शब्दों के जादूगर: कमलेश्वर / रूपसिंह चंदेल

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कमलेश्वर जी से मेरी मुलाकात तब हुई जब वह “गंगा” के सम्पादक थे. मैंने ‘गंगा’ में कोई कहानी भेजी थी. कई महीने बीतने के बाद भी जब वहां से कोई उत्तर नहीं मिला, मैं कमलेश्वर जी से मिलने जा पंहुचा. मेरे मस्तिष्क में उनके व्यक्तित्व का जो स्वरूप बना हुआ था उसके कारण लंबे समय तक मैं 'मिलूं'-'न मिलूं' के उहापोह में रहा था, जबकि कई मित्रों से उनकी उदारता, सरलता, और सहृदयता के विषय में सुन चुका था. उससे पहले मैंने पत्र लिखकर कहानी के विषय में जानना चाहा, लेकिन कोई उत्तर नही मिला. कुछ सप्ताह और बीते. आखिर एक दिन अपरान्ह मैं जा पहुंचा 'गंगा' के कार्यालय. एक सज्जन से पूछा. उन्होंने कमलेश्वर जी के कमरे की ओर इशारा कर कहा, " बैठे हैं…"

ससंकोच मैंने कमरे में झांका. दरवाजा पूरी तरह खुला हुआ था. दरवाजे के ठीक सामने कमलेश्वर जी बैठे लिख रहे थे.

"सर, मैं रूपसिंह चन्देल." दरवाजे पर ठहर मैं बोला.

"अरे… आइये, चन्देल जी." लिखना रोक कमलेश्वर जी बोले और सामने पड़ी कुर्सी की ओर इशारा किया, "बैठिये। बस एक मिनट…" वह पुनः लिखने लगे थे.

वास्तव में उन्होंने एक मिनट ही लिया था. या तो वह आलेख का अंतिम वाक्य लिख रहे थे या वाक्य पूरा कर मुझसे बात करने के लिए आलेख बीच में ही छोड़ दिया था.

मैंनें अपने आने का अभिप्राय बताया.

"कहानी होगी… मैं उसे देख लूंगा. आप फिक्र न करें." कमलेश्वर जी ने पूछा "और क्या लिख रहे हैं?"

"कुछ लघुकथाएं (लघु कहानियां) और बाल कहानियां."

"लघुकथाएं भेजिए… आपने देखा होगा, गंगा में हम लघुकथाएं भी छापते हैं."

कमलेश्वर जी से उस पन्द्रह मिनट की मुलाकात में मैं उनसे बहुत प्रभावित हुआ. कहानी तो 'गंगा' में प्रकाशित नहीं हुई, लेकिन बंद होने से पहले मेरी एक लघुकथा अवश्य प्रकाशित हुई थी.

उस मुलाकात के बाद लंबे समय तक मैं उनसे नहीं मिला. १९९२ या १९९३ में उनके एक कहानी संग्रह पर मैंने 'जनसत्ता' के लिए समीक्षा लिखी, जिसके प्रकाशित होने पर उसकी फोटो प्रति मैंनें उन्हें भेजी. खूबसूरत हस्तलेख में कमलेश्वर जी का पत्र मिला. लिखा था, "आप एक अच्छे कहानीकार हैं…मेरी सलाह है कि समीक्षा लिखने से अपने को बचाएं."

कमलेश्वर जी की सलाह उचित थी. उनकी सलाह के बावजूद मैं समीक्षाएं लिखना रोक नहीं पाया. उन दिनों ‘जनसत्ता’ में मंगलेश डबराल साहित्य देखते थे. जब मैं उनके पास जाता वह दो-चार पुस्तकें मुझे पकड़ा देते… सभी कहानी संग्रह या उपन्यास. महीने में लगभग दो समीक्षाएं मेरी वह छापते भी. उससे पहले 'दैनिक हिन्दुस्तान' में आनंद दीक्षित मुझसे साग्रह लिखवाते रहे थे. जब भी अच्छे संग्रह या उपन्यास आते, दीक्षित जी फोन करके मुझे बुला लेते. कमलेश्वर जी की बात न मानने का खामियाजा मुझे भुगतना पड़ा. समीक्षक - आलोचक बनना मेरा स्वप्न कभी नहीं रहा और न ही यह विचार कभी मन में आया कि अब तक लिखी समीक्षाओं के आधार पर कोई पुस्तक तैयार कर लूं, जैसा कि कुछ लेखकों ने किया भी. उल्टे शत्रु अलग बनाए… यह सब जानते हुए भी लिखना बंद नहीं कर पाया, कम अवश्य हुआ.

