शरणार्थी / पर्ल एस. बक / द्विजेन्द्र द्विज

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अनुवाद: द्विजेन्द्र द्विज


दूरस्थ गाँव से आए ये अजनबी नई राजधानी से होते हुए चले जा रहे थे, भले ही उनकी अपनी ज़मीनें यहाँ से, इसी गली से, जिस पर वे चले जा रहे थे , कुछ ही सैंकड़ों मील दूर थीं । फिर भी इनके लिए बहुत दूर थीं । उनकी आँखें उन लोगों की आँखें थीं जिन्हें किसी अनुत्तरदाई शक्ति ने, उनकी हमेशा से जानी-पहचानी उस दुनिया से अचानक अलग कर दिया हो जिसमें वे स्वयं को अब तक सुरक्षित अनुभव करते आए हों । वे , जिनके पाँवों अब तक केवल गाँव के रास्तों और खेतों पर चलने के ही अभ्यस्त थे, अब नई राजधानी की भव्य सड़क के एक तरफ़ बनी कंकरीट की नई पटरी पर चले जा रहे थे। भले ही बाज़ार की इस सड़क पर ऐसी चीज़ों की भरमार थी जो उन्होंने पहले कभी नहीं देखी नहीं थीं, और यहाँ तो वाहन भी थे, जिनके बारे में उन्होंने कभी सुना भी नहीं था, फिर भी वे कुछ भी देखे बिना चले जा रहे थे , मानो स्वप्न में चले जा रहे हों।

इस समय वे हज़ारों की संख्या में यहाँ से गुज़र रहे थे । यदि वे किसी वस्तु या व्यक्ति की ओर नहीं देख रहे थे तो कोई उनकी ओर भी तो नहीं देख रहा था । शहर शरणार्थियों से भरा पड़ा था, जिनमें से हज़ारों ने तो बस कहने को ही खाना खाया हुआ था , जैसे-तैसे ख़ुद को ढाँपे हुए , शहर की दीवार के बाहर बड़े -बड़े शिविरों में , जहाँ चटाइयाँ बिछी थीं , वे शरण लिए हुए थे । दिन में किसी भी समय शिविरों की ओर बढ़ते ,चीथड़े पहने हुए पुरुषों, स्त्रियों और कुछ बच्चों की कतारें देखी जा सकती थीं । जिन्हें देख कर कोई भी शहरी बढ़ती हुई कड़ुवाहट के साथ कह उठता था :

“और शरणार्थी ! क्या इनका कोई अंत भी है ? इन्हें तो थोड़ा – सा भी खिलाने की कोशिश में भी हम तो भूखे मर जाएँगे । ” भय से उपजी इसी कड़ुवाहट के कारण , छोटे दुकनदार अपने दरवाज़े पर हर पल आने वाले भिखारियों पर झल्ला रहे थे। इसी भय ने लोगों को, संख्या में ज़रूरत से दस गुना अधिक हो गए रिक्शा चालकों , को भाड़ा देने में भी निष्टुर बना दिया था, क्योंकि शरणार्थी रिक्शा खींच कर जीवन यापन कर रहे थे । यहाँ तक कि यहाँ हमेशा से रिक्शा चला कर जीवन यापन कर रहे व्यवसायी भी शरणार्थियों को कोसने लगे थे , क्योंकि भुखमरी के कगार पर पहुँचे ये लोग किसी भी कीमत पर रिक्शा चलाने को तैयार हो जाते थे , जिसके कारण भाड़ों मे बहुत कमी आ चुकी थी और सबको नुकसान हो रहा था । जब सारा शहर , दर-दर भीख माँगते हुए , किसी भी ऐसे काम धन्धे में , जिसमें हुनर की ज़रूरत नहीं होती , झुण्डों में घुस आते हुए , कोहरा जमी हुई हर सुबह को मृत पाए जाते हुए शरणार्थियों से अटा पड़ा हो, तो शरद ऋतु की संध्या के झुटपुटे में और शरणार्थियों के आते हुए नए झुण्ड की ओर कोई देखता भी क्यों?

