शताब्दी के ढलते वर्षों में / निर्मल वर्मा

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क्या समय का बीतना कोई भ्रम है? क्या वह कोई लीला रचता है और जब हमारे पास से गुजरता है तो क्रीड़ा भाव से मुस्कराता है, धीरे से हमारे कानों में फुसफुसाता है - 'देखो यह वही रास्ता है जिस पर से मैं सौ साल पहले गुजरा था, यहाँ मैं झिझका था, वहाँ मैं थोड़ी देर के लिए ठिठका था, उधार मैं मुड़ा था, लेकिन आज किसी को याद नहीं है कि मैं वही हूँ और रास्ता भी वही है। इतिहास सिर्फ प्रगति के ठोस और सीधे मील के पत्थरों को अंकित करता है, लेकिन उसमें मेरी हिचकिचाहट, मेरा संशय, मेरा रुकना और ठिठकना दर्ज नहीं होता।' समय की यह फुसफुसाहट हम अक्सर अनसुनी कर देते हैं, लेकिन ऐसे क्षण भी आते हैं कि अचानक हम थोड़े अचंभे में पड़ जाते हैं। आसपास के परिदृश्य को देख कर सहसा याद आता है कि आज हम जो देख रहे हैं वह पहले भी कभी हुआ है, कि हम पहले का देखा हुआ नाटक दुबारा से देख रहे हैं। क्या यह महज स्मृति का खिलवाड़ है या इतिहास सचमुच सीधा न चल कर दायरों में घूमता है?

जब मैं बीसवीं शताब्दी के ढलते वर्षों में अपनी दुनिया को देखता हूँ तो मुझे उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक याद आ जाते हैं। दोनों के बीच एक विस्मयकारी समानता-सी दिखाई पड़ती है। यूरोप में उस समय एक तरफ विराट समृद्धि का वैभव था, दुनिया सतत प्रगति के मार्ग पर चलती रहेगी, इसमें सबको गहरा विश्वास था, लेकिन दूसरी तरफ आशावादिता के इस उज्ज्वल वातावरण के पीछे एक काला अपशगुन भी टिमक रहा था। कुछ वैसा ही जैसा गर्मी की घुटन-भरी दोपहर में दूर से बिजली की कड़क सुनाई देती है। चिलचिलाती धूप में एक पागल-सा आदमी दिखाई देता है जो तपते सूरज के नीचे जलती लालटेन लिए घूम रहा है। हवा में एक अजीब-सी चेतावनी और आनेवाली आँधी की भनक सुनाई देती है। शायद ही कभी ऐसा हुआ हो जब यूरोप की सभ्यता आत्मगौरव की इतनी ऊँची चोटी पर पहुँची हो, अपनी अभूतपूर्व सफलता पर इतनी मुग्ध हो और इससे बिलकुल बेखबर हो कि इस यशस्वी शिखर के पीछे एक अथाह गर्त का अँधेरा फैला है जिसमें वह कभी भी डूब सकती है। बहुत कम लोग ऐसे थे जिनकी पैनी और पारदर्शी दृष्टि इस अँधेरे को भेद पाती थी - केवल कुछ इने-गिने लेखक और मनीषी अपवाद थे - रूस के विशाल जारवादी यातना के मरुस्थल में एक टॉल्सटॉय, अपने निपट अलगाव में अकेले एक फ्लोबे, अपनी पागल पैगंबरी के उन्मत्त आलोक में एक नीत्शे। सिर्फ ये कुछ लोग उस सभ्यता की नियति के बारे में भयानक रूप से चिंतित थे जो अपनी समूची समृद्धि और सफलता के बावजूद घोर संकट के छोर पर खड़ी थी।

उस समय भारत में भी स्थिति बहुत भिन्न नहीं थी। हजारों साल पुरानी भारतीय संस्कृति को एक ऐसी संहारी ध्वंसात्मक लोलुप सभ्यता का सामना करना पड़ रहा था जो प्रगति और पश्चिमीकरण के नाम पर भारत की परंपरागत दृष्टि को नष्ट कर रही थी और इस संकट को भी कितने लोग समझते थे? धर्म और समाज के छद्म आधुनिकीकरण और ईसाई धर्म के प्रति एक बचकाने सम्मोहन के आगे सिर्फ एक रामकृष्ण परमहंस, बंकिम चटर्जी, विवेकानंद, हिंदी भाषीय क्षेत्रों में, भारतेंदु युग में कुछ साहित्यकार और उत्तरी भारत में दयानंद सरस्वती। लेकिन इन इने-गिने अपवादों को छोड़ कर हिंदू-मुसलमानों का समूचा एलिट वर्ग पश्चिम की आधुनिकता और ईसाई धर्म की तथाकथित उन्मुक्तता के आगे घुटने टेके बैठा था। 19वीं शताब्दी के अंतिम दशक में भारतीय संस्कृति जिस चुनौती का सामना कर रही थी, वह किसी भी अर्थ में यूरोपीय सभ्यता के संकट से कम भयानक और विनाशकारी नहीं थी।

तब से लगभग सौ साल बीत चुके हैं, इस बीच दो विश्वयुद्ध और अनेक क्रांतियाँ हुई हैं। भारत को भी आखिर जैसे-तैसे स्वतंत्रता मिल चुकी है। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में दूर क्षितिज पर जो बादलों की कड़क सुनाई देती थी वह धुँआधार आँधी बन कर हमारे बीच से गुजर चुकी है और अपने पीछे एक सर्वव्यापी विषाद और तबाही छोड़ गई है। लेकिन इतिहास एक क्षण के लिए भी नहीं रुका। वह अपने दैत्याकार कदमों से निरंतर आगे बढ़ता रहा है। जब हम थोड़ा-सा रुक कर चारों तरफ देखते हैं तो यह आश्चर्यजनक बोध होता है कि पिछले सौ सालों के भीतर जितने भी विराट और अभूतपूर्व परिवर्तन हुए हैं उनके बावजूद मनुष्य में वही बदहवास किस्म की हताशा है। कहीं दूर हवा में वही काले अपशगुन की चेतावनी है जो हमें याद दिलाती है कि हम आज वैसे ही घुटन में जी रहे हैं जिसे सौ साल पहले हमारे पुरखे भुगत रहे थे। क्या हमारी सभ्यता एक बार फिर विध्वंस की अँधेरी खाई के आगे खड़ी है?

बीसवीं सदी के अंतिम दशकों में एक मुझ-जैसे भारतीय को कभी-कभी यह लगता है कि मैं एक ऐसे ऐतिहासिक नाटक का गूँगा दर्शक हूँ - या उससे भी बदतर उसका दयनीय शिकार हूँ जिसकी स्क्रिप्ट किसी दूसरे ने लिखी है और उस पर मेरा कोई अधिकार नहीं है। मैं एक ऐसी आधुनिकता से आक्रांत हूँ जिसकी संकट की भाषा और प्रगति का कर्मकांड दोनों ही मेरे लिए अजनबी हैं, लेकिन एक विचित्र और रहस्यमय ढंग से मैं इसी आधुनिक सभ्यता की नियति से कहीं गहरे में अपने को संलग्न और संबंधित पाता हूँ। मेरे भीतर कहीं धुँधला-सा आभास है कि बीसवीं सदी के आनेवाले वर्षों में मेरी संस्कृति का भाग्य कहीं-न-कहीं पश्चिमी सभ्यता की भावी भूमिका के साथ जुड़ा है। यही नहीं मुझे यह भी लगता है कि पश्चिमी सभ्यता के चरित्र और दिशा को स्वयं मेरी संस्कृति बुनियादी तौर से परिवर्तित और प्रभावित कर सकती है। यह शायद एक विडंबना ही है कि मैं एक विदेशी सभ्यता के लिए जिम्मेदारी महसूस करूँ जिसने स्वयं पिछले दो सौ वर्षों से मेरी संस्कृति की लय और रौ को इतनी बुरी तरह विकृत किया है। मैं इस विडंबना को तब तक नहीं सुलझा सकता जब तक मैं पश्चिमी सभ्यता में संकट के संदर्भ में स्वयं भारतीय संस्कृति से जो मेरा संबंध रहा है उसे पुनर्परिभाषित करने का प्रयास और साहस नहीं करूँ।

