शब्दों से अर्थ चुरा लिए हैं / जयप्रकाश चौकसे

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शब्दों से अर्थ चुरा लिए हैं
प्रकाशन तिथि : 14 जनवरी 2013



हिंदुस्तानी सिनेमा के हर दौर में अच्छी-बुरी फिल्में बनती रही हैं, परंतु गुजश्ता दौर में साफगोई का एक उदाहरण यह है कि विश्राम बेडेकर पृथ्वीराज कपूर और सुरैया के साथ 'रुस्तम सोहराब' बना रहे थे और उनके अमेरिका से आए पुत्र ने पूछा कि आप किस कालखंड की फिल्म बना रहे हैं, आपके कुछ पात्र यूनानी पोशाक पहने हैं तो कोई मुगलों की तरह नजर आ रहा है? विश्राम बेडेकर की पिछली कुछ फिल्में असफल रही थीं, लिहाजा उन्होंने कहा- बेटा यह हमारे बुरे वक्त की फिल्म है। वर्तमान दौर में करण जौहर अपने पिता की असफल 'अग्निपथ' को यह कहकर दोबारा बनाते हैं कि वे एक क्लासिक का रीमेक कर रहे हैं। साजिद खान जाने क्या सोचकर जितेंद्र-श्रीदेवी अभिनीत 'हिम्मतवाला' का रीमेक बना रहे हैं। वह एक साधारण मसाला फिल्म थी, जिसे सितारे चला ले गए थे और इस बार भी अजय देवगन चला ले जाएंगे, परंतु वह कोई क्लासिक नहीं है। हमने शब्दों से उनके स्थापित अर्थ छीन लिए हैं और उन्हें अपनी सुविधानुसार उपयोग में ला रहे हैं।

सलीम-जावेद की 'जंजीर' वर्ष १९७३ में प्रदर्शित हुई थी, जिसने तब तक ग्यारह असफल फिल्मों में काम करने वाले अमिताभ बच्चन को सितारा बना दिया और 'त्रिशूल' तथा 'दीवार' ने उन्हें सरताज सितारा बना दिया। इन तीनों फिल्मों की कथा-पटकथा ने भावुकता को खारिज कर दिया था और लिजलिजे प्रेम-त्रिकोणों से मुक्ति दिला दी थी। वह पटकथा लेखन में नया मोड़ था। अमिताभ बच्चन ने बहुत अच्छा अभिनय किया था और भावना की तीव्रता ने उन पात्रों की प्रतिहिंसा को विश्वसनीयता प्रदान की थी, परंतु जाने कैसे उन फिल्मों में प्रस्तुत छवियों को आक्रोश का प्रतीक मान लिया गया, जबकि तीनों फिल्मों में नायक अपने माता-पिता के साथ किए गए अन्याय का प्रतिकार कर रहा है। वे पारिवारिक दुश्मनी के बदले की कहानियां थीं, उनका सामाजिक असंतोष से उस तरह का कोई संबंध नहीं था, जैसे गोविंद निहलानी की 'अद्र्धसत्य' में है, या प्रकाश झा की 'दामुल', 'मृत्युदंड', 'अपहरण' व 'गंगाजल' में था। विगत चार दशकों से उन भूमिकाओं को 'सामाजिक आक्रोश' का प्रतीक माना जा रहा है।

शब्दों से उनके अर्थ छीन लेने के इस कालखंड में सिनेमाई आक्रोश छवि की बासी कढ़ी में नया उबाल हाल ही में आया है, जब संपादक प्रेम भारद्वाज ने ज्ञानरंजन पर निकाले गए 'पाखी' विशेषांक में लिखा 'ज्ञानरंजन की एक खासियत उनका आक्रोश है। यह आक्रोश उनके पात्रों में भी दिखाई देता है। इन पंक्तियों को लिखते-लिखते सहसा सत्तर के दशक के एंग्रीमैन अमिताभ बच्चन याद आ जाते हैं। कुछ समानताएं हैं तो कुछ असमानताएं हैं दोनों दिग्गजों में।' आगे की पंक्ति में वे इस तुलना के लिए क्षमा भी मांगते हैं।

निदा फाजली ने संपादक को एक पत्र लिखा- 'दूसरी बात जो आपके संपादकीय में खटकी वह ज्ञानरंजन जैसे अच्छे साहित्यकार की तुलना सत्तर के दशक के एंग्री-यंगमैन अमिताभ बच्चन से की गई है। सत्तर के दशक से अधिक गुस्सा तो आज की जरूरत है, फिर अमिताभ को एंग्री-यंगमैन की उपाधि से क्यों नवाजा गया? वे तो केवल अजमल कसाब की तरह बना हुआ खिलौना हैं। एक को हाफिज मोहम्मद सईद ने बनाया तो दूसरे को सलीम-जावेद की कलम ने गढ़ा था। खिलौने को फांसी दे दी गई, लेकिन उस खिलौने को बनाने वाले को पाकिस्तान खुलेआम उसकी मौत के नमाज पढऩे के लिए आजाद छोड़े हुए है। आपने भी खिलौने (यहां उनका आशय बच्चन से है) की प्रशंसा की, लेकिन खिलौने बनाने वालों को सिरे से भुला दिया।'

