शब्दों की आकर्षण शक्ति / बालकृष्ण भट्ट

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'शब्‍द की आकर्षण शक्ति' न्‍यूटन की आकर्षण शक्ति से लवमात्र भी कम नहीं कही जा सकती। बल्कि शब्‍द की इस शक्ति को न्‍यूटन की आकर्षण शक्ति से विशेष कहना चाहिए। इसलिए कि जिस आकर्षण शक्ति को न्‍यूटन ने प्रकट किया है वह केवल प्रत्‍यक्ष में काम दे सकती है। सूर्य पृथ्‍वी को अपनी ओर खींचता है, पृथ्‍वी चंद्रमंडल को, यों ही जितने बड़े पदार्थ हैं सब छोटे को आकर्षण कर रहे हैं। किंतु एक पदार्थ दूसरे को तभी आकर्षण करते हैं जब वे दोनों एक दूसरे मुकाबले में हों। पर शब्‍द की आकर्षण शक्ति में यह आवश्यक नहीं है कि शब्‍द की आकर्षण शक्ति तभी ठहर सकती हो जब नेत्र भी वहाँ योग देता हो। इन शब्‍दों का जितना ही अधिक समूह बढ़ता जाएगा उतनी ही उनमें आकर्षण शक्ति भी अधिक होती जाएगी। प्रत्‍येक जाति के धर्म ग्रंथ इसके प्रमाण हैं। वेदादि धर्म-ग्रंथ जो इतने माननीय हैं सो इसीलिए कि उनमें धर्म का उपदेश ऐसे शब्‍द समूहों में है जो चित्‍त को अपनी ओर खींच लेते हैं और ऐसा चित्‍त में गड़ के बैठ जाते हैं कि हटाए नहीं हटते। न्‍यूटन ने जिस आकर्षण शक्ति को प्रकट किया वह उनके पहले किसी के दिनों को आकर्षित न कर सकती थी। वृक्ष से फल का टूट कर नीचे गिरना साधारण-सी बात है पर किसी के मन में इसका कोई असर नहीं होता। न्‍यूटन के चित्‍त में अकस्‍मात् आया कि "यह फल ऊपर न जा नीचे को क्‍यों गिरा?" अवश्‍य इसमें कोई बात है। देर तक सोचने के उपरांत उसने निश्‍चय किया कि इसका कारण यही है कि "बड़ी चीज छोटी को खींचती है।" पर शब्‍द की आकर्षण शक्ति में इतना असर है कि वह मनुष्‍य की कौन कहे वन के मृगों को भी मुग्‍ध कर देती है। कोयल का पंचम सवर में अलापना सबों को क्‍यों भाता है, इसीलिए कि मीठी आवाज Melodious voice सबों को सुखद है। बीन इत्‍यादि बाजन भी लोगों को क्‍यों रुचते हैं, इसीलिए कि वे कान को सुखद और मन को आकर्षण करने वाले हैं।

केवल शब्‍द की मधुर ध्‍वनि में जब इतना प्रलोभन है तब यदि उन शब्‍दों में अर्थचातुरी भी भरी हो तो वह कितना मन को खींचने वाला न होगा। अलंकारों में अनुप्रास Alliteration कितना कर्ण-रसायन है पर उसमें अर्थचातुरी न रहने से वह आलंकारिकों में इतनी प्रतिष्‍ठा नहीं पाता। यदि काव्‍य में पद-लालित्‍य के साथ-साथ अर्थचातुरी भी हो तो उसके समान बहुत कम काव्‍य निकलेंगे। जैसा दामोदर गुप्‍त का यह श्‍लोक है-

"अपसारय घनसारं

कुरु हारं दूर एव किं कमलै:

अलमलमलि मृडालौरिति

वदति दिवानिशं बाला।।"

अर्थात कोई विरहिणी नायिका अपने प्रियतम के वियोग में कामाग्नि से व्‍याकुल हो अपनी सहेली से कह रही है - काम-ज्‍वर के दूर करने को जो तुमने यह घनसार (चंदन) हमारे शरीर में पोत रखा है इसे अपसारय (दूर करो), इसलिए कि चंदन से तो और भी कामाग्नि धधक उठेगी। मोतियों का हार उतार लो। कमलों से क्‍या होगा वह भी ठंडक न पहुँचा सकेंगे। अलमलमालि मृडालै: (ठंडक के लिए जो मृडाल मेरे ऊपर धरा है उसे हटाओ।) इस भाँति वह बाला रातों दिन कहर-कहर तुम्‍हारे वियोग में रोया करती है।

