शतरंज के मोहरे / अमृतलाल नागर / पृष्ठ-2

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उसके बाद तीनों कुछ दूर तक खामोश चले गये। रुस्तअली का चेहरा विचारों से भारी होकर झुक गया था। उसकी माँ ने अकसर उसकी पत्नी की बदचलनी के बारे में शिकायतें की थीं। उसके सौतले भाई फतेअली के ख़िलाफ़ उसकी माँ ने इल्ज़ाम लगाये थे। मगर वह अपने रक़ीब को, अपनी घरवाली को लाख चाहने पर भी कभी रँगे हाथों पकड़ न सका। उसके शक़ की जड़ कभी मजबूत न हो सकी, गो जमी रही। दुलारी उस पर जान निछावर करती है। वो रो-रोककर अम्मी-जानकी सख्तियों की शिकायत करती है। रुस्तमअली कुछ तय न कर पाता था। पुरानी उलझन घसीटे ख़ाँ की बातों के सहारे फिर मन में फैल गयी।

दोनों मित्रों को मौन देख नब्बू मस्ती में आकर बोला, ‘‘अमाँ हम तो लाख टके की एक बात जानते हैं, जो मरद आठों पहर निगहबानी कर सके वही औरत को अपनी बीवी कह सकता है, उसमें भी ख़ास तौर से हमारे ऐसे पेशे वाले, जो साल-दो-साल में महीने-दो-महीने के लिए घर जाते हैं, भला किस बात का गुमान करते हैं ? अमाँ हम तो कहते हैं कि अपनी औरत को नौकर रखी हुई रण्डी मान लो, जितने दिन रहो ऐश करो, उसके बाद-’’ ‘‘और बच्चे ?’’ रुस्तम ने पूछा। ‘‘क्या रखैल से नहीं होते ? अवध के तख़्तोताज़ के आइन्दा होने वाले मालिक रखैल ख़वास की ही औलाद हैं।’’

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