न कुछ पढ़ने वाले व्यक्ति भी हैं।
इसके बाद उसका प्रायः दुपहर के समय जब पुस्तकालय बंद हो जाता आना प्रारंभ हो गया और फिर धीरे-धीरे वह रात्रि तक वहीं ‘संभावना’ के छोटे से कमरे में बैठ उन सारी साहित्यिक पत्रिकाओं को पढ़ता रहता जो मेरे पास आया करती थीं। निर्मल वर्मा, अमरकांत आदि के कहानी-संग्रह भी मैं उसे घर पर पढ़ने के लिए पकड़ा देता।
कुछ दिनों बाद मैंने पाया कि वह उन किताबों को भी यहीं बैठकर पढ़ा करता था, क्योंकि उसके घर अभी तक बिजली के बल्ब की उपलब्धता नहीं थी और एक कमरे में सिर्फ लालटेन की फीकी रोशनी रहती थी।
नगर पालिका लाइब्रेरी मात्रा रोमाँटिक और जासूसी उपन्यासों से भरी थी। दो-चार दैनिक समाचार-पत्रों के अतिरिक्त कुछ लोकप्रिय पत्रिकाएं, साहित्य की अच्छी किताबों की कोई उपलब्धता न थी। उसकी मानसिक खुराक मेरे यहाँ उपलब्ध पुस्तकों से पूरी होती। प्रायः दुपहर का भोजन भी अब घर पर ही करने लगा। परिवार का सदस्य बनने में उसे देर न लगी। माँ, पिता और दोनों छोटे बच्चों से वह इस कदर हिल-मिल गया कि उसकी अनुपस्थिति अखरने लगती। लाइब्रेरी के अवकाश का समय अब वह ‘संभावना’ के कामों — प्रूफ रीडिंग, पत्रा व्यवहार, पैकिंग आदि कार्यों में देने लगा। उसकी अतिरिक्त आय का भी यह स्रोत बन गया।
धीरे-धीरे उसके जीवन के अज्ञात पन्ने खुलने लगे। चार साल की उम्र में उसके माता-पिता का आकस्मिक निधन हो गया और विधवा बुआ, जो नगरपालिका द्वारा संचालित एक प्याऊ पर पानी पिलाने का काम करती थी, ने उसे और दो वर्ष छोटी उसकी बहन का लालन-पालन किया था। छुटपन से छोटी-छोटी नौकरियाँ करने जो प्रायः छूटती रहती, फेरी लगाकर चना, मूँगफली बेचने, बस में छोटे-छोटे खिलौनों की बोली लगाने, रामलीला के दिनों में ‘रामचंद्रजी की बारात’ में मोहल्लों के निकलने वाले अखाड़ों में मुखौटा धारण करने या किसी पात्रा का अभिनय करने के विविध क्रियाकलापों के बीच उसके जीवन का निर्माण हुआ था। नौटंकी, स्वाँग, रासलीला के साथ आल्हा, सवैया और लोकगीतों में उसकी मात्रा दिलचस्पी ही नहीं बल्कि सक्रिय हिस्सेदारी भी थी। ‘माँ भगवती जागरण’ मंडली का वह अनिवार्य सदस्य था। उसका गला सुरीला और आरोह-अवरोह की बारीकियों से परिचित था। अनेक लोकगीत और विभिन्न अवसरों पर गाए जाने वाले गीतों का उसके पास अक्षय भंडार था। कौरवी, ब्रज और अवधी बोलियों को समझने की महारत हासिल थी उसे।
इन्हीं सबके बीच उसने हाईस्कूल की परीक्षा (प्राइवेट) पास की और बुआ के प्रयासों और मोहल्ले के सभासद की कृपा से नगरपालिका की चुंगी पर चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी के रूप में नियुक्ति हो गई और एकाध साल बाद लिखने-पढ़ने में उसकी दिलचस्पी देख किसी अन्य सभासद की सदाशयता से पुस्तकालय में स्थानांतरित कर दिया गया।
