शर्त-हीन / राजा सिंह

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैंने उसकी ओर देखा और तब मेरा दिल ज़ोर से धड़कने लगा। वह कुछ बदली-सी थी। मुझे लगा कि मैं ग़लत को देख कर मुस्कराया हूँ, क्योंकि मुझे देखकर भी उसका चेहरा प्रतिक्रिया विहीन था। “संज्ञा जी ‘नमस्ते... !’ तब उसे लगा, जैसे उसने किसी प्रेत को अचानक देखा, मुस्कराते हुए।

वह ठिठक जाती है। उसने मेरी ओर देखा क्षण भर अपलक, मानो मैं कोई अजनबी हूँ और वह मुझे पहली बार देख रही हो। प्रति उत्तर में कुछ न कहकर निकल जाती है। मैं अपने आप अकेले में जैसे किसी अदृश्य चीज को देखा हो, जाते हुए। मैं सोचता रहा कि सात साल से अलग, दिखने-मिलने का दुख खरोंचता था। वह अब भी विद्यमान है। बदलना आदमी का स्वभाव है परंतु यह बात मैं उससे या दोस्त से पूछूँगा। किन्तु मैं चुप लगा जाता हूँ, क्योंकि विरक्ति-सी हो आई थी। मेरा एकांत अपना था। मेरी परवाह, याद, देखना, मिलना जिसकी परिणति निम्नता में हो उसे देखना मंजूर नहीं था।

उस पर बड़े न्यायिक अधिकारी की पत्नी की ठसक थी किन्तु वह बोझिल बुझी और शिथिल-सी लगी। मुझे लगा कि यह मेरा संदेह होगा कि वह सुखी नहीं है। किन्तु संज्ञा के विषय में कम से कम कोई भ्रम है या शंका, कोई आत्म संतुष्टि मिलती है। उसकी छाया मेरे आस-पास मंडराती रही और मेरे शक का कोई उत्तर नहीं मिला। किन्तु उसके चेहरे पर खेलने वाली मुस्कराहट नदारत थी। भावुकता उम्र भर रुलाती है, जीने नहीं देती। तो उसका प्यार महज़ भावुकता था, जिसे उसने ध्वस्त कर दिया। मैं दोस्त अमित के विवाह में आया था। मैंने दोस्त से मना किया था कि मेरे आने के विषय में संज्ञा को न बताए, अचानक चौंकाऊँगा। यह एक खेल था जो पहले वह अकसर मेरे साथ खेलती थी।

वह बिना बताए ही आती थी। वह आ गई थी। वह धीरे से चुपचाप सामने की कुर्सी में जम गई। एकदम चोरों की तरह, किन्तु मैं चौकने के क्रम में नहीं था। मैं बहुत अस्त-व्यस्त-सा था। उलझन और झुंझलाहट सारे जेहन में तारी थी। अपना अस्वीकार्य मुझे बेहद नापसंद था।

‘क्या हुआ ?’

‘कहानी वापस हो गई।’

‘तो क्या हुआ ? नौकरी तो कर ही रहे हो !’

‘हाँ, वह तो जीविका है। किन्तु शौक के कुछ मायने होते है?’ मेरी आवाज़ कुछ तल्ख-सी हो आई थी। ‘लेखन शौक के कारण ही मैं इस स्थानीय दैनिक में हूँ।‘

उसने चुप रहना उचित समझा और अपने साथ लाए थर्मस से कपों में चाय उड़ेलने लगी। चाय पीते हुए उसकी निगाह अखवार पर टिकी थी। उसने रिक्त स्थानों के कालम में एक स्थान पर पेन से पूरा-पूरा घेर बना दिया।

‘यहाँ अप्लाई करो, हो जाएगा।‘

‘क्या पता?’ मैंने एक नज़र लिपिक-विज्ञापन पर डालते हुए कहा। हालांकि मैं उस जगह के लिए अनिच्छुक था।

‘पापा से कह दूँगी। प्राइवेट मेडिकल कॉलेज अपना है।‘

‘नहीं, मेरी रुचि का नहीं है।‘ मैं अखवार के अन्य पृष्ठों में कुछ और खोजने लगा।

“शट अप !’ उसने कहा। फिर कुछ देर रुककर बोली, ‘तुम्हारी समस्या आर्थिक है। खीज तुम रचनाओं पर उतारते हो ?’

