शर्मिला टैगोर सही फरमाती हैं / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 06 मार्च 2013
सलमान खान की तरह अजय देवगन ने भी स्टार चैनल से अगले पांच वर्षों में अपनी अभिनीत या निर्मित फिल्मों के सैटेलाइट अधिकार महंगे दामों में बेच दिए हैं। बताया जाता है कि उनका मेहनताना सलमान खान से 30 प्रतिशत कम आंका गया है। सैटेलाइट चैनलों में फिल्म प्रसारण के अधिकार खरीदने को लेकर गहरी प्रतिद्वंद्विता रही है और इसी से बचने के लिए पांच साल के अधिकार खरीदे जा रहे हैं। इस समय सिनेमा उद्योग के नए आर्थिक समीकरण ने सितारे को फिल्म का मालिक बना दिया है और निर्माता की हैसियत गिर गई है। इस कारण सिनेमाई गुणवत्ता भी प्रभावित हो रही है, क्योंकि निर्देशक को मालिक सितारे की इच्छानुरूप फिल्म बनाना पड़ रही है। इस तरह दो सितारा अभिनीत फिल्मों की संभावना भी घट रही है और सब मिलाकर फिल्म उद्योग सितारा तानाशाही की गिरफ्त में जा रहा है। इसके समानांतर यह भी सत्य है कि कुछ निर्देशक नए कलाकारों के साथ फिल्में बना रहे हैं और स्थापित बैनर भी बड़े सितारों वाली फिल्मों के साथ ही नए सितारों की मध्यम बजट की फिल्में बना रहे हैं। आदित्य चोपड़ा ने अर्जुन कपूर के साथ अपनी दूसरी फिल्म 'औरंगजेब' लगभग पूरी कर ली है। आयुष्मान खुराना के साथ भी आदित्य तीन फिल्में बनाने जा रहे हैं। फिल्म उद्योग के सितारा मार्ग के साथ कई गलियां भी समानांतर चलती हैं।
टीवी के प्राइवेट चैनलों पर एक तरफ फूहड़ सीरियल दिखाए जा रहे हैं, अंधविश्वास और कुरीतियों को बलवान बनाया जा रहा है तो दूसरी तरफ उन पर दिखाई जाने वाली मसाला फिल्मों की टीआरपी इतनी अधिक आ रही है कि वे 'बर्फी' जैसी फिल्म के प्रसारण अधिकार नहीं खरीद रहे हैं। उनके सरगना का कहना है कि 'जिंदगी ना मिलेगी दोबारा' जैसी फिल्मों को टीआरपी नहीं मिलती और मसाला फिल्म के दूसरे तथा तीसरे प्रदर्शन पर भी टीआरपी के कारण विज्ञापनदाता मोटी रकम देते हैं। सारांश यह कि छोटे परदे पर आप सार्थकता और गुणवत्ता नहीं देख सकते। माहौल कुछ ऐसा है कि सभी क्षेत्रों से गुणवत्ता खारिज हो रही है।
जयपुर में आयोजित साहित्य उत्सव में शर्मिला टैगोर ने मंच की गरिमा को देखते हुए एक गंभीर टिप्पणी यह की कि जब देश में नैतिक मूल्यों के पतन का दौर चलता है, तब हुड़दंगी लोग महिलाएं क्या पहनें तथा अश्लीलता इत्यादि के निरर्थक मुद्दे उठाते हैं और गंभीर विषयों पर सघन बहस के अवसरों को समाप्त कर देते हैं। इन्हीं अवसरों पर फिल्में, किताबें और लेखक प्रतिबंधित किए जाते हैं। सारांश यह कि दूरगामी नतीजे देने वाले मसलों पर गंभीर बात करने के अवसर ही खत्म कर दिए जाते हैं।
बजट जैसे महत्वपूर्ण अवसर पर यह बहस कहीं नहीं हुई कि साधनहीन को धन देने या किसान को सब्सिडी देने पर अरबों का खर्च जायज है या उसी धन से बेहतर अवसर देने वाले समाज की रचना की जाए। माल-ए-मुफ्त उपलब्ध कराते-कराते हम कामचोरी को गरिमा दे रहे हैं और समानता आधारित समाज के निर्माण की ओर अग्रसर नहीं हो रहे हैं। भीख देने की आदत से ज्यादा भयावह भीख लेने की आदत है और हम अनर्जित धन को गरिमा प्रदान करते हुए परिश्रम के महत्व को घटा रहे हैं, जबकि सभी लोग जानते हैं कि वेलफेयर स्टेट रचने के काम में इतनी चोरी है कि साधनहीन व्यक्ति तक मदद तो दूर की बात है, बैसाखी तक नहीं पहुंच रही है। विकलांग सोच कैसे यथार्थ की विकलांगता से लड़ सकता है?
किसी भी राजनीतिक दल के पास यह साहस नहीं है कि वह सस्ती लोकप्रियता से बचकर देश की सच्ची मदद कर सके। किसी भी नेता के पास यह नैतिक साहस नहीं है कि वह अलोकप्रिय परंतु राष्ट्रहित के फैसले लेकर एक चुनाव हार जाने का कलेजा रखता हो। सबका 'फोकस' केवल सत्ता पाना है, चाहे इस मार्ग पर चलते हुए अनेक झूठ क्यों न बोलने पड़ें। किसी के पास यह नैतिक साहस नहीं है कि अवाम को बोल सके कि मेरे भ्रष्टाचार में आपका मौन समर्थन और सहयोग हमेशा रहा है। प्रजा को अपनी अभिरुचि का राजा ही मिलता है। राजा महज आईना है, जिसमें अवाम अपना असली रूप देख सके। कोई स्वीकार कर सकता है कि स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद हमने सामंतवाद को कानूनी तौर पर समाप्त किया, परंतु समाज के तौर-तरीकों और अवाम के मन में पैठी सामंतवादी प्रवृत्तियों को पनपने दिया है।
शर्मिला टैगोर ने जयपुर साहित्य उत्सव में सटीक टिप्पणी की है। उन्होंने 'विकी डोनर' के इस संवाद का जिक्र किया कि उच्च आर्यन बच्चों की आवश्यकता है और नायक विशुद्ध आर्यन है, अत: उसके स्पर्म की बहुत कीमत है। 'विकी डोनर' एक साहसी और उच्च गुणवत्ता की फिल्म थी, परंतु शर्मिलाजी सही फरमाती हैं कि यह तथाकथितआर्यन श्रेष्ठता के मिथ को मजबूत करती है और इसी को प्रोपेगंडा का आधार बनाकर हिटलर दुनिया को विनाश के कगार पर ले गया था। तमाम तानाशाह एक जुनून को लोकप्रिय बनाकर ही सत्ता प्राप्त करते हैं।