नगरपालिका के बाहर चौराहे पर चौबेजी मूंग की दाल की स्वादिष्ट पकौड़ियों का ठेला लगाते थे। उन पकौड़ियों को खाने के लिए मैं यदा-कदा उसके साथ पहुँच जाया करता। पैसे लेते वक्त चौबेजी हमेशा इंकार में सिर हिलाते, फिर उसका इशारा करने पर संकोच से स्वीकार कर लेते। पहले मैंने अनुमान लगाया था कि वह उसके परिचित है इसी कारण औपचारिकतावश मना करते हैं, बाद में पता चला कि वह उसके बहनोई लगते हैं — उसकी छोटी बहन का विवाह उनसे हुआ है और उसी गली में रहते हैं जहाँ उसका घर है।
लाइब्रेरी की नौकरी से उसका मन उखड़ चला था। बड़ी वजह लाइब्रेरियन का उसके प्रति व्यवहार था जो उसे गाहे-बगाहे अपमानित और लांछित करता रहता था। लाख समझाने पर भी कि वह उसकी स्थाई और निश्चित आय वाली नौकरी है उसने अपना त्यागपत्रा नगरपालिका को सौंपा और पूरी तरह ‘संभावना’ से जुड़ गया जबकि ‘संभावना’ में उसका भविष्य असुरक्षित और जोखिम भरा था। वह बिना किसी दुविधा के साहित्य की दुनिया से जुड़ा रहना चाहता था। एक दिन उसने मेरे हाथ में दस-बारह लिखे कागज थमाए और संकोच से कहा, ‘‘मैंने एक कहानी लिखी है।’’ कहानी खासी अधकचरी और बिखराव लिए थी, साथ ही अधिकांश छप रही कहानियों की छायाकृति भी।
‘‘तुम्हें बाहर से किसी विषय को उठाने की क्या जरूरत? तुम्हारा अपना जीवन इतने विविध और वैषम्य अनुभवों से भरा है उन्हीं को केंद्र बनाकर क्यों नहीं लिखते? किताबी भाषा में नहीं, उस भाषा में जो सहज भाव से तुम और तुम्हारे जिये चरित्रा बोलते, जीते हैं,’’ मैंने उससे कहा।
मेरी किसी सलाह और आलोचना का उसने अन्यथा नहीं लिया। एक, दो नहीं कहानी को उसने बार-बार लिखा। लिखे को बिना किसी लगाव के फाड़ता, नष्ट करता रहा। आखिरकार उसकी एक कहानी ‘हुक्का-पानी’ ने अपना आकार ग्रहण किया। यह ‘पश्यन्ती’ में प्रकाशित हो व्यापक प्रशंसा और चर्चा का केंद्र बनी। छपास को लेकर उसके भीतर न कोई उतावलापन था और न ही महत्वाकांक्षा। एक कहानी के अनेक ड्राफ्ट लिखता। अधिकांश अधूरी रह जाती या फाड़ दी जाती। अपने पूरे रचना-जीवन में मुश्किल से दस बारह कहानियाँ। कथ्य, भाषा और शिल्प में प्रायः हर कहानी एक-दूसरे से भिन्न। ‘मुफीद घोड़े’, ‘पैदल को बचा’ जैसी कहानियाँ उसके अतीत के दारुण और कटु क्षणों की पुनर्रचना थी। इन कहानियों का संग्रह ‘हुक्का-पानी’ शीर्षक से 1980 में संभावना से प्रकाशित हुआ। संभवतः उसकी आखिरी कहानी थी ‘गणेश गाथा’ जो संडे मेल में प्रकाशित हुई। यह उसकी अविस्मरणीय कहानी है उन दिनों की स्मृति जब वह रामलीला के अखाड़े में ‘स्वरूप’ धारण किया करता था। जिस बच्चे ने गणेशजी का ‘स्वरूप’ धारण किया है वह सुबह से भूखा प्यासा है और उसकी आँतें भूख से कुलबुला रही है और दर्शक उसकी सूंड से लड्डुओं के डिब्बों का स्पर्श करा प्रसाद रूप में ग्रहण कर रहे हैं। गर्मी से उसके मुँह पर लथेड़ा गया रोगन पिघलते हुए आँखों में चुभन उत्पन्न कर रहा है और उसके इर्द-गिर्द भीड़ भाव-विह्वल हो हर्ष ध्वनि कर रही है — ‘‘देखो... देखो गणेशजी रो रहे हैं...’’
