शरणार्थी / राज गिल / श्रवण कुमार उर्मलिया

Gadya Kosh से
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“हम कहाँ जा रहे हैं?” कब पहुँचेंगे वहाँ?” बालक बार-बार प्रश्न किये जा रहा था, और अपने पिता के पीछे-पीछे एडिय़ाँ घसीटता हुआ चला जा रहा था। वह इलाका खारी मिट्टी का था।

“अभी बस पहुँचे ही समझो,” उसके आगे-आगे चलते हुए उसके पिता ने उत्तर दिया।

“आप तो बस यही कहते हैं।” बालक बिफर पड़ा।

“सच, क्या मैंने वाकई यही कहा था?” पिता ने बालक का मन दूसरी तरफ करना चाहा।

“हाँ, आपने यही कहा था।” बालक ने सुनकर कहा, और चलते-चलते वहीं खड़ा हो गया।

“अच्छा अब नहीं कहूँगा।” पिता ने पुत्र को ढाढ़स बँधाना चाहा।

बालक अब वहीं अडक़र खड़ा हो गया था, हालाँकि उसका पिता कुछ दूर आगे बढ़ गया था। वह लगभग बीस गज़ आगे बढ़ा होगा कि उसे लगा बालक वहीं खड़ा है। उसने बिना मुड़े ही पीछे देखा। बालक पगडंडी के बीचों बीच खड़ा था और अपने पैर के अँगूठे से मिट्टी कुरेद रहा था। अब वह पीछे वापस आया और उसे अपने बाजू में लपेटते हुए बोला, “तुम तो बड़े बहादुर हो, बेटे। है न?” और फिर उसने हलके से उसके कन्धे को दबाया। “अब देखो, इतनी दूर तो तुम आ ही गये हो? जानते हो कितनी दूर आ गये हो?” फिर उसने अपनी उँगलियों पर गिनने का अभिनय किया और यों ही बोल उठा, साढ़े तीन सौ मील। नहीं नहीं, साढ़े तीन सौ नहीं, और $ज्यादा। चार सौ मील से कम नहीं होगा।”

यह तो उसने मोटा अनुमान लगाया था। बालक ने अपने होंठ काट लिये। पिता के सामने वह ऊँची-नीची वीरान भूमि, मीलों मील तक बिछी पड़ी थी जिसका कोई छोर न था। इसलिए उसके चेहरे पर अनिश्चय का भाव था और वह उदास भी था। उसके पास अब कोई उत्तर भी नहीं था। बस्ती जाने कहाँ होगी? वह जानता था कि बालक थक गया है। सुबह से तो वे चलते आ रहे थे। केवल एक बार वे आधे घंटे के लिए कहीं रुके थे। इसे भी अब दो घंटे हो गये थे। उसने झुककर बालक को कन्धे पर बैठा लिया और फिर चलना शुरू कर दिया।

कन्धे पर उठाये-उठाये उसने बालक की अगली टाँग का टखना अपने हाथ में ले लिया था। समूचा तो वह खरोंचों से भरा पड़ा था। जंगली घास ने उसे बुरी तरह से छील दिया था। कहीं-कहीं तो खून भी सिमट आया था और फिर जम गया था। वह अनजाने में ही बालक भी उन खरोंचों को सहलाता रहा।

कुछ ही देर बाद उसके शरीर का वह हिस्सा, जो बालक के शरीर से रगड़ खा रहा था, उसे परेशान करने लगा। उसे बहुत गरमी लग रही थी और पसीना भी आने लगा था। मजबूर होकर उसने बालक को दूसरे कन्धे पर ले लिया। उसकी चाल में भी अब फुर्ती नहीं रही थी। वह बालक को, बस, ढो ही रहा था, यन्त्रवत्।

“दो पेड़ दिखाई दे रहे हैं! बालक ने खुश होकर कहा। उत्साह से उसका एक हाथ उठ गया था और वह आगे की तरफ इशारा कर रहा था।