लंबे अंतराल के बाद एक साहित्यिक कार्यक्रम में कमलेश्वर जी से मुलाकात हुई. उन दिनों वह बहुत व्यस्त थे. धारावाहिकों के लिए काम कर रहे थे. टकराते ही प्रणाम कर मैने अपना परिचय दिया. कमलेश्वर जी तपाक से बोले, "चन्देल जी, आपको बताने की आवश्यकता नहीं." और वह अपनी व्यस्तताओं की चर्चा करने लगे थे, "क्या करूं…मेरी एक टांग हवाई जहाज में होती है- दिल्ली - मुम्बई के बीच झूलता रहता हूं."

उसके पश्चात फिर कुछ समय बीत गया. एक दिन रात कमलेश्वर जी का फोन आया. मैं गदगद.

"चन्देल, मैं अब पूरी तरह दिल्ली आ गया हूं. 'चन्द्रकान्ता' का काम जल्दी ही सिमट जायेगा… कुछ दिनों की ही बात है…आप संपर्क में रहें. आपके साथ कुछ करना चाहता हूं."

मेरे लिए इससे बड़ी प्रसन्नता की बात क्या हो सकती थी कि कमलेश्वर जी ने मुझे इस योग्य समझा था. मैंने पूछ लिया, "भाई साहब , क्या योजना है?"

"आल्हा-ऊदल पर एक धारावाहिक की योजना है."

मैंने स्वीकृति दे दी. मैंने तब सोचा था, और आज भी सोचता हूं कि आल्हा-ऊदल के लिए उन्होंने मेरा चयन शायद इसलिए किया होगा क्योंकि वे दोनों चन्देल नरेश परिमर्दिदेव के साली के पुत्र थे और उन्हीं के दरबार में थे. दोंनो ने उनके लिए कई गौरवपूर्ण लड़ाइयां लड़ी थीं और 'लोक पुरुष' बन गये थे.

मैंने कमलेश्वर जी से हां तो कह दी, लेकिन स्वयं द्विविधा में पड़ गया था. वह द्विविधा थी मेरी सरकारी नौकरी. जिस विभाग में नौकरी करता था वहां ऎसी किसी भी गतिविधि में शामिल होने की भनक मेरी प्रताड़ना का कारण बन सकता था. स्थितियां ऎसी न थीं कि नौकरी छोड़कर कमलेश्वर जी के साथ जुड़ लेता. अस्तु मैंने कमलेश्वर जी से संपर्क नहीं साधा और उन्होंने भी मुझे याद नहीं किया. पूरी तरह दिल्ली आकर उनकी प्राथमिकताएं बदल गयी थीं. वह लेखन और पत्रकारिता में डूब गये थे. उन्होंने 'भास्कर' समूह के प्रधान सम्पादक का पद स्वीकार लिया था, कितने पाकिस्तान' पर काम कर रहे थे और कई अखबारों के लिए नियमित स्तंभ लिख रहे थे.