वर्ष 1976-1984 के दरमियान वह ‘संभावना’ से जुड़ा। वह कर्मचारी के बजाय परिवार का सदस्य अधिक था। माँ पिता की सारी जरूरतों को बिना संकोच पूरा करता आज्ञाकारी बेटा, दोनों छोटे बच्चों का पंडित चाचा और ‘संभावना’ के लिए अपरिहार्य होता ऐसा आधार-स्तंभ जो संपूर्ण उत्तरदायित्वों का वहन करता। भोपाल में राजेश जोशी और पटना में कर्मेंदु शिशिर... ‘संभावना’ के सभी लेखक उसके आत्मीय जन हो गए थे, जिनके घर वह निःसंकोच ठहरता। बाबा नागार्जुन हो या त्रिलोचन सभी के आतिथ्य का दायित्व वही वहन करता। परिचय में आने वाली सभी लेखकों का वह बहुत जल्दी प्रिय पात्रा बन गया।
सर्दियों की एक सुबह वह निर्मल वर्मा के घर दिल्ली गया — ‘संभावना’ के ही किसी काम से। वापिस लौटा तो उसने भूरे रंग की खूबसूरत जैकेट पहनी हुई थी। उसके शरीर के अनुरूप तो नहीं, फिर भी खूब गरम और शानदार। प्रफुल्लित स्वर में उसने कहा, ‘‘बड़े भाई, यह जैकेट निर्मलजी ने गिफ्ट की है।’’ वह जैकेट उसके साथ बरसों तक बनी रही।
प्रत्येक वर्ष कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर गंगा स्नान के लिए गढ़मुक्तेश्वर में लगने वाला ‘गंगा-मेला’, जिसे ‘लघु कुंभ महोत्सव’ भी कहा जाता, पश्चिमी उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा, महापर्व के रूप में मनाया जाता है। दूर-दराज के देहातों और कस्बों से बैल गाड़ियों, ट्रैक्टरों और सवारियों से भरे मिनी ट्रकों का अनवरत काफिला दो हफ्ते पहले ही शुरू हो जाता। आने वालों की संख्या तीस-चालीस लाख के आंकड़े को भी पार कर जाती। मथुरा, आगरा और कानपुर से आने वाली नौटंकियाँ और झूले प्रमुख आकर्षण होता। गंगा के किनारे विशेषकर बृजघाट के तट पर, तम्बूओं का अस्थाई महानगर बस जाता।
उन दिनों कवि स्वप्निल श्रीवास्तव मनोरंजन कर अधिकारी के रूप में गढ़मुक्तेश्वर में पदस्थ थे। मेले में आई नौटंकियाँ उन्हीं के कार्यक्षेत्रा में आती थीं। हापुड़ निकटस्थ होने और पहले से आत्मीय संपर्कों के कारण हापुड़ उनका दूसरा घर था, विशेषकर मेरा परिवार। उसके बारे में फिर कभी।
हम सभी मित्रों — नफीस आफ़रीदी, प्रभात मित्तल (स्व.), अमितेश्वर और सुदर्शन ने मेले भ्रमण का कार्यक्रम बनाया और स्वप्निल श्रीवास्तव को बिना सूचित किए उसके कमरे पर पहुँच गए। सुखद आश्चर्य कथाकार सोमेश्वर को वहाँ पहले से उपस्थित देखकर हुआ।
गढ़मुक्तेश्वर चौराहे से एक छकड़े पर लदकर हम गाते-बजाते आठ किलोमीटर की यात्रा कर बृजघाट के तट पर मेला स्थल पर पहुँचे। वह पूरी रात कार्तिक पूर्णिमा की लुभावनी और सम्मोहक चांदनी में मेले भ्रमण में व्यतीत हुई। इस यात्रा को सर्वाधिक स्मरणीय बनाया अमितेश्वर के सुनाए ‘गंगाराम पटेल और ननकू नाई’ के लोक किस्सों और सुरीले स्वर में गाये भदेस और लालित्य से परिपूर्ण लोक-गीतों ने, जिसका उसके पास अक्षय भंडार था। नौटंकियों को देख खासी निराशा हुई। परंपरागत नाटकों और अभिनय से दूर सिर्फ भड़काऊ और अश्लील अंग संचालन के साथ फिल्मी धुन पर नाच, जिसका हमारी जानी-पहचानी नौटंकी से दूर-दूर का भी वास्ता न था। इस रात का बेहद आत्मीय वर्णन स्वप्निल श्रीवास्तव ने अपने संस्मरणों की किताब ‘जैसा मैंने जीवन देखा’ के अंतर्गत ‘हापुड़ से होते हुए’ लेख में किया है।
दो दिन तक वह ‘संभावना’ में नहीं आया, फिर यकायक समाचार मिला कि एक सप्ताह पूर्व वह एक बच्चे का पिता बना था जिसका असमय निधन हो गया। मुझे हैरानी हुई क्योंकि ऐसा उसने कोई पूर्वाभास न दिया था। मैं आज तक उसके घर नहीं गया था। मुझे सिर्फ इतना पता था कि ‘कोठी गेट’ के सामने जो गली ‘पुराना बाजार’ की तरफ जाती है वहीं कहीं ‘शिवदयाल पुरा’ है जहाँ वह रहता है।
