शनाख़्त / जिंदर / सुभाष नीरव

Gadya Kosh से
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सरबजीत बार बार आ रही है। कुछ पल खड़ी होती है, फिर किसी न किसी काम में जा लगती है। मेरी ओर देखकर उसे बेचैनी हो रही है। वह परेशान है। मैं इस बात को भलीभाँति जानता हूँ। उसकी इस परेशानी का कारण मैं हूँ। मैं पिछले तीन घंटों से कंप्यूटर के आगे बैठा हूँ। बेहरकत। फिर उसके सब्र का प्याला भर जाता है। वह पूछती है, "तुम किसी टेंशन में लगते हो। अपसेट हो। है न?" मैं 'ना' की मुद्रा में सिर हिला देता हूँ। वह मेरे माथे पर हाथ रखती है। मुँह आगे बढ़ा कर कहती है, "मुझसे क्यों झूठ बोलते हो? सच सच बताओ। आख़िर बात क्या है?" मैं कंप्यूटर पर ही नज़रें गड़ाए बताता हूँ, "कुछ खास बात नहीं। मैं एक बुरे आदमी की पहचान कर रहा हूँ। यह बुरा आदमी मेरे घेरे में नहीं आ रहा।" वह फिर पूछती है, "बुरा आदमी है कौन?" अब मैं उसे क्या बताऊँ। यही कि मैं टेंशन में हूँ। मेरी टेंशन के कई कारण हैं। बड़ा कारण 'बुरा आदमी' है। यह बुरा आदमी कौन है? दलजीत सिंह? मोहन लाल? मैं खुद? या फिर कोई और? मुझसे इस बात का निपटारा नहीं हो रहा।

मैं कंप्यूटर के सामने ज्यों का त्यों बैठा हूँ। मॉनीटर पर बाइस प्वाइंट में बुरा आदमी लिखा हुआ है। कुछ समय बाद 'बुरा आदमी' अक्षर लुप्त हो जाते हैं। स्क्रीन सेवर आ जाता है। मैं फिर से माउस को हिलाता हूँ। दरअसल, मैं ऐसी तकनीक की खोज में हूँ कि मैं चारों की कथा लिख सकूँ। आख़िर में मैं कंप्यूटर को ऐसी कमांड दूँ जिससे मुझे ज्ञात हो जाए कि बुरा आदमी है कौन। पर अभी तक मुझे ऐसा कोई नुक्ता नहीं मिला।

मैं सरबजीत को होंठों पर उँगली रखकर चुपचाप बैठने का संकेत करता हूँ।

'बुरा आदमी' अक्षरों में से दो आँखें प्रकट होती हैं। मुझे घूरती हैं। मैं भी उनकी ओर सीधा देखता हूँ। फिर दो होंठ दिखाई देते हैं। एक आवाज़ आती है, "ओ बड़े हरिश्चंद्र, सच बोल कर दिखा तो।" मैं सच बोलने के लिए स्वयं को पहले से ही तैयार किए बैठा हूँ। बात अपने आप से या मोहन लाल से आरंभ करना चाहता हूँ। मेरी उँगलियाँ की-बोर्ड पर हरकत करने लगती हैं कि दलजीत सिंह मेरा हाथ पकड़ लेता है। वह कहना शुरू करता है, "मैं इस कथा का मुख्य पात्र हूँ। पहले मेरे बारे में बता।" इसके तुरंत बाद मोहन लाल का चेहरा उभर आता है। वह कहता है, "दलजीत सिंह क्यों? पहले मैं हूँ। मुझे पता है कि तुम मेरी बात बाद में ही करोगे। तुम पूछो - यह मैंने कैसे जान लिया? मैं जानता हूँ, सदियाँ बीत चली है, कथाएँ बड़े लोगों से ही शुरू होती हैं। बड़ों पर ही खत्म हो जाती हैं।" मैं दोनों को छोड़कर अपने बारे में पहले बताना चाहता हूँ। मुझे लगता है कि यह ठीक रहेगा। मेरे बारे में किसी को कोई शक नहीं रहेगा। पर ये दोनों जने मेरी एक नहीं चलने दे देते। मैं इन्हें समझाता हूँ, "तुम्हें अपने अपने डर क्यों खाए जा रहे हैं? हो सकता है कि इस कथा का बुरा आदमी कोई और ही हो। अभी तो मुझे सभी के अंदर की परतों को खँगालना है।" ये दोनों मेरी बात को सुनने को तैयार ही नहीं हैं। मैं कानों में उँगलियाँ ठूँस लेता हूँ। कुछ देर बाद उँगलियाँ हटाता हूँ। अब थोड़ी-सी शांति है। मैं एक तरफ रखा कागज उठाता हूँ। चार पर्चियाँ बनाता हूँ। पहली पर्ची पर लिखता हूँ - मैं उर्फ़ बलकार सिंह, सुपरिंटेंडेंट। दूसरी पर कोई दूसरा नाम लिखता हूँ। तीसरी पर मुझसे लिखा जाता है - दलजीत सिंह, सहायक कंट्रोलर, वित्त व लेखा। चौथी पर्ची पर लिखता हूँ - मोहन लाल, चपरासी। मैं आँखें मूँद कर चारों पर्चियों को आपस में मिला देता हूँ। सरबजीत को उनमें से कोई एक पर्ची उठाने के लिए कहता हूँ। वह एक पर्ची उठाती है, खोलती है। दलजीत सिंह का नाम निकलता है।

