शनि की छाया / दीपक मशाल
पूजा के लिए सुबह मुँहअँधेरे उठ गया था वो, धरती पर पाँव रखने से पहले दोनों हाथों की हथेलियों के दर्शन कर प्रातःस्मरण मंत्र गाया 'कराग्रे बसते लक्ष्मी। कर मध्ये सरस्वती, कर मूले तु...'। पिछली रात देर से काम से घर लौटे पड़ोसी को बेवजह जगा दिया अनजाने में।
जनेऊ को कान में अटका सपरा-खोरा (नहाया-धोया), बाग़ से कुछ फूल, कुछ कलियाँ तोड़ लाया, अटारी पर से बच्चों से छुपा के रखे पेड़े निकाले और धूप, चन्दन, अगरबत्ती, अक्षत और जल के लोटे से सजी थाली ले मंदिर निकल गया। रस्ते में एक हड्डियों के ढाँचे जैसे खजैले कुत्ते को हाथ में लिए डंडे से मार के भगा दिया।
ख़ुशी-ख़ुशी मंदिर पहुँच विधिवत पूजा अर्चना की और लौटते समय एक भिखारी के बढ़े हाथ को अनदेखा कर प्रसाद बचा कर घर ले आया। मन फिर भी शांत ना था।
शाम को एक ज्योतिषी जी के पास जाकर दुविधा बताई और हाथ की हथेली उसके सामने बिछा दी। ज्योतिषी का कहना था- “आजकल तुम पर शनि की छाया है इसलिए की गई कोई पूजा नहीं लग रही। मन अशांत होने का यही कारण है। अगले शनिवार को घर पर एक छोटा सा यज्ञ रख लो मैं पूरा करा दूंगा।”
'अशांत मन' की शांति के लिए उसने चुपचाप सहमती में सर हिला दिया।