‘कोठी गेट’ तक रिक्शा से गया और फिर ‘शिवदयाल पुरा’ पूछते-पूछते उसके घर पहुँचा। गली मुश्किल से चार-पांच फीट चौड़ी रही होगी, जहाँ रिक्शा की पहुँच नहीं थी। दोनों तरफ छोटी-छोटी नालियाँ और पुराने घर। उसका घर तलाशने में कोई परेशानी न हुई। मोहल्ले के सभी लोग उसके नाम से परिचित थे। एक बरामदा और उसके पीछे एक कमरा। उसकी विधवा बुआ विरासत में उसे यही घर सौंप गई थी। वह वहीं मौजूद था। मुझे देख उसके चेहरे पर एक साथ प्रसन्नता और संकोच के भाव उभरे। कमरे के एक कोने में बैठी उसकी पत्नी ने मुझे देखते ही लंबा घुंघट निकाल लिया और उसकी रुलाई का रुंधा स्वर मुझ तक पहुँचा। यह एक माँ का दुख था। उसके समीप बैठी अमितेश्वर की छोटी बहन ने कहा — ‘‘ऐसा उसके साथ तीसरी बार हुआ है।’’ मैं क्षोभ और तनिक गुस्से में अमितेश्वर को देखने लगा। वहाँ मौजूद पाँच छोटे-बड़े बच्चे मेरे आस-पास मंडरा रहे थे। उसने मुझे सिर्फ चार बच्चों — दो लड़कियों और दो लड़कों की जानकारी दी थी। वे बिना देख-रेख और पोषण के पनप रहे नैसर्गिक छोटे-छोटे फूल थे। सारी प्रतिभा और कर्मठता के बावजूद वह अपने कुसंस्कारों और परिवेश से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाया, यह भी उसके दारिद्रय और लाचारी का प्रमुख कारण था। ऊपर से ठर्रा (देसी शराब की थैली) पीने की लत जो उसे ‘भगवती जागरण मंडली’ और रामलीला के अखाड़ों के संगी-साथियों की संगत से प्राप्त हुई थी। अमितेश्वर के अलावा सिर्फ एक हिन्दू परिवार ‘शिवदयाल पुरा’ में रहता था।
उसकी छोटी बहन व कुछ अन्य परिवार अपने घरों का विक्रय कर वहाँ से निकल लिए थे। शेष सभी घर मुस्लिम परिवारों के थे। मोहल्ले के पीछे भी बहुसंख्यक घर मुस्लिमों के थे। मेरठ में जब कभी सांप्रदायिक दंगे होते उसका प्रभाव हापुड़ पर भी होता। अमितेश्वर सर्वप्रिय था उसे कहीं कोई भय नहीं था लेकिन पत्नी और बच्चे आतंक की डरावनी छाया से मुक्त नहीं हो पाते। ऐसे ही एक अवसर पर उसका परिवार कुछ दिनों के लिए हमारा अतिथि बना। उसकी दोनों बेटियाँ बेहद विनम्र और कर्मठ थीं और शीघ्र ही मेरी माँ उनके लिए ‘ताईजी’ और दोनों माँ के लिए प्रिय बेटियाँ बन गई, जो बाद में भी अक्सर घर आ जाया करती।
उसने अपने मकान को गिरवी रख एक साहूकार से दस हजार रुपए का कर्ज लिया था जिसका ब्याज तक वह नहीं चुका पा रहा था। साहूकार उसके कवि व्यक्तित्व का सम्मान भी करता था और उसके प्रति सदाशय भी। उसने उसके समक्ष प्रस्ताव रखा पंडित जी कर्ज तो आप चुका नहीं पाएंगे और घर अलग हाथ से निकल जाएगा। दिल्ली रोड पर रामलीला मैदान से पहले भैरों मंदिर के सामने एक नई कालोनी ‘राजीव विहार’ बस रही है उसके प्लॉट बिकवाने की जिम्मेदारी मेरे ऊपर है। तुम्हारे इस घर की जमीन के बदले सौ गज का प्लॉट मैं दिलवा दूंगा, ऊपर से दस हजार रुपए निर्माण के लिए। अपने कमीशन के पैसों के बदले तुम्हारा सारा कर्ज मय ब्याज माफ।
यह एक आकर्षक प्रस्ताव था, इसके अलावा उसके सामने कोई उपाय भी न था। पत्नी और बच्चे भी उस माहौल से निकलने को उत्कंठित थे। ‘राजीव विहार’ में एक विशाल गड्ढा था, जो संभवतः कभी तालाब रहा होगा या बड़ी मात्रा में खुदाई करके मिट्टी निकाली गई होगी। उसी गड्ढे के किनारे एक बड़े भूखंड पर वह कालोनी बसाई जा रही थी। धीरे-धीरे उसने अपने प्लॉट पर एक कमरे का निर्माण कर लिया और उसकी चारदीवारी भी।
