शब्दवध / ए. असफल
मैं पिछले तीन रोज़ से अपनी कट्टी लिए मिट्टी के तेल की दुकान पर लाइन में लग रहा था। न स्टोव में तेल था न डिब्बी में। ब्लैक में ख़रीदते-ख़रीदते कमर टूट रही थी।... नहीं ख़रीदने पर रोटी नहीं पकती, ना सिलाई होती। आज पाँच बजे ही उठकर चला आया था लाइन लगाने।... भीड़ देखकर चाय वाला अपना ठेला भी ले आया था।...
भुकभुका तेज़ी से फैल रहा था। ठेले से अख़बार उठा लिया कि आज का अपना भविष्य फल देख लूँ! तभी नज़र उसमें छपे मुख्य चित्र पर पड़ गई। और वह पहचाना-सा लगा! चेतना धक्का-सा देते हुए पीछे की ओर खींच ले गई।
क़स्बा जो जिला होते ही तेज़ी से गन्दे शहर में बदलने लगा था... मैं एक दर्ज़ी की दुकान में काज-बटन करता और वह भी। वह गाता अच्छा था। उसका नाम ग़ुलाम नबी और मेरा नाम राम सेवक। हम दोनों ही पढ़ते और दर्ज़ीगीरी सीखते थे। एक ही मोहल्ले में रहते। एक-सा खाते-पहनते। एक-सी जिंदगी। मगर वह अच्छा गाता था। २६ जनवरी और १५ अगस्त पर हमेशा इनाम लेता। उर्सों और आर्केस्ट्रा पार्टियों में भी गाकर इनाम-इकराम हासिल कर लेता। ...एक बार एक अफ़सर की मेहर हो गई, सो उन्होंने उसे लोन दिलाकर दर्ज़ीगीरी की दुकान खुलवा दी। तब मैं उसी की दुकान पर आ गया। क्योंकि- उसने नाम रखा था "यार टेलर्स"। लेकिन अब वह कटिंग करता था। काज-बटन मैं भी नहीं, मैं सिलाई करता था। पर वह कटिंग के अलावा तुकबंदी भी करता था।
और उन्हीं दिनों वहाँ एक ऐसे शख़्स का आना शुरू हुआ जो क्षेत्रीय साहित्यकारों पर एक परिचय ग्रन्थ निकाल रहा था। उसने ग़ुलाम नबी से ३० रुपये लेकर उसे भी अपने ग्रन्थ में शामिल कर लिया। वैसे वह एक अध्यापक था, जो साइकिल घसीटता हुआ एक गाँव की पाठशाला में पढ़ाने जाने के बजाय अध्यापकों के फ़र्ज़ी मेडिकल बिल पास कराने अस्पताल के बाबुओं और डॉक्टरों के चक्कर काटता रहता था। इसके एवज़ में उसे अच्छा कमीशन मिल जाता था... नबी उसे साहित्यकार कहता था! बाद के दिनों में उसी ने नबी को कुछ किताबें दीं और कहा, "शाइर अगर राष्ट्र भक्ति के गीत लिखे तो उसे हाथोंहाथ लिया जाता है..." "शाइर तो आप भी हैं...?" नबी ने पूछा। "हम हिन्दू हैं..." वह बोला, "हमारी राष्ट्र भक्ति का क्या मतलब! तुम मुस्लिम हो, तुम अगर पाकिस्तान को ललकारोगे तो देश हाथोंहाथ लेगा।..." "........" "समझे?" उसकी आँखें चमक रही थीं। नबी ने उसे अपना गुरु बना लिया। तुकबंदी वह राष्ट्र गीतों के रूप में करने लगा। ...धीरे-धीरे मुशायरों में बुलाया जाने लगा। ...अब उसका हुलिया, रहन-सहन और तहज़ीब बदल रही थी। वह शाइरों की वेशभूषा में रहने लगा था। दुकान और मुशायरों की आमदनी से उसने अपना मकान भी पक्का बनवाना शुरू कर दिया था।