तुलसी और बिहारी के काव्‍यों में ऐसा बहुत ठौर आ गया है जहाँ अनुप्रास की मिठास और अर्थचातुरी दोनों एक साथ आई हैं। कुछ उदाहरण उसके यहाँ पर हम देते हैं-

"टटकी धोई धोवती चटकीली मुख जोति।

फिरत रसोई के घरन जगरमगर द्युति होति।।

मानहु मुख दिखरावनी दुलहिन करि अनुराग।

सास सदन मन ललन हूँ सौतिन दियो सुहाग।।

भूषण भार सम्‍हारिहैं किमि ये तन सुकुमार।

सूधे पाय न धरि परत महि सोभा के भार।।

लगालगी लोचन करैं नाहक मन बंध जाए।

देह दुल्‍हैया की बढ़ै ज्‍यों ज्‍यों यौवन ज्‍योति।।

त्‍यों त्‍यों लखि सौतें सबै बदन मलिन द्युति होति।"

तुलसी का जैसा-

"तुलसी सराहत सकल सादर सींव सहज सनेह की।

धिग् मोहि भयउं बेनु बन आगी।

दुसह दाह दुख दूषन भागी।।

सुनी बहोरि मातु मृदुभवानी।

सील सनेह सरल रसासानी।।

अंगरेजी में भी कहीं-कहीं पर ऐसा है। जैसा पोप की इस पंक्ति में-

"The sound should seem an echo to the sense."

अर्थात् शब्‍द ऐसे होने चाहिए जिनमें अर्थों की गूँज-सी निकले। जैसा कालिदास का -

"कन्‍याललाम कमनीयमजस्‍य लिप्‍सो:"

भवभूति का जैसा-

"कूजत्‍कुञ्जकुटीरकौशिकघटा" इत्‍यादि।

वैदर्भी रीति और प्रसाद गुण इस तरह के काव्‍यों के प्राण हैं। पोप की एक और भी बानगी है।

How high his highness holds his haughty head

पर इसमें अर्थ चातुरी का अभाव है। शेक्‍सपीयर के -

"His heavy-shotted hammer shroud"

इस पद में अनुप्रास अर्थ चातुरी सहित है।

तात्‍पर्य यह कि जो अनुप्रास बिना प्रयास आ जाए तथा उसके द्वारा अर्थ में भी अधिक सौंदर्य बढ़ जाए तो वह सर्वथा ग्राह्य है। पर जिस अनुप्रास के पीछे अर्थ चातुरी की हत्‍या करनी पड़े तो वह अनुप्रास किस काम का। कालिदास के-

"इयमधिकमनोज्ञा बल्‍कलेनापि तन्‍वी

किमिव हि मधुराणां मण्‍डनं नाकृतीनाम्"

इस श्‍लोक में अनुप्रास बिना बनावट के आ गया है इससे यह बहुत उत्‍तम अनुप्रास का उदाहरण है। जयदेव कोकिलकंड इसीलिए कहलाए कि उनके पदों में लालित्‍य अर्थ चातुरी से कहीं पर खाली नहीं है जैसा-

ललित लवंगलता परिशीलन कोमल मलय समीरे।

प्रसाद गुण विशिष्‍ट अनुप्रास जैसा-

परमेश्‍वर परिपाल्‍यों भवता भवतापभीतोहम्

वैदर्भी रीति का अनुप्रास जैसा-

कुतो s वीचिवींचिस्‍तव यदिगता लोचनपथम्

त्‍वमापीता पीतांबर-पुरनिवासं वितरसि।

त्‍वदुत्‍संगे गंगे। पतति यदि कायस्‍तनुभृताम्

तदा मात:। शातक्रतवपदलाभोप्‍यतिलघु:।।

अर्थात् हे गंगे तुम्‍हारी वीचि (लहर) यदि नेत्र पथ में आ जाए तो अवीचि (नरक या पाप) कहाँ। तुम जल रूप में जो पी ली जाओ तो पीतांबर पुर (वैकुंठ धाम) का वास दे देती हो। तुम्‍हारी गोद में जो देहधारी मात्र का शरीर आ गिरे तो शातक्रतव (इंद्र) के पद का लाभ भी बहुत थोड़ा है।

जगन्‍नाथ पंडितराज का जैसा

यवनी नवीनतकोमलांगी शयनीये यदि नीयते कथंचित्।

अवनीतलमेव साधु मन्‍ये न वनी माधवनी विनोदहेतु:।।

इत्‍यादि शब्‍द की आकर्षण शक्ति के अनेक उदाहरण संस्‍कृत और भाषा दोनों मे पाए जाते है। अधिक पल्‍लवति न कर केवल दिग्‍दर्शन मात्र यहाँ पर कराया गया है।