मेरी उँगलियाँ तेजी से की-बोर्ड पर चलनी प्रारंभ हो जाती हैं।

दलजीत सिंह के कमरे के बाहर नेम प्लेट पर काले अक्षरों में लिखा है - दलजीत सिंह। सहायक कंट्रोलर (वित्त व लेखा)। कमरे में एक बड़ा-सा मेज़ है। रिवाल्विंग चेयर है। बाईं ओर चार कुर्सियाँ रखी हैं। सामने छह कुर्सियाँ हैं। दाईं ओर का हिस्सा खाली है। चारेक फीट पर स्टील की अल्मारी है। इस अल्मारी को उसने कभी खोल कर नहीं देखा। उसे यह भी नहीं मालूम कि उसका कौन-सा डॉक्यूमेंट कौन-से खाने में पड़ा है। काम करते हुए वह बहुत कुछ भूल जाता है। वह यह भी भूल जाता है कि उसे टेलिफोन करके गैस बुक करवानी थी। अस्पताल में भर्ती अपने साढू के आपरेशन की ताज़ा स्थिति के बारे में जानना था। भतीजी के आईलेट्स के रिजल्ट के बारे में पूछना था। अकस्मात् उसे याद आता है कि आज छब्बीस तारीख हो गई है। उसने तो अभी तक इन्कम टैक्स की रिटर्न भी नहीं भरी। सिर्फ़ पाँच दिन शेष बचे थे। वह दाएँ हाथ की ओर लगी घंटी का बटन दबाता है। चपरासी हाज़िर हो जाता है। वह कहता है, "मर गया होता। अच्छे वक्त याद आ गया। तूने भी मुझे याद नहीं करवाया। मैं दफ्तर के काम में ही लगा रहता हूँ। अपने निजी काम भूल जाता हूँ। मेरी पर्सनल फाइल निकाल। इन्कम टैक्स रिटर्न भरनी है।" चपरासी उसे फाइल पकड़ाता है। वह फॉर्म के अलग-अलग कॉलम को देखता है। भरता है। फिर घंटी मारता है। चपरासी से कहता है, "रमेश को बुला। आज ही फॉर्म जमा करवा आए। कल और परसों शनिवार-इतवार है। सोमवार को बहुत रश हो जाएगा। अंतिम दिन चल रहे हैं। मैं अब अपने कामों की लिस्ट बनाकर शीशे के नीचे रखा करूँगा। तूने जहाँ से फाइल उठाई है, वहीं रख दे।" चपरासी उसके कहे का पालन करता है। फाइल फिर अल्मारी में क़ैद हो जाती है। वह चपरासी से कहता है, "छोड़ यार, रमेश को रहने दे। उसके काम का लॉस होगा। मैं अपने बेटे को कहूँगा, वह खुद जमा करवा आएगा।"