पिछले कुछ वर्षों के दौरान ऐसा कम हुआ है कि भारत के बारे में सोचते हुए मैं उसकी नियति के साथ निरंतर एक गहरा व्यक्तिगत लगाव महसूस न करता रहा हूँ। यह लगाव इसलिए नहीं है कि मैं भारतीय हूँ। न इसलिए है कि मैं भारतीय लेखक हूँ, बल्कि सिर्फ इसलिए कि मैं एक ऐसे पृथ्वी के खंड का निवासी हूँ जहाँ संयोग से मेरा जन्म हुआ है। मुझे लगता है कि कमोबेश हर भारतीय के भीतर आवास के साथ जुड़ा हुआ समूचा कर्मकांड और मिथक संसार बहुत प्रमुख भूमिका अदा करता है। जहाँ हमारे आवास की जड़ें हैं वहीं समय की निरंतरता का भी बोध होता है। यह बोध एक अंग्रेज या जर्मन की परंपरा बोध से बहुत अलग है जो उसे इतिहास से प्राप्त होता है। हमारी मनीषा में यदि इतिहास के बोध का अभाव है तो इसलिए नहीं कि हम अतीत और वर्तमान में होनेवाले परिवर्तनों के प्रति कम सजग या संवेदनशील थे, बल्कि इसलिए कि हम एक ऐसी सभ्यता में जीवित रहते हैं जहाँ अतीत और वर्तमान अलग-अलग स्वायत्त खंडों में विभाजित नहीं है, जैसा कि एक यूरोपीय निवासी अपने भीतर महसूस करता है। एक भारतीय होने के नाते मुझे इसकी चिंता नहीं है कि मैं कौन था - जिसे आज अस्मिता की चिंता कहा जाता है, क्योंकि मैं एक ऐसे वर्तमान मैं जीता हूँ जो हमेशा से ही मेरे भीतर मौजूद रहा है - शाश्वत वर्तमान का बोध। मैं सोचता हूँ कि दुनिया में भारतीय संस्कृति ही ऐसी है जिसने अपना समय बोध प्रागैतिहासिक कबीलों के समय बोध से ग्रहण किया है। एक दृष्टि से हम यह कह सकते हैं कि आज की दुनिया में भारतीय जाति अंतिम कबीला है जिसकी संस्कृति, समय बोध और दर्शन आज के करोड़ों लोगों की जीवन-मर्यादा को अनुशासित करता है। इसीलिए जब मैं आज अपने को भारतीय संस्कृति से संलग्न पाता हूँ तो यह संलग्नता न तो मुझे इतिहास से प्राप्त हुई है और न ही इस बात से मिली है कि मैं किसी चर्च या धार्मिक प्रतिष्ठान के साथ जुड़ा हूँ। आधुनिक दुनिया में जहाँ लोग अपनी अस्मिता किसी राज्य संगठन या धार्मिक प्रतिष्ठान के साथ जुड़ने में प्राप्त करते हैं वहाँ मैं जब अपने को भारतीय महसूस करता हूँ तो उस समय यह दोनों स्रोत ही कोई भूमिका अदा नहीं करते। मेरे भारतीय होने का स्रोत एक तरफ बहुत ही व्यक्तिगत संस्कारों में जुड़ा है, इतना निजी और व्यक्तिगत कि वह मेरे अहम से कहीं ज्यादा आत्मीय और निकट है। दूसरी ओर वह इतना व्यापक है जिसे किसी भी स्तर पर ऐतिहासिक शर्तों पर नहीं आँका जा सकता। यही कारण है कि एक भारतीय का अपनी संस्कृति से संबंध सीधी और सपाट ऐतिहासिक परिभाषाओं में नहीं समाता, वह एक अस्पष्ट भावना है - अस्पष्ट लेकिन अपनी संलग्नता और प्रतिबद्धता में बहुत ठोस और अखंडित।

इस बीच अंग्रेजी राज्य के रूप में इतिहास ने हमारी जीवन-धारा में हस्तक्षेप किया और तब हमें यह सिखाया गया कि हम सचमुच एक संस्कृति का अंग हैं और यह संस्कृति बहुत पुरानी मान्यताओं और मर्यादाओं पर आधारित है। पश्चिम के विद्वानों और इंडोलॉजिस्ट्स ने बहुत सुघड़ता और परिश्रम से हमारे शास्त्रों, पुराणों और दर्शन शास्त्र को विवेचित किया। हम एक ऐसी परंपरा के प्रति सजग हुए, जिसे आज तक हम बिना परिभाषित किए सहज भाव से अपने जीवन में अपनाते रहे थे। लेकिन कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि इतिहास के हस्तक्षेप होने से पहले हमारा अपनी संस्कृति के साथ जो सहज और स्पष्ट लगाव था वह अपरिभाषित भले ही रहा हो, लेकिन वह निष्क्रिय या आकारहीन न था। इस लगाव के अपने संकेत, अपने बिंब, अपने रूप थे जिनकी एक झलक में कभी-कभी अपनी मूर्तिकला में या धार्मिक अनुष्ठानों में या कला और जीवन के सहज प्रतीकों में पा लेता था। मैं भारतीय हूँ इसकी परिभाषा मुझे पश्चिम की ऐतिहासिक कसौटी पर नहीं, बल्कि अपने रहन-सहन, आचार-व्यवहार और आस्था-विश्वास के अनेक चिह्नों और संकेतों से मिलती रहती थी। सच पूछा जाए तो हमने अपनी परंपरा का बोध अतीत से खोज कर नहीं बल्कि सहज जीवनधारा के इन बिंबों और प्रतीकों से ही प्राप्त किया था। पश्चिम की तरह हमने कभी सजग रूप से परंपरा में रहने के लिए अतीत का आह्वान नहीं किया। इसके विपरीत परंपरा हमारे भीतर मूक और अपरिभाषित रूप से जीवित रहती थी। यह शायद विरोधाभास जान पड़े लेकिन सच है कि केवल पश्चिम का आधुनिक समाज ही अतीत के प्रतीकों पर जीवित रहता है जिसे वह इतिहास का नाम देता है, किंतु जो समाज सहज रूप से परंपरागत होता है उसे अतीत की कोई आवश्यकता नहीं है। मेरी यह भावना कि मैं भारतीय संस्कृति का अंग हूँ, केवल इसलिए नहीं है कि मैं जमीन के एक अंश से जुड़ा हूँ जिसे हम भारत कहते हैं बल्कि इसलिए भी है कि मैं एक ऐसे समय में जीता हूँ जो चिरंतन रूप से मेरा समकालीन है। मैंने जो परंपरा से पाया वही मेरा जीवनस्थल भी है। एक भारतीय जिन बिंबों में प्रतीकों के सहारे जीवन का अर्थ ढूँढ़ता है वही उसका आवास-स्थल और परिवेश भी रहा है। इसीलिए आधुनिक युग की राष्ट्रीयता या देशभक्ति की भावनाएँ उसके लिए बड़ी अजीब और अनावश्यक हो सकती हैं, क्योंकि उसके विश्वासों को उसकी धरती से अलग नहीं किया जा सकता।

एक भारतीय का अपनी संस्कृति के साथ यह सहज संबंध उस क्षण विघटित होने लगा जिस क्षण पश्चिम ने अंग्रेजी राज्य के रूप में हमारी जीवन-पद्धति में हस्तक्षेप करना आरंभ किया। भारतीय इतिहास में यह एक अभूतपूर्व घटना थी जब जीवन के सहज प्रभाव को इतिहास के चौखटों में परिभाषित किया जाने लगा। भारत में अंग्रेजी राज्य का सबसे अधिक दुखदायी प्रभाव यह नहीं था कि हम आर्थिक और राजनैतिक रूप से गुलाम हुए, बल्कि यह कि इतिहास ने हमारी चेतना को पहली बार अतीत, वर्तमान और भविष्य जैसे कटघरों में परिभाषित किया। पश्चिम ने जब मेरे लिए एक अतीत की खोज की उसी क्षण मैंने उसे अपने वर्तमान में उन्मूलित किया, क्योंकि मेरी सहज चेतना में पश्चिम के हस्तक्षेप से पहले इस तरह का कोई विभाजन मौजूद नहीं था। एक बार अपने अतीत से विलगित हो जाने पर मैं धीरे-धीरे अपनी उस समूची थाती से अलग हो गया जिसके बीच मैं जीता था, मरता था, साँस लेता था और अपने जीवन का अर्थ ढूँढ़ता था। मैं खुद अपनी संस्कृति के बीच अपने को एक अजनबी-सा पाने लगा। यह कुछ वैसा ही था जैसे इतिहास की कुल्हाड़ी ने मुझे अपनी जमीन से उखाड़ कर अलग फेंक दिया हो और कहा हो यह तुम्हारा वर्तमान है और यह तुम्हारा अतीत था। हमारी संस्कृति में पश्चिम का हस्तक्षेप इतिहास का हस्तक्षेप था जिसके परिणामस्वरूप एक भारतीय के भीतर एक अजीब उन्मूलन बोध और वीरानी की व्यथा उत्पन्न हुई, किंतु वीरानी का यह भाव एलियट की उस वेस्टलेंड भावना से बहुत अलग है जो उन्होंने अपनी सभ्यता के खंडहरों (ruins of civilization) के सामने महसूस किया था, क्योंकि इतिहास ने मेरी सभ्यता को उतना जर्जरित नहीं किया जितना स्वयं मुझे अपने भीतर से नष्ट किया। एक भारतवासी होने के नाते मैं अपनी संस्कृति को बाहर से नहीं देख सकता, इसलिए विदेशी सभ्यता के आक्रमण से जो विनाश हुआ वह कहीं बाहर नहीं, मेरे भीतर था। अपने भीतर ही मैंने अपनी उस संलग्नता के सर्वव्यापी बोध को खो दिया है जो आज तक मुझे अपने समय, अपने परिवेश और अपनी संस्कृति से जोड़े था।