पिता वहीं रुक गया। “ज़रूर कोई गाँव ही होगा।” उसके मुँह से निकला।

“हाँ, गाँव ही है।” बालक ने अपना बालसुलभ उत्साह बनाये रखा।

पिता ने अब पुत्र को ज़मीन पर खड़ा कर दिया। “तुम अब अपने आप चलो।” उसने अपनी थकावट मिटाने के लिए अँगड़ाई ली।

“वहाँ पहुँचकर क्या हम वहीं रहेंगे?” बालक ने उत्सुकतावश पूछा।

“हो सकता है।” पिता ने कहा। “शायद कुछ देर के लिए।” उसने अपनी बात स्पष्ट करनी चाही, और आगे बढऩे लगा।

“हम वहीं क्यों नहीं रहेंगे, हमेशा के लिए?” बालक को जिज्ञासा हो रही थी।

“क्या पता कैसी जगह है?” पिता ने उत्तर दिया।

“हमने अपना गाँव क्यों छोड़ा?” बालक ने फिर प्रश्न किया।

पिता ने उत्तर नहीं दिया। केवल उसकी मुट्ठियाँ कस गयीं। वह बालक को कैसे बताये कि उन्होंने अपनी खुशी से गाँव नहीं छोड़ा। वह उसे देश के बँटवारे वाली बात कैसे समझाये? वह बात उसकी अपनी समझ में नहीं आ रही थी।

एक दिन अचानक उसे किसी ने बताया था कि देश का बँटवारा हो चुका है और वह जिस जगह पर रहता है, उस जगह से उसका कोई ताल्लुक नहीं है। यह उसके लिए पहेली थी। वह चक्कर में पड़ गया था। पीढ़ी-दर-पीढ़ी वे उसी गाँव में रहते आये थे। अँग्रेज़ सरकार ने भी उसे उनकी जायदाद माना था। लेकिन अब कैसा वक्त आ गया था? किसी का कुछ नहीं था। बस, उसी का था जो उसे हथिया ले। न कहीं कोई कचहरी, न पुलिस, न सरकार। जिसको चाहो, खत्म कर दो। एक को नहीं, दस को नहीं, पूरे गाँव को। जिसकी चाहो, जायदाद लूटो और बिना किसी किस्म का ख़ौफ़ खाये लोगों के घरों को भी आग की भेंट कर दो। न कहीं कानून, न ईमान, न धर्म ही। जहाँ से वे बराबर जुड़े रहे, वहीं से उन्हें खदेड़ दिया गया। उन्हें यह भी पता न था कि सीमा पार क्या होगा। पर वही उनका नया देश होगा। यह तो ऐसे हुआ जैसे हाथ में पेन्सिल ले लो और देश का बँटवारा करके उसे कुछ भी नाम दे दो और फिर लोगों को बता दो कि उन्हें अब वहीं रहना होगा। वह भी बाकी लोगों की तरह झुँझला उठा था और उसे काफी गुस्सा आया था। लेकिन बन्दूक के सामने किसी की झुँझलाहट और गुस्से के क्या माने! मारे डर के भागने के सिवा और चारा भी क्या रहता है।

अब बालक को वह यह सब कैसे समझाये?

“हमने अपना गाँव क्यों छोड़ा?” बालक जवाब चाहता था। लोगों ने माँ को क्यों मार दिया?” उसका गला रुँध रहा था।

“वे पागल थे।” पिता ने रुककर पीछे की ओर देखा। फिर उसने बालक को अपनी बाँह के घेरे में लिया। “वे पागल थे।” उसने फिर कहा।

