शमशान भैरवी / सुधा भार्गव
गणेशी प्रसाद कालिज में भौतिक विज्ञान के प्रोफेसर थे और अपनी हंसमुख प्रवृति के कारण सन्नाटे में भी कोलाहल की तरंग पैदा कर देते। पहली बेटी के जन्मदिन पर बाप –दादा के जमाने से चली बंदूक से तीन गोलियां हवा में चलकर खुशियाँ मनाई थीं। नचईयों ने सोचा –बेटा हुआ है, हजार असीस देकर इनाम पाने की कामना करने लगे। प्रोफेसर साहब को कोई फर्क न पड़ा। उन्होंने 500) देकर विदा किया। उस समय वे यही कहा करते थे –भाई, घर में मजबूत खंबे की भी जरूरत है और कोमल पल्लवों वाली लतिका की भी। पर दूसरी कन्या होने पर उनकी विचारधारा ने पलटा खाया। जो पाया भगवान का प्रसाद समझकर ग्रहण किया पर समय की पुकार समझकर प्राण किया –दोनों बेटियों को आत्मनिर्भर बनाने के साथ साथ तन से भी मजबूत बनाएँगे ताकि समाज के भेड़ियों से अपनी सुरक्षा खुद कर सकें।
दो बच्चियों के गर्वीले पिता होने के बाद अपने को सुखी समझ संतुष्टि से भर उठे। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। तीसरी लक्ष्मी जब उनके घर आई तो उनके भाई –बंधु उनसे ज्यादा परेशान हो उठे।
चचेरे भाई ने तो कह ही दिया –प्रोफेसर पढ़ –लिख कर भी लगता है मूर्ख है। और गलती हो भी गई तो उसे सुधारा जा सकता है। इसका तो पिंडदान करने वाला ही कोई नहीं।
माँ भी तो उस दिन बोली थी –गणेशी अब तो तू तीन लड़कियों का बाप बन गया। बड़ी ज़िम्मेदारी आन पड़ी है। ऊपरवाला ही अब तो रक्षक है। हे दयालु नैया पार कर।
गनेशीप्रसाद ऐसी मिट्टी के बने थे कि व्यंग तीर उनसे टकराने से पूर्व ही खंडित हो जाते।
समय की रफ्तार से बेटियाँ बड़ी हो गईं और उनकी शादी करके प्रोफेसर गंगा नहा गए। बड़ी बेटी दया के पुत्री होने पर वे फूले न समाये, नाना जो बन गए थे। दूसरी बार उसके गर्भवती होने पर वात्सल्य की मूर्ति बाप ने सोचा—बच्चा अभी छोटा है। कुछ दिनों के लिए बेटी को अपने पास बुला लिया जाए तो उसे आराम मिल जाएगा। वे अपना मंतव्य प्रकट कर भी न पाए थे कि उन्हें उड़ती –उड़ती खबर मिलर्र कि दया अस्वस्थ है। वे घबराए से उसकी ससुराल जा पहुंचे लेकिन वहाँ तो बेटी ने खिले कमाल की मानिंद पिता का स्वागत किया।
स्नेही पिता ने धड़कते दिल से पूछा –बेटी क्या हाल है? तूने जरूर उछलकूद की होगी या बोझ उठाया होगा।
-नहीं पापा, ऐसी कोई बात नहीं है। मैंने आप जानकर गर्भपात कराया है।
-क्या --?पिता की आँखों के सामने हजार बिजलियाँ एक साथ कड़क उठीं। । समझ न सके इस गर्भघातिनी की बेवकूफी पर रोये या हंसें।
-नन्ही सी जान को मसलने के समय तुझे जरा सा भी मोह नहीं हुआ। मैंने तो तेरा नाम ही गलत रख दिया।
-ओह पिता जी, ऐसा तो करना ही था। दो लड़कियों की शादी का खर्चा कैसे उठाते? डाक्टर को हजार देकर हजारों के खर्चे से बच गए। इसके अलावा लड़की को लिखाते,पढ़ाते, खिलाते फिर वह दूसरे के घर चली जाता। लड़की को पालना तो वैसे ही हुआ जैसे पड़ोसी के बाग को सींचना।
-भ्रूण हत्या तो अपराध है फिर तुम्हें डाक्टर कहाँ से मिल गया?