दरअसल निदा फाजली अजमल कसाब और अमिताभ को समान दर्जा नहीं दे रहे हैं। उनका आशय मात्र इतना है कि युवा कसाब के जेहन में जहर भरा गया था, गोयाकि वह मात्र हथियार था, जिसका ट्रिगर हाफिज सईद के हाथ में था और अमिताभ का आक्रोश भी सलीम-जावेद के गढ़े पात्र का आक्रोश है, यह उनका अपना व्यक्तिगत विचार नहीं है। अमिताभ एक कलाकार हैं और अच्छे कलाकार होने के नाते उन्होंने भूमिकाओं को जीवंत कर दिया। उनका आशय शायद यह है कि उनकी तथाकथित आक्रोश वाली भूमिकाएं संपादक को ज्ञानरंजन के पात्रों के आक्रोश के कारण याद आईं और संपादक महोदय सलीम-जावेद को भूल गए। दरअसल संपादक और निदा फाजली दोनों ही किसी का अपमान नहीं करना चाहते थे, परंतु उनके शब्दों से अर्थ छीना जा सकता है, उन्होंने अनचाहे ही गुंजाइश छोड़ी है। यह रचना-प्रक्रिया अपरिभाषेय है। जरूरी नहीं कि सतह के ऊपर की चीजें लिखते समय याद आएं। कई बार भीतरी सतह से कुछ आ जाता है। निदा के अवचेन में आतंकवाद के क्रियाकलाप और मनुष्य को खिलौना बनाए जाने की बात आना स्वाभाविक है। मनुष्य की असहायता को वे बयां कर चुके हैं कि 'जंजीरों की लंबाई तक है सारा सैर-सपाटा।'

इस प्रकरण पर कवि असद जैदी निदा फाजली का समर्थन करते हैं और कहते हैं 'अमिताभ ने कई फासीवादी किरदार निभाए हैं, जो गैरलोकतांत्रिक प्रवृत्तियों को बढ़ावा देते हैं।' इससे शायद उनका आशय 'शहंशाह' की तरह की फिल्में हैं, जहां नायक कहता है कि वह जहां खड़ा है, वही अदालत है, या वह जहां खड़ा होता है, लाइन वहीं से शुरू होती है इत्यादि। परंतु ये फिल्में और संवाद भी अमिताभ बच्चन के अपने विचार नहीं हैं, वरन फिल्म के लेखकों के हैं और अराजकता को निमंत्रण-सा देने वाली फिल्में सलीम-जावेद ने नहीं लिखी हैं। अमिताभ बच्चन व्यावसायिक कलाकार हैं और भूमिका को बखूबी निभाने के अतिरिक्त वे किसी चीज को अपना उत्तरदायित्व नहीं मानते।

वे अनेक विज्ञापन फिल्में करते हैं तो उन वस्तुओं का इस्तेमाल भी करते हों, यह जरूरी नहीं। अपना पूरा मेहनताना मिलने पर वे किसी भी चीज के ब्रांड एंबेसडर हो सकते हैं। वे गुजरात टूरिज्म का प्रचार कर रहे हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि वे नरेंद्र मोदी का समर्थन कर रहे हैं, जैसे अमरसिंह से दोस्ती के दिनों का मतलब उनका समाजवाद पर विश्वास नहीं था। यह ठीक उसी तरह है, जैसे इंदिरा गांधी के निकट होते हुए भी उनकी सरकार के विरोध में आक्रोश की फिल्में कर रहे थे। अमिताभ विशुद्ध कलाकार हैं। किसी राजनीतिक दर्शन से उनका कोई लेना-देना नहीं है, इसलिए उनकी तुलना पूरा जीवन वामपंथी रहे ज्ञानरंजन के साथ नहीं की जानी चाहिए थी।

ज्ञानरंजन आश्चर्यचकित करते हैं कि मनुष्य के अवचेतन के भय को वे कैसे उजागर करते हैं। उनकी प्रतिभा आतंकित भी करती है कि ये हमारे छुपे राज कैसे जान लेता है। संभव है कि प्रेम भारद्वाज ने इस आतंक को महसूस किया और उन्हें लगा कि अमिताभ अभिनीत किरदारों से उनकी तुलना करें। सारांश यह कि शब्दों से अर्थ छीन लिया गया है।