उन्हीं दिनों की बात है. मे्रे एक मित्र सरकारी सेवा से अवकाश प्राप्त कर दिल्ली में बस गये और स्वतंत्र लेखक और पत्रकारिता का मार्ग ग्रहण किया. यह एक कठिन मार्ग है. कठिनाइयां होनी ही थीं. उन्हें मुकम्मल नौकरी की तलाश थी, क्योंकि तब उनकी आयु पैंतालीस के आस-पास थी. पारिवारिक दायित्व और छोटी-सी पेंशन. मैं चाहता था कि उन्हें किसी अखबार - पत्रिका में काम मिल जाये. वह स्वयं इस दिशा में प्रयत्नशील थे. मैंने अपने वरिष्ठ मित्र योगेन्द्र कुमार लल्ला से बात की, जो उन दिनों 'अमर उजाला' (मेरठ) में संयुक्त सम्पादक थे. मित्र उनसे मिलने गये. लेकिन बात आगे नहीं बढ़ी. तभी मुझे विचार सूझा कि यदि वह कमलेश्वर जी से मिल लें तो शायद कुछ बात बन जाये. सुना था कि कमलेश्वर जी ने लगभग सौ लोगों को या तो नौकरी दिलवायी थी या किसी न किसी रूप में उनकी सहायता की थी. अपना विचार मित्र पर प्रकट किया. वह बोले, "कमलेश्वर जी मुझे नहीं जानते… कैसे मिलूं-कहूं!"

"मैं मिलवा दूंगा…कह भी दूंगा." मैंने कहा.

इसे संयोग ही कहना होगा कि कुछ दिनों बाद ही एक साहित्यिक कार्यक्रम में कमलेश्वर जी से मुलाकात हो गयी. मित्र मेरे साथ थे. मैंने कमलेश्वर जी को उनका परिचय दिया तो वह तपाक से बोले, " चन्देल, मैं इन्हें जानता हूं". दरअसल कमलेश्वर जी की यह विशेषता थी कि वह किसी को यह अहसास नहीं होने देते थे कि वह उसे नहीं जानते थे.

"भाई साहब, ये आपसे अपने किसी काम से मिलना चाहते हैं." मैंने कहा, "इन्हें आपकी मदद की आवश्यकता है."

"सण्डे को फोन करके आ जायें."

लगभग डेढ़ वर्ष तक उस मित्र ने कमलेश्वर जी के साथ काम किया. उसके बाद उन्होंने उन्हें 'दैनिक भास्कर' में बतौर उप-सम्पादक नौकरी दिला दी, जहां वह स्वयं प्रधान संपादक थे. यद्यपि मित्र को कमलेश्वर जी के साथ जोड़ने में मेरी कोई अहम भूमिका नहीं थी, जिसे मित्र ने कमलेश्वर जी पर लिखे अपने संस्मरण में स्पष्ट भी किया, लेकिन मैं कमलेश्वर जी के प्रति कृतज्ञ अनुभव करता रहा. मैंने उनसे पहली और अंतिम बार किसी काम के लिए कहा और उन्होंने मुझे महत्व दिया था. जैसा कि कहा, कमलेश्वर जी ने अनगिनत लोगों की सहायता की और लोग उनके प्रति कृतज्ञ रहे, लेकिन ऎसे भी उदाहरण हैं जो बाद में उन्हें गाली देते देखे गये. ऎसा ही एक उदाहरण एक अनुवादक, टिप्पणीकार और कवि महोदय का है.

हुआ यह कि २६ मई,२००६ (शनिवार) को हिमाचल की 'शिखर' संस्था ने कमलेश्वर जी को प्रथम शिखर सम्मान प्रदान किया. सम्मान हिमाचल के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने उन्हें दिल्ली आकर हिमाचल भवन में प्रदान किया, क्योंकि उन दिनों खराब स्वास्थ्य के कारण कमलेश्वर जी ने शिमला जाने में असमर्थता व्यक्त की थी. कार्यक्रम के संयोजक कथाकार -पत्रकार बलराम थे. बलराम का आग्रह था कि मैं वहां 'कितने पाकिस्तान' पर बोलूं. कमलेश्वर जी पर अंग्रेजी में केशव और उर्दू में साहित्य अकादमी के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ. गोपीचाद नारंग को बोलना था. हिन्दी के लिए मुझे चुना गया था. मैं बोला. अगले दिन कई अखबारों में समाचार प्रकाशित हुआ. जिन अनुवादक , टिप्पणीकार और कवि सज्जन का उल्लेख किया, वह २८ मई को मेरे घर आये. उन्होनें 'जनसत्ता' में समाचार पढ़ा था. कार्यक्रम की चर्चा चली तो उत्तेजित स्वर में बोले, "कमलेश्वर जैसा कमीना व्यक्ति मैंने अपनी जिन्दगी में कोई दूसरा नहीं देखा."

