शब्द शक्ति / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

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शब्द शक्ति / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

धर्म, काम, मोक्ष की प्राप्ति सुख से, अल्प बुद्धिवालों को भी। परिपक्व बुद्धिवाले फिर काव्यानुशीलन क्यों करें? धर्म के लिए वेद शास्त्र का ही अनुशीलन क्यों न करें? मीठी दवा से यदि काम हो तो कड़वी क्यों करे।1?

काव्य का लक्षण-

(1) काव्यप्रकाश-दोषरहित, गुणसहित और अलंकृत, कभी-कभी अनलंकृत भी शब्द तथा अर्थ को काव्य कहते हैं।2

लक्षण सदोष-दोष काव्य को केवल परिमित करता है, उसके तत्व का तिरस्कार नहीं। अनेक सदोष पद्य उत्तम काव्य में परिगणित होते हैं, जैसे 'न्यक्कारो ह्ययमेव'3 इति। स्वयं लक्षणकार ने दोषों के युक्त होते हुए भी इसे ध्वैनि के कारण उत्तम काव्य स्वीकृत किया है। इसलिए लक्षण में अव्याप्ति है। स्वरूप लक्षण में विशेषणत्व का समावेश अनावश्यक है। किसी दोष के कारण रत्न को रत्न कहना थोड़े ही छोड़ देते हैं।

'शब्दार्थौ का विशेषण 'सगुणौ' भी असमीचीन है, क्योंकि 'गुण' का संबंध रस से है, शब्द और अर्थ से नहीं जैसा कि लक्षणकार ने स्वयं स्वीकार किया है। यह कहना भी ठीक नहीं कि शब्द और अर्थ से, जो रस व्यंजक हुआ करते हैं, गुणों का अप्रत्यक्ष संबंध (उपचार) होता है। शब्द और अर्थ में रस नहीं होता, इसलिए


1. चतुर्वर्गफलप्राप्ति: सुखादल्पधियामपि।

काव्यादेव यतस्तेन तत्स्वरूपं निरूप्यते॥ -साहित्यदर्पण 1। 2।

2. तददोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृती पुन: क्वापि। -काव्यप्रकाश 1, सूत्र 1।

3. न्यक्कारोह्ययमेव मे यदरयस्तत्राप्यसौ तापस:

सोऽप्यत्रौव निहन्ति राक्षसकुलं जीवत्यहो रावण:।

धिग्धिक्च्छक्रजितं प्रबोधितवता किं कुम्भकर्णेन वा

स्वर्गग्रामटिका विलुण्ठनवृथोच्छूनै: किमेभिर्भुजै॥

-हनुमन्नाटक 14-6। काव्यप्रकाश के सप्तम उल्लास (दोषप्रकरण) में

'अविमृष्ट विधेयांशत्व दोष' में उद्धृत।

उनमें गुण भी नहीं होते। रस और गुण का संबंध अन्वयव्यतिरेक संबंध है।1 लक्षण में अलंकार शब्द का उल्लेख भी अनावश्यक है। अलंकार तो केवल पहले से विद्यमान रस का उत्कर्ष करता है। संक्षेप में गुण और अलंकार दोनों उत्कर्षकारक होते हैं, स्वरूपघटक नहीं।

(2) काव्यस्यात्मा ध्वकनि:- ध्वउनिकार।

इस लक्षण में भी अतिव्याप्ति है। क्योंकि अलंकार ध्वोनि और वस्तुध्वोनि पर भी यह घटित होता है। इसमें अव्याप्ति दोष भी है। यदि ध्व्नि से ध्वतनिकार का तात्पर्य रसादिध्वानि है तो इसमें कोई दोष संभाव्य नहीं जान पड़ता। यदि ऐसा ही है तो स्वयंदूती की यह उक्ति 'खबर उड़ानी है बटोही द्वैक मारे की' आदि, को काव्य कैसे कहेंगे, क्योंकि यहाँ रति भाव व्यंग्य है।

जैसा कि प्राचीन आचार्यों ने स्वीकार किया है काव्य का सार या आत्मन रस ही है। 'कृत्याकृत्य-प्रवृत्ति-निवृत्ति-उपदेश'2 में 'उपदेश' शब्द का प्रयोजन विधि या आज्ञा नहीं है, अपितु कांतासम्मति उपदेश है ('उपदेश' शब्द का व्यवहार ठीक नहीं जान पड़ता क्योंकि काव्य प्रवृत्तिनिवृत्युत्पादक होता है)। इस संबंध में अग्निपुराण का कथन है-'वाग्वैदग्य्् प्रधानेऽपि रस एवात्राजीवितम्।' व्यक्तिविवेककार महिम भट्ट भी कहते हैं-काव्यस्यात्मनि संगिनि रसादिरूपे न कस्यचिद्विमति:।' ध्विनिकार का भी कथन है कि 'नहिं कवेरितिवृत्तमात्रनिर्वाहेणात्मपदलाभ:।'