उसे इस दफ्तर में आए छह बरस हो गए हैं। ब्रांच के बाबू हर साल मार्च-अप्रैल में कयास लगाना आरंभ कर देते हैं कि वह इस साल बदल जाएगा। इस समय उन्हें कुलदीप सिंह बणवैत बहुत याद आता है। सभी एक सुर में कहते हैं, "उन जैसा कोई अफसर लौटकर नहीं आने वाला। कोई दो घंटे की छुट्टी माँगता तो वह चार घंटे की छुट्टी देते। आधे दिन की छुट्टी तो लगाते ही नहीं थे। उनके राज में सुखपाल और जसपाल ने बहुत मौजें लूटी हैं। वह कहा करते - "सरकार के काम भी कभी खत्म हुए हैं। तुम अपने घर के कामों को पहले करो। तुम्हारे काम का क्या है। कटौतियों, डी.ए. और एडवांसों के आँकड़े यहाँ बैठ कर फॉर्मों में भर लो। कैलकुलेशन घर में बैठ कर भी की जा सकती है। बताओ - किसी का कोई काम पेंडिंग रहा। किसी ने कोई शिकायत की।" जुलाई-अगस्त गुजर जाते हैं। उनके लगाए कयास झूठे निकलते हैं। क्योंकि इस ब्रांच का काम ही ऐसा है कि कोई भी अकाउंट अफसर यहाँ रह कर खुश नहीं। कौन सारा दिन माथापच्ची करे। एक-सा काम। एक-सा रूटीन। अगर कोई दूसरा काम हो तो अफसर घुग्गी मारकर फाइल आगे सरका देते हैं। पर यहाँ तो जी.पी.एफ. की अदायगी होती है। एडवांस और अंतिम अदायगी। अगर किसी को ज्यादा अदायगी हो गई तो किस भड़वे ने वापस करनी है। पैसे अपने सिर पड़ जाते हैं। पूरी एकाग्रता के साथ काम करना पड़ता है।

वह इस ब्रांच में खुश है। यहाँ से जाने को उसका मन नहीं करता। वह अपने आप से बातें करता, "काम करना आदमी का पहला फर्ज़ है। जितने पैसे सरकार हमें देती है, कम से कम उतना काम तो करना ही चाहिए। इस दफ्तर में यह मौज है कि यहाँ समय का पता ही नहीं चलता। आदमी अपने काम में लगा रहता है। बिजी रहता है।" यह उसका पक्का रूटीन है कि ठीक आठ बजकर पचपन मिनट पर वह अपनी कुर्सी पर आ बैठता है। बारिश हो या आँधी, उसने अपना रूटीन कभी नहीं तोड़ा। शाम को चार पैंतीस पर कुर्सी से उठता है। साढ़े चार बजे घंटी मारता है। चपरासी को अखबार और टिफिन बॉक्स गाड़ी में रखने के लिए इशारा करता है। चपरासी उसकी कार की तरफ जाता है। वह अंदर कमरे में बैठा बैठा ही रिमोट से कार का लॉक खोल देता है। वह साल में दो या तीन छुट्टियाँ करता है। वह भी तब जब उसे कोई बहुत ज़रूरी काम पड़ जाए। किसी मरने पर जाना पड़ जाए। यदि कोई कर्मचारी छुट्टी की अर्ज़ी ले कर आ जाए तो पहली बार उसे टालने का यत्न करता है। अगर कर्मचारी गिड़गिड़ाने ही लग पड़े तो वह मंजूर करते हुए यह कहना नहीं भूलता, "देखना, घर जाकर और छुट्टी बढ़ाने की अर्ज़ी न भेज देना। तेरे पास पहले ही कितने सारे काम पेंडिंग पड़े हैं।" कर्मचारी उसके सामने तो कुछ नहीं बोलता, पर बाहर आकर अपना गुस्सा ज़ाहिर करता है, "भैण अपनी का खसम... छुट्टी देते हुए इसकी फटती है। इसने तो दफ्तर को अपनी सल्तनत समझ रखा है। इसे बताना पड़ेगा कि यह सरकारी दफ्तर है। हमें सरकार की ओर से छुट्टियाँ मिली हुई हैं। अगर इसने अगली बार भी ऐसा ही किया तो मैं घर से ही दो महीने का मेडिकल भेज दूँगा। उखाड़ ले जो मेरा उखाड़ना है।" कर्मचारी इतने गुस्से में होता है कि वह यह भी भूल जाता है कि इस ब्रांच में छह औरतें भी बैठी हैं। कोई साथी उसे इशारा करता है तो वह कहता है, "कंजर का पुत्त, इनके साथ कौन सा कम करता है। पिछले हफ्ते रजनी छुट्टी लेने गई थी, अंदर से रोती रोती बाहर निकली। यह तो किसी को भी नहीं बख्शता।"

