शराफ़त / कमलेश पाण्डेय

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शराफ़त एक भली सी शै है जो शरीफ़ लोगों में पाई जाती है. ये शरीफ़ लोग कहाँ पाए जाते हैं, इस पर दावे से कुछ कहना ठीक नहीं. अक्सर कोई-कोई शहर ही शरीफ़ करार दिया जाता है. इससे ये समझ लेना कि वहाँ सभी शरीफ़ ही बसे हुए हैं, शराफ़त और बेवकूफी का ग़ज़ब संयोग होगा. ऐसे शहरों में एक अदद मज़ार-शरीफ़ होता है जहां लोग मन्नतें मांगने आते हैं. इससे भी शराफ़त का मांगने से कोई सम्बन्ध ज़ाहिर नहीं हो जाता. कभी कहीं कोई बन्दा ये मान कर, कि खुदा ने खुद उसे शराफ़त से नवाज़ा है, अपना नाम ही शरीफ़ रख लेता है, हालांकि अपनी फितरत में उसे बदमाशों की एक टोली की सदारत करनी होती है. ज़ाहिर है, नाम में क्या रखा है- ये सूक्ति शराफ़त पर भी पूरी मुस्तैदी से लागू होती है. वैसे शराफ़त अब तक जितनी पारिभाषित है, अपने-आप में एक मुकम्मल-सी चीज़ है. यानी अगर कोई शरीफ़ हो ही गया तो फिर और कुछ नहीं हो सकता. वैसे कौन जाने आगे हो भी सकता है. ये संभावनाओं का युग है.

अतीत-प्रेमी बताते हैं कि कोई ज़माना कभी था जब समाज में बड़ी मात्र में शराफ़त पाई जाती थी. इतनी ढेर सारी कि उस ज़माने को शराफ़त का ज़माना कहा जाता था. फिर जैसा कि हर ज़माने के साथ होता है कि वह नहीं रहता, जाने शराफ़त से सब लोगों का जी उचट गया, या कि शराफ़त खुद ही मुहावरे वाला तेल लेने चली गई, अचानक पाया गया कि शराफ़त का ज़माना नहीं रहा. आगे इस जुमले को दोहरा-दोहरा कर पुख्ता तौर पर तसल्ली कर ली गई कि वाकई नहीं रहा और पूरा समाज ग़ैर-शरीफ़ाना हरक़तों में जुट गया. शायद उसी दौर में राष्ट्र कवि आनंद बक्शी ने ये सांकेतिक गीत लिखा था कि ...शराफ़त छोड़ दी मैंने...

तकरीबन उसी दौर के आसपास परसाईजी ने एक अदद ‘ठंढा शरीफ़ आदमी’ ढूंढ निकाला था. ये आदमी उत्तरी ध्रुव के ग्लेशियरों की तरह मन-बुद्धि और चेतना समेत जमा-जमा सा रहता था और इसलिए प्रतिक्रिया विहीन था. आगे शायद ग्लोबल वार्मिंग की वजह से शराफ़त के ग्लेशियर भी पिघलने लगे. ये वही समय था जब विश्व में वैचारिक प्रतिबद्धताएं ठोस ज़मीन छोड़ कर लावे-सी बहती वैश्विक सीमाओं को तोड़कर फैलते बाज़ारों के समुन्दर में घुलने लगी थीं. ठंढा शरीफ़ आदमी भी अब उत्तेजित रहने लगा. उसके सामने दो ही विकल्प थे- या तो खरीदार या फिर बेचने वाला बन जाए. अपने दायरे से बाहर वह पहले भी सुनता-गुनता नहीं था, पर लफ्फाजियां सुनाओ, तो चुपचाप निगल लेता था. अब उसे सिर्फ बाज़ार की टेर सुनाई देने लगी. अब खरीदने बेचने की क्षमता के अनुसार उसकी उत्तेजना उफनती-गिरती रहती है. हाँ, उफान ठंढा होने पर वो कुछ देर के लिए अपना वही पुराना ठंढा शरीफ़ आदमी बन जाता है. इस स्थिति के बावजूद, शराफ़त का जो ढोल है, आज भी बज रहा है. कुछ अपनी खुद बजा लेते हैं तो कुछ के नाम पर उनके भक्त-गण बजा देते हैं. शराफ़त पसीने की तरह कुछ लोगों के चेहरे से टपकती रहती है तो कुछ लोग एक दम शराफ़त के पुतले ही बन जाते हैं. कुछ लोग तो इतने जिद्दी हैं कि शराफ़त का दामन ही नहीं छोड़ रहे. जैसे इन्हें शराफ़त बाई इन्हें साक्षात कहीं मिल गईं और ये उनका दामन पकड़ कर ऐसे लटके कि आज भी घिसटते चले जा रहे हैं. शराफ़त बाई भी जाने किस मंजिल की तरफ तशरीफ़ ले जा रही हैं. ये भी साफ़ नहीं कि वे अपने दामन से चिपटे इन जोंक-सरीखे शरीफों को झटक कर पटक क्यों नहीं देतीं.