संलग्नता की इस अवधारणा से मेरा क्या मतलब है जिसके नष्ट हो जाने से हम पिछले दो सौ वर्षों से स्वयं अपनी संस्कृति के बीच अपाहिज और अनाथ महसूस करने लगे? पहले तो मुझे यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि हमारे भीतर संस्कृति की वैसी धारणा कभी नहीं रही जैसे वह यूरोप में पिछले पाँच सौ वर्षों से विकसित हुई है। हमारे लिए संस्कृति का अभिप्राय यह नहीं कि हम किस हद तक अपने विश्वासों, अनुष्ठानों और प्रतीकों के प्रति सजग रूप से सचेत हैं। संस्कृति हमारे लिए न तो म्यूजिश्यम में संग्रह करने की चीज रही और न ही हमने उसका एक खिड़की की तरह इस्तेमाल किया, जिसके जरिए हम बाहरी दुनिया से अपना रिश्ता जोड़ते हैं। भारतीय दृष्टि में खिड़की से दुनिया दिखाई नहीं जाती, स्वयं खिड़की ही दुनिया है। उसी प्रकार जैसे - ईश्वर का सत्य कहीं ऊपर और बाहर न हो कर हमारी देह और आत्मा के भीतर ही सन्निहित है। दोनों पवित्र हैं इसलिए दोनों के भीतर ही परम सत्य विद्यमान है। यह विचार एक ऐसी ईसाई-यहूदी अवधारणा से कितना अलग और दूर है, जिसमें दुनिया को केवल आँसुओं का पर्दा माना गया है, जिसके पीछे कहीं असली सत्य छिपा है। देह को तो एक कंटक माना ही गया है जो आत्मा से साक्षात्कार करने के लिए हमेशा बीच में बाधा बन कर खड़ी रहती है।

भारतीय परंपरा में आत्मा और शरीर का यह अंतर उतना ही कृतिम है, जितना बाहर और भीतर का अंतर्विरोध। हमारे पुरखों ने शताब्दियों पहले खिड़की से जो कुछ भी बाहर देखा था - पेड़ों, नदियों, पशुओं और मनुष्यों का एक विराट शाश्वत लैंडस्केप, वही लैंडस्केप मैं भी देखता हूँ और पाता हूँ कि मैं इस परिदृश्य का महज दर्शक नहीं हूँ बल्कि उनके बीच हूँ, उनका ही एक अभिन्न अंग हूँ। दो शब्दों में कहें तो यह वह संलग्नता का भाव था जो मुझे सहज रूप से काल और विश्व के साथ जोड़े था। यह महत्वपूर्ण बात है कि बाहरी परिदृश्य के विभिन्न तत्वों के बीच यह अंदरूनी संबंध इतना ही महत्वपूर्ण है जितना द्रष्टा और दृश्य के बीच एकात्म होने की भावना। वह व्यक्ति जो देखता है और वह चीज जो दिखाई जाती है उनका आपसी संबंध उस यूरोपीय संस्कृति की धारणा से कहीं अधिक सहज स्फूर्तिदायक और आत्मीय होता है जिसमें द्रष्टा और दृश्य, मनुष्य और लैंडस्केप, पुरुष और प्रकृति को अलग-अलग खंडों में विभाजित करके देखा जाता है। शायद यही कारण है कि एक भारतीय को रिल्के की वह पीड़ा नहीं सताती जहाँ उनका कवि अपने को दुनिया से बाहर पाता है और उसे बाहरी जगत को 'इंटरप्रेट' करने की कोशिश करनी पड़ती है, क्योंकि भारतीय संस्कृति में चीजों से वही मतलब है जैसी वे दिखाई देती हैं। उनके बीच अहम या ईगो की छाया नहीं पड़ती - एक ऐसा अहम जो एक तरफ मनुष्य को उसकी संपूर्णता से स्खलित करता है, दूसरी तरफ उसे प्रकृति से अलग करता है। यही कारण है कि भारत में दृष्टि की समग्रता को तर्कबुद्धि द्वारा हासिल करने का दुस्साहस कभी नहीं किया गया बल्कि चीजों के अंतर्संबंधों के बीच ही उसे खोया गया। दृष्टि मुक्ति का साधन ही नहीं, उसका स्रोत भी थी।

पिछले दो सौ वर्षों में जीवन के प्रति सहजता और समग्रता का यह भाव धीरे-धीरे नष्ट होता गया है उस पर इतिहास ने अपने नियम-कानून - जिन्हें डी.एच. लॉरेंस ने स्थायी नियमों की अराजकता (anarchy of fixed laws) माना था, आरोपित होते गए हैं। हर संस्कृति की अपनी लय होती है जो प्रकृति के अनुकूल चलती है, किंतु जब कोई औपनिवेशिक शक्ति प्रगति और इतिहास के नाम पर इस लय को भंग करती है तो उस संस्कृति से जुड़े हुए लोगों का जीवन क्षेत्र अचानक विश्रृंखलित हो जाता है। एक तरफ हमारे पास अपने सांस्कृतिक अतीत के टुकड़ों की पोटली जमा हो जाती है, दूसरी तरफ हमारे भीतर जीवन के प्रति समग्रता का एक आध्यात्मिक भाव बाकी रह जाता है लेकिन इन दोनों को जोड़नेवाली कड़ी टूट गई है, जिसके कारण हम बीच अधार में झूलते रहते हैं। हमारी आत्मा में एक गहरी दरार खिंच जाती है जिसने आज भारतीय यथार्थ को दो पहलुओं में खंडित कर दिया है। जीवन का व्यवहार जिसका समग्रता से कोई संबंध नहीं और आध्यात्मिक समग्रता का भाव जिसका हमारे दैनिक कार्यकलाप से कोई लेना-देना नहीं। आज एक आधुनिक भारतीय की चेतना न केवल भारतीय जीवन के बीच खिंची इस दरार को प्रतिबिंबित करती है, बल्कि स्वतंत्रता के बाद जो सबसे अधिक भयानक बात हुई है वह यह कि हमारी शासन सत्ता ने विभाजन के इन टुकड़ों को ऐतिहासिक रूप से अनिवार्य मान लिया है। उसे एक तरह की ऐतिहासिक वैधता (historical legitimacy) प्राप्त हो गई है, जो हमारे समूचे सार्वजनिक जीवन के विभिन्न पहलुओं को कलुषित और विकृत करती है।

ठीक इस बिंदु पर वह पीड़ा और विडंबना उत्पन्न होती है जो एक भारतीय होने के नाते मैं अपने देश और संस्कृति के प्रति महसूस करता हूँ। क्या है यह विडंबना और कैसी है यह पीड़ा? मेरे व्यक्तित्व का जो सबसे मूल्यवान और महत्वपूर्ण अंश है, उसी से मैं अपने को विच्छिन्न पाता हूँ। जबकि दूसरी तरफ मुझे एक ऐसी राष्ट्रीय और भौगोलिक अस्मिता के साथ प्रतिबद्ध होना पड़ता है जिससे मेरा कोई आध्यात्मिक और सांस्कृतिक लगाव नहीं है। आखिर राज्य व्यवस्था के ढाँचे, संसद, राष्ट्रीय धवज के प्रति मेरा लगाव सिर्फ बहुत सतही और ऊपरी ही हो सकता है, क्योंकि व्यवस्था के इन प्रतीकों ने न मुझे सुरक्षा प्रदान की है और न ही मुझे यह अवसर दिया है कि मैं अपने मानस को उनके ऐतिहासिक महत्व से जोड़ सकूँ। जिस खाई और दरार की चर्चा मैंने ऊपर की है वह न केवल हमारे दर्शन और व्यवहार के बीच खिंची है, बल्कि हमारे राजनीतिक कर्म और सांस्कृतिक प्रभाव के बीच भी दिखाई देती है। मुझे राज्य के जिन प्रतीकों के प्रति प्रतिबद्ध होने के लिए बाध्य किया जाता है उनके लिए मेरे दिल में कोई श्रद्धा नहीं। जिन प्रतीकों के लिए मेरे हृदय में सचमुच आस्था और निष्ठा है उनका हमारे व्यावहारिक और राजनैतिक जीवन में कोई स्थान नहीं है। समय के बीतने के साथ-साथ यह खाई और भी चौड़ी होती जाती है और मेरी यह आशंका दृढ़ होती जाती है कि यदि प्रगति की रौ यथावत चलती रही तो एक दिन हमारी परंपरा की विशिष्ट अंतर्दृष्टि एक ऐसी वैज्ञानिक सभ्यता के नीचे कुचल दी जाएगी जिसे आज हम आधुनिक युग की वास्तविकता मानते हैं।