संयोगवश घटित हुआ सह निर्णय उसके परिवार के लिए अत्यंत शुभ और हितकारी सिद्ध हुआ। आज यह कालोनी सभी सुविधाओं से संपन्न है। उसके दोनों बेटों — ऋषि और संजय ने रहने के उपयुक्त अच्छे घर का निर्माण कर लिया है। वर्ष’ 84-85 के मध्य वह ‘संभावना’ से ‘राधाकृष्ण प्रकाशन’ चला गया। शाहदरा में जिस बाइंडिंग हाउस में ‘संभावना’ की किताबों की जिल्दबंदी होती थी उसी में ‘राधाकृष्ण प्रकाशन’ का भी काम होता था। वहीं अरविंद कुमार और अमितेश्वर की मुलाकात हुई और अधिक आकर्षक वेतन और दिल्ली के सम्मोहन में उसने राधाकृष्ण ज्वाइन कर लिया।
संबंधों के निर्वाह में अपनी ओर से कभी कोई कोताही न की। छुट्टी के दिनों के अलावा जब भी उसे वक्त मिलता वह हमेशा घर चला आता। राधाकृष्ण में काम करते उसे एक-डेढ़ साल ही हुआ होगा कि उसके साथ एक दुर्घटना घटित हुई। रात में दिल्ली से घर लौटते हुए वह हापुड़ स्टेशन पर बेटिकट पकड़ा गया। उसके मासिक पास की अवधि समाप्त हो गई थी और लापरवाही के चलते उसने टिकट भी न लिया था। ऊपर से शराब के नशे में टिकट चैकर से भिड़ भी गया। टिकट चैकर ने उसे रेलवे पुलिस के हवाले कर दिया। रात भर वह पुलिस हिरासत में रहा और सुबह किसी सिपाही की कृपा से एक रिक्शेवाले की मार्फत मुझे समाचार मिला। रिक्शाचालक ने समाचार देने में विलंब किया और जब तक मैं उसे छुड़ाने के लिए स्टेशन पहुँचा तो पता चला कि नियमानुसार सुबह ही उसे डासना जेल भेज दिया गया है। शनिवार होने की वजह से अब कुछ नहीं हो सकता था। सोमवार सुबह दस बजे के बाद उसकी मजिस्ट्रेट के सामने पेशी होगी और तभी जुर्माने की रकम भरकर उसे छुड़वाया जा सकता है।
सोमवार की सुबह में नफीस आफरीदी को साथ लेकर गाजियाबाद कोर्ट पहुँचा। दो घंटे की प्रतीक्षा के उपरांत अमितेश्वर पुलिस वालों के साथ पेश हुआ। हमें देख उसने जोर से गुहार लगाई — ‘‘बचा लो बड़े भाई!’’ हमने डेढ़ सौ रुपए के जुर्माने की रसीद कटवाई और मजिस्ट्रेट से उसकी रिहाई का आदेश प्राप्त किया।
उसके चेहरे पर राहत के चिन्ह थे। उसे सामान्य करने के लिए उसे साथ ले सबसे पहले एक रेस्तरां में गए और भोजन का आदेश दिया। भोजन करते-करते वह सामान्य हो गया और अपने दो दिन के जेल अनुभवों को रस लेकर सुनाने लगा — ‘‘मेरी ड्यूटी हवलदार ने भंडार घर में लगा दी आटे की मन भर की बोरी मेरी पीठ पर लाद दी। उसके बोझ से मेरी पीठ दुहरी हो गई और वही लहराकर लुढ़क गया। वहीं एक पहलवान सरीखा मूँछों वाला कैदी खड़ा था उसने मुझे गिरते देखा तो चिल्लाया — अरे यह तो रामलीला में पारट करने वाला अपना पंडित लागे... इससे कुछ न कराओ। यह ठहरा गवैया पता नहीं कैसे यहाँ आ फँसा...’’ वह दस्तोई का गुर्जर था जिसका रौब जेल के सभी कैदियों पर चलता था। फिर तो बड़े भाई... कैदियों को गीत और किस्से सुनाने के अलावा कुछ न करना पड़ा।’’ इस घटना के कुछ दिन बाद मेरा राधाकृष्ण प्रकाशन जाना हुआ। अरविंद कुमार मुझे अपने केबिन में ले गए और चाय पीने के दौरान अनायास मुझसे पूछा — ‘‘अमितेश्वर क्या बिना टिकट यात्रा करते पकड़ा गया?’’ अप्रत्याशित और एकदम पूछे गए उनके सवाल ने मुझे हतप्रभ कर दिया। इतना आभास मुझे हो गया कि किन्हीं दूसरे सूत्रों से घटना की जानकारी उसे मिल चुकी है। स्वीकारोक्ति के अलावा मेरे पास कोई विकल्प न था।