परन्तु ये लोग साधारण अथवा सदा दरिद्र रहने वाले किसी समुदाय के ऐरे-ग़ैरे कुली-कबाड़ी नहीं थे जिनका बाढ़ के दिनों में भूखे रहना तय ही होता है । ये तो ऐसे लोग थे जिन पर किसी भी राष्ट्र को गर्व हो सकता था । स्पष्ट था कि वे सब एक ही क्षेत्र से थे, क्योंकि वे सब एक ही जैसी गहरी नीली खादी के सादे और पारंपरिक ढंग से सिले हुए पूरी बाजुओं वाले लम्बे कोट पहने हुए थे । पुरुष विलक्षण, जटिल और मोहक नमूनों की कढ़ाई वाले पेटबंद पहने हुए थे। स्त्रियाँ भी उसी नीली खादी की पट्टियाँ अपने सिरों पर ओढ़नी की तरह लिपेटे हुए थीं।

ये पुरुष और स्त्रियाँ लम्बी और मज़बूत कद-काठी के थे, यद्यपि स्त्रियों के पाँव बँधे हुए थे। इस हुजूम में कुछ बालक थे, अपने पिताओं के काँधों पर थमे लठ्ठों से झूल रही टोकरियों में बैठे कुछ बच्चे थे, परन्तु जवान लड़कियाँ और शिशु नहीं थे । प्रत्येक पुरुष और प्रत्येक किशोर अपने काँधे पर एक बोझा उठाए हुए था, जिसमें बिस्तर और नीली खादी के कपड़े में रूई भरी हुई रज़ाइयाँ थीं। ये कपड़े और बिस्तर साफ़ और मज़बूती से बने हुए थे। हर तह की हुई रज़ाई के ऊपर एक चटाई का टुकड़ा था जिस पर लोहे की एक-एक कड़ाही रखी हुई थी। नि:संदेह इन कड़ाहियों को गाँव के मिट्टी के चूल्हों से तभी हटाया गया होगा जब लोगों को वहाँ से चले जाने के अतिरिक्त कोई चारा ही नहीं दिखाई दिया होगा । परन्तु किसी भी टोकरी में न तो खाने का ही कोई अवशेष बचा था और न ही उन कड़ाहियों में हाल ही में खाना पकाए जाने का कोई संकेत दिखाई दे रहा था ।

उनके चेहरों को बहुत पास से देखने पर ही उनके पास खाना न होने की पुष्टि हो रही थी । झुटपुटे में एक बारगी देखने पर वे भले-चंगे ही प्रतीत हो रहे थे परन्तु बिल्कुल नज़दीक से वे भूख से मर रहे , निराशा में अंतिम आशा की ओर बढ़ रहे , लोगों के चेहरे दिखाई दे रहे थे।

मृत्यु के इतने पास आ चुके इन लोगों को नए शहर के अद्भुत दृश्यों से कोई सरोकार नहीं था । कोई भी नया दृश्य उनमें कौतुहल जगाने में असमर्थ था । ये वे लोग थे जो तब तक अपनी ज़मीनों के साथ बँधे रहे थे जब तक भुखमरी ने उन्हें वहाँ से खदेड़ नहीं दिया था ।

इसी तरह वे अजनबी , बिना देखे, चुपचाप , उन लोगों की तरह जो अपनी आनी वाली मृत्यु से भिज्ञ लेकिन जीवन से अनभिज्ञ हों, बढ़े जा रहे थे।

गुमसुम चले जा रहे लोगों की इस लम्बी श्रृंखला के अन्त में चला जा रहा व्यक्ति , छोटे कद और झुर्रीदार चेहरे वाला एक बूढ़ा था । वह भी अपने काँधे पर थामे लठ्ठ पर झूलती दो टोकरियों में तह की हुई रज़ाई, बिस्तर और कड़ाही का बोझा उठाए हुए था , कड़ाही एक ही थी । दूसरी टोकरी में तो सिर्फ़ बहुत फटी-पुरानी लेकिन पैबन्द लगी साफ़ रज़ाई के इलावा कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था। यह बोझा बेशक बहुत हल्का था फिर भी उस बूढ़े के लिए बहुत भारी था । प्रत्यक्ष था कि सामान्य दिनों में इतने बूढ़े लोग श्रम नहीं करते और शायद बूढ़े को हाल ही के पिछले कुछ वर्षों से इतने श्रम की आदत रही भी नहीं थी ।