-धन के लालची कुत्ते न जाने कितने घूमते मिल जाते हैं। जिसकी चाँद पर चांदी का जूता मारो वही हाजिर।
-तुममें और एक अनपढ़ औरत में कोई अंतर नहीं है। तुम्हारे कुकर्म से पता लग गया की नारी अपना क्या मूल्य लगाती है। अच्छा एक बात बता !यदि अगली बार भी लड़की हो गई तो क्या करोगी?प्रोफसर ने अकुलाहट से पूछा।
-उसे भी मारना होगा। वंश चलाने के लिए लड़का तो चाहिए ही।
दया इस समय शमशान भैरवी लग रही थी। इतने में दया की सास इठलाती हुई आई और बोली –समधी जी, मेरी बहू से नाराज न होइए। वह आपको ठीक से समझा नहीं पा रही है। देखिए, मेरे पास दादी सास की हँसुली सतलड़ा हार और सोने की तगड़ी है। उन्होंने यह सब मेरे सास को दिया और उन्होंने यह मुझे सौंप दिया। अब मेरे बारी है कि मरने से पहले अपनी बहू को सारे आभूषण दे जाऊँ। जरा सोचिए,यदि लड़का नहीं हुआ तो आपकी बेटी पूर्वजों की संपदा किसे दे जाएगी? इसके अलावा पुत्र न होने से कपाल क्रिया कौन करेगा?
-यह काम तो बेटी भी कर सकती है। प्रोफेसर साहब के स्वर में झल्लाहट थी।
-बेटी यदि कपालक्रिया करती है तो मुक्ति नहीं मिलती। और एक बात –आपकी बेटी ने मुझे पोता नहीं दिया तो मैं अपने बेटे की दूसरी शादी कर दूँगी। मैं तो पोते क्या पड़पोते के सपने देखती हूँ ताकि स्वर्ग नसैनी चढ़ सकूँ।
-प्रोफेसर तुनक पड़े –आपका धर्म तब कहाँ चला गया था जब एक नन्हें जीव की हत्या हुई थी। आप जैसे आस्तिक तो जानते ही हैं कि जीव हत्या पाप है फिर गलती कैसे हो गई। भ्रूण हत्या के कारण दिनोंदिन लड़को की संख्या लड़कियों से कम होती जा रही है। वह दिन दूर नहीं जब ज़्यादातर लड़के क्वारे रहेंगे और अनेक द्रोपदियाँ पैदा हो जाएंगी। स्वयंवर से बाहुवली कुवेर अपनी संयोगिता को उठाकर ले जाएगा बाकी युवक एक दूसरे का मुंह ताकते रह जाएँगे। औरत को लेकर लड़ाई –झगड़े, आपाधापी शुरू होगी। जिसे देखो वेश्यालय जाता नजर आएगा क्योंकि उसकी देहली पर ही तो जवानी नाक रगड़ेगी। परिवार की सुरक्षा, आत्मीयता, गोपनीयता को खतरा ही खतरा है।
उनके दामाद न जाने कब दया के पास आकर खड़े हो गए। वे अपराधी की तरह नजर नीचे किए हुए थे। पति –पत्नी प्रोफेसर साहब के यथार्थवादी दृष्टिकोण को झुठला न सके। सबकुछ समझते हुए भी बेटे की चाह ने दया को अंधा कर दिया था। वह अंधकूप से तो निकाल आई पर आँचल पर सदैव के लिए दाग लगा बैठी थी। उसे अक्सर आँचल हिलता नजर आता जिसके नीचे से दर्द भरा स्वर उभरता –माँ, मैं तुम्हारी हूँ, मुझे बचा लो। उसकी पीड़ा दया को जीवन भर नश्तर चुभोती रही।