शत प्रतिशत दुर्घटना / चंद्र रेखा ढडवाल
मैं जो आप को बताना चाहता हूं या यूं कहिए कि आपके साथ अपना जो अनुभव बांट लेना चाहता हूं। क्योंकि उसे अपने तक रखने से महसूस होती बेचैनी असहनीय है। असल में वह कहने और सुनने लायक है नहीं। इस से भी ज़्यादा यह कि सोचा ही नहीं जाना चाहिए इस तरह का कुछ। यह इन्सानियत के ख़िलाफ जाकर, औरत पर ऐसा आरोप दर्ज करता है जो औरत की फ़ित्तरत हो ही नहीं सकता। पर जो घटा है, इसलिए सच्च है। सब को उसे जानने का हक भी है। तो बताना भी बनता है। वैसे मुझे अपने इस या उस तर्क से तस्सली हो नहीं रही है। यदि सच्च है भी, तो इसे सच्च करने के लिए घटित होने के उपक्रम में जो स्थितियां हैं। उनकी मीमांसा होनी चाहिए और उन पर लानत भेजी जानी चाहिए बजाय इस घटना विशेष की चर्चा करने के ? क्यों कि कर्ता यही स्थितियां होती हैं इसलिए समझने/सुधारने के लिए इन्हीं पर दृष्टि होनी चाहिए। व्यक्तियों पर तो कदापि नहीं। लेकिन मेरे भीतर बेचैनी इतनी बढ़ती जा रही है कि सही या ग़लत पर विमर्श के लिए लोगों को बुलाने और गोष्ठियाँ आयोजित करने का धैर्य नहीं रहा है मुझ में। वैसे भी एक आम आदमी हूं। किसी धर्म या संस्कृति का मसीहा या पंचायत का सरपंच तो हूं नहीं कि मेरा कहा हुआ देश निकाले या सज़ा की वजह बन जाएगा। इसलिए सीधे सीधे कह देना चाहता हूं। बल्कि अब कह ही रहा हूं कि उस आदमी ने, ठहरिए, उसके भीतर से पहले उसके बाहर का थोड़ा व्योरा आप को दे दूं ....... करीब करीब छः फुट लम्बा कद और रंग सांवला। भरा-भरा, गठा हुआ बदन, इसलिए अपने कद से थोड़ा और ऊंचा दिखता। बौद्धिकता से ज्यादा आंखों में धूर्त्तता और कांइयापन, पर था वह बुद्धिमान। किस समय कौन सी तरकीब या प्रतिक्रिया उसे जिता देगी और फ़ायदा देगी, इसका अन्दाज़ लगाने में वह कभी नहीं चूका। कब सामने वाले से भिड़ जाना है और कब रास्ता बदल लेना है, इसकी भी उसे पूरी समझ थी। .......... हां तो मैं कह रहा था कि उस आदमी ने लगभग पचास वर्ष तक अपनी मर्जी से जिन्दगी जी। मतलब बत्तीस-पैन्तीस साल तो पूरी तरह बेलगाम और खिलंदड़ घोड़े की तरह गुज़ारे। (पन्द्रह-सोलह की उम्र तक तो पिता की नज़र उस पर रही और वह ख़ासी सख़्त तबीयत के आदमी थे)। घोड़ा इसलिए कह रहा हूं कि कोई, कितना भी बेपरवाह और अपने मन का मालिक हो। उस पर कम ज्यादा एक बोझा तो रहता ही है। मां-बाप, भाई-बहनों और फिर पत्नी व बच्चों की अपेक्षाओं को वह जितना चाहे झटकता रहे। पूरी तरह कहां झटक पाता है ? सवार बिठाए-बिठाए तो वह नहीं ही दौड़ा पर एक काठी तो चिपकी ही रही उसकी भी मांस-मज्जा से। उस काठी ने ढोया भी। भले ही स्वयं उसका अपना अहम। पर यही तो सब से ज़्यादा भारी पड़ा। जिसको पालने पोसने और निभाने की कोशिश या भरम में उसने हर व्यक्ति व हर सम्बन्ध को अपने बाद