मैं उससे बहस नहीं करना चाहता था। जीत भी नहीं सकता था। हम चुपचाप चाय पीते रहे।

मैं नहीं गया। उसके आदेश की अवहेलना करने की जुर्रत नहीं थी, किन्तु उसने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाया था। वह पूर्ववत थी। हमारे मकान मालिक जैन साहब की पुत्री थी। मेरे दोस्त अमित की छोटी बहिन और मैं उसका अघोषित बॉय-फ्रेंड। संज्ञा मेरे लिए गर्लफ्रेंड थी और मेरे जैसे नीरस और उदास व्यक्ति के लिए ख़ुशी का कारण थी। उसके लिए मैं दैहिक और वायवीय प्रेम दोनों था। वह बेहद खूबसूरत, मगर सांवली लड़की थी और मेरे गोरापन से बेहद आप्लावित, किन्तु भोग्या नहीं थी।

‘मेरी रचनाएँ कैसी लगती है ?’ एक बार मैंने पूछा था। वह चुप लगती रही, शायद हिचक रही थी। फिर यकायक बोल उठी, ”कुछ ख़ास नहीं। वास्तविकता से परे। प्रत्येक कारण अमीरी। ऐसा कहीं होता है?’ कुछ ही क्षण बीते थे कि कहा, निःसंदेह पेंसिल स्केच अच्छे बनाते हो।

‘अमूर्त, एक बात पूछूँ ? उसने कहा।

‘क्या संज्ञा ?’

‘क्या तुम कम्युनिस्ट हो, रहे हो?’

‘यह तुमसे किसने कहा?’

‘किसी ने नहीं। परंतु ऐसा लगता है? तुम्हारी रचनाओं लेखों और स्केच से ऐसा प्रतीत होता है और तो और तुमने मेडिकल कॉलेज की नौकरी नहीं की। मैं वहाँ थर्ड ईयर स्टूडेंट हूँ। आसानी से प्रतिदिन मिलन होता रहता। तुम न प्यार चाहते हो न मेरा विश्वास। तुम आगे बढ़ना नहीं चाहते हो? तुम्हें उच्च पद, प्रतिष्ठा, पैसा और प्रेम की चाहत नहीं है?’ वह अपनी फ्रेंड सर्किल में मेरी निहायत संजीदगी से प्रशंसा करती किन्तु पराए के सामने मेरी तारीफ में शर्म से घिर जाती। मैंने उसकी किसी बात का जवाब नहीं दिया था। वस्तुतः मेरे पास जवाब था भी नहीं।

मैंने एक पेंसिल-स्केच उसकी पसंद का बनाया और कमरे की मुख्य दीवाल पर चिपका दिया। उसने प्रसन्नता के अतिरेक में चित्र को चूम लिया।

एक बार वह अपने पति के साथ मेरा परिचय करवाने लाई और मेरे स्केचिंग की तारीफ करने लगी। तब उसने वही स्केच जो कमरे की दीवाल पर चस्पा था। जिसमें एक खूबसूरत लड़की और उसके अभाव महसूस करता लड़का, शराब के गिलास में लड़की का अश्क निहार रहा था।

‘कितनी अच्छी है ? है... न ?’ उसने अपने पति से पूछा।

‘अच्छी तो होगी ही ! तुम दोनों हो ?’ पति ने कहा। वह शर्म लिहाज़ से झेंप गई और मैं खिसियानी हंसी से इधर-उधर ताकने लगा।

“नहीं ऐसा नहीं है।‘ मैंने कहा। फिर चुप लगा जाता हूँ। क्योंकि अचानक बोलने के चक्कर में अकसर अनर्थक बोल जाता हूँ।

‘मैं शायद ठीक से समझ नहीं सका। मैंने तो हंसी की थी।‘ और वह फिर हंसने लगे। हम तीनों हँसे, किन्तु सुखी सर्द हंसी खोखली थी।

