शब्दकोश / एक्वेरियम / ममता व्यास

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शब्दकोश के भीतर हर शब्द बहुत मजबूर है। बहुत असहाय है। खोखले हैं शब्द अगर उनमें भाव ना हो तो, इसलिए शब्दकोश सिर्फ़ ज़रूरत के वक्त ही छुए जाते हैं, लेकिन वही शब्द जब भावों के साथ कोई हमें लिख भेजता है तो हम कलेजे से लगाये फिरते हैं। शब्द तो सदियों से वही हैं, ज्यों के त्यों। हमारे नाम को ही ले लो। इक शब्द ही तो है, लेकिन जब कोई अपना हमें पुकारता है तो हम प्रेम से भर जाते हैं, वाक्य शब्दों से कैसे बनेंगे?

वाक्य तो अहसासों से बनते हैं। दुनिया में कौन प्रेम खुद-ब-खुद कर पाया? एक वह जो प्रेम करे, दूजा वह जिसे प्रेम किया जाए. प्रेम की आग में एक जलता है तो दूजा उसकी आंच से कैसे बचेगा? एक बीन बजाता है दूजा उस पर डोलता है। सभी अपना चित्र सुन्दर ही बनाते हैं और नीचे अपना नाम भी लिख देते हैं। ना जाने क्यों देखने वाले को उसमे हजारों कमियाँ ही नजर आती हैं? किसकी त्रुटि? कौन सोचे? पुल क्यों उदास है? पुल हो जाना आसान नहीं, कितने पत्थर लगे होंगे उसमें राम नाम के, विश्वास के. कितनों की आशाओं, उम्मीदों का पर्याय है वो। मिलन का माध्यम है पुल। किसी कोने में खड़े विशाल पहाड़ से, खारे सागर से बेहतर हैं पुल हो जाना।

(गीत चतुर्वेदी को पढ़ते हुए)