ये बातें दलजीत सिंह को भी पता चल जाती हैं। केस चैक करवाने आए सुखपाल से वह चर्चा करता है, "मैं जानता हूँ कि तुम सभी मुझसे दुखी हो। मुझे पसंद नहीं करते। ना करो। मैं किसी की परवाह नहीं करता। यह तो मैं जानता हूँ या मेरा ईश्वर कि मैंने इतने सारे लोगों को कैसे कंट्रोल किया हुआ है। मेरी भी कोई जिम्मेदारी है। मुझे अपनी ब्रांच भी चलानी है। अगर मैं तुम लोगों को छूट दे दूँ तो तुम तो सुखी हो जाओगे, पर मैं दुखी हो जाऊँगा। तू पूछ, वह कैसे? वह ऐसे कि अगर किसी रिटायर आदमी को समय से पैसे न मिले, तो वह कोर्ट केस करने में देर नहीं लगाएगा। वह साथ में मुझे भी पार्टी बना लेगा। पहले ही कितने केस चल रहे हैं। इन पर कितना समय खराब हो रहा है। एक तो काम का लॉस होता है, दूसरा आफ़त-परेशानी फालतू की। सारा सारा दिन कोर्ट में बैठे रहो। शाम को जज अगली तारीख़ डाल देता है। इससे यह अच्छा नहीं कि समय से काम पूरा करें?" पास बैठे सुखपाल ने भला क्या कहना होता है। वह 'हाँ जी-हाँ जी', "ठीक है जी' कहते हुए उसकी बात सुनता रहता है। दलजीत सिंह केस भी चैक करता रहता है और अपनी बात भी किए जाता है, "तू भी अब कहेगा कि मैं छूट क्यों नहीं देता। इस ब्रांच में छूट दी ही नहीं जा सकती। जब मैं नया नया आया था तो कुलदीप सिंह बणवैंत से भी ज्यादा छूटें दी थीं। फिर मैं जो भी केस चैक करता, वही गलत निकलता। एक बार दर्शना दो एडवांस की एंट्री करना ही भूल गई। रजनी की दो सालों की कटौतियाँ गलत निकलीं। अगर मैंने ही एक एक फिगर चैक करनी है तो इतने लोगों का क्या अचार डालना है। तुम्हें पता है जब ए.जी. पार्टी वाले पिछले दो सालों का रिकार्ड चैक करने आए थे तो कितनी गलतियाँ निकली थीं। अकाउंट अफ़सर मेरा दोस्त था। मेरे कहने पर वो तुम सबको बख़्श गया। अगर कोई और होता तो उसके बनाए पैरों के जवाब तुमसे सारी उम्र भी नहीं दिए जाने थे। फिर रिकवरियाँ अलग होतीं।" सुखपाल आगे बढ़ कर उसके घुटनों को हाथ लगाता है। वह अपनी बात जारी रखता है, "मुझे तो काम चाहिए। यूँ न मेरे पैर दबाए जाया कर। तुम लोग तो वर्मा के काबू आए थे। वह हर हफ्ते काम की रिपोर्ट लेता था। उसने मूविंग रजिस्टर लगवाया था। बता, क्या मैं झूठ बोल रहा हूँ? ब्रांच में कोई भी मुझे बताए, मैं अपने काम के लिए कभी दफ्तर से बाहर गया। मेरे भी बाल-बच्चे हैं। मुझे भी अपने सौ तरह के काम होते हैं। मैं ये काम पाँच बजे के बाद करता हूँ या फिर शनिवार-इतवार को। अगर मैं करता हूँ तो तुम लोग क्यों नहीं? देख, इन बाबुओं के लक्षण... चाय पीने गए घंटा-घंटा भर नहीं लौटते। अगर मैं कुछ कहूँ तो कहते हैं कि क्या हम चाय भी नहीं पी सकते। टिफिन भी एक बजे खोल कर बैठ जाते हैं। मैं अभी स्टैनो को बुलाता हूँ। आर्डर निकालता हूँ - कोई भी डेढ़ बजे से पहले लंच नहीं करेगा।" सुखपाल मंद मंद मुस्कराता रहता है। दलजीत सिंह अपने स्टैनो को बुलाता है। ड्राफ्ट डिक्टेट करवाता है। अंत में यह लिखवाना नहीं भूलता कि यदि कोई इन नियमों का पालन नहीं करेगा, उसके विरुद्ध अगली कार्रवाई के लिए डायरेक्टर साहब को लिख दिया जाएगा।"

जैसे जैसे स्टैनो बाबुओं और मैडमों को नोटिंग पढ़वा कर उनसे उनके हस्ताक्षर करवाता है, वैसे वैसे उनके आक्रोश भरे शब्द उभरने लगते हैं -

"उस कुत्ते के बीज को कह दे मेरी ओर से, ये दफ्तर है। किसी डिक्टेटर की सल्तनत नहीं।" जसपाल सिंह दस्तख़्त करते हुए स्टैनो को कहता है।