वह नाख़ुश दिखी थी। हवेली में अपने कमरे लौटने पर वह अपने मजिस्ट्रेट पति से जिरह करने लगी जो अनवरत काफ़ी रात गए चली थी। जिसे मैंने अपने आउट हाउस कमरे से उनके जलते कमरे को देखा। उसने अपने अतीत से मेरे वजूद को तिलांजलि दे दी। तब से वह मुझसे अपरिचित थी।

आज भी वह उस खेल को भूलने का बहाना क्यों नहीं कर पाता? बहाना, शायद करता है किन्तु फिर अपने जेहन में उभर आता है, जो भूलता जा रहा है। दिन महीने बीत जाते है और वह उलझा रहता है, अनजाने में उसका चेहरा धुंधला पड़ता जाता है, किन्तु मैं जानबूझ कर फिर उभारता हूँ। चेहरा साफ़ साफ चमक जाता है और उसके खेल। तब अपने पर ग्लानि होती है। मैं जानबूझकर उस घाव को कुरेदता है, जो भरता जा रहा है किन्तु घाव खुल जाता है।

मैं आज भी उस दिन की घटनाओं को पूरी तरह साफ़ साफ याद रख पता हूँ, जब प्रभाकर जैन साहब की हवेली में उसे पहली बार देखा था। बहुत खूबसूरत मगर सांवली । उसे उस समय वह उसे छुई-मुई-सी नाज़ुक वदन लगी। परंतु ऐसी कि उससे नज़र हटाने का मन ना करें। मेरे दोस्त अमित ने अपनी हवेली के आउट्हाउस में मेरे लिए रहने को ज़िद की थी। वह मेरे साथ लखनऊ में पत्रकारिता डिग्री कोर्स में साथ था। जब मेरी स्थानीय दैनिक मुरादाबाद में नौकरी लगी तो मैं मना ना कर सका था।

पहले ही दिन रात के खाने पर आमंत्रित था। ड़ायनिंग टेबल पर सब आ चुके सिर्फ़ जैन साहब दूर एक टेबल पर पैग ले रहे थे। हम सब कि निगाहें उन पर जमी थी। अमित इशारे से बुला रहा था और कमनीय चिढ़ रही थी। उन्होंने धीरे से गिलास उठाया और जितनी व्हिस्की थी उसे एक ही घूंट में पी गए।

आते ही उन्होंने मुझसे कहा, ‘माफ कीजिएगा, मैं खाने से पहले थोड़ी-सी लेता हूँ। अमित बोला, ‘पापा आप भी ना... ? अमित उनके सामने लेता नहीं था और मैंने भी उनका पैग लेने का प्रस्ताव विनम्रता पूर्वक अस्वीकार कर दिया था। उनकी बात सुनकर उसने ईर्षा और अविश्वास से मेरी तरफ़ देखा और फिर विरक्त भाव से मुस्कराई। उनकी मम्मी के लिए यह सामान्य बात थी।

दोस्त ने परिचय दिया था, ’पत्रकारिता विद्यालय के सहपाठी रहे है और हम दोनों की दोस्ती बेहतरीन थी। मैंने स्वीकारोक्ति दी और संज्ञा ने मुंह बिचका दिया, जिसे सिर्फ़ मैं देख पाया। यह बात अलग थी कि अब अमित अपने पापा के बिजनेस से जुड़ गया था। पत्रकारिता उसने शौक के कारण की थी। उसका मेरे ऊपर भी दबाव था कि मैं उसे जॉइन कर लूँ।

कितना आसान था ! उसका साथ, अपने वजूद को खो देने अहसास। संज्ञा-अमूर्त, लेकिन वे नहीं । वे घूम रहे है। वे बेंच में बैठे है। माहेश्वरी गार्डन की मखमली घास में जैसे बच्चे से। गार्डन में शाम का धूधलका कब चुपके से घिर आया था पता ही नहीं चला। उसने मेरा हाथ पकड़ा और झोले खिलवाती चली। मेरी आँखों में हल्का-सा विस्मय घिर आया था। जब उसने मेरी कमर में हाथ लपेट और मुझे भी ऐसा करने को कहा। मैंने किया किन्तु संकोच में साथ देता रहा। अब ऐसे ही वापस होने के लिए गेट की तरफ़ जाने वाले रास्ते पर अन्यों की नजरों में शायद चुभा भी। लेकिन वह लापरवाह थी।