बालक चुप हो गया।

उस सुबह से बल्कि उससे पिछली रात से ही, जब रावी के उस पार के काफिले पर हमला हुआ था, उन्हें कोई नहीं मिला था तब तक वे उस इलाके को पार कर चुके थे जहाँ दंगाइयों का बोलबाला था और जहाँ जुनून में लोग अपने से अलग मतावलम्बियों को काट डालते थे। तब वे कुछ-कुछ खुश थे और अपने को सुरक्षित अनुभव कर रहे थे। लेकिन तभी एक बार फिर हमला हुआ था। उसने बालक को उठा लिया था और पास के भरके में कूद गया था। उस भरके को नदी के बाढ़ के पानी ने ही काटकर बनाया था। फिर वह दूसरे किनारे की एक गुफा में जा छिपा था। वह गुफा घनी झाडिय़ों से ढकी थी। उसे वहाँ अपनी पत्नी भी दिख गयी थी। वह मारे डर के काठ हो रही थी। वह उसे आवाज़ लगाने को ही था कि उसे एक सैनिक दीख पड़ा था। उसने अपनी बन्दूक की नाली उसके सीने पर रख दी थी और गोली चला दी थी। वह वहीं ऐसे ढेर हो गयी थी जैसे किसी ने उसके नीचे के आधार खींच लिया हो।

यह गोली चलना देर शाम तक जारी रहा था। अगले दिन भी यह रुक-रुक कर चलती रही थी। फिर शाम को सब शान्त हो गया था। लेकिन उसकी हिम्मत नहीं हुई थी कि अपनी उस शरणस्थली से बाहर आये। जब अँधेरा $ज्यादा हो गया था, तभी वे वहाँ से निकल पाये थे। निकलते समय उन्होंने किसी प्रकार की कोई आवाज़ नहीं की थी, बल्कि दुहरे होकर ही उन्हें चलना पड़ा था। नदी पर पहुँचे तो तो उन्हें यह पता नहीं चल रहा था कि उथली जगह कहाँ होगी जहाँ पर वे नदी पार करें। वे इन्तजार भी नहीं कर सकते थे। रात को नदी पार करना खतरे से खाली नहीं था। लेकिन वहाँ सुबह तक बने रहने में तो और भी खतरा था। इत्तफाक ही था कि उस जगह पानी कम गहरा था।

रात उन्होंने नदी के किनारे रेत के एक टीले की आड़ में काटी थी। सुबह हुई थी वे भौंचक-से हुए उस बियाबान को किसी तरह पार कर लेना चाहते थे, हालाँकि उन्हें यह पता नहीं था कि वे कहाँ जा रहे हैं। बस, वे तो पिछले दिन के त्रास से भाग जाना चाहते थे। इसी से वे आगे ही आगे बढ़ते जा रहे थे।

बालक को अब वे सब बातें याद आ रही थीं। उसका कच्चा मन इनसानी दरिन्दगी की गुत्थी सुलझाने में लगा था। “वे पागल क्यों हो जाते हैं?” उसने अचानक फिर प्रश्न किया।

“क्या बताऊँ! पर पागल तो वे हो ही जाते हैं।” पिता ने कहा।

अब वे एक बगीचे में दाख़िल हुए। वहाँ एक पुरानी क़ब्र थी और छोटी-छोटी ईंटों से बना पुराने ढंग का एक कमरा-सा भी था। दंगे होने से पहले वहाँ एक पीर रहता था। लेकिन अब तो वहाँ कोई नहीं था। अब तो वह काफी गन्दा हो रहा था। ठंडक भी थी वहाँ। बागीचे के साथ-साथ एक सूआ रहा होगा। पर अब तो वह सूखा पड़ा था। सूए के पार खेत थे और छोटा-सा गाँव भी था जहाँ कुछ एक घर थे। पहले तो उन्हें लगा था कि उस बियाबान को वे कभी पार नहीं कर पाएँगे। पर अब एकाएक उसके खत्म होने पर उन्हें हैरानी हुई थी। सूए के किनारे खड़े होकर वे खेतों के पार देखते लगे। खेत भी बरबाद पड़े थे। उनकी देखभाल करने वाला कोई न था। बस, इधर-उधर थोड़ी बहुत ईख ज़रूर थी जिसके बीचो-बीच चौड़े-चौड़े रास्ते बने हुए थे। कपास की फसल भी ऐसे ही बरबाद पड़ी थी। लगता था पशुओं ने उसे चरने के अलावा कुचल भी दिया है। आदमी या पशु का कहीं कोई निशान न था, सिवाय एक बूढ़े लँगड़े के, जो अपनी तीन टाँगों पर खड़ा था, जैसे कि अपने सामने के बिना फसल के खेत के बारे में कुछ सोच रहा हो। बुवाई न होने के कारण वहाँ घास-पात उग आयी थी। शरद ऋतु की बुवाई के लिए उनमें हल चलाया जाना जरूरी था।

“अच्छे खेत हैं ये।” पिता ने गहरी साँस ली।

“क्या कहा आपने?” बालक पिता के शब्दों को पकड़ नहीं पाया था।

“मैं कह रहा था अच्छे खेत हैं ये! बढिय़ा फसल होगी इनमें।”

“किसके हैं ये?”

