शरणागत / वृंदावनलाल वर्मा

Gadya Kosh से
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रज्जब कसाई अपना रोजगार करके ललितपुर लौट रहा था। साथ में स्त्री थी, और गाँठ में दो सौ-तीन सौ की बड़ी रकम। मार्ग बीहड़ था, और सुनसान। ललितपुर काफी दूर था, बसेरा कहीं न कहीं लेना ही था; इसलिए उसने मड़पुरा नामक गाँव में ठहर जाने का निश्चय किया। उसकी पत्नी को बुखार हो आया था, रकम पास में थी, और बैलगाड़ी किराए पर करने में खर्च ज्यादा पड़ता, इसलिए रज्जब ने उस रात आराम कर लेना ही ठीक समझा।

परंतु ठहरता कहाँ? जात छिपाने से काम नहीं चल सकता था। उसकी पत्नी नाक और कानों में चाँदी की बालियाँ डाले थी, और पैजामा पहने थी। इसके सिवा गाँव के बहुत से लोग उसको पहचानते भी थे। वह उस गाँव के बहुत-से कर्मण्य और अकर्मण्य ढोर खरीद कर ले जा चुका था।

अपने व्यवहारियों से उसने रात भर के बसेरे के लायक स्थान की याचना की। किसी ने भी मंजूर न किया। उन लोगों ने अपने ढोर रज्जब को अलग-अलग और लुके-छुपे बेचे थे। ठहरने में तुरंत ही तरह-तरह की खबरें फैलती, इसलिए सबों ने इन्कार कर दिया।

गाँव में एक गरीब ठाकुर रहता था। थोड़ी-सी जमीन थी, जिसको किसान जोते हुए थे। जिसका हल-बैल कुछ भी न था। लेकिन अपने किसानों से दो-तीन साल का पेशगी लगान वसूल कर लेने में ठाकुर को किसी विशेष बाधा का सामना नहीं करना पड़ता था। छोटा-सा मकान था, परंतु उसके गाँववाले गढ़ी के आदरव्यंजक शब्द से पुकारा करते, और ठाकुर को डरके मारे 'राजा' शब्द संबोधन करते थे।

शामत का मारा रज्जब इसी ठाकुर के दरवाजे पर अपनी ज्वरग्रस्त पत्नी को ले कर पहुँचा।

ठाकुर पौर में बैठा हुक्का पी रहा था। रज्जब ने बाहर से ही सलाम कर के कहा 'दाऊजू, एक बिनती है।'

ठाकुर ने बिना एक रत्ती-भर इधर-उधर हिले-डुले पूछा - "क्या?"

रज्जब बोला - "दूर से आ रहा हूँ। बहुत थका हुआ हुँ। मेरी औरत को जोर से बुखार आ गया है। जाड़े में बाहर रहने से न जाने इसकी क्या हालत हो जायगी, इसलिए रात भर के लिए कहीं दो हाथ जगह दे दी जाय।"

"कौन लोग हो?" ठाकुर ने प्रश्न किया।

"हूँ तो कसाई।" रज्जब ने सीधा उत्तर दिया। चेहरे पर उसके बहुत गिड़गिड़ाहट थी।

ठाकुर की बड़ी-बड़ी आँखों में कठोरता छा गई। बोला - "जानता है, यह किसका घर है? यहाँ तक आने की हिम्मत कैसे की तूने?"

रज्जब ने आशा-भरे स्वर में कहा - "यह राजा का घर है, इसलिए शरण में आया हुआ है।"

तुरंत ठाकुर की आँखों की कठोरता गायब हो गई। जरा नरम स्वर में बोला - "किसी ने तुमको बसेरा नहीं दिया?"

"नहीं महाराज," रज्जब ने उत्तर दिया - "बहुत कोशिश की, परंतु मेरे खोटे पेशे के कारण कोई सीधा नहीं हुआ।" वह दरवाजे के बाहर ही एक कोने से चिपट कर बैठ गया। पीछे उसकी पत्नी कराहती, काँपती हुई गठरी-सी बन कर सिमट गई।

ठाकुर ने कहा- "तुम अपनी चिलम लिए हो?"

"हाँ, सरकार।" रज्जब ने उत्तर दिया।

ठाकुर बोला- "तब भीतर आ जाओ, और तमाखू अपनी चिलम से पी लो। अपनी औरत को भीतर कर लो। हमारी पौर के एक कोने में पड़े रहना।

जब वह दोनों भीतर आ गए, तो ठाकुर ने पूछा - "तुम कब यहाँ से उठ कर चले जाओगे?" जवाब मिला- "अँधेरे में ही महाराज। खाने के लिए रोटियाँ बाँधे हूँ इसलिए पकाने की जरूरत न पड़ेगी।"

"तुम्हारा नाम?"