स्टैनों हल्का-सा मुस्करा कर अगली टेबल पर चला जाता है।

"इसे कभी ताप भी नहीं चढ़ता। अगर इसका वश चले तो यह हमें शनिवार-इतवार की छुट्टी भी न करने दे।" परमजीत कौर करती है।

"हुक्म तो ऐसे करता है जैसे जॉर्ज बुश का साला हो। जा, मैं नहीं करती साइन। जा कर कह दे बड़े नवाब साहिब को।" दर्शना नोटिंग वाला कागज दूर फेंकते हुए कहती है।

"जहाँ बाकियों ने किए हैं, तू भी कर दे। अफसर का लिखा कभी वापस नहीं लौटा करता।" सुखपाल ने दर्शना को समझाते हुए कहा है।

सभी की ऐसी ही प्रतिक्रिया है।

"मैंने एक दिन उसे समझाया था। सरदार जी, कहीं अकेले बैठकर सोचना, पीछे कितनी भर उम्र रह गई। तुम्हारी रिटायरमेंट में साल भी नहीं रहा। यह उम्र भला करने की होती है। किसी का भला करोगे तो रिटायरमेंट के बाद भी तुम्हें लोग हँस कर मिलेंगे। अगर काई बाबू या मैडम घंटा, दो घंटा लेट आ भी गई तो कौन सी आफत आ जाएगी। बात तो अपनी सीट के काम की होती है। बताओ, किसका काम पेंडिंग पड़ा है। एक बार तो वह सोच में पड़ गया था। बोला था - बात तो तेरी ठीक है। पर इस शख़्स ने तीसरे दिन ही दीप का एक्सप्लेनेशन कॉल कर लिया। अगर वह एडवांस की एंट्री करना भूल गई थी तो वो खुद कर देता। आखिरी एंट्री थी।" सुखपाल ने अपने दाईं ओर बैठे कुलविंदर से बात करते हुए बताया है।

"कभी कुत्ते की पूँछ भी सीधी हुई है। मैंने खुद कई बार कहा कि इस ब्रांच में बाबुओं और मैडमों की उम्र औसतन पचास साल बनती है। सभी किसी न किसी तरह की टेंशन लिए फिरते हैं। घर की, बाहर की। हमें दफ्तर में ऐसा माहौल बनाना चाहिए जिससे यहाँ कोई टेंशन क्रिएट न हो। अगर यहाँ भी टेंशन रही तो काम करने वाले की एकाग्रता बार बार भंग होती रहेगी। ऐसे में गलतियाँ होने की ज्यादा संभावना रहेगी। पर उसे तो पता नहीं क्यों हमें टेंशन में डालने में खुशी होती है। बताओ, अपने में से कौन बचा है जिसकी इसने कभी जवाब तलबी न की हो।" कुलविंदर ने कहा है।

मोहन लाल की पर्ची निकलते ही मैं खुशी से सरबजीत की तरफ देखने लगा हूँ।

उसे इस ब्रांच में आए करीब दो महीने हुए हैं। प्यारे लाल ने छह महीनों की मेडिकल छुट्टी ली थी। मोहन लाल के आर्डर इस ब्रांच में हो गए थे। उसके इस ब्रांच में आने से पहले ही उसकी अच्छाइयाँ-बुराइयाँ पहुँच चुकी थीं।

- बहुत ही नेक आदमी है।

- 'जी' के बग़ैर बोलता नहीं।

- किसी को काम से इनकार नहीं करता।

- मेज और कुर्सियाँ आने पर साफ़ मिलेंगी।

- साहब की कार चमका कर रखता है। बाबुओं और मैडमों के स्कूटर अपने आप साफ़ कर देता है।