इस ज़माने में आप अमूमन तब शरीफ़ कहे जाते हैं जब हालात आपको ऐसी हालत में पहुंचा दें कि बदमाशी करने के मौक़े ही नसीब न हों. शराफ़त एक कलंक की तरह आपके माथे से चिपट जाए. मसलन एक सरकारी नौकरी करने लगे आप, वो वाली नहीं..सीधी-सादी लिखा-पढी वाली. वेतन मिला, इनकम टैक्स सोर्स में ही कट गया. काम-धाम जितना और जैसा था, जिस्म की सुस्ती में ढल गया. कुछ और करने लायक नहीं बचे. सरकारी कालोनी में अपने सरीखे जीवों के साथ शराफ़त से रहने के सिवा कोई चारा न बचा. आप उसी चारे को चरते रहे. सुख-शान्ति और सुरक्षा ने चिंतन-मनन की आग पर इतना पानी डाला कि एक चिंगारी भी न बची. सहमे और चुपचाप रहना आपकी फितरत बन गई. बाहर की दुनिया ने आप ही नहीं आपके मोहल्ले तक पर शरीफों की बस्ती होने की तोहमत जड़ दी. आप इस बंधन से निकल भागने को रोज़ कसमसाते हैं पर शराफ़त की जकडन से आज़ाद होना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हैं.

शरीफ़ होने और कहलाने में इस लफ्ज़ के वजूद में आने के बाद से अब तक इतना फ़र्क आ गया है कि अक्सर शराफ़त भी शरीफ़ कहलाने वालों की करतूतों से शर्मा जाती है. खुद को शरीफ़ मानने और कहलवाने की जिद पर अड़े लोग सामंत-युग से चले आ रहे हैं. और किस्म की ताकतों के अलावा ये लोग परिभाषाएं गढ़ने की ताक़त भी रखते आये, सो अपने ख़जाने, रहन-सहन और बात-व्यवहार को ही शराफ़त का नाम दे दिया. जिनके हक़ मार कर उन्होंने ये नेमतें हासिल की थीं, उन बेचारों का निरी शराफ़त पर से भी हक़ जाता रहा. दुनिया भर के चिन्तक, विचारक और साहित्यकार लिखते, चीखते रहे पर व्यवहार में शराफ़त महलों की ही लौंडी बनी रही. खैर, यहाँ शराफ़त को इतनी गंभीरता से लेने के लिए माफ़ी चाहता हूँ. अब आगे ये बेतुका-सा जुमला भी नहीं फेंकूंगा कि एक ग़रीब, मिला-कुचैला आदमी शरीफ़ हो सकता है और निहायत कल्चर्ड-सा दिखता, मीठी जुबां बोलता आदमी परले दर्जे का ठग और बदमाश. इसी माफ़ीनामे के अंतर्गत राजनीति और शराफ़त के अंतर्संबंधों पर भी पूरी चुप्पी साधे रहूँगा.

साहित्य रचना आमतौर पर एक शरीफ़ाना काम समझा जाता है, लेकिन साहित्य रचने में चाहे जितनी शराफ़त लगा लें, एक बार रच लिया तो उसे छपाने, समीक्षियाने, जमाने और बिकवाने आदि अनिवार्य कर्मकांडों में शराफ़त झोल खा जाती है. अगर इरादा पुरूस्कार-सम्मान भी लेने का हो तो शराफ़त को सीधे कोल्हू की दिशा में तेल लेने को रवाना कर देना ही उत्तम रास्ता है. वजह ये कि आपको अखाड़ों, मठों, राजनीतिक अड्डों जैसी महान संस्थाओं से साबका पड़ता है, जो शराफ़त से तो नहीं सधते. जहां तक व्यंग्य का मामला है, आपके व्यक्तित्व या चरित्र में शराफ़त की मौजूदगी आपको संदेह के घेरे में डाल सकती है. समाज और उसकी प्रवृत्तियों में घुसी बदमाशियों की खोज और परख शराफ़त के औजारों से कैसे होगी? इसी सिलसिले में बताता चलूँ कि मुझ पर जाने क्यों शराफ़त के आरोप लगते रहे हैं. कहा जाता है कि मैं व्यंग्यकार तो हूँ मगर शरीफ़ किस्म का. इसकी मुझे दो ही वजहें समझ में आती हैं, एक तो ये कि व्यंग्य लिखने का काम मैं पूरी बदमाशी से नहीं करता, दुसरे ये कि मैंने ऊपर बताये गए कर्मकांडों को साधने के कुछ नायाब शरीफाना-से लगते शातिराना तरीके ढूंढ निकाले हैं. लगे हाथों ये भी बता दूं कि अपनी बिरादरी में मैंने भी कुछ संदेहास्पद लेखकों को नामज़द कर रखा है. बस मौके की ताड़ में हूँ. सबकी पोलें खोल कर दिखा दूंगा कि ये सब शराफ़त से लबालब भरे लोग हैं और ऐंवें ही व्यंग्य लिख कर दुनिया भर की बदमाशियों को नंगा करने का दावा करते हैं.