रखा। व्यक्ति या सम्बन्ध जब तक उसके हक में रहा और उसके लिए उपयोगी रहा, तब तक वह व्यक्ति उसकी ज़िन्दगी में रहा और सम्बन्ध निभा। अन्यथा नहीं और उसके लिए नहीं का मतलब पूरी तरह नहीं .....। बीच का रास्ता उसने नहीं जाना। उस पर चलना तो दूर की बात है। ...... बाहरी तौर पर ऐसे आदमी का जीवन बहुत आसान लगता है, उसका भी लगता था। बुरी से बुरी और बड़ी से बड़ी गाली दे दी। हाथ-पांव या जो मिला, बेधड़क चला दिया। सामने वाला सीधा गिरा था औंधा। थोड़ा आहत हुआ या पूरी तरह घायल होकर ज़मीन पर चित्त गिर पड़ा, कभी चिन्ता नहीं की। पर इसके बावजूद उसे कोसने वालों की संख्या ज्यादा नहीं हुई। वैसे इस पर ज़्यादा खुश होने की बात नहीं है कि लोग आपके सामने नहीं बोलते। यह चीज़ असल में आपके अपने विरूद्ध जाकर आपका अहित करती है। खास तौर पर उसके मुंह पर तो कभी-कभार ही किसी ने पलटकर जवाब दिया। ऐसी इक्का दुक्का स्थिति में वह चुप रहा। राई के दाने भर तूल कहने वालों को नहीं दी। किसी दूसरे को भी चर्चा का हक नहीं दिया। कहने वाला चने के झाड़ पर चढ़ गया। वहां से जो गिरा तो हड्डी पसली बची नहीं। इसलिए ऐसी हिम्मतें अलग अलग और टुकड़ा-टुकड़ा मरती खपती रहीं। लोग उससे डरते हुए और घृणा करते, उसे अनदेखा करके जीते रहते तो कोई ज्यादा विचारणीय या चिन्तनीय बात नहीं थी। परन्तु जो आदमी एक परिवार का मुखिया बनने लायक नहीं था। उसे गांव का मुखिया बना दिया गया। अब यह मत पूछिए कि क्यों बना दिया .........? भाई यह जनतंत्र है, इसमें जनता को अपनी मर्ज़ी को वरीयता देने का पूरा हक है। खाने-पीने वाला आदमी था। (लोग कयास लगा लेते हैं कि जेब भरी होगी तो दूसरों को भी खिलाएगा-पिलाएगा) खास बात यह कि सदाचार का ढिंढोरा पीटते हुए खाने-पीने और देने-लेने पर पाबंदियां नहीं लगाएगा। फिर कोई लड़ाई-झगड़ा या सिर-फुटोबल करके आए तो हौंसला देता है और बचाव में खड़ा हो जाता है, नसीहत नहीं देता। ऐसे आदमी की छत्रछाया बड़ी नेमत है जी ......। असल मुद्दा यह कि मुखिया बनते ही वह सिर से पांव तक निरंकुश ताकत बन गया। अब इसके बाद से ही ज़्यादा ख़राबी शुरू हुई। उसकी निरंकुशता की पहली और आसान शिकार उसकी पत्नी हुई। उसके कन्धों तक पहुंचती, पतली-छरहरी, खिलते रंग व बड़ी-बड़ी भावविहल आंखे लिए यह औरत सामने वाले को अभिभूत करती पर पति पर उसका जादू नहीं चला। घरेलू नौकर से ज्यादा नहीं हुई वह उसके लिए। ऐसा नहीं कि इससे पहले वह उसके प्रति सहृदयी था। पर अब तो वह ज़्यादा ही तुच्छ जीव हो गई। सुबह से शाम तक की दुआ-सलाम से मुखिया का पारा सातवें आसमान पर रहने लगा था। उठ तो उठ, बैठ तो बैठ। चर्खी की तरह घूमते हुए वह उसके सब जायज़/नाजायज़ हुक्म पूरे करती। पर धीरे-धीरे, अपनी-अपनी गर्ज के मारे लोग उसके घर ज़्यादा-ज़्यादा आने