प्रश्नि-यदि केवल सरस रचना ही काव्य है तो रघुवंश आदि के नीरस अंश काव्यत्व कैसे प्राप्त करेंगे।

उत्तर-नीरस पद्य भी सरस पद्यों के वैशिष्टय से उसी प्रकार रसवान् हो जाते हैं जिस प्रकार किसी पद्य के नीरस शब्द पूरे पद के रस से सरस हो जाया करते हैं। जिन पद्यों में केवल अलंकार और गुण ही होते हैं वे भी कभी-कभी काव्यवंधा के साम्य के कारण काव्य कहे ही जाते हैं।

(3) 'रीतिरात्मा काव्यस्य'-वामन।

यह भी आपत्तिजनक है, क्योंकि रीति केवल संघटना है, शरीर का अंग विन्यास है। इसलिए यह भी आत्मा नहीं हो सकती।

विश्व नाथ द्वारा प्रस्तावित लक्षण है-'वाक्यं रसात्मकं काव्यम्'। इसके अंतर्गत


1. अन्वय संबंध-यत्सत्तवे यत्सत्तवम्-किसी के होने पर किसी का होना। व्यतिरेक संबंध-यदभावे यदभाव:-किसी के न होने पर किसी का न होना जैसे दंड और चक्र के रहने पर घड़े का बनना। यहाँ दंड और चक्र का घड़े के बनने से अन्वय संबंध है। साथ ही दंड और चक्र के अभाव में घड़ा नहीं बन सकता। यह दंड और चक्र का उसके बनने से व्यतिरेक संबंध है।

2. साहित्यदर्पण, पृष्ठ 21।

रसाभास, भाव और भावाभास भी हैं। जगन्नाथ पण्डितराज द्वारा उपस्थापित लक्षण-'रमणीयार्थ प्रतिपादक: शब्द: काव्यम्' का विचार किया जाय।

[ 2 ]

आकांक्षा, योग्यता और आसत्ति से युक्त पदसमूह वाक्य कहलाता है।1

आकांक्षा=अर्थज्ञान की पूर्ति की जिज्ञासा।2

योग्यता=बुद्धिसम्मत संबंध।

आसत्ति=अव्यवधान।

आकांक्षा के बिना हाथी, मनुष्य, घोड़ा, यह पदसमूह भी वाक्य हो जायगा।

योग्यता 'पदार्थों के परस्पर संबंध में बाधा का न होना।3 यदि कोई कहे 'आग से सींचता है' तो यह वाक्य न होगा।

आसत्ति के लिए अपेक्षित होता है अर्थ के विचार से परस्पर संबद्ध दो पदों के बीच समय और पदार्थ दोनों का अव्यवधान4। 'कुत्ते को पीया मारा पानी' पदसमूह वाक्य नहीं हो सकता। क्योंकि 'पीया' पद 'कुत्ते को' और 'मारा' पदों के बीच व्यवधान उपस्थित करता है। इसी प्रकार एक शब्द प्रात:काल कहा और दूसरा सायंकाल तो दोनों से वाक्य न बन सकेगा।

महावाक्य-परस्पर संबद्ध अनेक वाक्यों का समूह महावाक्य कहलाता है; उदाहरणार्थ-रामायण, रघुवंश इत्यादि।

अर्थ तीन प्रकार का होता है वाच्य, लक्ष्य और व्यंग्य। और इन अर्थों का बोध करानेवाली शक्तियाँ क्रमश: अभिधा, लक्षणा और व्यंजना कहलाती हैं।

अभिधा

अभिधा - शब्द के मुख्य अर्थ का बोध (संकेतसंग्रह) करानेवाली शक्ति। 'संकेत' प्रथम और प्रमुख अर्थ को कहते हैं। इस शक्ति की बौद्धिक प्रक्रिया का नाम शक्तिग्रह या संकेतग्रह है।

संकेतग्रह - संकेतग्रह कई प्रकार से होता है-निरीक्षण और अभ्यास से, जैसे बच्चे में; प्रसंग से, उपदेश से इत्यादि। शब्द चार प्रकार के होते हैं-जातिशब्द, गुणशब्द, क्रियाशब्द और यदृच्छाशब्द या द्रव्यशब्द। इन शब्दों का बोध अभिधा शक्ति से होता है। जातिशब्द किसी व्यक्ति का सर्वसामान्य नाम होता है जो जाति के द्वारा कहा