मैं अपनी मानसिक बिखराव की इस स्थिति को निर्वासीपन (एलियेनेशन) जैसे फैशनेबिल शब्दों द्वारा भी विश्लेषित नहीं कर सकता, क्योंकि सच्चाई यह है कि मेरा आत्मनिर्वासीपन वैसा नहीं है जैसा आज पश्चिम के आधुनिक समाज में रहनेवाला व्यक्ति महसूस करता है। समूचे बिखराव और अंतर्विरोधों के बावजूद मैं कभी अपने को निपट आत्मशून्य नहीं पाता। मैं अभी उस विकट स्थिति में नहीं पहुँचा हूँ जहाँ मनुष्य अपने आत्मन अपने सेल्फ को ही खो देता है जिसकी चर्चा हमें पश्चिम के अनेक आधुनिक उपन्यासों में मिलती है। एक भारतीय होने के नाते मेरी चेतना इतनी अहम्ग्रस्त और वैयक्तिक नहीं है, जिसने आज यूरोपीय-व्यक्ति को इतना अकेला छोड़ दिया है। हेगल का कहना था कि एक यूरोपवासी की अस्मिता उसकी आत्मचेतना में वास करती है और यह आत्मचेतना हमेशा दूसरों के विरुद्ध हो कर ही अपने को प्रतिष्ठित कर सकती है। किंतु जिस आत्मचेतना के द्वारा एक भारतीय बाहरी दुनिया से अपना रिश्ता जोड़ता है उसकी अभिव्यक्ति कभी ऐसे अहम में नहीं होती जो दूसरे व्यक्तियों के अहम के विरुद्ध संघर्ष करने में ही अपना अर्थ पाता हो। इसके बिलकुल विपरीत भारतीय चेतना दूसरों के विरुद्ध नहीं, दूसरों के साथ ऐसे अनुष्ठानों, मिथकों, प्रतीकों और विश्वासों के माध्यम से जुड़ी है जिसे वह समाज के अन्य लोगों के साथ एक स्मृति के द्वारा साझा करता है। समाज के लोगों की यह सामान्य स्मृति हर व्यक्ति के आत्मन और (सेल्फ) की सीमाओं को बढ़ा देती है। इसलिए एक यूरोपियन का अहम एक भारतीय के सेल्फ से बहुत अलग है, उसमें दूसरे के प्रति विरोध नहीं बल्कि दूसरे ही उसके अस्तित्व उसके 'मैं' में शामिल हैं।

किंतु यदि यह सत्य है तो मुझे अपनी संस्कृति के प्रति पूरा लगाव क्यों नहीं हो पाता? इस लगाव के रास्ते में वह पीड़ा और विडंबना क्यों पैदा होती है जिसका जिक्र मैंने ऊपर किया है? क्यों आज मैं अपने भीतर एक अपराध भावना महसूस करता हूँ? क्यों मुझे ऐसा लगता है कि मैं अपनी संस्कृति से जुड़ा भी हूँ और उससे बहुत दूर छिटक भी गया हूँ? शायद इस प्रश्न का उत्तर एक आधुनिक भारतीय की मनीषा में होनेवाले संकट को ठीक-ठीक रेखांकित कर सकेगा। जब मैं इस प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ता हूँ तो एक बात मुझे बहुत उल्लेखनीय जान पड़ती है और वह यह कि आज की दुनिया में भारतीय समाज ही एक अकेला समाज है जिसकी परंपरा के समस्त तत्व आज भी मौजूद हैं, लोगों को उपलब्ध हैं और न केवल उपलब्ध हैं, बल्कि जीवन से ले कर मृत्यु तक किसी-न-किसी रूप में हर भारतीय अपने दैनिक व्यवहार में इन तत्वों द्वारा अनुप्राणित होता है। वे सब धागे जिनसे परंपरागत तत्वों का जाला बनता है और जो मुझे भारतीय यथार्थ से जोड़ते हैं आज भी विद्यमान हैं, किंतु इन धागों से मेरे अपने जीवन का कोई समूचा अर्थ नहीं जुड़ पाता। वे अपने स्वायत्त अलगाव में जीते हैं और मैं अपने अकेलेपन में। यह अवश्य है कि कभी-कभी ऐसे दुर्लभ क्षण आते हैं कि मैं अपने को परंपरा में चरितार्थ कर लेता हूँ और परंपरा मेरे भीतर जीवित हो उठती है, किंतु इस पारस्परिक अंतर्गुंफन के क्षण आज के आधुनिक जीवन में केवल यदाकदा ही मिल पाते हैं और जब मिलते भी हैं तो भी वे मुझे सच्चे और वास्तविक नहीं जान पड़ते। मुझे यह केवल एक संयोग ही जान पड़ता है। इस लगाव और अलगाव के पीछे कोई तर्कव्यवस्था नहीं है। मैं परंपरा के इस तंतुजाल में जाता हूँ और फिर बाहर आ जाता हूँ, किंतु उससे कोई स्थायी और शाश्वत रिश्ता नहीं जोड़ पाता। मुझे एक यूरोपीय का यह सौभाग्य भी प्राप्त नहीं जो अपने अतीत, अपने इतिहास, अपने चर्च के साथ नाता जोड़ने का सजग प्रयत्न करता है। सजगता तभी उत्पन्न होती है जब मनुष्य का अपने अतीत और परंपरा से संपूर्ण रूप से अलगाव हो गया हो। एक भारतीय की परंपरा कहीं बाहर नहीं, उसके भीतर रहती है, इसलिए सजग रूप से उससे अपने को जोड़ने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। किंतु दूसरी तरफ अपने परिवेश से सहज लगाव जो एक भारतीय स्वाभाविक रूप से महसूस करता था - अपनी प्रकृति से लगाव, अपने परिवेश से सहज, पारंपरिक संबंध - आज वह बहुत कुछ विश्रृंखलित हो चुका है।

पिछले वर्षों में हमारे देश में अंधाधुंध औद्योगिक प्रगति के नाम पर जो तहस-नहस हुई है उसने एक भारतीय के भीतर इस विश्रृंखलित भावना को और भी अधिक भयानक बना दिया है। आज जिस औद्योगिक वर्ग के हाथ में राज्य सत्ता है उसे इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं कि प्रगति की दौड़ में परंपरागत जीवन के मूल्य कितने नष्ट हो जाते हैं, कितने बचे रहते हैं। आधुनिक भारतीय की मानसिक पीड़ा का यह मूल कारण है कि, जबकि परंपरागत जीवन के सब रीति-रिवाज, अनुष्ठान और मिथक मौजूद हैं फिर भी आज के औद्योगिक परिवेश में हम उनके साथ एक जीवंत और जीवनदायी संबंध स्थापित नहीं कर पाते और जितना कुछ संबंध बचा भी रह गया है वह उत्तरोत्तर अत्यधिक धुँधला, विकृत और नष्ट होता जा रहा है। शायद हम एक अंग्रेज या अमेरिकी या रूसी की अपेक्षा ज्यादा कुछ देख सकते हैं, लेकिन यह ज्यादा देख पाना हमें उतना अर्थ नहीं देता, जितना अर्थ कम देखने के बावजूद एक पश्चिमी सभ्यता के नागरिक को मिलता है, जो अपनी सीमित दृष्टि के बावजूद जो कुछ भी देखता है उससे भी कहीं ज्यादा अर्थ खोज लाने में समर्थ है। हम जब कभी अधिक अर्थ पाने में समर्थ भी हो पाते हैं तो वह भी हमें एक महँगे दाम पर ही मिलता है, क्योंकि हमें उसे प्राप्त करने के लिए यथार्थ के अनेक पहलुओं को अनदेखा कर देना पड़ता है, जिनके साथ हम अपना कोई संबंध नहीं बैठा सकते। यह एक सारी प्रक्रिया एक स्वप्न-सरीखी अवस्था में चलती है, जहाँ न पूरा अँधेरा है न पूरी रोशनी, बल्कि इतिहास की एक ऐसी धुँधली कुहेलिका है, जिसमें न पूरा सत्य दिखाई देता है, न पूरा झूठ। लगता है जैसे हम परंपरा और आधुनिकता के हाशिए पर जी रहे हैं। न एक में हमारा घर है, न दूसरे में हमारी सुरक्षा।

भारतीय संस्कृति का धर्म हमेशा से मनुष्य और सृष्टि के अखंडित संबंध - सार्वभौमिक संपूर्णता के आदर्श पर आधारित रहा है। पिछले दो सौ वर्षों में एक भारतीय जिस अनुपात में आधुनिक होता गया है, उसी अनुपात में संपूर्णता का यह संस्कार हमारे जीवन में धुँधला और मलिन पड़ता गया है। हम एक अजीब आत्मकुंठा और अपराधभाव से ग्रस्त हो गए हैं क्योंकि एक तरफ हम ऐसी संस्कृति के प्रतिनिधि होने का दावा करते हैं, जो जीवन में संपूर्णता का स्वप्न पालती है, दूसरी तरफ हम आधुनिक युग की मान्यताओं से भी एकीकृत होना चाहते हैं, जो संपूर्णता के इस आदर्श को दिन-पर-दिन अधिक खोखला बनाती जाती है। हम जिस आदर्श में विश्वास करते हैं, उसे अपने जीवन और कर्म में क्रियान्वित करने का साहस नहीं जोड़ पाते और जिन आधुनिक मर्यादाओं को सैद्धांतिक रूप से अस्वीकार करते हैं, उसे अपने व्यवहार और कर्म में ढालते जाते हैं। कथनी और करनी के इस भेद के कारण ही यह अपराध भावना, यह पाप-बोध उत्पन्न होता है, जिसने न केवल हमारे राष्ट्रीय जीवन के जीवनदायी स्रोतों को सुखा दिया है, बल्कि हमारी चेतना की गहनतम परतों में अपना घर बना दिया है।

अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए मैं आपको एक उदाहरण देना चाहूँगा; मैं पिछले दो वर्षों से भोपाल में रहा हूँ जहाँ भारत भवन जैसी प्रतिष्ठित इमारत का निर्माण हुआ है। भारत भवन के कला-संग्रहालय के दो कक्ष है, एक में मध्यप्रदेश के आदिवासियों के चित्रों, मूर्तियों और कला-वस्तुओं को प्रदर्शित किया गया है, दूसरे कक्ष में आधुनिक भारतीय कलाकारों की कृतियों को देखा जा सकता है। एक कक्ष से दूसरे कक्ष में जाते हुए हमें एक अद्भुत और अभूतपूर्व अनुभव से गुजरना पड़ता है। आदिवासी कलाकृतियों में अखंडित संपूर्णता का भाव अंकित है - पेड़, आकाश, पशु और आदमी एक-दूसरे से सहज, शांत और संतुलित भाव में अंतर्गुंफित हैं; यह भाव उस संपूर्णता का स्वप्न है, जिसे मैं अपने भीतर ले कर जीता हूँ किंतु जिसका मेरी समकालीन, तथाकथित आधुनिक चेतना से दूर का रिश्ता नहीं बैठता। किंतु कुछ कदम दूर गलियारा पार करते ही जब मैं आधुनिक कला की वीथिका में जाता हूँ तो एक नितांत भिन्न प्रकाश का अनुभव होता है; आधुनिक कलाकारों की कृतियों के समक्ष मुझे खंडित अनुभवों की एक ज्वलंत और ज्वरग्रस्त आभा मिलती है - अपने में एक अनूठा सत्य वहन करती हुई - जो मेरे विश्रृंखलित और उन्मूलित यथार्थ के बहुत निकट है, किंतु जिनका मेरे उस संपूर्णता के स्वप्न से कोई संबंध नहीं, जो मैंने आदिवासी कलाकृतियों के सम्मुख महसूस किया था। क्या कारण है कि मैं न पहली अनुभव-धारा से एकीकृत हो पाता हूँ, न दूसरी से? मुझे लगता है जैसे मेरी चेतना के बीचों-बीच एक फाँक खिंच गई है, एक तरफ आधुनिक अनुभव है, जो मेरे वास्तविक यथार्थ को प्रतिध्वनित करता है - दूसरी तरफ अखंडित संपूर्णता का अनुभव है, जिसमें मेर संस्कृति का स्वप्न छिपा है - और बीच में कोई ऐसा धागा नहीं है जो मेरे वस्तु-अनुभव को मेरे स्वप्न-अनुभव से जोड़ सके - हालाँकि दोनों ही मेरी समकालीन चेतना के सच्चे और प्रामाणिक पहलू हैं।

यह खाई जो मेरी व्यक्तिगत चेतना में है, वही मेरे सामाजिक जीवन को भी बीचों-बीच विभाजित करती है। एक तरफ आधुनिक समाज व्यवस्था है, विज्ञान और राजनीति के सिद्धांतों द्वारा अनुशासित; और दूसरी तरफ है, मेरी संस्कृति की संपदा, जिसमें पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आई लोगों की स्मृति, संस्कार, धर्म मर्यादा छिपी है - किंतु दोनों को जोड़नेवाला एक संपूर्ण अनुभव का यथार्थ अनुपस्थित है। यही कारण है कि मेरे व्यक्तित्व के खंडित हिस्से यथार्थ के खंडित अनुभवों में जीते हैं, एक संपूर्ण और सार्थक जीवन -मर्यादा से एकीकृत नहीं हो पाते। आदिवासी जगत की दृष्टि और आधुनिक जीवन का यथार्थ - दोनों का ही मेरे अनुभव-जगत में सह-अस्तित्व है, किंतु वे मेरी चेतना के दो सीमांत छोरों पर रहते हैं और कोई ऐसा सेतु नहीं, जो यथार्थ के अंश को संपूर्णता के यथार्थ से जोड़ सके, जो एक स्वप्न की तरह मेरे भीतर जीवित है। इस सेतु के अभाव के कारण ही वह अपराध-भावना उत्पन्न होती है जिसका जिक्र मैंने ऊपर किया था। हड़बड़ी और बदहवासी में हम आधुनिक से इतना अधिक आधुनिक हो जाना चाहते हैं, जहाँ हम संपूर्णता के अपने सांस्कृतिक अनुभव को भुला सकें या आधुनिकता से संत्रस्त हो कर हम भयभीत बच्चों की तरह अपनी परंपरा के ऑंचल में मुँह छिपा लेना चाहते हैं जहाँ हम आधुनिक अनुभव के पीड़ादायक तनावों और अंतर्द्वंद्वों से छुटकारा पा सकें। दोनों ही रास्ते हमारी आत्मछलना और अपराध-भावना को और अधिक गहरा बनाते हैं, उनसे मुक्ति नहीं दिलवाते।

यह एक समस्या है, जिसका सामना हमें बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में करना होगा। मैं इस समस्या को सीधे-सादे शब्दों में प्रस्तुत करना चाहूँगा; वर्तमान की सांस्कृतिक उलझनों और विडंबनाओं से बचने की खातिर क्या भारत आधुनिक वस्तुस्थिति (जिसे मैं रियलिटी प्रिंसिपल (Reality Principle) मानता हूँ) के आगे घुटने टेक देगा, जिसके एवज में उसे आधुनिक राज्यतंत्र और औद्योगिक सभ्यता के वे सब उपादान प्राप्त हो जाएँगे जो आज किसी भी छोटे-से-छोटे यूरोपीय देश को प्राप्त हैं - एक केंद्रीकृत नौकरशाही शासन व्यवस्था, औद्योगिक विकास, जंत्र-यंत्र, सैनिक मशीन की राक्षसी काया, जिसे मांस-मज्जित करने के लिए लाखों का खर्च होता है? वस्तुस्थिति का यह सिद्धांत हमें पश्चिमी पैटर्न में रंगे-पुते एक अत्याधुनिक सभ्य राज्य की स्थापना की ओर ले जाता है, जिसके बीज स्वतंत्रता के बाद बोए गए थे और जिसके विष वृक्ष आज चारों तरफ खड़े दिखाई देते हैं।

वास्तविक यथार्थ का भी अपना स्वप्न होता है - अंतहीन प्रगति का स्वप्न - जिसमें आज देश के लगभग सभी बुद्धिजीवी और तकनीकी विशेषज्ञ, उदारवादी राजनेता और मार्क्सवादी क्रांतिकारी चरितार्थ करने में जुटे हैं, क्योंकि इन्हीं लोगों की शिक्षा-दीक्षा ने आधुनिक भारतीय चेतना को परिभाषित किया है। मुझे डर है कि विकासवाद की यह अंधी पूजा हमेशा के लिए उस बची-खुची संभावना को नष्ट कर देगी, जिसके द्वारा आज हम अपनी जर्जर संस्कृति के धागों को समेट कर एक मानवीय और मौलिक विकल्प प्रस्तुत कर सकते हैं, जो हमारी संस्कृति की आदिम और मूल मर्यादाओं में पहले से ही मौजूद है। एक परंपरागत संस्कृति की अंतर्दृष्टि सबसे अधिक मूल्यवान निधि होती है। एक बार नष्ट हो जाने पर उसे कभी पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता। यह हमारा सौभाग्य है कि इतिहास की अनेक विपदाओं और विसंगतियों के बावजूद भारतीय संस्कृति के वे उपादान और प्रतीक मूल्य और मर्यादाएँ कायम हैं, जिनकी ओट में एक विशिष्ट जीवन-पद्धति की लौ जलती रहती है। हमारे अपने पापों और अपराधों ने इस लौ को बहुत मलिन और मद्धिम कर दिया है, किंतु वह दूसरे देशों की तरह कभी इतनी मद्धिम नहीं हुई, जहाँ सभ्यता के नाम पर हीरोशिमा को विध्वंस किया गया हो और समाजवाद के नाम पर लेबरकैंपों में लाखों आदमियों की आहुति चढ़ाई गई हो। भारतीय संस्कृति में आज भी-समस्त विकृतियों के बावजूद वे तत्व मौजूद हैं, जिनके रहते मनुष्य को कभी इतनी स्पर्धा और अहंकेंद्रित अभिमान नहीं हुआ कि प्रगति की लालसा में वह उस सृष्टि का ही संहार कर दे, जिसमें मनुष्य ने न केवल दूसरे प्राणियों से, बल्कि अपने भौगोलिक परिवेश से नाता जोड़ा है। दरअसल इस नाते में ही मनुष्य ने अपने को पहचाना है; संस्कृति का जन्म ही 'मैं और अन्य' की इस रहस्यमय पवित्र और उत्सुक पहचान के बीच हुआ है। जब मनुष्य अपने अहम की खातिर अन्य को नष्ट कर देता है, तो उसका 'मैं' भी सर्वथा अर्थहीन, मूल्यहीन, गौरवहीन हो जाता है।