“हो सकता है अब किसी के भी न हों।”

“किसी के तो होंगे ही न।”

“हो सकता है। पर मैं क्या जानूँ?”

वे खेतों को देखते हुए थोड़ी देर और खड़े रहे। लेकिन वहाँ की बियाबानी और नीरवता से हाथ-पाँव फूलते थे। गाँव में भी भुतवा ख़ामोशी थी। किसी तरह की कोई आवाज़ नहीं। न ही किसी प्रकार की कोई हरकत थी। कुछ घरों की छतें ग़ायब थीं और दीवारें धुएँ से काली पड़ रही थीं। कहीं-कहीं जले हुए शहतीर गारे की दीवारों से काले मस्तूलों की तरह बाहर निकले हुए थे।

वे कुछ देर तक उस प्रेत-बने गाँव को देखते रहे। फिर वे एकाएक मुड़े और सूए के साथ-साथ चलने लगे। अब वे गाँव में बिलकुल जाना नहीं चाहते थे।

सूए के साथ-साथ चलते हुए वे मुख्य नहर तक जा पहुँचे। नहर के साथ-साथ थोड़ा चलने के बाद एक पुल आया। नहर चल नहीं रही थी,पर उसमें थोड़ा पानी था, लगभग एक फुट गहरा। वे पुल तक पहुँचे और फिर उन्होंने उसे पार किया। पुल पर पक्की सडक़ बनी थी, और उसके पार चाय की एक छोटी-सी दुकान बनी थी, दायीं तरफ। दुकान भी टूटी पड़ी थी और उसके सामने दो खाली बैंचें थीं। वे उन बैंचों के निकट हुए और उन पर जा बैठे। अब वे इतने थक गये थे, और भूख भी उन्हें इस कद्र सता रही थी कि वे और चल नहीं पा रहे थे।

उसी समय बालक को प्यास लगी और वह नहर की ओर बढ़ा। जब वह उसके किनारे पहुँचा तो उसकी आँखें काली-काली, फूली हुई आकृतियों पर जा टिकी। वे आकृतियाँ आदमी की आकृति जैसी थीं। वह बालक पानी के बिलकुल निकट पहुँच गया था, पर उन आकृतियों पर से उसकी आँखें हटती न थीं। पानी में वर्दी पहने $फौज़ियों की लाशें थीं।

वह फौरन वहाँ से लौट पड़ा।

लेकिन जैसे ही वह फिर किनारे पर आया, वह एकाएक रुका। एक जीप चाय की दुकान के सामने ज़ोर सी चीं-चीं करती हुई रुकी थी, और फिर उसमें से खाकी वर्दी और लाल टोपी पहने कुछ सैनिक कूदकर बाहर आये थे। उनमें से एक ने अपनी स्टेनगन ऊँची की थी और गोली चला दी थी।

दनादन चलती गोली की आवाज़ सुनकर बालक की मुट्ठी उसके मुँह में चली गयी थी और वह मुँडेर के पीछे दुबक गया था। वह एकदम अदृश्य हो जाना चाहता था, इसलिए उसने वहाँ पड़ी ईंटों के साथ एकरूप होने की कोशिश की। वहाँ से कुछ और आवाजें भी आयीं। जैसे कोई किसी को हुक्म देता है। फिर पुल के निकट कील लगे बूटों की आवाज़ आयी। वह आवाज़ उसके सर के पास आकर रुक गयी।