1. वाक्यं स्याद्योग्यताकांक्षासत्तियुक्त: पदोच्चय:। साहित्यदर्पण, 2-1।

2. आकांक्षा प्रतीतिपर्यवसानविरह:। स च श्रोतुर्जिज्ञासारूप:। साहित्यदर्पण, पृ.3।

3. योग्यता पदार्थानां परस्परसम्बन्धेु बाधाभाव:। साहित्यदर्पण, 2-1।

4. आसत्ति बुद्धयविच्छेद:। साहित्यदर्पण, वही।

जाता है। उदाहरणार्थ 'गो' शब्द से शक्तिग्रह के द्वारा व्यक्ति का गोत्व जाति में बोध होता है। सर्वसामान्य नामों में जाति का शक्तिग्रह होता है, व्यक्ति का नहीं। यदि संकेतग्रह व्यक्तियों का माना जाय तो या तो किसी जाति के सभी स्थानों और सभी समयों में होनेवाले सभी व्यक्तियों का पृथक् रूप में एक साथ उसी समय बोध होगा या केवल एक विशेष व्यक्ति का। पहली स्थिति आनंत्य दोष के कारण अग्राह्य है, क्योंकि किसी जाति के सभी व्यक्तियों के समुदाय का एक ही स्थान और एक ही समय में उपस्थित होना असम्भव है। यदि सर्वसामान्य नाम को हम एक व्यक्ति का संकेत मानें तो किसी जाति के प्रत्येक व्यक्ति के लिए पृथक् नाम की आवश्यकता होगी। यदि यह माना जाय कि एक व्यक्ति के शक्तिग्रह के वैशिष्टय से जाति के अन्य सभी व्यक्तियों का बोध बिना किसी शक्तिग्रह के हो जायगा तो यह कथन ठीक न होगा। क्योंकि शक्तिग्रह के बिना कोई प्रमा (सत्यज्ञान) की प्रतीति नहीं हो सकती। इसलिए दूसरा तर्क भी व्यभिचार दोष के कारण असिद्ध हो जाता है। यदि एक व्यक्ति का संकेत करनेवाले शब्द से जाति के अन्य सभी व्यक्तियों का बोध हो तो 'गो' शब्द से घोड़ा, हाथी इत्यादि का बोध होने में कोई बाधा न रह जाएगी । यही व्यभिचार दोष है।1

[ पश्चिम के प्राचीन तर्कशास्त्रियों के विष्वक् सिद्धांत-डाक्ट्रिन आव युनिवर्सल्स-से इसे मिलाइए। आभासवाद (नॉमिनलिज्म)-यथार्थवाद (रियलिज्म) और प्रमावाद (कॉन्सेप्चुअलिज्म)-इन तीनों सिद्धांतों में से लेखक यथार्थवादियों के मत को परिष्कृत रूप में ग्रहण करता जान पड़ता है। इस विवाद को मनोविज्ञान के क्षेत्र में पहुँचाकर छोड़ दिया गया है क्योंकि मनोविज्ञान दो प्रकार की बौद्धिक प्रक्रिया स्वीकार करता है। अर्थमात्र का बोध और बिम्बग्रहण। भाषाविज्ञान भी भाषा के दो पक्ष स्वीकार करता है। सांकेतिक और बिम्बाधायक। ]


लक्षणा

मुख्यार्थ का बाधा होने पर (देखिए 'योग्यता') रूढ़ि के कारण या किसी प्रयोजन के लिए मुख्यार्थ से संबद्ध अन्य अर्थ का ज्ञान जिस शक्ति के द्वारा होता है वह लक्षणा है। अन्य अर्थ के बोध के कारण हैं-अन्वयानुपपत्ति (अन्वय का अभाव) और मुख्यार्थ से लक्ष्यार्थ का सम्बन्ध। इसलिए अन्य का तात्पर्य एकदम असम्बद्ध नहीं है क्योंकि उपादान लक्षणा में लक्ष्यार्थ के साथ-साथ मुख्यार्थ भी लगा रहता है। लक्षणा के लिए तीन शर्तें होती हैं-(1) मुख्यार्थ का बाधा, (2) मुख्यार्थ का लक्ष्यार्थ से संबंध, (3)रूढ़ि या प्रयोजन। ये तीनों लक्षणा के हेतु हैं। 'पंजाब वीर है' और 'गाँव पानी [ गंगा ] में बसा है' ये क्रमश: रूढ़ि और प्रयोजन के उदाहरण हैं। दूसरे उदाहरण में लक्षणा


1. देखिए, साहित्यदर्पण, पृष्ठ 33 से 35 तक।

का प्रयोजन है शैत्य और पावनत्व। ये दोनों व्यंग्य हैं। लक्षणा का हेतु सदा या तो कोई प्रयोजन होता है या कोई रूढ़ि।

विशेष

'बाधा' पद का अर्थ ठीक-ठीक समझ लेना चाहिए। यों तो इसका तात्पर्य योग्यता का अभाव (उक्ति की पदावली में तर्कसिद्ध संबंध का अभाव) है, किंतु विशेष परिस्थिति में इस पद से कथन की अनुपत्ति का अभाव भी समझना चाहिए (चाहे वह तर्क से ठीक ही क्यों न हो) यह बात निम्नलिखित उदाहरण से बहुत स्पष्ट है-'आपने बड़ा उपकार किया।' इत्यादि, इसमें वाक्यगत लक्षणा कही जाती है। मेरे मत से यहाँ वाक्यगत लक्षणा नहीं, व्यंजना है। यह उदाहरण लक्षणा का उदाहरण हो सकता है, यदि इस वाक्य के पहले 'आपने मेरा घर ले लिया' इत्यादि कहा जाय।