इस बात का पता बाद में अमितेश्वर से ही चला कि अरविंद कुमार ने इस वार्तालाप के दौरान उसे दरवाजे के पीछे खड़ा किया हुआ था और बाद में अरविंद कुमार ने उसे बेहद अपमानित किया था क्योंकि कार्यालय में अपनी अनुपस्थिति के उसने अन्य घरेलू कारण बताए थे। वह दिनों तक इस बात से क्षुब्ध रहा कि मित्रा होने के बावजूद मैंने उसका बचाव नहीं किया। कम से कम मैं उस घटना के प्रति अपनी अनभिज्ञता तो दिखा ही सकता था, यह कष्ट मुझे भी कई दिनों तक सालता रहा। राधाकृष्ण प्रकाशन का ‘चयन’ नाम से एक विक्रय केन्द्र कुछ समय के लिए ‘त्रिवेणी कला संगम’ के बेसमेंट में खुला था। अमितेश्वर की ड्यूटी ‘चयन’ में लगी थी। यहीं उसका परिचय सुविख्यात कथाकार शानी के दामाद से, जो रंगकर्म से जुड़ा था और नियमित मंडी हाउस आता था हुआ। अमितेश्वर अपने आत्मीय स्वभाव और कुशल संवाद से शीघ्र ही अजनबी से घुल-मिल जाता था। मित्रा बनाने की उसमें नैसर्गिक प्रतिभा थी। दोनों अंतरंग मित्रा बन गए। उसी के साथ वह शानी जी के संपर्क में आया। शानी जी उन दिनों साहित्य अकादमी की त्रौमासिक पत्रिका ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ में बतौर संपादक कार्य करते थे। राधाकृष्ण प्रकाशन से उपरोक्त घटना के कुछ ही दिनों बाद उसे सेवा मुक्त कर दिया गया था। शानी जी के प्रयासों से उसे साहित्य अकादमी में नियुक्ति मिल गई।
साहित्य अकादमी की नौकरी के प्रारंभिक कुछ साल उसके जीवन के सर्वाधिक लाभकारी और सुखी दिन थे। आर्थिक दुश्चिंताओं से एक सीमा तक मुक्त। लेखन के प्रति उसमें प्रारंभ से ही लापरवाही थी। ‘हुक्का-पानी’ की सारी कहानियाँ उसने ‘संभावना’ से जुड़े दिनों में ही लिखी थी — बार-बार कौंचने, उकसाने और प्रेरित करने के प्रयासों के बाद। ‘संभावना’ से पृथक होने के बाद मात्रा उसकी एक कहानी ‘गणेश गाथा’ लिखी गई। इन्हीं दिनों कभी-कभी ठर्रा पीने की उसकी लत लगभग उसकी नियमित दिनचर्या में शरीक हो गई। नफीस आफरीदी ‘हिंद पॉकेट बुक्स’ में संपादक का कार्य करते थे। दोनों की घर वापसी एक साथ एक डिब्बे में हापुड़ शटल से होती। ट्रेन से उतर सबसे पहले कलेक्टर गंज के सामने ‘काके दा ढाबा’ में उनकी बैठकी होती। एक-एक थैली पीने के बाद वहीं भोजन करते और यदि मन न अघाता तो वहाँ से फिर देसी शराब के ठेके पर। प्रायः नशे में लड़खड़ाते-लुढ़कते और किसी भी बात पर जोर-जोर से लड़ने के बाद एक-दूसरे से विदा लेते। यह नित्य का क्रम हो चला था और दोनों एक-दूसरे को दोषारोपित करते कि उसके कारण उन्हें यह लत लगी। उन दिनों पंडित और पठान कि यह जोड़ी खासी प्रसिद्धि पा गई थी। दोनों ने एक-दूसरे को चुनौती देते हुए एक-दूसरे पर कहानियाँ लिखनी प्रारंभ की नफीस आफरीदी ने ‘अपनी जमीन’ शीर्षक से और अमितेश्वर ने ‘बन्ने खां शिकारपुरी’। दोनों ने अपनी कहानियों में एक-दूसरे की खूब चीड़फाड़ की, फिर एक दिन कहानी पाठ के दौरान एक-दूसरे को खूब गाली-गलौच और लड़ने-झगड़ने के बाद रोते हुए अपनी-अपनी कहानियों को फाड़ दिया।
नफीस आफरीदी अपनी नौकरी पूर्ण निष्ठा और अनुशासन से करते थे और एक दिन भी उन्होंने दफ्तर के प्रति कोई कोताही न की। एक बार दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पैर फिसलने से उनके पैर की हड्डी में फ्रैक्चर हुआ और अस्पताल में उसका ऑपरेशन करते समय उनके हृदय की भी जांच हुई तो पता चला दिल की धमनियों में चालीस प्रतिशत ब्लाकेज है तो उन्होंने तत्क्षण पीने से तौबा कर ली और जिसका निर्वाह वह आज तक कर रहे हैं — पूर्ण अनुशासित और स्वस्थ जीवन का कर्मठता से पालन करते हुए। उनके विपरीत अमितेश्वर में किंचित अनुशासन न था और न जीवन और परिवार को लेकर किसी दायित्व का भाव। फिर भी साहित्य अकादमी के शुभचिंतकों की सहृदयता के कारण अनेक व्यवधानों के बावजूद उसकी नौकरी बदस्तूर चलती रही।
