शत्रु / अज्ञेय
ज्ञान को एक रात सोते समय भगवान ने स्वप्न में दर्शन दिये और कहा, “ज्ञान, मैंने तुम्हें अपना प्रतिनिधि बनाकर संसार में भेजा है। उठो, संसार का पुनर्निर्माण करो।”
ज्ञान जाग पड़ा। उसने देखा, संसार अन्धकार में पड़ा है। और मानव-जाति उस अन्धकार में पथ-भ्रष्ट होकर विनाश की ओर बढ़ती चली जा रही है। वह ईश्वर का प्रतिनिधि है, तो उसे मानव-जाति को पथ पर लाना होगा, अन्धकार से बाहर खींचना होगा, उसका नेता बनकर उसके शत्रु से युद्ध करना होगा।
और वह जाकर चौराहे पर खड़ा हो गया और सबको सुनाकर कहने लगा, “मैं मसीह हूँ, पैग़म्बर हूँ, भगवान् का प्रतिनिधि हूँ। मेरे पास तुम्हारे उद्धार के लिए एक सन्देश है!”
लेकिन किसी ने उसकी बात नहीं सुनी। कुछ उसकी ओर देखकर हँस पड़ते, कुछ कहते, पागल है; अधिकांश कहते, यह हमारे धर्म के विरुद्ध शिक्षा देता है, नास्तिक है, इसे मारो! और बच्चे उसे पत्थर मारा करते।
आख़िर तंग आकर वह एक अँधेरी गली में छिपकर बैठ गया, और सोचने लगा। उसने निश्चय किया कि मानव-जाति का सबसे बड़ा शत्रु है धर्म, उसी से लड़ना होगा।
तभी पास कहीं से उसने स्त्री के करुण क्रन्दन की आवाज़ सुनी। उसने देखा, एक स्त्री भूमि पर लेटी है, उसके पास एक छोटा-सा बच्चा पड़ा है, जो या तो बेहोश है, या मर चुका है, क्योंकि उसके शरीर में किसी प्रकार की गति नहीं है।
ज्ञान ने पूछा, “बहिन, क्यों रोती हो?”
उस स्त्री ने कहा, “मैंने एक विधर्मी से विवाह किया था। जब लोगों को इसका पता चला, तब उन्होंने उसे मार डाला और मुझे निकाल दिया। मेरा बच्चा भी भूख से मर रहा है।”
ज्ञान का निश्चय और दृढ़ हो गया। उसने कहा, “तुम मेरे साथ आओ, मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा।” और उसे अपने साथ ले गया।
ज्ञान ने धर्म के विरुद्ध प्रचार करना शुरू किया। उसने कहा, “धर्म झूठा बन्धन है। परमात्मा एक है, अबाध है, और धर्म से परे है। धर्म हमें सीमा में रखता है, रोकता है, परमात्मा से अलग करता है, अतः हमारा शत्रु है।”
लेकिन किसी ने कहा, “जो व्यक्ति परायी और बहिष्कृत औरत को अपने पास रखता है, उसकी बात हम क्यों सुनें! वह समाज से पतित है, नीच है।”
तब लोगों ने उसे समाज-च्युत करके बाहर निकाल दिया।
ज्ञान ने देखा कि धर्म से लड़ने से पहले समाज से लड़ना है। जब तक समाज पर विजय नहीं मिलती, तब तक धर्म का खंडन नहीं हो सकता।
तब वह इसी प्रकार का प्रचार करने लगा। वह कहने लगा, “ये धर्मध्वजी, ये पोंगे-पुरोहित-मुल्ला, ये कौन हैं? इन्हें क्या अधिकार है हमारे जीवन को बाँध रखने का? आओ, हम इन्हें दूर कर दें, एक स्वतन्त्र समाज की रचना करें, ताकि हम उन्नति के पथ पर बढ़ सकें।”
तब एक दिन विदेशी सरकार के दो सिपाही आकर उसे पकड़ ले गये, क्योंकि वह वर्गों में परस्पर विरोध जगा रहा था।
ज्ञान जब जेल काटकर बाहर निकला, तब उसकी छाती में इन विदेशियों के प्रति विद्रोह धधक रहा था। ये ही तो हमारी क्षुद्रताओं को स्थायी बनाए रखते हैं, और उससे लाभ उठाते हैं! पहले अपने को विदेशी प्रभुत्व से मुक्त करना होगा, तब समाज को तोड़ना होगा, तब...