काव्यप्रकाश में दिए रूढ़ि के उदाहरण का खंडन

उदाहरण है-'कर्म में कुशल'।1 मम्मट 'कुशल' का 'व्युत्पत्तिनिमित्त' अर्थ बतलाते हैं और उसे वाच्यार्थ या मुख्यार्थ मानते हैं। पर इस प्रसंग से जिस अर्थ का विचार होना चाहिए वह लोकस्वीकृत अर्थात् 'प्रवृत्ति निमित्त' ही ठहरता है। यदि ऐसा न होगा तो कोई 'गो' पद में भी लक्षणा मान सकता है। (गो=जो चले)2A

लक्षणा दो प्रकार की होती है।:-

उपादान लक्षणा और लक्षण-लक्षणा।

उपादान लक्षणा-वाक्यार्थ में अंगरूप से अन्वित मुख्यार्थ जहाँ अन्य अर्थ का आक्षेप कराता है वहाँ मुख्यार्थ के भी बने रहने के कारण उपादान लक्षणा कहलाती है। (इसे अजहत्स्वार्थावृत्ति भी कहते हैं।) जैसे, श्वेरत दौड़ा, भाले घुसते हैं।

उदाहरण

रूढ़ि में उपादान लक्षणा-काले ने काटा।

प्रयोजन में उपादान लक्षणा-लाल पगड़ी आई, सब भागे।

दूसरे उदाहरण में व्यंग्य प्रयोजन है सातंकातिशय।

विशेष

उपादान लक्षणा में हमें यह भलीभाँति समझ लेना चाहिए कि 'अंगरूप से अन्वित' का तात्पर्य क्या है। अर्थात् उस पदार्थ या वस्तु का अन्वय होता है जो पद के द्वारा कही जाती है, उस पद का नहीं। उदाहरण के लिए-'लाल पगड़ी' पदार्थ 'लालपगड़ीवाले


1. कर्मणिकुशल:।-काव्यप्रकाश, पृष्ठ 42।

2. मिलाइए साहित्यदर्पण, द्वितीय परिच्छेद।

सिपाही' पदार्थ में अंगरूप से उपस्थित है। किंतु 'इस घर से बड़ी आशा है', इस उदाहरण में यद्यपि 'घर के लोग' में 'घर' पद उपस्थित है तथापि 'घर' पदार्थ का उससे कोई प्रयोजन नहीं।

लक्षणलक्षणा-जहाँ किसी शब्द का मुख्यार्थ अपने स्वरूप का समर्पण करके अन्य या लक्ष्य अर्थ का उपलक्षण मात्र बन जाय वहाँ लक्षणलक्षणा होती है। जैसे 'पंजाब वीर है।' और 'गंगा पर घर है' (जहत्स्वार्थावृत्ति)।

सूचना-उपादान में मुख्यार्थ का अन्वय अंगरूप से-लक्ष्यार्थ के साथ होता है पर लक्षणलक्षणा में नहीं।

उदाहरण

रूढ़ि में लक्षणलक्षणा - इस घर से बड़ी आशा है।

प्रयोजन में लक्षणलक्षणा - आप का गाँव बिलकुल पानी में बसा है।

विशेष

प्रयोजनवती लक्षणा रूढ़ि भी हो सकती है। इसलिए तीसरा भेद भी होना चाहिए। रूढ़ि प्रयोजनवती लक्षणा आवश्यक जान पड़ती है। जैसे इन मुहावरों में-'सिर पर क्यों खड़े हो।' 'वह उसके चंगुल में है'। वे इसके विशिष्ट उदाहरण हैं।

कभी-कभी लक्ष्यार्थ एकदम विपरीत अर्थ के रूप में होता है। जैसे जब कोई किसी के द्वारा किए गए अपकार का वर्णन करते हुए इस प्रकार सम्बोधित करता है-'आपने बड़ा उपकार किया, सज्जनता की हद कर दी।'

लक्ष्यार्थ - अपकार और दुर्जनता।

व्यंग्यार्थ - उनका (अपकार और दुर्जनता का) आतिशय्य। अब प्रश्नड़ होता है कि उस स्थिति में जब कि किए गए अपकार का कथन शब्दों द्वारा न होगा केवल दोनों व्यक्तियों के द्वारा मन-ही-मन समझ लिया जायगा तब क्या लक्षणा होगी?