मैं हत्प्रभ.

मुझे कुछ कहने का अवसर दिए बिना वह आगे बोले, "देखा कैसे 'शिखर सम्मान' मैनेज कर लिया."

"कमलेश्वर जी को उसे मैनेज करने की क्या आवश्यकता थी. उन्हें सम्मानित कर 'शिखर संस्था' ने स्वयं को सम्मानित अनुभव किया होगा." मैंने प्रतिवाद किया.

क्षणभर की चुप्पी के बाद वह बोले,"और कुछ लोगों को मंच चाहिए होता है बोलने के लिए…कैसा भी मंच हो…बोल आते हैं." यह टिप्पणी मेरे लिए थी उनकी . उसके बाद तेजी से उन्होंने मेज पर से अपना चश्मा और पान का पैकेट (वह पान खाने के शौकीन हैं. एक खाते हैं और चार बंधा लेते हैं और हर समय साथ लेकर चलते हैं ) उठाया और मेरे कुछ कहने से पहले ही बिना दुआ - सलाम प्रस्थान कर गये. लेकिन जब कमलेश्वर जी की मृत्यु हुई तब ये सज्जन मेरे साथ उनकी अंत्येष्टि में गये थे. गाड़ी में हमारे साथ एक वरिष्ठ कवि और एक कथाकार मित्र भी थे.

उन सज्जन ने सबके सामने जो रहस्योद्घाटन किया उसने मुझे चौंकाया था. कमलेश्वर जी ने उनके बेटे की दो बार नौकरी लगवाई थी. नौकरी ही नहीं लगवाई थी, बल्कि उन्हें फोन करके सूचित भी किया था कि उनका बेटा जाकर वहां से नियुक्ति-पत्र ले ले.

हिन्दी में दूसरा कोई लेखक इतना उदार मुझे नहीं मिला, जितना कमलेश्वर जी थे. यदि कोई उदार रहा भी तो वह उनकी जैसी सक्षम स्थिति में नहीं रहा होगा. दरअसल दूसरों का कष्ट उन्हें अपना लगता था. शायद इसका कारण यह था कि उन्होंने अपने जीवन की शुरूआत बहुत ही संघर्षों से की थी. एक स्थान पर अपनी उस स्थिति का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा कि वह उन दिनों दिल्ली के राजेन्द्र नगर में रहते थे. बेटी छोटी थी. नौकरी कॊई थी नहीं. उन दिनों नाश्ते के लिए एक अण्डा उबाला जाता, जिसके पीले हिस्से को ब्रेड में लगाकर वे बेटी को देते और ऊपर के सफेद हिस्से को आधा गायत्री जी और आधे को वह ब्रेड के साथ लेते. कह सकते हैं कि कमलेश्वर जी कभी अपने अतीत को भुला नहीं पाये तभी अपने पास आए हर जरूरत मंद की सहायता के लिए तत्पर रहे. जब रमेश बतरा बीमार होकर अस्पताल में भर्ती हुए, कमलेश्वर जी ही ऎसे साहित्यकार थे जो गायत्री जी के साथ नियमित शाम रमेश को देखने जाते रहे थे. डाक्टर रमेश का कोई ऑपरेशन करना चाहते थे, जिसके लिए लगभग सत्तर हजार रुपये खर्च होने थे. कमलेश्वर जी ने डाक्टर से कहा कि, " आप खर्च की चिन्ता न करें, मैं दूंगा…जो भी खर्च होगा… वे ऑपरेशन करें." रमेश ने मुम्बई में ‘सारिका’ में उनके साथ काम किया था. सोचा जा सकता है कि वह कितना चाहते थे लोगों को. बाद में डाक्टरों ने यह कहकर रमेश का ऑपरेशन नहीं किया था कि वह आखिरी स्टेज में थे.