- अगर कोई बाहर से दाल-सब्जी मँगवाना चाहता है तो दौड़ कर ले आता है।

- एक एक को नमस्कार करता है।

- आधे आधे घंटे बाद पानी के लिए पूछता है।

- अगर अकड़ जाए तो लोहे का बन जाता है।

- न फालतू बात बोलता है, न सुनता है।

- अपने आप को बाबू ही समझता है। पैंट कमीज़ की क्रीज नहीं मरने देता।

- बड़ा खुर्रांट़ आदमी है।

मोहन लाल बाबुओं और मैडमों की आशाओं पर खरा उतरा था। वे तो अपने घर परिवार की बातें भी उसके संग कर लेते थे। बिना किसी छिपाव के। दलजीत सिंह भी उसके काम से खुश था। वह डेढ़ बजे दलजीत सिंह का टिफिन बॉक्स खोलता। दाल-सब्ज़ी गरम करता। उसके आगे रखता। एक एक रोटी हीटर पर गरम करता। साथ ही साथ दिए जाता। दलजीत सिंह कहता, "यार तू तो मेरी आदत खराब कर देगा।" मोहन लाल कहता, "यह तो मेरा फर्ज़ है। घर में बुज़ुर्ग की सेवा होनी चाहिए। दफ्तर में अफ़सर की। दोनों एक जैसे होते हैं। दोनों के सिर पर काम चला करते हैं।" दलजीत सिंह पूछता, "वह कैसे?" मोहन लाल बताता, "घर में कोई भी दुख-तकलीफ़ हो, बुजुर्ग को बताया जाता है। उसकी सलाह ली जाती है। बुज़ुर्ग को घर के सभी प्राणियों का ध्यान रखना पड़ता है। यही बात दफ्तर के अफ़सर की होती है। अफ़सर भी वही सयाना होता है जो एक की बात दूसरे को न बताए। सभी से हँस-खेल कर बोले। अपने मातहत की समस्याओं को समझे।" दलजीत सिंह कहता, "तू तो अपनी उम्र से ज्यादा सयाना हो गया। कहाँ से ली ये अक्ल?" मोहन लाल बताता, "कौन सा कोई घर से सीख कर आता है। आपके जैसे अफ़सरों की संगत का असर है।" दलजीत सिंह कहता, "ये सामने बैठे हुए तो मुझे बुरा आदमी कहते हैं।" मोहन लाल कहता, "किसी के कहने पर कोई बुरा तो नहीं बन जाता।"

यही मोहन लाल पिछले हफ्ते दलजीत सिंह के सामने अकड़ पड़ा था।

दलजीत सिंह ने लाल-पीला होते हुए पूछा था, "तुझे मेरी घंटी नहीं सुनाई दी?"

मोहन लाल ने बताया था, "सुनाई दी थी।"

"फिर आया क्यों नहीं?"

"मैं सतनाम जी को लैजर दे रहा था।"

"सतनाम मुझसे पहले हो गया।"

"नहीं जी।"

"तुझे पता है, मैं कौन हूँ?"

"मेरे सर।"

"फिर पहले मेरी घंटी सुना कर।"

"बाबुओं का काम...?"

"फिर वही बात।"

"जी सर।"

"और तू दूर क्यों बैठा रहता है? मेरे कमरे के बाहर बैठा कर।"

मोहन लाल कुछ देर गर्दन झुकाये खड़ा रहा था। दलजीत सिंह अपने काम में लग गया था। उसे नहीं मालूम था कि मोहन लाल खड़ा था। कुछ देर बाद दलजीत सिंह ने परे रखी फाइल अपनी ओर खींची तो उसका ध्यान मोहन लाल की ओर गया था। उसने पूछा था, "अब क्या बात हो गई?"

"पहले फ़ैसला करो।"

"किस बात का?"

"यही कि क्या मैं सिर्फ़ आपकी घंटी सुनूँ या स्टाफ को लैजर दूँ।"

"तुझे दोनों ही काम करने पड़ेंगे।"

"मुझसे एक समय में दोनों काम नहीं होंगे।"

"तुझे पता है कि तू क्या कह रहा है?"

"हाँ जी, मुझे पता है। मैं अब सिर्फ़ आपकी ही घंटी सुनूँगा।" कहकर मोहन लाल बाहर आ गया था। उसने बाबुओं और मैडमों की तरफ़ पीठ कर ली थी। यदि कोई किसी काम के लिए उसे आवाज़ लगाता तो वह दलजीत के कमरे में चला जाता। पूछता, "मैं सतविंदर को लैजर दे आऊँ?" इस पर दलजीत सिंह का माथा त्यौरियों से भर जाता। वह धीमे स्वर में कहता, "जा, उनकी बात भी सुन।"

मोहन लाल लैजर ढूँढ़ने लग जाता था। फिर वह मैडम पलविंदर के पास रखी कुर्सी पर ही बैठ जाता। बाबू और मैडम उसके कान भरने लगते।

कल शाम तो अजीब किस्म की बात हो गई थी। दलजीत सिंह ने जाने के लिए उठते समय घंटी बजाई थी। मोहन लाल हाज़िर हुआ था। दलजीत सिंह ने अख़बार और टिफिन बॉक्स कार में रखने के लिए कहा था। प्रत्युत्तर में मोहन लाल ने कहा था, "ऊँचा बोलो। मैंने सुना नहीं।"

"तू बहरा है?"