लड़खड़ाते हुए आगे बढ़ रहे इस बूढ़े की साँसें सीटियों की तरह बज रही थीं । पिछड़ जाने के डर से उसे अपने से आगे चल रहे लोगों को देखते रहने के लिए आँखों पर बोझ डालना पड़ रहा था और उसके चेहरे की झुर्रियों में व्यथा हाँफती हुई दिखाई दे रही थी । अचानक वह और आगे नहीं बढ़ पाया। बहुत धीमे से उसने अपना बोझा नीचे रखा और ज़मीन में धसक गया । बेतहाशा हाँफते हुए , उसने अपने घुटनों में अपना सर धँसा लिया। अत्याधिक भूख के कारण उसके गालों पर ख़ून के हल्के-हल्के चकत्ते उभर आए थे। गर्म नूडल्ज़ बेच रहे फटे-पुराने कपड़े पहने खोमचे वाले ने अपना नूडल्ज़ का खोमचा बूढ़े की ओर सरकाते हुए अपनी पेशेवर आवाज़ लगाई और खोमचे से आ रही रोशनी में बूढ़े की झुकी हुई आकृति दिखाई देने लगी । पास से गुज़र रहा एक व्यक्ति रुका और बूढ़े की ओर देखकर बुदबुदाया : ‘ मैं कसम खा कर कहता हूँ , अगर आज मैं अपने बच्चों को भी सिर्फ़ नूडल्ज़ ही खिलाना चाहूँ तो भी मैं अपनी आज की कमाई का और अंश किसी को नहीं दे सकता - लेकिन अब यह बूढ़ा मेरे सामने है । चलो ! कल के लिए मैंने जो चांदी का सिक्का आज कमाया है इसे दे देता हूँ और कल के लिए फिर अगले कल पर ही भरोसा करता हूँ । अगर मेरा अपना बूढ़ा बाप ही जीवित होता तो उसे भी तो मैं देता ही ।’

उसने खुद को पटोला , अपने फटे-पुराने कमरबंद से चांदी का एक सिक्का निकाला और एक क्षण की झिझक के बाद बुदबुदाते हुए इसमें एक ताम्बे का सिक्का भी जोड़ दिया और कड़ुवाहट भरी हार्दिकता के साथ बोला , “ये लो बाबा ! कुछ नूडल्ज़ खा लो !” बूढ़े ने धीरे-से अपना सिर तो उठाया लेकिन चांदी का सिक्का देख कर हाथ नहीं फैलाया और बोला, “सर ! मैंने आपसे भीख नहीं माँगी नहीं थी । सर ! हमारे पास अच्छी ज़मीनें हैं और इससे पहले कभी हम इस तरह की भुखमरी का शिकार नहीं हुए हुए हैं , क्योंकि हमारे पास अच्छी ज़मीनें हैं। सर ! हमारे पास बीजने को भी दाने नहीं बचे । हम अपने बीज के दाने भी खा चुके हैं । मैंने उन्हें कहा भी था कि हमें बीज वाला अनाज नहीं खाना चाहिए परन्तु वे बच्चे थे, भूखे थे, और बीज भी खा गए ।”

“ ले भी लो ।” उस व्यक्ति ने कहा और सिक्के बूढ़े के कढ़ाईदार चोगे में डाल कर लम्बी आहें भरता हुआ अपने रास्ते चल दिया। नूडल्ज़ वाले ने अपना नूडल्ज़ का कटोरा तैयार किया और कहा: “ बाबा ! आप कितनी खाओगे? ” सुन कर बूढ़ा हिला। उसने अपने चोगे को उत्सुकतावश पटोला, चांदी और तांबे के दो सिक्के देखकर उसने कहा, एक छोटा कटोरा ही बहुत रहेगा।”

