शताब्दी-वर्ष में हरिशंकर परसाई / लालचन्द गुप्त ‘मंगल’
‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’, मध्यप्रदेश सरकार का ‘शिखर-सम्मान’, ‘भवभूति अलंकरण’, उत्तरप्रदेश हिन्दी-संस्थान का ‘संस्थान-सम्मान’, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय से ‘मानद डी.लिट्’ तथा ‘पदमश्री’ आदि अलंकरणों से विभूषित हरिशंकर परसाई (22 अगस्त 1924 - 10 अगस्त 1995) का जन्म मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जनपद-अन्तर्गत ‘जमानी’ गाँव के कायस्थ-परिवार में हुआ था । वन-विभाग तथा प्राइवेट स्कूलों में नौकरी करते हुए आपने पहले शिक्षण-उपाधि और, बाद में, नागपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी) की उपाधि प्राप्त की । पाँच-सात साल की इस उठा-पटक के बाद आपने नौकरी छोड़कर स्वतंत्र लेखन की शुरुआत की । लगभग दो दशकों तक, दुर्भाग्यवश, आपको दुर्घटनाजन्य विकलांगता का दंश झेलना पड़ा और इसी अवस्था में आपकी इहलीला समाप्त हुई ।
कांग्रेसी-साम्यवादी राजनीति में आकण्ठ-निमग्न हरिशंकर परवाई ने अपने ढेरों हास्य-व्यंग्य संग्रहों से हिन्दी-गद्य को समृद्ध किया है । कहानी, आलेख, निबन्ध, संस्मरण, रिपोर्ताज, रेखाचित्र, पत्र, साक्षात्कार, उपन्यास और बाल-साहित्य आदि पर आधारित आपका समस्त साहित्य ‘परसाई रचनावली’ (राजकमल प्रकाशन) के छह खण्डों में उपलब्ध है । गद्य-विधाओं की शास्त्रीय मर्यादा में बँधना आपका स्वभाव नहीं रहा । आपके प्रसिद्ध संग्रह हैं - तब की बात और थी, भूत के पाँव पीछे, वैष्णव की फिसलन, बेईमानी की परत, पगडण्डियों का ज़माना, सदाचार का ताबीज़, शिकायत मुझे भी है, विकलांग श्रद्धा का दौर, ठिठुरता हुआ गणतंत्र, अपनी-अपनी बीमारी, पाखण्ड का अध्यात्म, आवारा भीड़ के ख़तरे (निबन्ध), हँसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे, भोलाराम का जीव (कहानी) । आपने तीन उपन्यास भी लिखे हैं - ज्वाला और जल, तट की खोज, रानी नागफनी की कहानी। आपके ये तीन संस्मरण-संकलन भी चाव से पढ़े जाते हैं - तिरछी रेखाएँ, मरना कोई हार नहीं होती, सीधे-सादे और जटिल मुक्तिबोध ।
पत्रकारिता की ओर भी परसाई जी का विशेष झुकाव रहा है । सर्वप्रथम उन्होंने जबलपुर से ‘वसुधा’ साहित्यिक मासिकी निकाली । बाद में वे ‘नई दुनिया’ में ‘सुनो भइ साधो’; ‘नयी कहानियाँ’ में ‘पाँचवाँ कॉलम’ तथा ‘उलझी-सुलझी’ और ‘कल्पना’ में ‘परसाई से पूछें’ कॉलम के अन्तर्गत पाठकों के प्रश्नों के उत्तर भी दिया करते थे । प्रारम्भ में इन प्रश्नों का दायरा हल्का-फुल्का और इश्किया-फिल्मी अवश्य रहा, लेकिन, बाद में, धीर-गंभीर सामाजिक और राजनीतिक सरोकारों की ओर बढ़ते हुए इनका स्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय हो गया ।
परसाई जी मूलतः, प्रथमतः और अंततः एक व्यंग्यकार ही हैं । उनका व्यंग्य केवल गुदगुदी, उपहास, विदूषकी और मनोरंजन के लिए नहीं है, अपितु अपने व्यंग्य के द्वारा वे बार-बार हमारा ध्यान व्यक्ति और समाज की उन कमज़ोरियों एवं विसंगतियों की ओर आकृष्ट करना चाहते हैं, जो पदे-पदे हमारे जीवन को दूभर बना रही हैं । उनमें स्थिति तथा स्थिति के लिए उत्तरदायी लोगों पर कशाघात स्पष्ट दिखायी देता है । उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार, शोषण और पाखण्ड पर सर्वाधिक विवेकपूर्ण-कुठाराघात किया है, ताकि पाठकों को, व्याप्त ढोंग के कुहासे को तोड़कर, वस्तुस्थिति से अवगत कराया जा सके, सचेत-सतर्क किया जा सके। यही कारण है कि मूल्यगत विसंगतियों और विद्रूपताओें से सम्बद्ध उनके व्यंग्य, देखते-ही-देखते, मूल्य के दलालों को नंगा कर देते हैं । सरकारी तंत्र की भ्रष्टता पर उनकी यह टिप्पणी देखते-ही बनती है -- ‘‘गाली वही देता है, जो रोटी खाता है । पैसा खाने वाला सबसे डरता है । जो सरकारी कर्मचारी जितना नम्र होता है, वह उतने ही पैसे खाता है।’’ (निठल्ले की डायरी, पृ. 23) इसी प्रकार, पुलिस-भ्रष्टाचार पर केन्द्रित ‘इंसपेक्टर मातादीन चाँद पर’ कहानी में सशक्त व्यंग्यारोपण करते हुए पुलिस की कार्य-प्रणाली पर करारी चोट की गयी है । पुलिस द्वारा जनता से वार्त्तालाप का ढंग, झूठा केस बनाने, किसी को भी अपना शिकार बनाने, ‘चश्मदीद’ गवाहों की स्थायी सूची रखने, मनचाही दफाएँ लगाने तथा एफआईआर दर्ज़ करने के हथकण्डे आदि बिन्दुओं पर व्यंग्यकार ने पुलिस की बखिया उधेड़कर रख दी । चश्मदीद गवाह की यह परिभाषा देखिए - ‘चश्मदीद गवाह वह नहीं है, जो देखे; बल्कि वह है, जो कहे कि मैंने देखा।’’ (सम्पा., हिमांशु जोशी, श्रेष्ठ समांतर कहानियाँ, पृ. 226) परसाई की बहुचर्चित कहानी ‘भोलाराम का जीव’ तो दफ़्तरी भ्रष्टाचार पर एक तीखा व्यंग्य है ही ।
जहाँ तक ‘व्यंग्य’ की परख और प्रभावन्विति का प्रश्न है - सामाजिक विषमता, आचरण की विद्रूपता और व्यवहार की विडम्बना को, उनके सही परिप्रेक्ष्य में, प्रस्तुत करने के लिए साहित्य में व्यंग्य से अधिक सक्षम और सार्थक कोई दूसरी कथन-शैली नहीं है । इसीलिए, सामान्यतः, किसी व्यक्ति के कपटाचरण को प्रकट करने के लिए साहित्यकार जिस वैदग्धपूर्ण वक्रभाषा का प्रयोग किया करते हैं, वह व्यंग्यमयी ही होती है । आपने वह कहावत तो सुनी ही होगी कि ‘मज़ाक करना मज़ाक नहीं है, मज़ाक करना एक कला है।’ इसी प्रकार यह भी तय है कि व्यंग्य करना-समझना भी कोई हँसी-खेल नहीं है । बकौल डॉ. विजयेन्द्र स्नातक, ‘‘साहित्य की रणभूमि में उतरे बिना, दूर से ही अपने व्यंग्यबाण द्वारा जो शत्रु को परास्त कर सके, शर्मिन्दा कर सके, हताश कर सके, पस्त-हिम्मत कर रणभूमि छोड़ने को विवश कर सके, वही व्यंग्यकार सफल है ।’’ हरिशंकर परसाई की गणना ऐसे-ही सफल व्यंग्यकार के रूप में की जाती है ।
‘पगडण्डियों का ज़माना’ निबन्ध परसाई जी की मूल दृष्टि को स्पष्ट करने में विशेष सहायक है । उनकी स्पष्ट मान्यता है कि वर्तमान आपा-धापी में देशवासियों का नैतिक बोध मिट चला है । स्वार्थ-साधन के लिये अब तो ‘‘अच्छी आत्मा फोल्डिंग-कुर्सी की तरह होनी चाहिए । ज़रूरत पड़ी, तब फैलाकर उस पर बैठ गए; नही ंतो मोड़कर कोने में टिका दिया।’’ ‘‘पहले देवता आदमी बनकर ठगते थे, अब आदमी देवता बनकर ठगते हैं ।’’ अस्त-व्यस्त और त्रस्त-संतप्त साधारण जन की विकल अन्तरात्मा का यह विलाप भी दर्शनीय है -- ‘‘सफलता के महल का सामने का आम दरवाज़ा बन्द हो गया है । कई लोग भीतर घुस गये हैं और उन्होंने कुण्डी लगा दी है। जिसे उसमें घुसना है, वह रुमाल नाक पर रखकर नाबदान में से घुस जाता है । .... जिन्हें बदबू ज़्यादा आती है और जो सिर्फ़ मुख्य-द्वार से घुसना चाहते हैं, वे खड़े दरवाज़े पर सिर मार रहे हैं और उनके कपालों से खून बह रहा है ।’’
संक्षेप में, हरिशंकर परसाई के विपुल व्यंग्य-साहित्य में चुहल का भाव कम, चिन्ता और चिन्तन की मात्रा अधिक है । अपने इसी आक्रोश-मिश्रित व्यंग्य के बल पर वे वर्तमान जीवन का यथार्थ अंकन करते हुए जन-मन को आन्दोलित करने में पर्याप्त सफल रहे हैं । रचना-परिमाण तथा ‘भीड़ के लिए’ लिखते रहने पर भी उनकी सतर्क दृष्टि, असाधारण प्रतिभा तथा सरल शैली ने उन्हें हिन्दी का एक श्रेष्ठतर व्यंग्यकार बना दिया है । पाठक बंधु ! यदि आप स्वयं को टनाटन और राष्ट्र को खुशहाल देखना चाहते हैं, तो तुरन्त परसाई-साहित्य का पारायण कर जाइए।
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