लक्षणा के अन्य भेद

सारोपा और साध्यभवसाना - ये साम्य (आरोप और अध्य्वसान) पर आश्रित है।

आरोप - उपमेय का उपमान के साथ इस प्रकार अभेद कथन कि उपमेय भी बना रहे, निगीर्ण या आच्छादित न हो। उदाहरणार्थ-'यह बालक सिंह है।'

अध्यरवसान - उपमेय को हटाकर अभेद ज्ञान द्वारा उपमान को उपस्थित करना। जैसे, एक 'सिंह मैदान में आया।' जिसमें आरोप हो वह सारोपा और जिसमें (अध्यवसान हो वह) अध्यावसाना लक्षणा है।

उदाहरण

रूढ़ि में सारोपा उपादान लक्षणा - (अश्वर: श्वेेतो धावति, यह उदाहरण हिंदी में न चल सकेगा) जैसे 'गूदड़साई'। इस अर्थ में उक्त पद का व्यवहार 'रूढ़ि' है लक्ष्यार्थ में 'गूदड़' का वाच्यार्थ भी गृहीत है। इसलिए उपादान है। 'साई' पर मुख्यार्थ (अनिगीर्ण स्वरूप) का बिना त्याग किये 'गूदड़' का आरोप है। इसलिए सारोपा है।

प्रयोजन में सारोपा उपादान लक्षणा - 'यह आम गूदा ही गूदा है।' ('एते कुन्ता: प्रविशन्ति' हिंदी में अच्छा उदाहरण न होगा)।

रूढ़ि में सारोपा लक्षणलक्षणा 'अरब लोग लड़ाके थे।' (अरब=अरब देशवासी)। अरब शब्द अरब के निवासियों का उपलक्षण है। 'अरब' [ देश ] और 'लोग' [ देशवासी ] का अभेद होने से सारोपा है।

प्रयोजन में सारोपा लक्षणलक्षणा - 'घृत आयु है', 'जल जीवन है', 'वह मनुष्य हमारा दाहिना हाथ है' इत्यादि, इत्यादि। इन उदाहरणों में आयु, जीवन और हाथ ने अपने मुख्यार्थ का त्याग कर दिया है और इनका प्रयोग केवल उपलक्षण के रूप में हुआ है। अत: लक्षणलक्षणा है। घृत, जल और मनुष्य के साथ क्रमश: आयु, जीवन और हाथ का भेद होने से आरोप है। 'वह गौ आदमी है', उदाहरण सादृश्य पर आश्रित है।

सूचना

सारोपा लक्षणा रूपकालंकार का बीज होती है।

लक्षणा के आधार कई प्रकार के संबंध [ सादृश्य ] होते हैं, जैसे, कार्यकारण संबंध अवयवावयवि संबंध इत्यादि।1 'कमर में बूता' अवयवावयवि संबंध का उदाहरण है।

साध्यववसाना लक्षणलक्षणा - 'घृत आयु है'-कार्यकारण संबंध का उदाहरण है। 'वह पूरा बढ़ई है'-तात्कर्म्य संबंध का उदाहरण है। 'चरणों की कृपा से' में अवयवावयवि संबंध है। इत्यादि इत्यादि।

रूढ़ि में साध्यिवसाना उपादान लक्षणा-'काले ने काटा।'

प्रयोजन में साध्यावसाना उपादान लक्षणा-'भाले पिल पड़े।'

'लाल पगड़ी आ पहुँची।'

रूढ़ि में साध्य वसाना लक्षणलक्षणा-'पंजाब वीर है।'

प्रयोजन में साध्युवसाना लक्षणलक्षणा-'उसका घर पानी में है।'


1. अभिधेयेन संबंधात्सादृश्यात्मसमवायत:

वैपरीत्यात्क्रियायोगाल्लक्षणा पंचधा मता॥

-अभिधावृत्तिमातृका, पृष्ठ 17।

लक्षणा के अन्य भेद

जो सादृश्य के आधार पर नहीं होती वह 'शुद्धा', जो सादृश्य के आधार पर होती है वह 'गौणी'।

सूचना

सादृश्य के अतिरिक्त अन्य संबंधों के आधार पर 'शुद्धा' होती है, जैसे कार्यकारण संबंध, अंगागिभाव संबंध इत्यादि। 'गौणी' का आधार उपचार अर्थात् बलात्कृत अभेद होता है। उपचार-भेदप्रतीतिस्थगन। उपचार के लिए दो वस्तुओं को अत्यंत भिन्न होना चाहिए।1

रूढ़ि में गौणी सारोपा उपादान लक्षणा - ('एतानितैलानिहेमंते सुखानि' उदाहरण पर भी वही आपत्ति हो सकती है जो 'कर्मणि कुशल:' के संबंध में की गई है; क्योंकि यहाँ 'तैलानि' का व्युत्पत्तिनिमित्तक अर्थ गृहीत किया जाता है।)

क्या 'एते राजकुमारा गच्छन्ति' उपादान लक्षणा का उदाहरण हो सकता है। उपादान लक्षणा में वाच्यार्थ का उपादान लाक्षणिक पद में होना चाहिए। यहाँ लक्षणा 'राजकुमारा (राजकुमारों से पद में मिलते-जुलते लोगों) में है 'एते' में नहीं।2

प्रयोजन में गौणी सारोपा उपादान लक्षणा - 'सब नवाब ही तो जा रहे हैं, किसको बतावें।'

रूढ़ि में सारोपा गौणी लक्षण लक्षणा - 'गौडेंद्र कंटक को राजा निकाल रहा है।' शब्द सादृश्य द्वारा 'कष्टदायी तुच्छ शत्रु' का उपलक्षण है; कंटक प्राय: शत्रु के अर्थ में प्रयुक्त होता है।