वह बोलती रही और मैं सुनता रहा। क्या कहा मुझे याद नहीं? मैं स्पर्श सुख में था। मुझे सिर्फ़ यह याद था कि उसका हाथ-साथ नहीं छूटना चाहिए। उसके साथ मैं संवर-निखर रहा था। सहसा मुझे आभास हुआ कि मैं दोस्त से प्रेमी में तब्दील हो गया हूँ। फिर वह लौट चली गार्डन में और बेंच में बैठ गई। इसी बीच मेरे हाथ उसकी कमर से हट गए। ‘यह क्या बदतमीजी है ...? उसने फिर अपनी कमर से सटा लिया। मैं फिर डर और संकोच में घिर गया। मेरी आँखें उसके चेहरे पर टिकी थी मानो मैं उसमें कुछ खोज रहा था।

रात बहुत उतर आई थी। अब पूरा अँधेरा था। तब उस अंधेरे एवं ठंडे माहौल में उसने अपनी बाँहों में घेरा था तो मेरा गला प्यास से तड़कने लगा था।

गार्डन के गार्ड निकट आते लगे। शायद अन्य घूमने वाले जा चुके है। अब हमें भी जाना चाहिए, मैंने चेताया। हम में जो अंतर था वह तिरोहित हो चुका था।

एक बड़ी परिसर में फैली हवेली में एक ठिकाना मेरा भी था, मेहमानों वाला। मुझे अमित ने ज़िद करके बसाया था। उसे सुविधा हो जाती थी।

‘कुछ लोग तरीके के कायल होते है, मुझे तो तरीके से रहना भी नहीं आता।‘ मैंने उससे कहा था।

‘अकेले रहने में यही तो सुविधा है जैसे मन करें रहो।‘ उसने कहा।

वह अजीब सनकी है। वह जो चाहती है मनवा के दम लेती है। वह अवरुद्ध, अनिश्चित ढंग से संकेत करते हुए कहती थी। मैं क्षण भर के लिए स्तब्ध, परेशान-सा ठिठका रह जाता। फिर उसी के अनुसार उसके कहन स्पर्श से चौककर सचेत हो जाता।

वह अपलक मुझे देखते हुए बिल्कुल अपने में खोई हुए मुझे तराश रही है। वह मेरे पास आ गई-आँखें उठाकर एक लंबे क्षण तक अपनी आकुल, विवश निगाहों से मुझे निहारती है। फिर झपटकर उसने मुझे अपने पास घसीट लिया। बार बार अपने गरम रसीले होंठों से मुझे चूमने लगी।

अब इन दिनों मुझे अपने मुंह का स्वाद अच्छा लगाने लगा था। अंगों में एक हल्की-सी स्फूर्ति का निरंतर संचार हुआ था जबकि सिगरेट पीने के कारण मुझे अपना स्वाद अच्छा नहीं लगता था।

एक रात में... वह अपनी हवेली के बाहर खड़ी मिली। उसने इशारे से मुझे बुलाया अपने पास।

‘क्या... है ? तुम देर से क्यों आने लगे हो ?’ उसके स्वर में एक हल्का-सा भीगा कंपन था, मानो वह जबरदस्ती अपने आग्रह को दबा रही है। मैं कोने में जड़वत निश्चल खड़ा था। उस सुने वातावरण में भारी महकती साँसों के अलावा कुछ भी नहीं सुनाई पड़ रहा था। मैं प्रतीक्षा कर रहा था कि वह उलाहना के कुछ शब्द वाक्य कहेगी! लेकिन कुछ देर वह अपलक मुझे देखती रही । वह लपककर मेरे पास आ गई। उसके होंठ खुले और मेरे होंठों में चिपक गए। फिर वह अदृश्य दरवाज़ा खुला और मुझे अपने भीतर समेट लिया। मुझे लगा कि वर्षों का जमा हुआ अकेलापन धीरे धीरे उघड़ने लगा है। मैं पूरी तरह से उसकी गिरफ्त में था और शायद यह मेरी चाहना भी थी।