लगे। कौन पशुओं का गोबर-गूंत, खेतों के किनारे बनी ‘मल’ में फैंक आता। कौन घास के गट्ठर घर के पिछवाड़े बनी गोहरन में रख जाता, पता नहीं चलता पर पत्नी के चेहरे पर इस आराम का कोई नर्म आभास नहीं दिखता एक अजीब सी बेचैनी व उत्तेजना से भरी वह हर-पल हरकत में रहती। पति से बात नहीं होती तो इधर-उधर करती-पिरती। घर में दुत्तकार मिलती तो पास-पड़ोस में शरीकों को दुत्तकारती। इसलिए अपने लिए, पता नहीं कितने-कितने उपनाम बटोर लिए उसने। बद्जुबान, सिरफिरी और डायन तक। आदमी मिला हुआ बांटता है। इस सच को समझने वाला कौन था। जो उसके दर्द का पता किसी को मिलता। ........ एक बार सांझ के समय बेहोश हो गई। मर सकती थी पर मरी नहीं। अस्पताल नहीं पहुंचाने के बावजूद उसे होश आ गया। होश आते ही, पहली बात उसने कही कि अनाज को कीड़े से बचाने के लिए पानी में घोल कर दवा झिड़क रही थी सो शायद मुंह में चली गई होगी सांस के ज़रिए। छिड़कते हुए बातें कर रही थी न .......। नमक डला पानी पिला पिलाकर उल्टियां करवाती दसवीं में पढ़ती उसकी बेटी ने डबडबाई आंखों से दादी को देखा, जो तिल के मीठे तेल से उसकी मां की हथेलियां रगड़ रही थी, पर बोली कुछ नहीं। किसी ने उसकी बात पर ज़िरह नहीं की कि अनाज में दवा की साबुत गोली पोटली में कपड़े की पोटली में बांध कर रखते हैं। पानी में घोल कर नहीं छिड़कते कि अनाज खाने लायक ही न रहे ......। निरीह भेड़ को ज़रा ज़रा निगलते आदमखोर भेड़िए पर वार करना तो दूर, किसी ने आंखे तरेर कर देखने तक की हिम्मत नहीं की। वैसे भी बहुत देर से सभी उसे होश में लाने के लिए अपने-अपने टोटके बता और आज़मा रहे थे। अब सभी को घर और घर के कामों की चिन्ता सताने लगी। सब के चले जाने पर सास ने उसे भीतर आराम करने को कहा। एक हाथ बेटी के कन्धे पर और दूसरे से दरवाजे व दीवार का सहारा लेते हुए वह बिस्तर तक पहुंची। भीतर पहुंचकर पता नहीं कब का रूका बांध जैसे टूट ही गया। मां का माथा सहलाती बेटी एकाएक इतनी बड़ी हो गई कि मां को चुप होने को तो उसने नहीं ही कहा पर खास और बड़ी बात यह कि मां के साथ-साथ रोई नहीं वह। बस माथा सहलाती रही धीरे-धीरे .......।
दो-तीन दिन बाद पत्नी उसी तरह चर्खी की तरह घूमती हुई, हुक्म बजाने लगी। उस सांझ की बात फिर कभी किसी की ज़बान पर नहीं आई। .............. खै़र उसके साथ जो, जैसा भी हो रहा था पर गांव तरक्की करता गया। मुखिया का दबदबा, मीठी गोली कि हंसते-हंसते निगलने लगे कई सारे। ...... खुशामद में नम्बर एक होने की होड़ लग गई और उसकी नज़र में, सब से बड़ी खुशामद यह कि ठीक उसके रंग-ढंग में जिया जाए। जवान लड़कों और जवान होते बच्चों पर डैने फैला दिए उसने। मां बाप की मजबूरियां थीं .....। शराब से ज़्यादा भांग का गुणगान होने लगा जो हर घर के चन्ने या पिछवाड़े बेथाह