हिन्दी में आज जो दलित विमर्श चर्चा के केन्द्र है, उसे कमलेश्वर जी ने तब उठाया था, जब यह लोगों की कल्पना से बाहर था…भले ही उसका स्वरूप कुछ और था.

कमलेश्वर प्रखर प्रतिभा के धनी और प्रयोगशील व्यक्ति थे. उन्हें यदि शब्दों का जादूगर कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी. उन्होंने अनेक फिल्में लिखीं और लगभग सौ फिल्मों के लिए संवाद लिखे. सतह से उठकर उन्होंने शिखर छुआ.वह पहले और शायद अंतिम व्यक्ति थे जो बिना आई.ए.एस. रहे दूरदर्शन के अतिरिक्त महानिदेशक पद पर रहे थे. इंदिरा गांधी को केन्द्र में रखकर 'आंधी' जैसी फिल्म लिखने वाले कमलेश्वर जी को इंदिरा जी बहुत पसंद करती थीं. अंतिम दिनों में वह इंदिरा जी पर बनने वाली फिल्म के लिए काम कर रहे थे. सही मायने में वह विराट व्यक्तित्व के धनी और अथक परिश्रमी थे. उनके साथ मेरी दो मुलाकातें अविस्मरणीय रहीं. एक में मैंने उनका लंबा साक्षात्कार किया था. दूसरी में मैं सपरिवार उनके घर था. लगभग ढाई घण्टे मेरे परिवार के साथ घुल-मिलकर वह बातें करते रहे थे.

जिस रात कमलेश्वर जी की मृत्यु हुई, उस दिन अपरान्ह चार बजे मेरी मुलाकात उनके साले डॉ. माधव सक्सेना 'अरविन्द' (कथाबिंब त्रैमासिक (मुम्बई) के सम्पादक ) के साथ कनॉट प्लेस के कॉफी होम में निश्चित थी. अरविन्द जी सपत्नीक वैवाहिक कार्यक्रम में सम्मिलित होने के लिए आए थे. भाभी जी भी कॉफी होम आयीं थीं. उन्होंने कथाकार विजय को भी बुला लिया था. बातचीत के दौरान कमलेश्वर जी की चर्चा आयी तो अरविन्द जी बोले, "स्वास्थ्य ठीक नहीं है, फिर भी शादी में वे दीदी के साथ पहुंचे थे."

दरअसल कमलेश्वर जी किसी भी आत्मीय के कार्यक्रम में जाने या मिलने का कोई अवसर छोड़ना नहीं चाहते थे. मृत्युवाले दिन भी कुछ ऎसा ही हुआ था. वह विदेश से आये अपने एक मित्र से मिलने गये थे, लेकिन घर नहीं लौट पाये. वह उनकी अंतिम यात्रा सिद्ध हुई थी.

कमलेश्वर जी की मृत्यु हिन्दी जगत के लिए अपूरणीय क्षति है. वह कितना 'पापुलर' थे, इसका प्रमाण यह था कि उनकी मृत्यु के पश्चात देश के अनगिनत शहरों-कस्बों में उनके लिए शोक सभाएं आयोजित की गईं और अनेक पत्रिकाओं ने उन पर विशेषांक निकाले थे. शायद ही किसी हिन्दी लेखक की मृत्यु के बाद इतना सब हुआ हो. उनके साक्षात्कार का एक अंश 'गगनांचल' में प्रकाशित करने के विषय में जब मैंने डॉ. कन्हैयालाल नन्दन जी से बात की तब छूटते ही वह बोले थे, "उनके साक्षात्कार के विषय में पूछने की क्या बात रूपसिंह … उनके लिए मैं कुछ भी कर सकता हूं ."

तो ऎसे थे कमलेश्वर जी… चमत्कारिक व्यक्तित्व. कुछ लोग उनकी प्रशंसा करते हुए उनकी कुछ कमियों - कमजोरियों का उल्लेख करना नहीं भूलते. कमियां - कमजोरियां इंसान में ही होती हैं और कमलेश्वर जी भी एक इंसान ही थे.