क्या मेरे लिए पीछे लौट जाना संभव था? जब वह सामने नहीं होती तब उसकी जड़ता को तोड़ने की सोचता। परंतु संज्ञा के सामने होती तो बड़ी सतर्कता से अपनी आशंकाओं को छिपाये रखता। मैं संज्ञा के सामने हतबुद्धि-सा खड़ा रहता। उसके सामने बोलती बंद मुझे उससे भय लगने लगा था- पराधीन होने का डर।

मैंने सोच लिया कुछ दिनों के लिए अपने घर चला जाऊँगा? वापस आऊँगा तो कही और जाकर किराये में रहूँगा। यहाँ रहकर मैं अहसान द्रोही बनता जा रहा हूँ। किन्तु यह सोच ही पाता था, लेकिन उसकी सौम्य-सुन्दर मुखाकृति, कमनीय काया और बेपनाह प्यार ने मुझे बेबस कर रखा था, आकर्षण में बाँध रखा था। उसी के अनुरूप विवश होता। मुझे डर, भय रहता, बात अन्य के पास पहुँचने की।

मैं यहाँ हूँ अपने कमरे में। आज मेरा साप्ताहिक अवकाश है। किन्तु उसका नहीं। कॉलेज से वह आई और आते ही हवेली में गई और पलट कर उसके कमरे मुश्किल से ही दाखिल हुई होगी कि चिपट गई थी। अपने साथ लाई व्हिस्की ने हम दोनों को अपने आगोश में ले लिया। उसकी आँखों में सुर्ख डोरे खिच आए थे और शायद मैं भी एक तेज गंध से सराबोर था।

‘अब मैं सुरक्षित हूँ इस जगह कोई मुझे पकड़ नहीं सकता।‘ उसने कहा।

दिन के उजाले में वह गवाह थी, मुजरिम थी और जज भी। हर चीज का उसे तकाज़ा था।

‘अब इस अकेलेपन में कोई गिले नहीं, उलाहना नहीं, सब खींचातानी समाप्त। जो अपना है वह बिल्कुल अपना है जो अपने नहीं है, वे नहीं है।‘ उसने लड़खड़ी आवाज़ में घोषणा की।

शायद यह उसका प्रथम परिचय हो उस अनुभूति का, जिसे कोई लड़की ताउम्र बड़े चाव एवं भाव से सँजोकर रखती है, एक अवर्णनीय सुख, पीड़ा और सुख के साथ बढ़ते ज्वार की खुमारी... एक दर्द, जो आनंद से उपजा है और पीड़ा देता है।

जब मैंने पूछा, ‘तुम चुप क्यों हो?’ वह आँखें मुँदें सोच रही थी-जी रही थी, उस क्षण को जो बीत गया था जो भय और विस्मय के बीच में था।

कुछ समय पूर्व उसकी आँखों में जो कौतूहल था, वह अब भय में परिणित होने लगा था। कही उसका यह भेद उजागर ना हो जाये ? उसने एक नज़र मुझे देखा, मैं निर्जीव व शिथिल दिखा।

कुछ पल वह अपलक घूरती रही फिर लापरवाही दिखाती चल दी। चलते-चलते हठात वह रुक गई। आईने में अपना चेहरा देखा-वह मुस्करा रही थी। उसे यह बात अजीब लगी कि इतने दिनों की अतरंगता के बावजूद कोई उसे देखकर सहमा-सा दयनीय हो जाता है, तब उसे लगता कोई उसे निरीह याचना में उसे कोस रहा है। उसी के अनुरूप विवश होता। मुझे डर, भय रहता, बात अन्य के पास पहुँचने की।

उसने तय किया था कि विवाह के बाद हम कुछ दिनों तक अजनबी रहेंगे। उसका साथ ! मैं ख़ुद बहुत अनिश्चित था। सोचता था,क्या यह सब ठीक है, क्या इतना सुख निबाह पाऊँगा? मन घबरा जाता था। लेकिन क्या मैं नियति पर विश्वास करता हूँ, पहले नहीं किन्तु अब हाँ... !