वर्ष 1996 में उसके जीवन में बड़ा बवंडर आया जिसके आघात से वह उबर न सका। उसकी बड़ी बेटी अंजना का विवाह डीग (भरतपुर, राजस्थान) में ऐसे लालची और निष्ठुर परिवार में हुआ जो उसकी कतई परवाह नहीं करता था। उसका पति उम्र में उससे काफी बड़ा और उग्र स्वभाव का था। सौतेली सास न सिर्फ स्वयं मारपीट करती बल्कि पति और उसके छोटे भाई भी प्रताड़ित करने में कोई कसर न छोड़ते। आए दिन वह भागकर अपने घर आया करती और अमितेश्वर बार-बार डीग के चक्कर लगाया करता और उसका दफ्तर जाना बेहद अनियमित हो गया। ऊपर से उसने शराब में अपने को पूरी तरह डुबो लिया। दफ्तर जाने में 10-15 दिन तक का अंतराल होने लगा। दफ्तर से अनुशासनात्मक कार्रवाई की चेतावनी मिलती तो एकाध दिन के लिए चला जाता। समस्या उसकी रेल-यात्रा के मासिक पास बनवाने की आती जिसका समाधान स्थानीय मित्रों की सदाशयता से हो जाता। वर्ष 1999 तक यही क्रम बना रहा। साहित्य अकादमी के कई शुभेच्छु मित्रों रणजीत साहा, ब्रजेंद्र त्रिपाठी आदि के मेरे पास फोन आते, चिन्ता प्रकट करते और उसे समझाने का प्रयास करते, लेकिन सब निष्फल जैसे नौकरी के प्रति उसकी कोई रुचि नहीं रह गई थी। आखिरकार, उसके अकादेमी के शुभेच्छुओं ने उसे त्यागपत्रा देने के लिए तैयार किया और उसके स्थान पर उसके बड़े पुत्रा ऋषि को साहित्य अकादेमी में दैनिक वेतन के आधार पर नियुक्ति दे दी गई। वर्ष 2003 में उसे अस्थायी फिर 2006 में उसे स्थायी कर दिया गया। अमितेश्वर की अनुपस्थिति में उसने अपने सारे पारिवारिक दायित्वों — छोटे भाई-बहन के उपयुक्त परिवारों में विवाह संपन्न कराने के साथ-साथ परिवार को आर्थिक दुश्चिंताओं से मुक्त किया।
बेटे ऋषि के साहित्य अकादेमी में लगने के बाद उसने परिवार के बचे-खुचे दायित्वों से भी खुद को मुक्त कर लिया। ‘संभावना’ में वह प्रायः चला आता।
गुलेरी, रामचंद्र शुक्ल, प्रतापनारायण मिश्र आदि की प्रतिनिधि रचनाओं के संकलन और उनकी भूमिकाएं लिखने के अलावा और भी कुछ कार्य वह इस शर्त पर कर देता कि इन्हें यही पूरा करना है और उस कार्य के संपन्न होने के बाद ही उसे परिश्रमिक मिलेगा। कुछ दिन वह दत्तचित्त होकर कार्य में जुटता और मुझे प्रसन्नता होती कि संभवतः वह अपनी लत से किसी सीमा तक छुटकारा पा लेगा। लेकिन ऐसा एकाध सप्ताह से अधिक न चलता। बार-बार व्यवधान आता और बार-बार वह गर्दन झुकाए शर्मिन्दा होता, फिर उसी राह पर चल पड़ता।
वर्ष 2001 में उसे एक बार फिर बड़े आघात का सामना करना पड़ा। उसके तीसरे नंबर का बेटा रवि, जो सभी भाइयों में सबसे बलिष्ठ और फुर्तीला था और उसका सर्वाधिक प्रिय भी, टी.बी. की गिरफ्त में आ गया। कुछ दिनों के लिए उसे दिल्ली के सरकारी टी.बी. अस्पताल में भर्ती कराया गया, लेकिन पन्द्रह दिन बाद ही वहाँ से उबकर इलाज अधूरा छोड़ वापस हापुड़ ले आए। दवाइयाँ सरकारी अस्पताल से मुफ्त मिल जाती थी लेकिन पौष्टिक खानपान के लिए उसकी व्यवस्था करने हेतु अमितेश्वर चिंताग्रस्त रहता। इन दिनों उसकी ठर्रा पीने की लत में भी कुछ सुधार दिखाई दिया। उसकी एकमात्रा चिन्ता उसके लिए चिकन का शोरबा और फलों के जुगाड़ करने की होती। रवि का स्वास्थ्य दिन-प्रतिदिन बिगड़ता चला गया। आखिरी दिनों में उसे स्थानीय निजी अस्पताल में भर्ती कराया गया लेकिन उसका शरीर कंकाल मात्रा रह गया था और आखिरकार जनवरी 2003 में उसका कारुणिक निधन हो गया।