"रज्जब।"

थोड़ी देर बाद ठाकुर ने रज्जब से पूछा - "कहाँ से आ रहे हो?" रज्जब ने स्थान का नाम बतलाया।

"वहाँ किसलिए गए थे?"

"अपने रोजगार के लिए।"

"काम तुम्हारा बहुत बुरा है।"

"क्या करूँ, पेट के लिए करना ही पड़ता है। परमात्मा ने जिसके लिए जो रोजगार नियत किया है, वहीं उसको करना पड़ता है।"

"क्या नफा हुआ?" प्रश्न करने में ठाकुर को जरा संकोच हुआ, और प्रश्न का उत्तर देने में रज्जब को उससे बढ़ कर।

रज्जब ने जवाब दिया- "महाराज, पेट के लायक कुछ मिल गया है। यों ही।" ठाकुर ने इस पर कोई जिद नहीं की।

रज्जब एक क्षण बाद बोला- "बड़े भोर उठ कर चला जाऊँगा। तब तक घर के लोगों की तबीयत भी अच्छी हो जायगी।"

इसके बाद दिन भर के थके हुए पति-पत्नी सो गए। काफी रात गए कुछ लोगों ने एक बँधे इशारे से ठाकुर को बाहर बुलाया। एक फटी-सी रजाई ओढ़े ठाकुर बाहर निकल आया।

आगंतुकों में से एक ने धीरे से कहा - "दाऊजू, आज तो खाली हाथ लौटे हैं। कल संध्या का सगुन बैठा है।"

ठाकुर ने कहा - "आज जरूरत थी। खैर, कल देखा जायगा। क्या कोई उपाय किया था?"

"हाँ", आगंतुक बोला - "एक कसाई रुपए की मोट बाँधे इसी ओर आया है। परंतु हम लोग जरा देर में पहुँचे। वह खिसक गया। कल देखेंगे। जरा जल्दी।"

ठाकुर ने घृणा-सूचक स्वर में कहा - "कसाई का पैसा न छुएँगे।"

"क्यों?"

"बुरी कमाई है।"

"उसके रुपए पर कसाई थोड़े लिखा है।"

"परंतु उसके व्यवसाय से वह रुपया दूषित हो गया है।"

"रुपया तो दूसरों का ही है। कसाई के हाथ आने से रुपया कसाई नहीं हुया।"

"मेरा मन नहीं मानता, वह अशुद्ध है।"

"हम अपनी तलवार से उसको शुद्ध कर लेंगे।"

ज्यादा बहस नहीं हुई। ठाकुर ने सोच कर अपने साथियों को बाहर का बाहर ही टाल दिया।

भीतर देखा कसाई सो रहा था, और उसकी पत्नी भी। ठाकुर भी सो गया।

सबेरा हो गया, परंतु रज्जब न जा सका। उसकी पत्नी का बुखार तो हल्का हो गया था, परंतु शरीर भर में पीड़ा थी, और वह एक कदम भी नहीं चल सकती थी।

ठाकुर उसे वहीं ठहरा हुआ देख कर कुपित हो गया। रज्जब से बोला - "मैंने खूब मेहमान इकट्ठे किए हैं। गाँव भर थोड़ी देर में तुम लोगों को मेरी पौर में टिका हुआ देख कर तरह-तरह की बकवास करेगा। तुम बाहर जाओ इसी समय।"

रज्जब ने बहुत विनती की, परंतु ठाकुर न माना। यद्यपि गाँव-भर उसके दबदबे को मानता था, परंतु अव्यक्त लोकमत का दबदबा उसके भी मन पर था। इसलिए रज्जब गाँव के बाहर सपत्नीक, एक पेड़ के नीचे जा बैठा, और हिंदू मात्र को मन-ही-मन कोसने लगा।

उसे आशा थी कि पहर - आध पहर में उसकी पत्नी की तबीयत इतनी स्वस्थ हो जायगी कि वह पैदल यात्रा कर सकेगी। परंतु ऐसा न हुआ, तब उसने एक गाड़ी किराए पर कर लेने का निर्णय किया।

मुश्किल से एक चमार काफी किराया ले कर ललितपुर गाड़ी ले जाने के लिए राजी हुआ। इतने में दोपहर हो गई। उसकी पत्नी को जोर का बुखार हो आया। वह जाड़े के मारे थर-थर काँप रही थीं, इतनी कि रज्जब की हिम्मत उसी समय ले जाने की न पड़ी। गाड़ी में अधिक हवा लगने के भय से रज्जब ने उस समय तक के लिए यात्रा को स्थगित कर दिया, जब तक कि उस बेचारी की कम से कम कँपकँपी बंद न हो जाय।