और यह उन्हीं दिनों की बात है कि जब उसकी लोकप्रियता को देखते हुए सत्ताधारी दल ने उसे अपने अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ में जगह दे दी। फिर तो वह जल्द ही बीस सूत्रीय समिति का सदस्य भी मनोनीत कर दिया गया। अब वह मुझे अपनी तुकबंदियाँ नहीं सुनाता। ...अब वह अफ़सरों और नेताओं की महफ़िलों में उनका मनोरंजन करता था।... और यही सब करते उसने आर्म्स डीलर का लाइसेंस प्राप्त कर लिया! सो, वह दर्ज़ी वाली दुकान पर न बैठकर बन्दूक़ वाली पर बैठने लगा। उसका गुरु वहाँ नियमित आता। क्योंकि वही मरे हुए शाइरों की दीमक लगी डायरियों में से नायाब रचनाएँ चुरा-चुराकर उसे पढ़ने के लिए देता।... उसने उसे एक नया नाम भी दे दिया- मिरज़ा नबी! सो, अब वह ग़ुलाम नबी नहीं रह गया था! मिरज़ा नबी हो गया था।... एवज़ में उसने अपने गुरु को गाँव की प्राइमरी पाठशाला से निकालकर जिला शिक्षा कार्यालय में अटैच करा लिया था। जहाँ वह मेडिकल बिलों के साथ फ़र्ज़ी टी.ए. बिलों का भी कारोबार करने लगा। ...उसने शहर की एक रिकार्डिंग शॉप से नबी की आवाज़ में चोरी की चुनिंदा रचनाओं का एक ऑडियो कैसेट भी तैयार करवा दिया। और परीक्षण बतौर उसे खाद्य मंत्री के पास भिजवा दिया! तब तो लॉटरी ही लग गई। थोड़ी-सी भाग-दौड़ में नबी को केरोसिन डीलर का परमिट मिल गया, साथ ही सड़क किनारे की बेशक़ीमती एकड़ भर ज़मीन लीज पर।...
देखते-देखते उसने कोठी बनवा ली। कार ख़रीद ली! और मैं जहाँ का तहाँ था- राम सेवक! मिरज़ा नबी को हिसाब देने उसकी कोठी में जाता... उसके आलीशान कमरे के दरवाज़े का जाली वाला किवाड़ खोलता, फिर काँच वाला, तब उसके दर्शन होते। मुझे देखकर वह और भी टेलीफ़ोनों में व्यस्त हो जाता। कमरे में उसके विभिन्न मुद्राओं वाले छाया-चित्र, विभिन्न नेताओं और अफ़सरों के संग... मैं उनमें उसे कहाँ तलाश पाता काज-बटन करते हुये? गुदगुदे सोफ़ों से डरकर क़ालीन पर ही बैठ जाता।
वह कभी किसी से गपिया रहा होता, कभी किसी को गीत-ग़ज़ल सुना रहा होता। अखण्ड आत्मविश्वास से भरा हुआ। गपियाते हुए लगता उससे अज़ीज़ और कोई नहीं है। और जब गीत-ग़ज़ल सुना रहा होता तो लगता सारे ज़माने का दर्द उसके दिल में उतर आया है! ये गुर उसे शायद, उसके गुरु ने ही सिखाये थे। अब उसने भी साइकिल की जगह स्कूटर ले लिया था और वह द़़फ्तर में कम उसकी कोठी में ज्यादा बैठता था। वह उसके लिए एक से एक उम्दा योजनाएँ बनाकर अमल में ला रहा था।... जुगाड़ लगाकर उसने शाइर को "मॉरीशस" की एक संस्था से सम्मान भी दिलवा दिया था। उसके दो संग्रह भी छपा दिये थे। यह उसके बायें हाथ का खेल था। उसने कई लोगों को स्थानीय संस्थाओं से अखिल भारतीय साहित्य सम्मान दिलवाये थे।... और लोकल प्रकाशकों से उनकी किताबें छपवायी थीं। क्योंकि- इस सब में उसे कमीशन मिलता था! पर इसके एवज़ में वह अपने ग्राहकों को परम संतुष्ट करना भी जानता था।... कुछ लोगों को तो उसने भागलपुरिया डॉक्टरेट भी दिलवायी थी। ...भागलपुरिया डॉक्टरेट यानी डॉक्टर ऑफ फ़िलासफ़ी! इसके लिए वह इच्छुक व्यक्ति को पहले साहित्यकार बनाता। फिर उसकी पाण्डुलिपियाँ एक ड्राफ्ट के साथ भागलपुर यूनिवर्सिटी को भेज देता।
जहाँ से पीएचडी "उपाधि" सम्बन्धी प्रमाणपत्र आ जाता! और तब वह अपने कस्टमर से उचित शुल्क लेकर जेब में रखी हुई संस्थाओं से स्थायी अध्यक्षों-मुख्य अतिथियों द्वारा "साहित्य श्री", "साहित्य सम्राट" जैसे सम्मान दिलाकर उसकी जनम-जनम की साध पूरी करा देता।...