उगी थी। सस्ता और मस्त नशा। खुद उसे तो खै़र हर तरह का नशा उपलब्ध था। लगता था जैसे छप्पड़ फाड़ कर नहीं आसमान ही फाड़ कर विधाता लुटा रहा था उस पर अपनी मेहरबानियां। हर दूसरे-चौथे रोज़, वह करीब आधी-आधी रात हुए घर लौटता और भूखी प्यासी प्रतीक्षा में बैठी पत्नी के मुंह पर कभी गिलास तो कभी थाली दे मारता। नमक कम-ज्यादा या आलतू-फालतू सब्जी बनाने के नाम पर। असल में मीट-मुर्गे के साथ भर-पेट पीकर लौटा होता था। कभी-कभी स्कूटर चला कर खुद आ जाता पर अक्सर कोई एक उसका चेला स्कूटर चलाता और दूसरा पीछे बैठ कर उसे थामता तब ही वह घर पहुंच पाता ......... लेकिन देने वाले की मेहरबानी एक तरफ और लेने वाले की सामथर््य एक तरह। ज़वान की दहाड़ तो रत्ती-भर कम नहीं हुई। लेकिन शरीर धीरे- धीरे जवाब देने लगा। चेहरा फीका पड़ा। फिर एकदम स्याह होने लगा। खून तो जैसे सारा का सारा निचुड़ गया। पर किसी की क्या मज़ाल की जो कहे कि वह बीमार है। अस्पताल चलने की बात कहने वाले को तो घर से निकल जाने को ही कह देता। मां की एक ही रट कि नजरा गई सरदारी मेरे पुत्र की बड़ी पापी नज़रे हैं शरीकों की। कभी भाइयों के यहां से तो कभी ननद के घर जा-जाकर धागे और तावीज़ लाती। पर पहने कौन जबरन बेटे के शरीर से छुआ कर तुलसी के पौधे से बांध कर संतोष कर लेती। लेकिन नकार देने से सच्च, सच्च नहीं रहता क्या ? एक दिन गुसल के लिए उठने की कोशिश में लड़खड़ा कर गिर गया वह। अधखुली आंखें छत पर टिक गईं तो सारे के सारे ताबीज़-धागे, उसके गले और बाहों में बांध दिए घबराई हुई मां ने। तेल सनी मिर्चें बेटे पर वार कर चूल्हे में डाल आई। जब तक गाड़ी आती, जायफ़ल घिस-घिस कर हथेलियाँ और पांव की तलियां मलती पत्नी की आंखों से झड़ी लग गई। - यही होना था। मैं जानती थी, पर मेरी सुनी किसने ? अम्मा, देर हो गई। जादू-टोने की नहीं, दवा-दारू की ज़रूरत थी पर बहुत देर हो गई ...............।’
शहर के अस्पताल से अगले दिन रात हुए लौटे वे, झोला भर दवाईयां लेकर। सुबह-दुपहर और रात को नियम से दवा लेने लगा वह। कभी खिचड़ी तो कभी दलिया, जो वह खिलाती खा लेता। डाक्टर की सलाह का असर था या शायद अपनी बीमारी की भयावहता व कमजोरी का एहसास कि पथ-परहेज़ करने लगा। ...... सुबह से शाम तक बरामदे में रखे तख़्त पर लेटना चाहता। दूर से, रास्ते पर आते-जाते लोगों को वह देखता, पर कोई पास आ कर हाल पूछता तो जवाब टालने की गर्ज से हां या न में ही देता। नाराज़ था वह ............ बहुत नाराज़ कि बीमारी क्यों लगी उसे ? पहले की तरह दौड़-भाग क्यों नहीं कर सकता ? ख़ास तौर पर इसलिए भी कि दूसरे ठीक क्यों हैं ? पर पत्नी आदर से बुलाती व बिठाती सब को। उसके चेले-चांटों व भक्तों को तो चाय नाश्ते के बगैर जाने ही नहीं देती। क्योंकि उनका आना, उसको भी बुरा नहीं लगता पर कभी एक तो कभी दूसरे की ओर टकटकी बांधे देखता ही बस। बोलता कम और सुनता ज़्यादा। (पहले सुनाना ही जानता था) अस्पताल के इलावा इस या उस को बताई दवा देते हुए और तीमारदारी करती पत्नी के चेहरे पर थकान बढ़ती गई पर एक चैन उसके हाव-भाव में दिखने लगा। धीरे- धीरे, उठ तो उठ और बैठ तो बैठ का पहाड़ा सिरे से ही बदलने लगा। दिन में दस-दस बार कपड़े बदलते (पेशाब पर नियंत्रण नहीं रह गया था) और दवाई व काड़ा आदि देते धीमी आवाज़ में ज़रा-ज़रा बोलते हुए वह बड़े-बड़े फै़सले लेने लगी अब।
डर था या पता नहीं प्यार-सम्मान कि दरबार अभी भी वैसे ही लगता। हां अब भाई (प्रधान या मुखिया कह कर बहुत कम लोगों ने पुकारा उसे अधिकांश के लिए भाई था वह) के साथ-साथ भाभी को भी सम्बोधित किया जाता जमावड़े में। भाई को यदि हरारत है या वह आराम कर रहे हैं (जो वह अक्सर करने लगे थे) तो भाभी की सलाह बल्कि आज्ञा शिरोधार्य होने लगी। उसके सोने, ज़्यादा बीमार होने या कराहने तक की परवाह किए वगैर बैठके जमनें लगीं तो एक दिन, आस-पास इकट्ठा लोगों को बोलते-बतियाते और चाय सुड़कते देख कर उसे परहेज़ हुआ। सख़्त नाराजगी जताई उसने। अपने हिसाब से तो वह जीता आ ही रहा था पर अब अपनी चिन्ता करते हुए अपने लिए जीना चाहा, एक बीमार व कमज़ोर आदमी ने। पहली बार पत्नी से धीमी ही नहीं, मनुहार भरी आवाज़ में और पर्दे में बोला (दहाड़ को मिमियाते हुए लाज लगी होगी) कि आराम चाहता है वह ............ यह शोर सहन नहीं होता। उसे सुनते हुए और उसकी ओर देखते, नये सिरे से उसकी बीमारी का एहसास हुआ पत्नी को। पर भीतर कुछ हलचल नहीं हुई .......... उसके पहली बार नीम-बेहोश हो जाने वाले दिन की बेचैनी का तो दशांश भी नहीं ........। दूर निकल आई थी वह, जीने-मरने जैसी सामान्य ख्वाहिश और फिक्र से। बाहर से वही चिन्ता वही कातर हाव-भाव। पर कब एक पूरा का पूरा भेड़िया उस भेड़ में समा गया (मांस-मच्छी व शराब का नहीं, दरबार और दरबारियों का भूखा भेड़िया) पता ही नहीं चला। करने को सब करती। पथ-परहेज़ का खिलाती। समय पर दवाई देती। नहला-धुला कर झकाझक उजला-चिट्टा रखती। अक्सर कम्बल ओड़ा रखती, धूप-गर्मी में भी। जवाब यही कि सर्दी नहीं जा रही। डाक्टर कहता है वक्त लगेगा, वैसे ठीक हो जाएंगे।
आने वाले बैठते हुए झिझकते तो ज़ोर देकर कहती - रात थोड़ा ठीक से सो नहीं सके सो अब आराम कर रहे हैं, आप बैठिए, बल्कि बातचीत करिए ............. इन्हें भी, अच्छा लगेगा।