घंटे-डेढ़-घंटे बाद उसकी कँपकँपी बंद तो हो गई, परंतु ज्वर बहुत तेज हो गया। रज्जब ने अपनी पत्नी को गाड़ी में डाल दिया और गाड़ीवान से जल्दी चलने को कहा।

गाड़ीवान बोला - "दिन भर तो यहीं लगा दिया। अब जल्दी चलने को कहते हो।"

रज्जब ने मिठास के स्वर में उससे फिर जल्दी करने के लिए कहा।

वह बोला - "इतने किराए में काम नहीं चलेगा, अपना रुपया वापस लो। मैं तो घर जाता हूँ।"

रज्जब ने दाँत पीसे। कुछ क्षण चुप रहा। सचेत हो कर कहने लगा - "भाई, आफत सबके ऊपर आती है। मनुष्य मनुष्य को सहारा देता है, जानवर तो देते नहीं। तुम्हारे भी बाल-बच्चे हैं। कुछ दया के साथ काम लो।"

कसाई को दया पर व्याख्यान देते सुन कर गाड़ीवान को हँसी आ गई। उसको टस से मस न होता देख कर रज्जब ने और पैसे दिए। तब उसने गाड़ी हाँकी।

पाँच-छ: मील चले के बाद संध्या हो गई। गाँव कोई पास में न था। रज्जब की गाड़ी धीरे-धीरे चली जा रही थी। उसकी पत्नी बुखार में बेहोश-सी थी। रज्जब ने अपनी कमर टटोली, रकम सुरक्षित बँधी पड़ी थी।

रज्जब को स्मरण हो आया कि पत्नी के बुखार के कारण अंटी का कुछ बोझ कम कर देना पड़ा है - और स्मरण हो आया गाड़ीवान का वह हठ, जिसके कारण उसको कुछ पैसे व्यर्थ ही दे देने पड़े थे। उसको गाड़ीवान पर क्रोध था, परंतु उसको प्रकट करने की उस समय उसके मन में इच्छा न थी।

बातचीत करके रास्ता काटने की कामना से उसने वार्तालाप आरंभ किया -

"गाँव तो यहाँ से दूर मिलेगा।"

"बहुत दूर, वहीं ठहरेंगे।"

"किसके यहाँ?"

"किसी के यहाँ भी नहीं। पेड़ के नीचे। कल सबेरे ललितपुर चलेंगे।"

................................

"कल को फिर पैसा माँग उठना।"

"कैसे माँग उठूँगा? किराया ले चुका हूँ। अब फिर कैसे माँगूँगा?"

"जैसे आज गाँव में हठ करके माँगा था। बेटा, ललितपुर होता, तो बतला देता !"

"क्या बतला देते? क्या सेंत-मेंत गाड़ी में बैठना चाहते थे?"

"क्यों बे, क्या रुपया दे कर भी सेंत-मेंत का बैठना कहाता है? जानता है, मेरा नाम रज्जब है। अगर बीच में गड़बड़ करेगा, तो नालायक को यहीं छुरे से काट कर फेंक दूँगा और गाड़ी ले कर ललितपुर चल दूँगा।"

रज्जब क्रोध को प्रकट नहीं करना चाहता था, परंतु शायद अकारण ही वह भली भाँति प्रकट हो गया।

गाड़ीवान ने इधर-उधर देखा। अँधेरा हो गया था। चारों ओर सुनसान था। आस-पास झाड़ी खड़ी थी। ऐसा जान पड़ता था, कहीं से कोई अब निकला और अब निकला। रज्जब की बात सुन कर उसकी हड्डी काँप गई। ऐसा जान पड़ा, मानों पसलियों को उसकी ठंडी छूरी छू रही है।

गाड़ीवान चुपचाप बैलों को हाँकने लगा। उसने सोचा - गाँव आते ही गाड़ी छोड़ कर नीचे खड़ा हो जाऊँगा, और हल्ला-गुल्ला करके गाँववालों की मदद से अपना पीछा रज्जब से छुड़ाऊँगा। रुपए-पैसे भली ही वापस कर दूँगा, परंतु और आगे न जाऊँगा। कहीं सचमुच मार्ग में मार डाले !

गाड़ी थोड़ी दूर और चली होगी कि बैल ठिठक कर खड़े हो गए। रज्जब सामने न देख रहा था, इललिए जरा कड़क कर गाड़ीवान से बोला - "क्यों बे बदमाश, सो गया क्या?"