प्रयोजन में सारोपा गौणी लक्षणलक्षणा - 'वह आदमी बैल है; वह गऊ

आदमी है।'


[ अत्यन्तविशकलितयो: शब्दयो: सादृश्यातिशयमहिम्ना भेदस्थगन प्रतीतिमात्रम्।–साहित्यदर्पण द्वितीय परिच्छेदपृष्ठ । ]

2. [ साहित्यदर्पण में 'एते राजकुमारागच्छन्ति' प्रयोजनवती उपादान गौणी सारोपा लक्षणा के उदाहरण में उद्धृत किया गया है। इसका अर्थ यह है कि किसी मंडली में कुछ राजकुमार जा रहे हैं और कुछ उन्हीं से मिलते-जुलते अन्य राजकुमार जा रहे हैं। कहनेवाला कहता है कि ये राजकुमार जा रहे हैं।' इससे यहाँ पर जो लोग राजकुमार नहीं हैं वे भी राजकुमार कहे जा रहे हैं। सादृश्य के कारण ही वे राजकुमार कहे गए हैं। उनपर राजकुमार होने का आरोप ये (एते) शब्द से है। उनका राजकुमारों के समान मान्य होना प्रयोजन है। यहाँ 'राजकुमार' शब्द का मुख्यार्थ तो 'राजा का कुमार है' पर उसका लक्ष्यार्थ 'राजकुमार सदृश्य अन्य कुमार' है। इस लक्ष्यार्थ में मुख्यार्थ राजकुमार का भी उपादान है। इसी से उपादान लक्षणा है। शुक्लजी का कहना है कि 'राजकुमारा:' पद ही लाक्षणिक है, 'एते' (ये) नहीं। वस्तुत: 'एते' आरोप को बतलाता है। इसलिए 'एते राजकुमारा:' सबका सब लाक्षणिक है। ]

रूढ़ि में गौणी साध्यीवसाना उपादान लक्षणा - 'कत्थड़ गूदड़ सोते हैं, दुशालेवाले रोते हैं।'

प्रयोजन में गौणी साध्य'वसाना उपादान लक्षणा - 'एक हवी की ठठरी सामने आकर खड़ी हुई।'

रूढ़ि में गौणी साध्यधवसाना लक्षणलक्षणा - 'कंटक दूर करो।'

प्रयोजन में गौणी साध्य'वसाना लक्षण लक्षणा - 'एक बैल के मुँह क्या लगते हो।'

प्रयोजनवती लक्षणा के अन्य भेद - गूढ़ और अगूढ़ व्यंग्य के अनुसार प्रयोजनवती लक्षणा के गूढ़ और अगूढ़ दो भेद होते हैं। 'आपने बड़ा उपकार किया' इत्यादि गूढ़ का उदाहरण है। 'जगह कोतवाली सिखाती है' अगूढ़ का उदाहरण है क्योंकि 'सिखाती है' का लक्ष्यार्थ 'सरलता से समझ में आ जाती है।'

प्रयोजनवती के अन्य भेद - धार्मिगत और धर्मगत। यदि व्यंग्य प्रयोजन फलवती1 लक्षण में धर्मों से संबद्ध होता है तो धार्मिगत लक्षणा होती है, जैसे, 'मैं कठोर हृदय 'राम' हूँ सब कुछ सह लूँगा'। यहाँ 'राम' शब्द का मुख्यार्थ अनुपयुक्त है। लक्षणा से यहाँ इसका अर्थ 'दु:ख सहनशील' होता है। यहाँ राम (धर्मी) की अतिशयता व्यंग्य है। 'पानी में घर है' उदाहरण में शैत्य (धर्म) की अतिशयता व्यंग्य है अत: लक्षणा धर्मगत है।

उपसंहार

लक्षणा के अनेक प्रकार के भेदों का निरूपण विभिन्न दृष्टियों से किया गया है जो परस्पर स्वच्छंद हैं। उनके मिश्रण से इसके 80 भेद हो सकते हैं। मुख्य भेद ये हैं-

(1) रूढ़ा और प्रयोजनवती।

(2) उपादान और लक्षणलक्षणा।

(3) सारोपा और साध्य।वसाना।

(4) गौणी और शुद्धा।


व्यंजना

व्यंजना शक्ति ऐसे अर्थ को बतलाती है जो अभिधा, लक्षणा या तात्पर्यवृत्ति द्वारा उपलब्ध नहीं होता। व्यंजना व्यापार का नाम ध्व8नन, गमन और प्रत्यायन भी है। यह शक्ति या तो शब्द, अर्थ और प्रत्ययगत होती है या उपसर्गगत। ('दफ्तर के चपरासियों तक ने कुछ चंदा दिया-प्रत्ययनिष्ठ शक्ति का उदाहरण हो सकता है।)

तीन प्रकार की व्यंजनाएँ दिखाई पड़ती हैं-वस्तु व्यंजना, भाव व्यंजना और अलंकार व्यंजना।