किंतु इससे बड़ी आत्मछलना कोई नहीं होगी यदि हम भारतीय संस्कृति के इन तत्वों को शाश्वत मान कर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें; यदि यह हमारा सौभाग्य है, कि ये तत्व आज भी विद्यमान हैं, तो यह हमारा सबसे बड़ा दुर्भाग्य होगा यदि हम प्रगति और इतिहास की आँधी में इन्हें हाथ से छूट जाने दें, बिखर जाने दें। संस्कृति के जीवंत तत्व उस नाजुक कड़ी में बसे होते हैं जो मनुष्य की आत्मा को उसके बाहरी परिवेश से जोड़ती है; यह वह संबंध है, जो हमें अपने अलग-अलग अनाथ अहमों से उठा कर समग्रता की पवित्र और सार्वभौमिक भावना से साक्षात कराता है। इस एक कड़ी में न जाने कितनी छोटी-छोटी श्रृंखलाएँ बँधी हैं - हमारे कार्यक्रम, हमारे अनुष्ठानों मिथकों और विश्वासों की श्रृंखलाएँ - जो जन्म से मृत्यु तक हमें धरती पर अपने होने का अहसास दिलाती हैं। जहाँ कहीं भी कोई श्रृंखला टूटती है हम वहीं थोड़ा-सा अर्थहीन, थोड़ा-सा अकेला हो जाते हैं। हिमालय के वनवासियों के विश्वास और मिथक पेड़ के साथ जुड़े होते हैं, क्या ये विश्वास और मिथक जीवित रह जाएँगे, यदि हम जंगल-के-जंगल नष्ट कर दें? क्या हम एक किसान का समूचा मिथक-संसार, उसकी अंतरात्मा में बसा धार्मिक प्रतीकों का पवित्र लोक और आलोक - जो उसने शताब्दियों से अपनी धरती के लगाव से अर्जित किया है -नष्ट नहीं कर देते जब उसे उसकी भूमि से उन्मूलित करके उसे महज एक खेतिहर मजदूर में बदल देते हैं? यदि औद्योगिकीकरण की ऐतिहासिक प्रक्रिया इस किसान को बंबई के मिल-कारखाने में रोटी जुटाने के लिए मजबूर करती है, तो वह महानगर की अँधेरी, दुर्गंधमयी चालों में अपना पैतृक, परंपरागत जीवनलोक सुरक्षित रख सकेगा? जब एक नदी सूख जाती है, एक गाँव उजड़ जाता है, एक जंगल नष्ट हो जाता है, तो ये महज आर्थिक और पर्यावरण की (Ecological) दुर्घटनाएँ नहीं हैं; वे मनुष्य की संस्कृति पर घातक और मर्मभेदी घाव छोड़ जाती हैं क्योंकि उनसे पवित्रता का परिवेश नष्ट हो जाता है जिसके भीतर ही एक संस्कृति अपने अर्थों को संयोजित करती है, अपनी अंतर्दृष्टियों को एक पैटर्न, एक दर्शन में बाँधती है जिनके आधार पर ही मनुष्य अपनी आत्मा का संबंध बाहर की सृष्टि से जोड़ पाता है। जिस क्षण इस संबंध को ठोस पहुँचती है, उसी क्षण एक दुनिया, एक दृष्टि नष्ट हो जाती है। सुविख्यात नृतत्वशास्त्री लेवीस्ट्रॉस ने एक बार अपने इंटरव्यू में कहा था कि यदि संयोग से रेंब्राँ का कोई चित्र नष्ट हो जाता है, तो वह चाहे कितना बड़ा दुर्भाग्य क्यों न हो, हम आशा कर सकते हैं कि हजारों वर्ष बाद कभी कोई रेंब्राँ की तरह चित्र बना सकेगा, किंतु जब हम किसी कबीले, किसी ट्राइब या किसी पौधो की नस्ल को नष्ट कर देते हैं, तो वे दुनिया से हमेशा के लिए लोप हो जाएँगे और हम उन्हें फिर कभी अपने अनूठे, विशिष्ट स्वरूप में नहीं प्राप्त कर सकेंगे।

यह वह बिंदु है जहाँ भारतीय संस्कृति के जीवित रहने की संभावनाएँ पश्चिमी सभ्यता की भावी नियति से जुड़ जाती हैं। यदि भारतीय समाज की मुख्य समस्या यह है कि आनेवाले समय में भारतीय संस्कृति में सन्निहित जीवन की समग्रता का मेटाफिजिकल दृष्टिकोण कहाँ तक हमारे व्यक्तिगत आचार-व्यवहार और हमारी सामाजिक व्यवस्था में अनूदित हो पाता है, पश्चिमी सभ्यता की समस्या इससे बिलकुल उल्टी है; क्या पश्चिमी समाज में एक ऐसी जीवन-पद्धति का विकास हो सकेगा, जिसमें समकालीन जीवन के खंडित और परस्पर-विरोधी अनुभव जीवन के प्रति संपूर्ण और समग्र दर्शन में समन्वित हो सकेंगे ताकि समूचे यथार्थ को एक विराट और अखंडित अस्मिता में देखा और परखा जा सके। आज तक पश्चिम में हर समस्या का हल समूची मानवीय स्थिति से अलग करके ढूँढ़ा जाता है, यदि एक बीमारी का उपचार मिल जाता है, तो उससे जुड़ी सैकड़ों दूसरी बीमारियाँ अपना सिर उठा लेती हैं। उदाहरण के तौर पर पिछले वर्षों में पश्चिमी जर्मनी में एक स्वस्थ आंदोलन शुरू हुआ जिसे हरित-आंदोलन (Green Movement) कहा जाता है; इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य यह है कि औद्योगीकरण की बढ़ती हुई आग से प्रकृति को बचाया जा सके किंतु जिस समाज में सशस्त्रीकरण इतनी तेजी से हो रहा है कि लाखों-करोड़ों डॉलर अणुबमों और आणविक शस्त्रों के निर्माण पर खर्च किया जाता है, वहाँ प्रकृति को प्रदूषण से बचाने का प्रयत्न क्या महज एक मीठा और अवास्तविक स्वप्न नहीं है? उसी तरह इंग्लैंड या सोवियत संघ में अणु बम-विरोधी आंदोलन क्या कभी सफल हो सकेंगे, जब तक पश्चिमी मनुष्य की मनीषा में प्रकृति के विरुद्ध हिंसा और आक्रामकता की भावना कायम रहती है? दूसरे शब्दों में जब तक पश्चिमी संस्कृति के केंद्र में अहिंसा और समूची सृष्टि की पवित्रता जैसे मूल्य प्रतिष्ठित नहीं होते तब तक कोई भी आंदोलन - चाहे वह प्रकृति को प्रदूषण से या मनुष्य को अणु बम से बचाने के लिए हो - यूरोप के जनमानस को एक नैतिक चुनौती नहीं दे सकेगा, जो उन्हें अपनी सभ्यता के मानवीय-मूल्यों को जीवंत रखने के लिए उत्प्रेरित कर सके। इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि एक तरफ हम प्रकृति के विरुद्ध हिंसा बरतते जाएँ, दूसरी तरफ यह आशा रखें कि मानवता को अपने विरुद्ध हिंसा करने से रोका जा सकता है?

यह प्रश्न मुझे उस केंद्रीय समस्या की ओर ले जाता है जिसका सामना भारतीय-संस्कृति और पश्चिमी सभ्यता दोनों को देर-सबेर नहीं, बल्कि एक अपरिहार्य तात्कालिकता से करना होगा, केवल अपने मूल्यों को सुरक्षित रखने के लिए नहीं, बल्कि इस धरती पर अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए भी। हम में से बहुतों को याद होगा कि 1960 के आसपास यूरोप और अमेरिका के युवा-वर्ग ने भारी संख्या में पश्चिमी राज्य-व्यवस्था की अनैतिक मर्यादाओं और पूर्वी यूरोप के तानाशाही राज्य-तंत्रों के विरुद्ध गहरा असंतोष और विरोध प्रगट किया था। किंतु बीस वर्ष बाद आज स्थिति इतनी विकट हो गई है कि प्रश्न सिर्फ एक या दूसरे किस्म की सामाजिक व्यवस्था की आलोचना करने का नहीं रहा, किंतु उससे भी अधिक बुनियादी प्रश्न यह है कि क्या दोनों ही मॉडल-पश्चिम का लोकतंत्र और सोवियत अधिनायकवाद - एक ऐसी आधुनिक सभ्यता के दो पहलू नहीं हैं - जो इस धरती पर मानव-जाति के मात्र अस्तित्व के लिए खतरा बन गए हैं? जब कोई सभ्यता जीवन का समग्रबोध खो देती है, जिसे मैंने संपूर्णत्व की भारतीय अवधारणा माना है, तो कोई ऐसी गारंटी, ऐसा नैतिक अवरोध नहीं रहता जो मानवजाति को सामूहिक आत्महत्या करने से रोक सके। यह वह महत्वपूर्ण बिंदु है जहाँ भारतीय संस्कृति का स्वप्न पश्चिमी सभ्यता के अस्तित्व से जुड़ जाता है। किंतु मुझे गलत न समझा जाए। मैं कोई पश्चिमी और पूर्व के बीच समन्वय का स्वप्न नहीं देख रहा - क्योंकि समन्वय के ऐसे सब प्रयास निष्फल होते हैं, उन्नीसवीं शती के बंगाल रेनेसैंस के बुद्धिजीवियों ने समन्वय के जो प्रयास किए थे, उसके घातक परिणाम हमारे सामने हैं। आज का सत्ताधारी एलीट वर्ग उसी घोल का परिणाम है, जिसने आज हमारी संस्कृति को एक तरफ इतना आत्मसम्मोहित दूसरी तरफ इतना अपराधग्रस्त बना कर छोड़ दिया है।