"हाँ जी।"

"ये पकड़ अख़बार और डिब्बा। कार में रख आ।" दलजीत सिंह ने ऊँची आवाज़ में कहा था।

मोहन लाल कार के पास आकर खड़ा हो गया था। मिनट भर बाद अंदर आकर बोला था, "सर जी, कार तो लॉक्ड है।"

"खुली है।"

"मैं देखकर आया हूँ। लॉक्ड है।"

"जा, फिर देखकर आ।"

मोहन लाल फिर चला गया था। वापस लौट आया था। दलजीत सिंह खीझ उठा था। उसने मोहन लाल से अख़बार और टिफिन बॉक्स ले लिया था। मुँह से कुछ नहीं बोला था। न ही उसने किसी की ओर देखा था।

मुझे दलजीत सिंह ने बुलाया है। मेरे पहुँचते ही उसने बैठने के लिए इशारा किया है। मुझसे वह कहता है, "यह गलत आदमी ब्रांच का माहौल खराब कर रहा है। कोई भी बाबू या मैडम आँख उठाकर मेरे साथ बात नहीं करता। यह तो मेरे आगे ही अकड़ने लग पड़ा। कल कहता था - अख़बार और टिफिन बॉक्स उठाना मेरी ड्यूटी नहीं। अब मैं इसे सिखाऊँगा कि ड्यूटी कैसे की जाती है। इन लोगों को जितना ढील दो, उतना ही सिर पर चढ़ते है। तू यू.ओ. टाइप करवा कर ला। मुझसे सीधे ही साइन करवा लेना।"

मैं कहता हूँ, "मुझे एक बार मोहन लाल को समझा लेने दो।"

"तू मुझसे बड़ा हो गया। यह नहीं बोलता, इसके अंदर बैठी बसपा पार्टी बोलती है। इस कुत्ते की पूँछ ने सीधा नहीं होना।" वह कुछ अधिक ही गुस्से में लगता है। "तू इस ब्रांच में सुपरिटेंडेंट लगा है। रौब रखा कर। यूँ ही ज़नानियों की तरह न रहा कर। समझा मेरी बात को...?"

मैं कमरे से बाहर आ जाता हूँ। सोचता हूँ कि इस काम के लिए उसने मुझे क्यों बुलाया है। यह काम तो वह खुद भी कर सकता था। स्टैनो को बुलाता। डिक्टेशन देता। साइन करता। स्टैनों से डायरी करवाता। क्या वह इस बुरे काम में मुझे भी शामिल करना चाहता है।

मैं किसी जल्दबाजी में नहीं पड़ना चाहता। यूँ ही मोहन लाल का नुकसान हो जाएगा। उसे ऊपर वाले अफ़सरों की मिन्नतें करनी पड़ जाएँगी। यदि काम यहीं निबट जाए तो इससे अच्छा क्या हो सकता है। दलजीत सिंह ने मुझे दो बार बुलाया था। मैं यही कहकर वापस लौट आया था, "हाथ वाला काम पहले फाइनल कर लूँ, फिर ड्राफ्ट टाइप करवाता हूँ।" वह गुस्से में है। इसी लिए उसने मुझे बैठने के लिए भी नहीं कहा। मुझे पता है कि उसके स्वभाव में उतावलापन है। वह किसी को नहीं बख़्शता। मुझे भी नहीं। मैं कोई भी फ़ैसला जल्दबाजी में नहीं करता। चार घंटे लगा देता हूँ। मेरे मन में भय है कि मैं क्यूँ बुरा बनूँ। दलजीत सिंह को एक मौका मिला है - मुझे बुरा आदमी बनाने का। वह मेरे कंधे पर रखकर बंदूक चलाना चाहता है। यह पहली बार हुआ है कि उसने किसी काम के लिए मुझसे कहा है। सलाह ली है। क्या उसके मन में भी मेरी तरह कोई डर है? झिझक है? किसी मातहत के विरुद्ध बुरा करना कठिन नहीं होता। कठिन तो होती हैं, बाद की कार्रवाइयाँ। मैं किसी का बुरा नहीं कर सकता। यदि कोई फालतू कहे भी तो मैं उसे समझाता हूँ। विनती करता हूँ। इसी कारण कई मुझे डरपोक भी कह देते हैं। कई इससे आगे के शब्द भी इस्तेमाल कर जाते हैं। क्या पता मोहन लाल भी ऐसा ही सोचे। बाबू और मैडमें भी सोचें। मुझे दलजीत सिंह और मोहन लाल पर गुस्सा आता है। फिर सोचता हूँ, उसने पीछा कहाँ छोड़ना है। ड्राफ्ट तो मैंने दिमाग में तैयार कर लिया है। इसे फाइनल रूप देने से पहले मैं मोहन लाल को अपने पास बुलाता हूँ। समझाता हूँ। बार बार कहता हूँ, "जा, अंदर जाकर सॉरी कह आ। तेरा कुछ कम नहीं हो जाएगा। वह इतने में ही ठंडा हो जाएगा।"