1. प्रयोजनवती।

इसके अन्य भेद शाब्दी या आर्थी हैं। इनमें से शाब्दी व्यंजना के दो भेद हैं-अभिधामूलक और लक्षणामूलक।

शाब्दी व्यंजना

(1) अभिधामूलक -'संयोग'1 आदि के कारण अनेकार्थी शब्दों का एक अर्थ निर्दिष्ट कराके जब अभिधा रुक जाती है और उसके उपरांत जब उन्हीं शब्दों को लेकर दूसरे अर्थ की प्रतीति होती है, तब वह दूसरा अर्थ अभिधामूलक व्यंजना द्वारा निकलता है। जैसे-'वह राजा भद्रात्मा है, उसने शिलीमुखों का संग्रह किया है, दान से उसका कर सुशोभित है।'2

सूचना - जहाँ दूसरे अर्थ का बोध कराना भी इष्ट होता है वहाँ श्लेिष अलंकार होता है, पर जहाँ दूसरे अर्थ की यों ही प्रतीति मात्र होती है वहाँ अभिधामूलक शाब्दी व्यंजना ही समझनी चाहिए।

अभिधामूलक व्यंजना - वह है जो संयोग, विप्रयोग, साहचर्य, विरोध, अर्थ, प्रकरण, लिंग, अन्य शब्द का सन्निधान, सामर्थ्य, औचित्य, देश, काल, व्यक्ति, स्वर इत्यादि के द्वारा शब्द के अनेक अर्थों में से एक अर्थ की उपलब्धि से वाच्यार्थ का निश्चय हो जाने पर दूसरे अर्थ की अभिव्यक्ति करती है।

उदाहरण

शंखचक्रवाले हरि-संयोग

बिना शंखचक्र के हरि-विप्रयोग।

भीम अर्जुन-साहचर्य।

कर्ण अर्जुन-विरोधिता (बैर)।

भवबाधा दूर करनेवाले स्थाणु को नमस्कार- अर्थ (प्रयोजन अर्थात् भवबाधाशांति)

देव सिंहासन पर विराजिए-प्रकरण।

मकरध्वंज कुपित हुआ-लिंग (चिन्हर; यहाँ कोप)।

मधु से मत्त कोकिल-सामर्थ्य (मधु=वसंत)।

1. संयोगो विप्रयोगश्च साहचर्य्यों विरोधिता॥

अर्थ प्रकरणं लगं शब्दस्यान्यस्य सन्निधि:॥

सामर्थ्यमौचिती देश: कालो व्यक्ति स्वरादय:॥

शब्दार्थस्यानवच्छेदे विशेषस्मृतिहेतव:॥ -वाक्यपदीय भर्तृहरिकृत।

2. भद्रात्मनो दुरधिरोहनोर्विशालवंशोन्नते: कृतशिलीमुखसंग्रहस्य।

यस्यानुपप्लुतगते: परवारणस्य दानाम्बुसेकसुभग: सततं करोऽभूत्॥

-काव्यप्रकाश, द्वितीय उल्लास, 12।

लक्षणामूलक व्यंजना - अर्थात् लक्षणा पर आश्रित व्यंजना। उदाहरणार्थ 'उसका घर बिलकुल पानी में है।' यहाँ पानी का लक्ष्यार्थ 'पानी का तट' है। व्यंजित वस्तु है आर्द्रता और शैत्य की अतिशयता।

शाब्दी व्यंजना में व्यंजित अर्थ किसी विशेष शब्द तक ही परिमित रहता है, उसके आगे नहीं बढ़ता।

आर्थी व्यंजना

आर्थी व्यंजना में वक्ता, बोधव्य (जिसके प्रति बात कही जाय), वाक्य, अन्य का सन्निधान, वाच्य (अर्थ), प्रस्ताव (प्रकरण), देश, काल, काकु, चेष्टा इत्यादि के द्वारा व्यंजित अर्थ का बोध होता है।

उदाहरण

(1) वक्ता, वाक्य प्रकरण, देश और काल द्वारा - 'शरद् ऋतु आ गई। रास्तों का पानी सूख गया। लंका यहाँ से थोड़ी ही दूर है, वानरों का दल भी एकत्र हो गया, अब हम लोग कहाँ बैठे हैं।' यहाँ व्यंजित अर्थ है-'आक्रमण करो।'

(2) बोधव्य की विशेषता - 'चंदन छूट गया है अंजन नहीं रह गया है, शरीर भी पुलकित है, हे झूठी दूती, तू वापी स्नान करने गई थी, उस अधाम (नायक) के पास नहीं गई थी।'1

विपरीत लक्षणा के द्वारा 'तू अवश्य गई थी'-अर्थ निकलता है। दूती की अवस्था से यह अर्थ व्यंजित होता है कि नायक के साथ उसने संभोग किया है।

(3) अन्यजसंनिधि की विशेषता द्वारा -'देखो इस कुंज के सामने वनमृग कैसे खिलौने की तरह निश्चल बैठे हैं' (यहाँ नायिका स्थान की निर्जनता की व्यंजना करती हुई संकेत स्थल की भी व्यंजना करती है।)