इस बीच एक परिवर्तन जरूर हुआ है; पश्चिम के प्रति जो सम्मोहन उन्नीसवीं शती के अंतिम दशकों में आरंभ हुआ था, अब वही सम्मोहन पश्चिम की युवा पीढ़ी में भारत के प्रति दिखाई देता है। पिछले वर्षों में पश्चिमी सभ्यता की मान्यताओं से जो व्यापक मोहभंग हुआ, उसके कारण युवा पीढ़ी के लेखक और विचारक ही नहीं बल्कि सामान्य लोग भारत के प्रति आकर्षित हुए। अपनी सभ्यता की भौतिकवादी मान्यताओं से विक्षुब्ध हो कर उन्होंने भारतीय दर्शन और अध्यात्मवाद में शरण खोजनी चाही। किंतु यह मरीचिका के पीछे भागना था। अपनी सभ्यता से घबरा कर वे एक ऐसी संस्कृति में अपने जीवन का सत्य पाने का प्रयत्न कर रहे थे जो स्वयं अपने अतीत और अपने परिवेश से उन्मूलित हो रही है जैसे आज भारतीय संस्कृति की हालत है। मैं यहाँ उन महर्षियों, भगवानों, साईंबाबाओं, बालयोगियों की चर्चा नहीं कर रहा जो पश्चिम की पीड़ा को अपने धार्मिक नुस्खों में भुनाते हैं। वास्तव में पश्चिमी सभ्यता की विक्षुब्ध पीढ़ी और तथाकथित भारतीय अध्यात्म के मसीहाओं के बीच आज जो समन्वय दिखाई देता है, वह दरअसल आत्मछलना का उत्कृष्ट उदाहरण है; वह न तो पश्चिमी सभ्यता के संकट को सही-सही प्रतिबिंबित करता है, न ही भारतीय समाज की उस आध्यात्मिक शून्यता को अभिव्यक्त करता है, जिसके प्रति गांधी जी ने इतनी बार अपना विक्षोभ प्रगट किया था।

अत: दो विपरीत दिशाओं से बढ़ते हुए आज हम संकट के उस एक बिंदु पर पहुँच गए हैं, जिसने पश्चिमी सभ्यता और भारतीय संस्कृति-दोनों को-अपनी लपेट में ले लिया है। आधुनिक युग के जिस यथार्थ नियम (Reality principle) ने पश्चिमी मनुष्य को अपने अभिन्नतम आत्म, अपने आत्यंतिक सेल्फ से विलगित कर दिया है, उसी नियम की लौहवत अनिवार्यता ने भारतीय समाज को उसके सामाजिक और आर्थिक परिवेश से उन्मूलित कर दिया है जो एक समय में उसकी सांस्कृतिक जड़ों को सींचता था। ये दोनों ही प्रक्रियाएँ ऐतिहासिक विकास की ऐसी निर्मम अनिवार्यता के साथ जुड़ी हैं, जिसने भारतीय स्वप्न को कहीं मिथकीय अतीत में और पश्चिमी मनुष्य की मुक्ति को कहीं सुदूर भविष्य में निर्धारित कर दिया है, किंतु दोनों का वर्तमान की विभीषिका से कहीं कोई अर्थपूर्ण रिश्ता नहीं जुड़ पाता, जिसकी आज तात्कालिक जरूरत है। अमेरिकी उपन्यासकार सॉल बैलो ने अपने नए उपन्यास डीन्स दिसंबर (Dean's December) में यह कल्पना की है कि निकट भविष्य में अमेरिकी महानगर आबादी के ऐसे समूहों (urban ghettoes) में परिणत हो जाएँगे, जिनमें उन लाखों लोगों को निष्कासित कर दिया जाएगा, जो आधुनिक सभ्यता के जंगल-कानून से जूझ पाने में असमर्थ हैं; जिस तरह नात्सी शासकों ने यहूदियों के लिए कॉन्सनट्रेशन कैंप बनाए थे उसी तरह आधुनिक सभ्यता के हाशिए पर ऐसे लोगों को छोड़ दिया जाएगा जो अयोग्य और अवांछनीय हैं और जिनसे आसानी से छुटकारा पाया जा सकता है। क्या भारत भी तेजी से ऐसे ही भविष्य की ओर अग्रसर नहीं हो रहा? अमेरिकी नगरों की जो दुर्दशा जंगल के कानून तले हो रही है क्या भारतीय समाज की वही हालत सभ्यता के कानून तले नहीं होगी, जहाँ हमें स्वयं अपनी संस्कृति के भीतर शरणार्थी बन कर रहना होगा?

यह कोई कपोल-कल्पित भविष्य नहीं है; इसकी अभिशप्त छाया धीरे-धीरे हमारे समकालीन जीवन के हर क्षेत्र को ग्रसती जा रही है। हम चेखव के नाटक के उन पात्रों की तरह निष्क्रिय और असहाय खड़े हैं; जो ड्राइंगरूम में प्रेम और कविता की बात करते हैं जबकि बाहर उनके बगीचे के पेड़ों को कुल्हाड़ी से एक-एक करके गिराया जा रहा है। वे अपने बगीचे को बचा नहीं सकते क्योंकि वह दूसरों के हाथ बिक चुका है और वे स्वयं अपने घर में शरणार्थियों की तरह बैठे हैं - कुछ घंटों के मेहमान। कविता बगीचे को नष्ट होने से नहीं बचा सकती, किंतु फिर भी वह एक अज्ञात और रहस्यमय ढंग से बाग के पेड़ों, झाड़ियों और पक्षियों से जुड़ी है - जीवन का दुर्लभ और नाजुक स्वप्न - जो बगीचे के नष्ट हो जाने पर हमेशा के लिए लुप्त हो जाएगा। मेरे लिए दोनों ही वास्तविक हैं, दोनों को ही बचाना जरूरी है। मैं अपने पुरखों के इस तर्क से सहमत नहीं हूँ कि बाहर का बगीचा सिर्फ माया और भ्रम है, असली कविता मेरे भीतर वास करती है, न मैं उन आधुनिक प्रगतिवादियों के ऐतिहासिक यथार्थ में विश्वास कर पाता हूँ जहाँ कविता सिर्फ एक रोमांटिक पूर्वग्रह है, असली सत्य उस कुल्हाड़ी में है जो बगीचे को नष्ट करके प्रगति के रास्ते को प्रशस्त करती है। दरअसल तर्क की यह समूची आधुनिक प्रणाली - जहाँ एक को सिर्फ दूसरे की कीमत पर बचाया जा सकता है - मुझे अनुचित और दुर्भाग्यपूर्ण जान पड़ती है। मेरा यह विश्वास है कि भारत के पास आज भी यह विकल्प है कि वह एक को दूसरे के साथ, भीतर की कविता और बाहर के पेड़ दोनों को सुरक्षित रख सके। किंतु यह तभी संभव हो सकेगा जब हम अपने खोए हुए घर और लुटे हुए परिवेश को फिर से अपना बना सकें; एक पवित्र परिवेश जिसमें भारतीय अनुभव विभिन्न और बहुस्तरीय यथार्थों द्वारा अभिव्यक्त हो सके जहाँ कोई एक यथार्थ दूसरे यथार्थ का निषेध नहीं करता। सॉल बैलो ने अपने उपन्यास में विनाश और वीरानी के जिस भयावह परिवेश का उल्लेख किया है, उस संभाव्य खतरे के विरोध में आज सिर्फ यही विकल्प बचा रहता है, दूसरा कोई नहीं।