उसे याद आया, उसके विवाह पूर्व मुझे उसका प्रेम पत्र मिला था। भावुक याचना से भरा पत्र, जिसमें उसने न जाने क्या क्या कुछ लिखा था? उसे यह समझ नहीं आया कि जब वे अकसर मिलते है, अब भी मिल सकते है तो प्रेमपत्र जैसी चीज ? उसे उसकी इस बचकाना हरकत पर हंसी, गुस्सा, क्रोध आया था और उसने उसके प्रथम और आखिरी ख़त को चिंदी चिंदी करके हवा में उड़ा दिया था।

वह अपनी ऊहापोह का कोई समाधान चाहती थी, क्या करें वह ?

उस दिन हम दोनों निपट अकेले थे। मैं उन दिलकश, मोहक क्षणों की आस में था जिन्हें प्रारंभ वह करती थी। मैं त्रिशंकु की तरह अटका था कि उसने उस दिन मेरी जड़ता तोड़ते हुए कहा, ‘मैं शादी कर रही हूँ।

मैं निःशब्द था। सिर्फ़ उसकी तरफ़ अपलक निहार रहा था।

‘लड़का जज है। उसने देखकर, मिलकर पसंद कर लिया है।‘ उसने बतलाया।

आशंका शुरू से ही थी कि वह ऐसा ही करेंगी। किन्तु-परंतु और लेकिन के भ्रम-जाल में लिप्त होने के बावजूद मैं हतप्रभ था। मुझसे अलग होते हुए वह सहमति चाहती थी।

विवाह तय होने के बाद से संज्ञा ने उसके कमरे में आना बंद कर दिया था। मुझे अपने में निहायत एक असहाय-सी कमजोरी महसूस होने लगी थी। मानो वह मेरी मजबूती थी। उसे बुलाने में सर्वदा अपने को असमर्थ पाता था। पहले भी वह अपने मन से ही आती-जाती थी। अपने विवाह से एक दिन पूर्व वह मिली थी। वह जानती थी कि उसका कहा, ‘मैं हूबहू पालन करता हूँ।‘

‘मेरी तरफ़ देखो।‘

मैंने उसकी तरफ़ देखा।

‘मेरी क़सम खाओ। जो मैं कहूँगी मानोगे।‘ मैं निर्विकार भाव से उसकी तरफ़ देख रहा था।

‘मेरी शादी के बाद तुम शादी कर लोगे।‘ उसके स्वर में हल्का-सा कंपन था।

‘संज्ञा, तुम बड़ी-बूढ़ी बनने की चेष्टा मत करो !’

मैंने देखा उसका मुंह सफेद हो गया है और आँखों की कोर गीली हो गई है। मुझे एक अजीब तरह की ख़ुशी हुई कि मैं उसे दुखी कर सकता हूँ।

‘तुम्हें कोई पछतावा तो नहीं है?’ मैंने पूछा।

वह कुछ क्षणों तक निश्चल-खामोश बैठी रही । कुछ पल तक मुझे देखती रही। अचानक उसने कसकर मेरे दोनों हाथ पकड़ लिए और बोली, ‘देखो इधर देखो, क्या तुमने किसी को इतना सुखी देखा है ?

‘क्या बात है ?’ मेरा आश्चर्य ख़तम नहीं हो रहा था।

“कुछ याद है ! मैंने कहा था कि प्यार और विवाह दोनों अलग मुद्दे है, उन्हें मिलाना नहीं चाहिए।“

‘कुछ लोग अच्छे की तलाश में सच्चे को भी खो देते है !’ मैंने सोचा।

मेरे होंठ विकृत मुद्रा में आ गए थे संभवतः वे व्यंग्यात्मक भाव से मुस्करा रहे हो? उस समय अचानक एक शेर याद... –“ख्वाहिश तो थी तेरी बाँहों में ज़िन्दगी गुज़ारने की, पर लम्हे तेरी याद के सहारे निकल रहे है।“ अजीब हताशा और घुटन का अहसास था।

उसकी सम्पन्न वैवाहिक प्रणाली में शुरू से संयमित-संमलित रहा था, क्योंकि मैं अमित को अपने संज्ञा के बीच उपजे-पनपे सम्बंध, किसी तरह का संकेत नहीं देना चाहता था। उस दिन से आज तक, सिर्फ़ उन दिनों को छोड़कर जब वह अपने पति के साथ मेरे रूम में आई थी, मैंने आज तक उसे ना देखा न सुना था। उसे अपनी आँखों से मेरा कातर-सा-चेहरा देखने की न इच्छा थी ना फुरसत। मुझे याद आता है उसका विवाह के बाद अजनबी बन जाने चाहत, जिसे वह पालन कर रही थी।