(4) काकु से - 'ऐसे समय में भी वह न आवेगा?' ('अवश्य आवेगा'-व्यंग्य।)

(5) चेष्टा से - 'गुरुजनों के बीच नायिका ने नायक की ओर भाव से देख लीलाकमल का मुख बंद कर दिया।'2

1. नि:शेषश्च्युतचन्दनं स्तनतटं निर्मृष्टरागोऽधरो

नेत्रो दूरमनद्बजने पुलकिता तन्वी तवेयं तनु:।

मिथ्यावादिनि दूति बान्धवजनस्याज्ञातपीडागमे

वापीं स्नातुमितो गतासि न पुनस्तस्याधमस्यान्तिकम्॥

-साहित्यदर्पण, पृष्ठ 56।

2. संकेतकालमनसं विटं ज्ञात्वा विदग्धया।

हसन्नेत्रार्पिताकूतं लीलापद्यं निमीलितम्।

-साहित्यदर्पण, पृष्ठ 58।

('संकेत का समय संध्या् है'-यह अर्थ व्यंग्य है।)

अर्थमूलक व्यंजना के तीन उपभेद होते हैं-(1) वाच्यार्थ में, (2) लक्ष्यार्थ में और (3) व्यंग्यार्थ में। इनके उदाहरण क्रमश: ऊपर (1) (2) और (3) में दिए जा चुके हैं।

विचार

यह बात ध्या न में रखने की है कि 'लक्ष्यार्थ' में 'लक्ष्यार्थ' और 'अभिधेयार्थ' में 'अभिधेयार्थ' नहीं होता, किंतु 'व्यंग्यार्थ' में दूसरा व्यंग्य हो सकता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि अभिधा और लक्षणा का शब्द से सीधा और निकट का संबंध है, पर व्यंजना का उसमें संबंध अप्रत्यक्ष है, अर्थात् अभिधेयार्थ के द्वारा शब्द से उसका संबंध होता है, क्योंकि नियम है-'शब्दबुद्धिकर्मंणां विरम्य व्यापाराभाव:'।

आपत्ति - वाच्यार्थ ज्ञात हो जाने पर हम लक्ष्यार्थ तक पहुँचते हैं, फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि लक्ष्यार्थ का शब्द या पद से प्रत्यक्ष संबंध है।

समाधान - लक्ष्यार्थ वाच्यार्थ का रूपांतर मात्र होता है और व्यंग्यार्थ पृथक् अर्थ होता है।

(1) प्रश्नल - क्या तीसरा भेद 'व्यंग्य में व्यंग्य' नियम के विरूद्ध नहीं है, क्योंकि शब्द का अर्थबोध कराने में वही वृत्ति एक बार अर्थ का बोध कराने के अनंतर अपना व्यापार समाप्त कर देती है। फिर से उस शब्द का अर्थ बताने में उसका उपयोग नहीं होता-(शब्दबुद्धिकर्मणां विरम्य व्यापाराभाव:)।

उत्तर - नहीं। क्योंकि यह नियम शब्द के लिए है, अर्थ के लिए नहीं।

तात्पर्य वृत्ति

तात्पर्य वृत्ति वह वृत्ति है जो प्रत्येक शब्द के संकेतित अर्थों के समन्वय द्वारा पूरे वाक्य का संगत अर्थ प्रस्तुत करती है।

अभिधा शक्ति के एक-एक पदार्थ को अलग-अलग बोधन करके विरत हो जाने पर उन अलग-अलग पदार्थों को परस्पर संबद्ध करके समूचे वाक्य का अर्थबोधन करनेवाली वृत्ति तात्पर्य वृत्ति है।

तात्पर्य वृत्ति को मानने न मानने की दृष्टि से दो संप्रदाय हो गए हैं। जो इस वृत्ति को स्वीकृत करता है उसका नाम 'अभिहितान्वयवादी' है। इनका मत है कि वाक्य का प्रत्येक पद पृथक् रूप से स्वच्छंद अर्थात् अनन्वित अर्थ का बोध कराता है इसके अनंतर सब अर्थों का समन्वय होकर, वाक्यार्थ अर्थात् समूचे वाक्य के अर्थ की उपलब्धि होती है। पुराने नैयायिक, मीमांसक (जैसे कुमारिल भट्ट) तथा और बहुत से लोग अर्थात् अधिकांश शास्त्राभ्यासी इस मत को मानते हैं। आलंकारिकों (साहित्यकों) का भी यही मत है किंतु अन्विताभिधानवादी1 तात्पर्य वृत्ति को नहीं मानते। उनका मत है कि वाक्य का प्रत्येक शब्द अन्वित अर्थ का ही बोध कराता है। इसलिए अभिधेयार्थ के अनंतर किसी और अन्वय की आवश्यकता नहीं रह जाती।

1. यह मत कुमारिल भट्ट के शिष्य प्रभाकर तथा उनके अनुयायियों का है और 'गुरुमत' कहलाता है।