मेरे लँगोटिया यार को उसने ग़ुलाम नबी से मिरज़ा नबी और फिर मिरज़ा नबी से डॉ. मिरज़ा नबी बनवा दिया था।... अब उसकी धज ही निराली थी! शहर की गन्दगी को देखते ही वह नाक सिकोड़ कर उस पर सफ़ेद रूमाल रख लेता।... अपने स्टैण्डर्ड के लोगों से हाथ मिलाते हुए दंभपूर्ण स्वर में कहता, "ख़ुदा मुआफ़ करे, इतना फ़ख्र तो महामहिम को गले लगाकर भी न होगा..."
लोग उसके आगे बिछ जाते। ...कार में उसने ए.सी. लगवा लिया था, शीशे सदा चढ़ाकर रखता। हवा में मिक्स्ड वायरस उसे अब छू नहीं सकता था। बचपन में उसे हर साल मलेरिया होता था। एक बार बड़ी माता भी निकलीं। वे दाग़ उसने प्लास्टिक सर्जरी से भरवा लिये हैं! और अब वह अध्यापक साहित्यकार उसके व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक ग्रन्थ तैयार कर रहा है।...
चित्र में उसने मंच पर माईक पकड़ रखा है। महामहिम तालियाँ पीट रहे हैं! मैंने अख़बार पढ़ना शुरू किया है: लिखा है- "विश्वविद्यालयों में न हो राजनीतिक हस्तक्षेप" ये विचार राज्यपाल महोदय ने कल शाम यूनिवर्सिटी के टैगोर सभागार में आयोजित पश्चिम क्षेत्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की कांफ्रेंस में व्यक्त किये... प्रारम्भ में महामहिम द्वारा माँ सरस्वती की प्रतिमा के समक्ष दीप प्रज्ज्वलित कर कांफ्रेंस का शुभारम्भ किया गया। इस अवसर पर कुलपति द्वारा उनका शॉल-श्रीफल भेंट कर सम्मान किया गया। एमएनआईपी के विद्यार्थियों ने सरस्वती वंदना प्रस्तुत की। ख्यातनाम् शायर जनाब मिरज़ा नबी ने राष्ट्रीयता से ओतप्रोत रचना प्रस्तुत की। और महामहिम ने तालियाँ पीटते हुए उन्हें अपने गले से लगा लिया! माईक पकड़कर वे भाव-विभोर दशा में बोले, "भाई नबी, आपको सलाम है मेरा! आपके दिल में वतन के लिए असीम प्यार भरा हुआ है...। मैं आपकी पद्म विभूषण के लिए संस्तुति करूँगा।"
तभी शोर उठा कि मिट्टी का तेल ख़त्म हो गया! ...अख़बार मैंने एक कोने में फेंक दिया... जिसकी किरासिन और कारतूस युक्त गन्ध मेरे नथुनों में भरती जा रही थी।