किंतु पवित्र परिवेश से मेरा क्या अभिप्राय है? मैं अपनी बात को दो व्यक्तिगत अनुभवों से स्पष्ट करना चाहूँगा, जो बहुत निजी होने के बावजूद ऐसे हैं, जिनमें शायद आप भी थोड़ा बहुत साँझा कर सकें। पहला अनुभव मुझे मध्यप्रदेश के कान्हा-किसली जंगल में हुआ था, जो संरक्षित वन्यस्थल है। दूसरा अनुभव कुछ वर्ष पहले इलाहाबाद में कुंभ मेले के अवसर पर हुआ। दोनों एक समान अनुभव के दो भिन्न पहलू थे। पहले में आधुनिक युग के अनिवार्यता नियम (Necessity principle) से मुक्त हो कर समग्रता के पवित्र स्वप्न से साक्षात्कार था। दूसरे में समग्रता का भारतीय आदर्श (Dream principle) एक भौतिक, सांसारिक और सेक्युलर परिवेश में चरितार्थ हुआ था। कान्हा-किसली में एक सुबह मुझे पता चला कि वन्यस्थल के छोर पर एक शेर देखा गया है। मैं भी दूसरे दर्शनार्थियों के साथ हाथी पर बैठ कर जंगल के एक सूने, सुनसान कोने में ले जाया गया, जहाँ सिर्फ लंबी घास और झाड़ियों के झुरमुट थे, हवा की हल्की आहट थी, ऊपर कभी-कभार कोई परिंदा उड़ता हुआ दीख जाता था। हमारे हाथी का महावत एक गोंड आदिवासी युवक था, जो बहुत ही शांत और सधे भाव से हाथी को धीरे-धीरे हाँकता हुआ ले जा रहा था। कुछ दूर चलने के बाद बाँसों के एक सघन झुरमुट के आगे अचानक हमारा हाथी ठिठक गया और छह-सात फीट के फासले पर मेरी निगाहें धूप में झिलमिलातीं एक लंबी, पीली, पसरी जानवर पर अटक गईं। शेर से यह मेरा पहला वास्ता था - जू से बाहर - अपने प्राकृतिक परिवेश में। वह लंबी घास के बीच बैठा चुपचाप अपने नाश्ते में निमग्न था। शायद सुबह की घड़ियों में उसने एक जंगली सूअर का शिकार किया था, जिसका कंकाल उसके पंजों के बीच दिखाई दे रहा था। चारों तरफ एक अद्भुत सन्नाटा था; कभी-कभी पेड़ों से लंगूरों की चीखें या झाड़ियों से उड़ने की हल्की-सी फड़फड़ाहट सुनाई दे जाती थी। सहसा शेर ने सिर उठाया और हमारी ओर देखा - एक लंबी और निस्तब्ध निगाह - जिसमें हाथी, गोंड युवक और मैं सब समा गए थे। वह निगाह शायद एक क्षण से ज्यादा नहीं थी, किंतु मेरे लिए वह एक शाश्वत क्षण था। फिर उसने अपना सिर झुका लिया और हमारी ओर से निपट उदासीन हो कर अपने आहार में जुट गया। उस क्षण मुझे जो अनुभव हुआ, उसे व्यक्त कर पाना बहुत कठिन है; मैं सिर्फ इतना कह सकता हूँ कि मेरे लिए वह एक संपूर्ण निर्भयता का अनुभव था -महज भय का अभाव नहीं - बल्कि संपूर्णता का अलौकिक बोध, जिसमें मैं उस पशु से संबंधित था, जो मेरे सामने था और सबसे बड़ी बात यह है कि पहली बार मैं उस पशु से भी संबंधित हो पाया, जो हमेशा से मेरे भीतर था और जिसे मैं आज तक अपने से छिपाता आ रहा था। पहली बार मुझे मनुष्य होने का चामत्कारिक अनुभव हुआ, और यह अनुभव इन मानववादियों के अहंकार से बहुत अलग था, जो मनुष्य को सृष्टि के केंद्र में रखते हैं, और उसे सब चीजों का मापदंड मानते हैं। इसके विपरीत उस क्षण मुझे लगा जैसे मैं जंगल के अन्य वन्य प्राणियों के बीच मनुष्य हूँ, किसी से बड़ा-छोटा नहीं, बल्कि सबके साथ उस परिवेश में साँझा करता हुआ जिसमें शेर अपने खाने में मस्त है, हाथी शांत-भाव से खड़ा है, गोंड युवक बीड़ी पी रहा है और सारा जंगल सुबह की धूप में झिलमिला रहा है। यह परिवेश पवित्र था क्योंकि इसमें सब समवेत रूप से साँझा कर रहे थे और वे ऐसा कर सकते थे क्योंकि इनमें से हर कोई सहज रूप से अपनी जड़ों से जुड़ा था। किसी में आत्म-उन्मूलित होने का अनाथ-भाव नहीं था। एक शांत, पवित्र और अहिंसात्मक परिवेश जिसमें जंगली सूअर की मृत्यु उस लैंडस्केप का उतना ही अभिन्न अंग जान पड़ती थी जितनी वह प्राणवत्ता, जो शेर की धामनियों में स्पंदित हो रही थी।

कान्हा के जंगल में मुझे तब एक दूसरा अनुभव याद हो आया, जो अपनी गहराई और उत्कटता में कुछ नहीं था किंतु मेरा उससे साक्षात्कार एक भिन्न संदर्भ में हुआ था। इलाहाबाद के कुंभ मेले में, जहाँ शांति का नितांत अभाव था। वहाँ सिर्फ भीड़ थी, असीम कोलाहल, लोगों की अंतहीन कतार, ब्राह्मण और भिखारी, सिर मुँड़ाई विधावाएँ, सर्दी में ठिठुरते हुए अस्थि-पिंजर, एक लंबे जुलूस में संगम से उस पवित्र और मायावी स्थल की ओर बढ़ते हुए, जहाँ मैल और गंदगी में घुली-मिली दो नदियाँ दिखाई देती थीं और तीसरी का कहीं पता नहीं था। आदमी और नदी और उड़ती हुई धूल - शायद नॉयपाल कुंभ मेले में यही नोट कर पाते - और वह ज्यादा गलत नहीं होते क्योंकि उनकी आँख जो कुछ देखती उसे ही वह दर्ज कर देते किंतु देखती हुई आँख और दर्ज किए हुए तथ्य के बीच एक समूची संस्कृति का अदृश्य अनुभव है जो आदमी और नदी की नहीं, बल्कि आदमी और नदी के बीच अंतर्निहित संबंध में जीता है, जिसे नॉयपाल जैसे लोग कभी नहीं देख पाते। भारतीय संस्कृति का मर्म, अदृश्य सरस्वती की तरह, इसी संबंध की पवित्रता में छिपा है। 'अगर तू ईश्वर पाना चाहता है, तो इस प्रवाह के साथ हो जा', एक बूढ़े संन्यासी ने कुछ हँसी में, कुछ व्यंग्य में कुंभ की अथाह भीड़ की ओर इशारा करते हुए कहा था। मैं उनके धुँधले संकेत को देख कर ठीक से समझ नहीं पाया कि 'प्रवाह' से उनका आशय तीर्थयात्रिायों के अंतहीन प्रवाह से है या नदियों के उस प्रवाह से, जो शताब्दियों से उनके भीतर बह रहा है। क्या इसी अस्पष्ट धुँधलके में ही मेरे संबंध की पीड़ा भी नहीं दबी है - नदी, लोग, विश्वास और मिथक - एक संस्कृति के असंख्य बिखरे कण, जो अपने अलगाव में इतने विपन्न और जर्जरित जान पड़ते हैं किंतु एक-दूसरे से जुड़ते ही एक समूची जीवन-प्रणाली को आलोकित कर जाते हैं? एक पुरातन संस्कृति बहुत महीन और नाजुक धागों में गुँथी होती है, जिसमें यदि हम मिथक को यथार्थ से, पुराणकथाओं को दैनिक चर्याओं से, आत्मा को उसके दैहिक परिवेश से जरा भी अलग करते हैं, तो समूचा ताना-बाना टूटने लगता है।

क्या हम भारतीय संस्कृति को इस टूटन और बिखराव से बचा सकते हैं? मुझे लगता है कि आधुनिक औद्योगिकीकरण के थपेड़ों के बावजूद, चारों तरफ फैली गरीबी और दरिद्रता और आत्म-उन्मूलन के बावजूद - आज भी यह संभव है कि हम इतिहास की घातक प्रक्रिया को बदल सकते हैं, उसे एक नितांत नई दिशा में मोड़ सकते हैं। जीवन में कुछ अनिवार्य नहीं होता - सिवाय मृत्यु के। कोई भी इतना शक्तिशाली नहीं होता - न इतिहास, न समय की धारा, न आधुनिकता के नियम-कर्म जो हमें मृत्यु चुनने के लिए बाध्य करें, जब तक हम स्वयं आत्महत्या करने के लिए तैयार न हो जाएँ, सच पूछा जाए तो जिसे मैंने भारतीय संस्कृति का स्वप्न माना है, हमारे समय में गांधी जी ने बड़े साहस के साथ यथार्थ को ठोस जमीन पर उसकी समस्त व्यावहारिक संभावनाओं को उजागर किया था। वह एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने भारतीय स्वप्न के दोनों पहलुओं को समझा और परखा था - उसका बाहरी और प्रत्यक्ष पहलू, जो हमे दिखाई देता है किंतु उन्होंने उसके दूसरे अदृश्य पहलू को भी पहचाना था, जो शताब्दियों से भारतीय जनमानस की परतों तले दबा है और जो सिर्फ इसलिए कम महत्वपूर्ण नहीं हो जाता, क्योंकि वह देखा नहीं जा सकता।

मैंने जो कुछ कान्हा और कुंभ मेले में देखा था - वह केवल एक बाहरी और प्रत्यक्ष दृश्य था; उसे देख कर सहसा मुझे उस पवित्रता और समग्रता को बोध हुआ जो उस संस्कृति का अदृश्य और अंतर्निहित मर्म है। गांधी जी ने दोनों को - प्रत्यक्ष को अप्रत्यक्ष से, दृश्य को अदृश्य से, बाह्य को अंतर से जोड़ कर भारतीय अनुभव को पूरी समग्रता से जीने का प्रयास किया था। उन्होंने बाह्य को सिर्फ इसलिए नहीं नकारा, कि वह हमारे जीवन का सांसारिक पहलू है, न ही वह अदृश्य से सिर्फ इसलिए सम्मोहित हुए कि उसमें सब कुछ शाश्वत और पवित्र है, बल्कि उन्होंने समूचे भारतीय यथार्थ को एक अखंडित सत्य की तरह स्वीकार किया। वह हमारे परोक्ष को प्रत्यक्ष में, हमारे विश्वास को व्यवहार में बदलना चाहते थे ताकि हम इतिहास में अपने गौरव और अपनी शर्तों पर जी सकें। वह अपने प्रयास में असफल नहीं हुए, हम ही उसकी संभावनाओं तक पहुँचने में असफल रहे, किंतु जो विकल्प उन्होंने सुझाया था, वह आज भी उतना ही जीवित और गौरवपूर्ण है, जितना पहले था। वह भारतीय संस्कृति का स्वप्न है जिससे आज समूची मानव-जाति की नियति जुड़ी है। क्या समय रहते हम उसे चुनने का साहस जुटा पाएँगे?