शयनकक्ष / संजय अविनाश
"मैम, आपकी कहानियाँ सदैव पाठकों को तृप्त करती रही हैं, क्या मैं आपकी कहानी प्रकाशित कर सकता हूँ?" संपादक ने फोन से पूछा।
"जी, क्यों नहीं? वैसे मैं किसी पत्रिका में रचनाएँ भेजती नहीं हूँ, वह इसलिए कि प्रायः संपादक कहता है कि सदस्यता ग्रहण करो, कार्यालय आओ, यह करो, वह करो, न जाने क्या-क्या नियम बताकर रचनाकारों को भुनाना चाहता है।"
"मैम, मेरे साथ ऐसी कोई बात नहीं है, ये सब काम कुछ नये संपादक करते हैं, अच्छी रचनाओं को कमजोर बताकर दोहन की जुगाड़ में रहते हैं, मेरी चर्चित पत्रिका के देश-विदेश में हजारों पाठक हैं।"
"जी पता है।" आश्वस्त हो जाने पर लेखिका ने सहमति दे दी।
महीनों प्रतीक्षा के बाद एकदिन लेखिका ने संपादक को फोन लगाया-
" पत्रिका कब आ रही है संपादक महोदय?
"ओ...कौन-सा अंक?"
"क्या...? जिस अंक के लिए आपने मुझसे कहानी ली थी?"
"शीर्षक क्या था आपकी कहानी का?"
"बेडरूम।"
"ओ..., हाँ, वह अंक तो उसी समय निकल चुका था।" संपादक ने कहा।
"तो मुझे उस पत्रिका की प्रति नहीं मिली?"
"मैम, क्षमा करें, आपकी उक्त कहानी का मैं अपनी पत्रिका में उपयोग नहीं कर पाया, अब आप उसे किसी अन्य पत्रिका में भेजने के लिए स्वतंत्र हैं।"
"क्या..., कैसी परेशानी हुई आपको?" थोड़ी कड़क आवाज में लेखिका ने पूछा।
"मैम, क्रोधित होने की कोई बात नहीं है, सुझाव मानें तो कहना चाहूँगा कि शीर्षक" बेडरूम"को बदलकर" शयनकक्ष"कर दें तो फिर अगले अंक के लिए सोचा जा सकता है।"
"हुँह, दो कौड़ी की पत्रिका पर इतना भाव खाते हैं...वैसे भी मैं नहीं चाहती कि मेरी रचनाओं की वजह से आपकी पत्रिका प्रसिद्धि हासिल करे।"
"नहीं मैम, अगर मैं बिना सोचे समझे रचनाएँ छापने लगूँ तब वस्तुतः मेरी पत्रिका दो कौड़ी की हो जाएगी।"