और वह गुप्त रूप से विदेशियों के विरुद्ध लड़ाई का आयोजन करने लगा। एक दिन उसके पास एक विदेशी आदमी आया। वह मैले-कुचैले, फटे-पुराने, ख़ाकी कपड़े पहने हुए था। मुख पर झुरियाँ पड़ी थीं, आँखों में एक तीखा दर्द था। उसने ज्ञान से कहा, “आप मुझे कुछ काम दें ताकि मैं अपनी रोज़ी कमा सकूँ। मैं विदेशी हूँ, आपके देश में भूखा मर रहा हूँ। कोई भी काम आप मुझे दें, मैं करूँगा। आप परीक्षा लें। मेरे पास रोटी का टुकड़ा भी नहीं है।”
ज्ञान ने खिन्न होकर कहा, “मेरी दशा तुमसे कुछ अच्छी नहीं है, मैं भी भूखा हूँ।”
वह विदेशी एकाएक पिघल-सा गया। बोला, “अच्छा! मैं आपके दुख से बहुत दुखी हूँ। मुझे अपना भाई समझें। यदि आपस में सहानुभूति हो, तो भूखे मरना मामूली बात है। परमात्मा आपकी रक्षा करे। मैं आपके लिए कुछ कर सकता हूँ?”
ज्ञान ने देखा कि देशी-विदेशी का प्रश्न तब उठता है, जब पेट भरा हो। सबसे पहला शत्रु तो यह भूख ही है। पहले भूख को जीतना होता, तभी आगे कुछ सोचा जा सकेगा...
और उसने भूखे लड़कों का एक दल बनाना शुरू किया, जिसका उद्देश्य था अमीरों से धन छीनकर सबमें समान रूप से वितरण करना, भूखों को रोटी देना, इत्यादि; लेकिन जब धनिकों को इस बात का पता चला, तब उन्होंने एक दिन चुपचाप अपने चरों द्वारा उसे पकड़ मँगवाया और एक पहाड़ी क़िले में क़ैद कर दिया। वहाँ एकान्त में उसे सताने के लिए नित्य एक मुट्ठी चबैना और एक लोटा पानी दे देते, बस।
धीरे-धीरे ज्ञान का हृदय ग्लानि से भरने लगा। जीवन उसे बोझ जान पड़ने लगा। निरन्तर यह भाव उसके भीतर जगा करता कि मैं, ज्ञान, परमात्मा का प्रतिनिधि, इतना विवश हूँ कि पेट-भर रोटी का प्रबन्ध मेरे लिए असम्भव है! यदि ऐसा है, तो कितना व्यर्थ है यह जीवन, कितना छूँछा, कितना बेमानी!
एक दिन वह क़िले की दीवार पर चढ़ गया। बाहर खाई में भरा हुआ पानी देखते-देखते उसे एकदम से विचार आया और उसने निश्चय कर लिया कि वह उसमें कूद कर प्राण खो देगा। परमात्मा के पास लौटकर प्रार्थना करेगा कि मुझे इस भार से मुक्त करो; मैं तुम्हारा प्रतिनिधि तो हूँ, लेकिन ऐसे संसार में मेरा स्थान नहीं है।
वह स्थिर, मुग्ध दृष्टि से खाई के पानी में देखने लगा। वह कूदने को ही था कि एकाएक उसने देखा, पानी में उसका प्रतिबिम्ब झलक रहा है और मानो कह रहा है, “बस, अपने-आपसे लड़ चुके?”
ज्ञान सहमकर रुक गया, फिर धीरे-धीरे दीवार पर से नीचे उतर आया और क़िले में चक्कर काटने लगा।
और उसने जान लिया कि जीवन की सबसे बड़ी कठिनाई यही है कि हम निरन्तर आसानी की ओर आकृष्ट होते हैं।
(लाहौर, जून 1935)