“तो क्या आप बस एक छोटा कटोरा नूडल्ज़ ही खा पाते हैं ? ” हैरान होकर खोमचे वाले ने पूछा। “यह मेरे लिए नहीं है ,” बूढ़े ने कहा । स्तब्ध खोमचे वाला एकटक देखता रहा। स्वयं एक आम आदमी होते हुए वह बोला कुछ भी नहीं और कटोरा तैयार करके उसने कहा , “यह लीजिए।” और -‘देखें इसे कौन खाएगा’- की मुद्रा में प्रतीक्षा करने लगा। बड़ी कठिनाई से बूढ़ा उठा और अपने काँपते हाथों में कटोरा लेकर दूसरी टोकरी की ओर बढ़ गया। खोमचे वाला देख रहा था , बूढ़े के रज़ाई हटाते ही एक छोटे आँखें मूँदे बच्चे का सिकुड़ा हुआ चेहरा दिखाई दिया। बूढ़े ने जैसे ही बच्चे के होंठ प्याले के कटोरे तक पहुँचाने के लिए उसका सिर ऊपर उठाया बच्चे ने बहुत धीरे-धीरे कटोरे के गर्म मिश्रण को निगल लिया अन्यथा कोई भी कह सकता था कि वो बच्चा मृत था। बूढ़ा धीरे-धीरे बुदबुदा रहा था:

“ ये लो मेरे दिल के टुकड़े ! ये लो मेरे बच्चे !” “तुम्हारा पोता?”

“हाँ,” बूढ़े ने कहा।

“ मेरे इकलौते बेटे का बेटा । मेरा बेटा और बहू खेतों में काम कर रहे थे, बाँध टूटते ही वे डूब गए ।” उसने बहुत कोमलता से बच्चे को ढाँपा और पैरों के बल बैठ कर बड़ी सावधानी से कटोरे को इस तरह से चाटा कि उसमें खाने का लेश मात्र भी नहीं बचा । फिर मानो कि उसका पेट भर गया हो उसने कटोरा खोमचे वाले को लौटा दिया । यह देख कर कि बूढ़े ने उसे और नूडल्ज़ का कटोरा तैयार करने को नहीं कहा , उसने लगभग चिल्ला कर पूछा “ परन्तु आपके पास तो चांदी का सिक्का भी है ! ”

बूढ़े ने सिर हिलाया “ यह तो बीज के लिए है ।” उसने उत्तर दिया “सिक्के को देखते ही मैं जान गया था कि मुझे इससे बीज खरीदना है । वे तो सारा बीज खा ही गए , फिर ज़मीन में क्या बोएँगे ?”

“अगर मैं ख़ुद ग़रीब नहीं होता,” खोमचे वाला बोला, “तो एक कटोरा नूडल्ज़ तो मैं भी तुम्हें दे देता, लेकिन ऐसे आदमी को कुछ देना जिसके पास चांदी का सिक्का हो ! ” उसने उलझन में सिर हिलाया।

“ भाई , मैं तुमसे माँग नहीं रहा हूँ ।” बूढ़ा बोला । “मैं जानता हूँ कि तुम नहीं समझोगे । लेकिन अगर तुम्हारे पास ज़मीन होती तो तुम जानते कि इसे फिर से बोया जाना कितना ज़रूरी होता है अन्यथा अगले वर्ष भी भुखमरी की ही फ़सल उगेगी । मैं ज़मीन के लिए बीज खरीदने से और बेहतर काम अपने पोते के लिए कोई नहीं कर सकता – मैं रहूँ या न रहूँ – किसी को तो यह बीज ज़मीन में बोना ही होगा, ज़मीन तो बोई ही जानी चाहिए।”

बूढ़ा अपना बोझ उठाकर , आँखों पर ज़ोर डालते हुए, काँपती टाँगों के साथ लड़खड़ाता हुआ सीधी सड़क पर फिर से आगे बढ़ गया । ”