“यह कुत्ता भी गया।” कोई नफरत से फुफकार रहा था। इसके साथ ही नहर में छपाक की आवाज़ हुई, जैसे कोई भारी चीज़ पानी में गिरी हो। बालक की पीठ पर पानी के छींटे पड़े। उसने अपनी साँसें रोक लीं और ईंटों के बीच और धँसने की कोशिश की। आदेश देती-सी आवा$जें फिर आयी। फिर इंजन के गरजने की आवाज़ हुई, गियर की आवाज़ भी हुई, और डामर पर टायरों के रगडऩे की आवाज़ भी। वह पहले की तरह ही धँसा रहा और फिर कहीं, कुछ मिनट बीत जाने पर, वहाँ खड़ा होने की हिम्मत जुटा पाया। फिर वह डरते-डरते उसी बैंच की ओर बढ़ा जिस पर वे कुछ देर पहले बैठे थे। वहाँ, पास ही ज़मीन पर उसे लाल किरमिची रंग का एक चकत्ता दीख पड़ा। उसने झुककर उसे अपनी बीच की उँगली से छुआ। उसमें कुछ-कुछ गरमाहट थी और वह चिपचिपा भी रहा था। वह एकदम सीधा खड़ा हो गया और उस लाल-किरमिची रंग के चकत्ते को ग़ौर से देखने लगा। फिर वह मुड़ा और नहर की ओर बढ़ गया।

नदी पर पहुँचकर वह फिर उसके किनारे के निकट हुआ और पानी में घुस गया। पानी में घुसकर वह फूली हुई लाशों के इर्द-गिर्द चलने लगा। वहाँ पानी में डूबी एक ता$जा लाश भी पड़ी थी। मरने वाले का चेहरा ऊपर की तरफ था। उसकी दाढ़ी अलग से तैरती दिखती थी। उसका मुँह खुला था और उसकी पथरायी आँखों का पानी में ठीक से पता भी नहीं चल रहा था। उसकी छाती के बायें हिस्से में एक सुराख था जिसमें बहते खून के कारण पानी में लाल-सा कुकरमुत्ता बन गया था। उसने झुककर उस सुराख पर अपनी उँगली रखनी चाही। जैसे ही उस सुराख पर उसकी उँगली गयी, उसे कुछ घबराहट हुई और उस कुकरमुत्ते का आकार भी बिगड़ गया। वह फिर सीधा खड़ा हो गया और पानी में से बाहर आ गया।

वहाँ से लौटकर वह फिर बैंच के पास पड़े लाल किरमिची चकत्ते को देखने लगा। चकत्ते का रंग अब और गहरा होता जा रहा था। उसने झुकर उसे फिर एक बार छुआ। उसमें अब भी गरमाहट थी। वह सीधा खड़ा होकर इधर-उधर देखने लगा। चारों तरफ नीरवता थी। कहीं कोई नज़र नहीं आ रहा था। उसका पिता भी नहीं। वह फिर ज़मीन पर पड़े चकत्ते को देखने लगा था और उसे देखे ही जा रहा था। उसे देखते-देखते वह अब तंग आ गया था। वह मुडक़र बैंच पर बैठ गया, उसी जगह जहाँ वह पहले बैठा था। उसकी मुट्ठियाँ कसी हुई थीं और उसके दाँत भिचे हुए थे। उसने सोच लिया था कि वह रोएगा नहीं। उसकी आँखें शून्य में टिकी थीं, घनीभूत होती जड़ता। वह अपनी आँखें झपका भी नहीं पा रहा था। उसकी आँखों में ढुलक आये गरम आँसू भी वैसे के वैसे ही बने हुए थे। वह कुछ सोच भी नहीं सकता था, न ही वह हिल-डुल पा रहा था। उसे तो अपने होने का भाव भी नहीं था। वह वहाँ उसी तरह बैठा रहा, सहमा हुआ, क्रुद्ध, तना हुआ, कड़वाहट से भरा।

उधर वह लाल-किरमिची चकत्ता जैसे-जैसे कड़ा पड़ रहा था, और-और गहरा होता जा रहा था। फिर रात आ गयी। वह चारों ओर फैलती ही गयी। वह उस सब को ढाँपती जा रही थी जिससे आदमी की काली करतूत का पता चलता है।