उसके जीवन का उद्देश्य ही समाप्त हो गया हो जैसे। उसने स्वयं को पूरी तरह नियति के हवाले कर दिया। ‘पैदल को बचा’ कहानी का रचनाकार पैदल को बचाने के लिए जूझता और दुर्दम्य जिजीविषा का संवाहक स्वयं ऐसा ‘पैदल’ बन गया, ऐसा मोहरा जिसे कोई भी अपनी इच्छानुसार पीट सकता था। उसने स्वयं को किसी भी खेल से बहिष्कृत कर लिया था, चाहे वह साहित्य का हो या जीवन का।
पहले वह संकोच या सम्मान के कारण नशे की हालत में घर के सदस्यों के समक्ष जाने से बचा करता, अब वह बंदिश भी न रही। उसकी जरूरतें अब सौ-पचास से गिरते-गिरते दस-पाँच रुपए तक सिमट आई थीं। अपमान, लांछना और उपेक्षा जैसे मानवोचित व्यवहार और उससे उत्पन्न प्रतिक्रियाओं से उसने स्वयं को मुक्त कर लिया था। मित्रों, परिचितों अथवा राह चलते किसी से भी दुआ-सलाम हो जाती तो उसके घर कभी भी अपनी जरूरत के लिए पहुँच जाता और पूरी न होने का कोई मलाल भी चेहरे पर न आता।
सर्दियों की अल-सुबह जब आँखें भी न खुली होती उसका घर में प्रवेश होता और वह बताता कि रात में वह स्वर्गाश्रम (श्मशान घाट) में किसी अघोरी तांत्रिक के साथ परिवार की मंगल कामना के लिए साधना करता रहा है और अब उसे उस तांत्रिक को दक्षिणा प्रदान करने के लिए एक सौ एक रुपए की जरूरत है। तांत्रिक ने ही उसे साधना के वक्त मदिरा का सेवन कराया है। प्रमाण स्वरूप उसके माथे पर राख का बड़ा टीका और हाथ की पुड़िया में प्रसाद रूप में भस्म बंधी होती। किसी भी डाँट का उस पर कोई असर न होता और अपनी माँग से नीचे उतरते हुए वह दो रुपए पर आ जाता और फिर ‘‘दो रुपए तो आप किसी भिखारी को भी दे देते होंगे।’’ कहता विद्रूप से मुस्कुराता मेरी अभिजात्य नैतिकता को ठोकर मारता उसी तरह लड़खड़ाता घर से बाहर चला आता।
कुछ दिन बाद वह फिर आता। उसे सामान्य स्थिति में देख प्रसन्नता होती। चाय-नाश्ते के साथ वह अच्छी-अच्छी बातें करता दफ्तर में रखी नई पत्रिकाओं को देखता उलटता-पलटता, फिर चलते वक्त उन्हें हाथ में ले कहता, ‘‘आप तो इन्हें पढ़ चुके होंगे बड़े भाई, मैं ले जाऊँ — कुछ पढ़ना हो जाएगा।’’ मैं खुशी से वे सारी पत्रिकाएँ उसे ले जाने देता। एक-दो दिन बाद पता चलता कि वह पत्रिकाएँ किसी दूसरे साहित्य में रुचि रखने वाले व्यक्ति के यहाँ पहुँच जाया करती जिन्हें वह उनके लिए विशेष रूप से दिल्ली से लाया था। फिर वही क्रम...
दरअसल उसे किसी ‘नशा मुक्ति केंद्र’ में भर्ती कराने की जरूरत थी जिसके लिए कोई सामूहिक यत्न या अवकाश किसी के पास नहीं था। उसके परिवार में कोई बड़ा या उपयुक्त निर्णय लेने वाला नहीं था और एकाध बार उसके बेटों से बात हुई तो वे उसे किसी ‘बाहरी हवा’ का प्रभाव बता स्वयं को मुक्त कर लेते।
14 नवंबर 2005। सुबह सात बजे के आसपास फोन घनघनाया, दूसरी और उसका बड़ा बेटा ऋषि था।
‘‘ताऊजी, पापा नहीं रहे।’’ रुंधा-रुंधा स्वर।
‘‘कब... कैसे... अभी तो दो दिन पहले वह घर आया था। ऐसा तो कुछ आभास न था।’’
‘‘दो दिन से उल्टी-दस्त हो रहे थे। आज सुबह शौच में ही... दस बजे स्वर्गाश्रम (श्मशान घाट) ले जाएंगे।’’
मैंने कुछ मित्रों को सूचना दी और उसके घर पहुँचने के लिए कहा।
स्वर्गाश्रम में उसकी चिता की लपटों की ओर देखते पास खड़े चिकित्सक कथाकार अजय गोयल बोले, ‘‘इस बात का मलाल बना रहेगा कि मेरे होते हुए सिर्फ डायरिया से... मुझे खबर तक न हुई। परिवार का कोई उसे मेरे पास ले आता।’’
मैं उसे कैसे बताता कि इस घड़ी का निर्धारण तो स्वयं उसने काफी पहले कर लिया था। उसे किसी भी बहाने देर-सवेर आना ही था। ऊँची उठती लपटों की ओर देखते मेरे मुँह से सिर्फ़ इतना निकला — ‘‘पचास-बावन की उम्र तो कोई इस तरह जाने की नहीं होती।’’