अधिक कड़क के साथ सामने रास्ते पर खड़ी हुई एक टुकड़ी में से किसी के कठोर कंठ से निकला, "खबरदार, जो आगे बढ़ा।"

रज्जब ने सामने देखा कि चार-पाँच आदमी बड़े-बड़े लठ बाँध कर न जाने कहाँ से आ गए हैं। उनमें तुरंत ही एक ने बैलों की जुआरी पर एक लठ पटका और दो दाएँ-बाएँ आ कर रज्जब पर आक्रमण करने को तैयार हो गए।

गाड़ीवान गाड़ी छोड़ कर नीचे जा खड़ा हुआ। बोला - "मालिक, मैं तो गाड़ीवान हूँ। मुझसे कोई सरोकार नहीं।"

"यह कौन है?" एक ने गरज कर पूछा।

गाड़ीवान की घिग्घी बँध गई। कोई उत्तर न दे सका।

रज्जब ने कमर की गाँठ को एक हाथ से सँभालते हुए बहुत ही नम्र स्वर में कहा - "मैं बहुत गरीब आदमी हूँ। मेरे पास कुछ नहीं है। मेरी औरत गाड़ी में बीमार पड़ी है। मुझे जाने दीजिए।"

उन लोगों में से एक ने रज्जब के सिर पर लाठी उबारी। गाड़ीवान खिसकना चाहता था कि दूसरे ने उसको पकड़ लिया।

अब उसका मुँह खुला। बोला - "महाराज, मुझको छोड़ दो। मैं तो किराए से गाड़ी लिए जा रहा हूँ। गाँठ में खाने के लिए तीन-चार आने पैसे ही हैं।"

"और यह कौन है? बतला।" उन लोगों में से एक ने पुछा।

गाड़ीवान ने तुरंत उत्तर दिया - "ललितपुर का एक कसाई।"

रज्जब के सिर पर जो लाठी उबारी गई थी, वह वहीं रह गई। लाठीवाले के मुँह से निकला - "तुम कसाई हो? सच बताओ !"

"हाँ, महाराज!" रज्जब ने सहसा उत्तर दिया - "मैं बहुत गरीब हुँ। हाथ जोड़ता हूँ मत सताओ। मेरी औरत बहुत बीमार है।"

औरत जोर से कराही ।

लाठीवाले उस आदमी ने अपने एक साथी से कान में कहा - "इसका नाम रज्जब है। छोड़ो। चलें यहाँ से।"

उसने न माना। बोला- "इसका खोपड़ा चकनाचुर करो दाऊजू, यदि वैसे न माने तो। असाई-कसाई हम कुछ नहीं मानते।"

"छोड़ना ही पड़ेगा," उसने कहा - "इस पर हाथ नहीं पसारेंगे और न इसका पैसा छुएँगे।"

दूसरा बोला- "क्या कसाई होने के डर से दाऊजू, आज तुम्हारी बुद्धि पर पत्थर पड़ गए हैं। मैं देखता हूँ!" और उसने तुरंत लाठी का एक सिरा रज्जब की छाती में अड़ा कर तुरंत रुपया-पैसा निकाल देने का हुक्म दिया। नीचे खड़े उस व्यक्ति ने जरा तीव्र स्वर में कहा - "नीचे उतर आओ। उससे मत बोलो। उसकी औरत बीमार है।"

"हो, मेरी बला से," गाड़ी में चढ़े हुए लठैत ने उत्तर दिया - "मैं कसाइयों की दवा हूँ।" और उसने रज्जब को फिर धमकी दी।

नीचे खड़े हुए उस व्यक्ति ने कहा - "खबरदार, जो उसे छुआ। नीचे उतरो, नहीं तो तुम्हारा सिर चकनाचूर किए देता हूँ। वह मेरी शरण आया था।"

गाड़ीवाला लठैत झख-सी मार कर नीचे उतर आया।

नीचेवाले व्यक्ति ने कहा - "सब लोग अपने-अपने घर जाओ। राहगीरों को तंग मत करो।" फिर गाड़ीवान से बोला - "जा रे, हाँक ले जा गाड़ी। ठिकाने तक पहुँच आना, तब लौटना, नहीं तो अपनी खैर मत समझियो। और, तुम दोनों में से किसी ने भी कभी, इस बात की चर्चा कहीं की, तो भूसी की आग में जला कर खाक कर दूँगा।"

गाड़ीवान गाड़ी ले कर बढ़ गया। उन लोगों में से जिस आदमी ने गाड़ी पर चढ़ कर रज्जब के सिर पर लाठी तानी थी, उसने क्षुब्ध स्वर में कहा - "दाऊजू, आगे से कभी आपके साथ न आऊँगा।"

दाऊजू ने कहा - "न आना। मैं अकेले ही बहुत कर गुजरता हूँ। परंतु बुंदेला शरणागत के साथ घात नहीं करता, इस बात को गाँठ बाँध लेना।"