उसकी छाया, उसके संग जो अब नहीं है।, मेरे भीतर समाए बैठे है-अकसर साथ-साथ चलते है । वह मँडराती रहती है, न स्वयं मिटती है और न मुझे मुक्त करती है। हाँ, कुछ क्षण तक निस्तब्धता छाई रहती है।

वह उसके अभिवादन का कोई उत्तर न देकर चली गई। उसे लगा कि उसके व्यवहार में शुरू से अजीब-सा रहा है और उसमें लापरवाही का भाव है। प्रारंभ से ही वह मेरे साथ इस अंदाज़ से मिलती, रहती और घूमती थी जैसे मेरे साथ इश्क़ करके मुझ पर अहसास कर रही हो।

मुझे अचानक कुछ स्मरण हो आया । सबके चेहरे परिचित थे, किन्तु समय के साथ सब कुछ बदल गया है या उन्हें जैसे पहली बार देख रहा हूँ। आज भी जब वह उन निगाहों से देखता है जैसे पहले की नज़र से तो अहसास होता है कि उसकी उम्र अभी बीती नहीं है। अब भी उसमें आकर्षण है।

आज दिन भर वह बादल की तरह छाई रही, लेकिन खुलकर बरसी नहीं। वह भूलना चाहता है, तब उसे लगता है जैसे कोई उसकी निहायत दिल के करीब चीज को छीने लिए जा रहा है।

‘मुझे विश्वास था कि तुम ज़रूर आओगे। तुम यहाँ से जा चुके थे। मैंने तुम्हें बहुत पहले खोजना चाहा था असफल रही क्योंकि अब सब परवाह करने लगी हूँ। मैंने सोचा था शायद तुम तलाश करो किन्तु तुम पहले जैसे ही रहे।‘

मैंने कुछ नहीं कहा।

‘वैसे सबकी अपनी ज़िद होती है, कोई छोड़ देता है कोई आख़िर तक उससे चिपटा रहता है। जानबूझकर न भूल पाना हमेशा जोंक की तरह चिपके रहना निहायत ग़लत है।’ उसने कहा।

‘जिंदगी काफ़ी दिलचस्प होती यदि तुम होती। तुमसे शादी मान ली थी। अब मैं दूसरी शादी में हिचकता हूँ।‘

‘पहले कुछ नहीं कहा।‘ ताज्जुब से उसकी बड़ी आँखें और चौड़ी हो गईं।

‘तुम ज़रा-सी बात पर सनक जाती और कुछ का कुछ कर बैठती। इसलिए साहस नहीं हुआ।‘ मैंने कहा।

‘पता नहीं इसका क्या मतलब है ?’ वह हैरान हो जाती है।

मुझे लगा वह जो कहना चाह रही है,वह कह नहीं पा रही है। जैसे अंधेरे में कुछ खो गया है, जो मिल नहीं पा रहा है। शायद कभी नहीं मिल पाएगा। वह जो भूलना चाहती है, हो नहीं पाता तब उसे भी लगता है जैसे कोई प्रिय वस्तु उससे छीनी जा चुकी है।

क्या मैं उदास था? कह नहीं सकता था ? ज़िन्दगी कितनी हल्की है...? मैं पुराने दिनों में उसे खोजने की चेष्टा करता हूँ, यह जानते हुए कि यह व्यर्थ है। सोचता हूँ कि क्या मैं संज्ञा नाम की लड़की से कभी परिचित हो पाऊँगा? लेकिन उसका सत्य उसकी प्रति छाया, स्मृतियों, घटनाओं का ऐसा रहस्यमय आलोक है कि मैं अभी तक संज्ञा को विस्मृति विस्थापित नहीं कर पाया हूँ। उसका अलगाव भूत की तरह चिपका था। जिसे मैं अलग नहीं कर पा रहा हूँ। क्या वह शैतान निर्मित है या उसके विचारों से प्रेरित किन्तु किसी भी तरह से उसे परिभाषित नहीं किया जा सकता।