इस पर वह अकड़ जाता है। कहता है, "मैं क्यों बुरे आदमी को सॉरी कहूँ? मैंने क्या गलत किया है। आपमें से किसी में हिम्मत नहीं थी, इसीलिए वह बिफर गया है। बंदे को बंदा ही नहीं समझता। मैं उसे बंदे का पुत्त बनाऊँगा। जाओ, उससे कह दो, जो करना है कर ले। ज्यादा से ज्यादा क्या हो जाएगा, मुझे किसी और ब्रांच में भेज देंगे। इससे मुझे क्या फ़र्क़ पड़ने वाला है। मुझे संस्पैंड करवा देगा, इससे ज्यादा क्या कर लेगा। उसे बता दो, अगर मैं सस्पैंड हो गया तो पहले मैं गालियाँ निकालूँगा, फिर मेरी घरवाली और तीन बच्चे निकालेंगे। माँ और बापू अलग। जिनका मैंने उधार देना है, वो अलग। अगर उसने इन सबकी गालियाँ खानी हैं तो जो चाहे कर ले। अब मैं वही काम करूँगा, जो मेरी दफ्तरी ड्यूटी में बनता है।"

अगर मेरी जगह कोई दूसरा होता तो वह यही बात दलजीत सिंह को बढ़ा-चढ़ा कर बताता। अपने नंबर बनाता। मेरा ऐसा स्वभाव नहीं है। मुझे कोई रास्ता नहीं सूझता। बहुत कुछ सोच विचार कर आख़िर मैं स्टैनो को बुलाता हूँ। डिक्टेशन देता हूँ। ड्राफ्ट टाइप होकर आ जाता है। एक बार पढ़ता हूँ। दो बार पढ़ता हूँ। मन ही मन सोचता हूँ कि दफ्तर में कई काम अपनी इच्छा के विरुद्ध जाकर भी करने पड़ते हैं।

ड्राफ्ट ले जाकर मैं दलजीत सिंह की टेबल पर उसके सामने रख देता हूँ। कुर्सी पर बैठकर उसकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करता हूँ। वह हाथवाला काम निबटा कर ड्राफ्ट पढ़ता है। ऐनक के ऊपर से देखता हुआ मुझसे पूछता है कि मोहन लाल ने क्या कहा है। मैं उसे मोहन लाल, उसकी बीवी, बच्चों और माँ-बाप के विषय में बताता हूँ। वह अपने घर से लाई हुई पानी की बड़ी सी बोतल में से पानी का गिलास भरता है। घूँट-घूँट करके पीता है। माथे पर एकाएक आए पसीने को पोंछता है। घबराहट सी महसूस करता है। साथ ही साथ, पूरी ब्रांच को देख लेता है। उसकी नज़रों में मोहन लाल नहीं आता।

वह ड्राफ्ट को उठाकर अपनी मेज की निचली दराज में रख लेता है। मुझसे कहता है, "बड़ी पोलाइट लैंगवेज लिखी। बुरे आदमी का कोई इलाज नहीं।"

आधे घंटे बाद मुझे पानी का गिलास देते हुए मोहन लाल कहता है, "बुरे आदमी का कोई इलाज नहीं।"

केस चैक करवाने आया सुखपाल कहता है, "हो गया रांझा राजी? बुरे आदमी का कोई इलाज नही।"

बुरा आदमी कौन है? मोहन लाल? दलजीत सिंह? या कोई और? इस संबंध में सरबजीत गर्दन झुकाए सोच रही है। लगता है कि अब वह भी मेरी तरह टेंशन ग्रस्त हो गई है। मुझसे भी कोई फ़ैसला नहीं हो पा रहा। कुछ देर बाद ड्राइंग रूम में पड़े टेलीविज़न से आवाज़ आती है, "नहीं लभ्भणे लाल गुआचे, मिट्टी ना फरोल जोगिया। (गुम हुए लाल नहीं मिलने वाले, हे जोगी, मिट्टी को न फरोल।) हम दोनों एक दूसरे की ओर देखते हैं। बस, देखे जा रहे हैं।