हफ्ते-आठ दिन में अस्पताल ले जाती पति को। पूरी तामझाम के साथ। हर बार वहां से लौटने पर वह कमज़ोर और सुस्त लगता और वह हर बार उत्साह से बताती उस इलाज के बारे में विस्तारपूर्वक, जो चल रहा था और शर्तिया था। सास के अनुसार ‘आप मुहारी’ हो गई थी वह। दवा-दारू, टहल-सेवा और पथपरहेज सब कुछ अपने मन का कर रही थी। दूर-पार के रिश्तेदार तो छोड़िए सगे बड़े भाई को उसकी बीमारी का पूरा पता नहीं लगने दिया। (वैसे वह लगाना चाहता तो क्या मुश्किल थी पर बचे रहने के बहाने मिलें तो कौन नहीं बचा रहना चाहता)। लेकिन उसके कहे अनुसार जो इलाज़ शर्तिया था उसके चलते ही एक दिन अस्पताल पहुंचने से पहले, मात्र एक आदमी की उपस्थिति में उसने प्राण त्याग दिए ................ दिन तेरह के बाद रिश्तेदार चले गए। पास पड़ोस के, दूसरे चौथे हाल पूछने और दुःख-दर्द बांटने तक सिमट गए पर दरबारियों की आमद नहीं रूकी। खाली सिंहासन को लेकर चिन्ता-चर्चा, घण्टों तक चलती। भाई नहीं थे पर भाभी उन्हीं की प्रतिमूर्ति लगती। बल्कि उसी की आदत हो गई उन्हें या भाभी को उनकी, क्या पता। पर यह स्पष्ट है कि औपचारिक ताज़-पोशी के अवसर की प्रतीक्षा और प्रतीक्षा से पहले की तैयारी में हैं आजकल सब ...............।
अब इस पूरी कथा में जो मैं अपनी ओर से कहना चाहता हूं, नहीं चाहते हुए भी, वह यह है कि भाई कुदरती मौत नहीं मरा। - मुझ पर झल्लाइये मत। आप असहमत भी हो सकते हैं। मैं स्वयं भी बड़ी कठिनाई में हूं सहमत होते हुए। पर मेरे पास विकल्प नहीं है। मैंने रत्ती-रत्ती खंगाल ली हैं स्थितियां। यह दुखद घटना मेरे हिसाब से शतप्रतिशत दुर्घटना है। “-किस बिना पर यह कह रहे हो तुम ?” रात के ग्यारह बज रहे थे। खुली छत पर सौर लालटेन की रोशनी में डायरी लिखते हुए अकेला था मैं। इतना डर गया कि पांच-सात सीढ़ियां एक साथ उतर गया। तभी पीछे से कन्धे पर उसने हाथ धर दिया। हां ! यह वही था। मरने के कुछ रोज़ पहले वाला बेबस-बीमार नहीं। बरसों पहले का हट्टा-कट्टा। तब ही तो धरती में गढ़ा जा रहा था मैं। आंखें बन्द करके अपने ईष्ट, महादेव शिव को पुकारने लगा। पल भर बाद कन्धे पर से दवाब हटता सा महसूस हुआ। फिर पूरी तरह ही चंगुल से मुक्त हो गया मैं। आंखे खोल कर देखा तो छत पर लालटेन के सामने था। चैन की सांसे दो-चार ही ली होंगी कि हौले-हौले पायल झनकाती वह मेरे सामने आ बैठी, अचकचा गया पर इस बार मैं डरा नहीं। कैसा स्वांग भर कर आई है ? घाघरा-चोली ही नहीं, चेहरे-मोहरे पर भी ज़्यादा से ज़्यादा बीस नहीं तो इक्कीस की लुनाई। ........ अचानक तेज़ हवा चली अचानक। फिर बूंदे बरसनें लगीं। बाबली सी उठ भागी वह। सीढ़िया नहीं उतरी। कूद गई छत पर से यह कहते हुए भीग जाएंगे वह। आंगन में सो रहे हैं। ऐसे बेसुध सोते हैं कि चादर ओढ़ने की भी सुध नहीं रहती।” भाग कर नीचे पहुंचा, गिरी-पड़ी को देखने-संभालने के लिए। पर कोई नहीं था वहां और कुछ भी नहीं था। तेज़ हवा नहीं, बारिश की बूंदे नहीं और मैं भी नहीं। मैं तो वहीं था, छत पर ....... हां लिख नहीं रहा, सोच रहा था कि यह शतप्रतिशत दुर्घटना घटी क्यों ............. ? ? ? ? ? ? ?