शर्मीली दुल्हन / कृपा सागर साहू / दिनेश कुमार माली

Gadya Kosh से
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"सुनो जी, सो गई हो? "

बिदेई ने अपने कमरे में प्रवेश कर दरवाजे पर कुंडी लगाते हुए अपनी नई नवेली दुल्हन से पूछा।

हालांकि, उसकी दुल्हन पूरे दिन काम करने के बाद थक कर चकनाचूर होकर बिस्तर पर पड़ी हुई थी, मगर उसकी आँखों में नींद नहीं थी। वह अभी भी जाग रही थी और निद्रालू आंखों से छत की ओर देख रही थी। जैसे ही उसने बिदेई को देखा, वह बिस्तर से उठकर बैठ गई और छाती के नीचे तक घूंघट निकाल लिया। बिदेई ने दरवाजे के बाहर झाँककर देखा कि कोई देख तो नहीं रहा है। वह सीधे पलंग के पास आकर बैठ गया। उत्तेजनावश अपनी पत्नी को लुभाने के लिए उसके मुंह से कोई शब्द नहीं निकल रहा था। उसने अपना हाथ लजकुरी के कमर में डाल दिया। लजकुरी उस प्रेमपाश से मुक्त होने की कोशिश करते हुए फुसफुसाने लगी, "यह क्या कर रहे हो?"

बिदेई ने उत्साहपूर्वक उसकी तारीफ करते हुए कहा, "अब क्यों, नहीं कर सकता हूँ? क्या मैं तुम्हें गुदगुदी भी नहीं कर सकता? मेरे पिताजी बाहर सो रहे हैं .... .... "

लालटेन का मद्धिम प्रकाश लजकुरी की सुंदरता देखने के लिए पर्याप्त नहीं था। घूंघट के पीछे उसका छुपा हुआ चेहरा कपड़े के एक बंडल की तरह दिखाई दे रहा था। जैसे ही बिदेई ने उसे बाहों में भरने के लिए अपनी ओर खींचा, वैसे ही उसके पिताजी के खांसने की वजह से वह पकड़ स्वतः ढीली होती गई।

उनके छोटे-से कमरे में दीवार के पास एक पुरानी चारपाई बिछी हुई थी। बिदेई की शादी के बाद उसके पिताजी ने वह कमरा खाली कर दिया और उसकी माँ अनाज कूटने की धिनकी वाले कमरे में सोया करती थी। वह कहा करती थी कि उसे यह कमरा पसंद है, क्योंकि यह गर्म और आरामदायक है। वहाँ धान-चावल पकाने के लिए एक मिट्टी का चूल्हा बना हुआ था।

छोटे छप्परीले छत वाले कमरे में मजबूत साल लकड़ी की मोटी पट्टियों से बनी हुई एक अटारी थी, जिस पर मिट्टी से लेपन किया हुआ था। जिसे वे भंडार कक्ष के रूप में इस्तेमाल करते थे। बड़े करीने से सजा हुआ मकई का एक पुलिंदा और छत से लटकी जूट रस्सियों की दो शिखाएँ झूमर की तरह लग रही थी। केवल बिदेई की माँ को ही पता था कि वहाँ – सूखे आम की फाँके या सूखी मछली रखी जाती है।

खाट के नीचे धान के डंठलों से बुनी दो टोकरियों में अगले मौसम की बोवाई के लिए बीज रखे हुए थे। खाट और दीवार के बीच लजकुरी के दहेज के कुछ गहने और कुछ बर्तन से भरा एक बड़ा ट्रंक रखा हुआ था। खाट के सामने में रखी एक रैक में लजकुरी की सजी हुई साड़ियों के अलावा बिदेई की धोती, तौलिया और छाता रखा हुआ था। बिदेई कभी रैक, तो कभी मकई के पुलिंदों तो कभी जूट की शिखाओं की ओर देख रहा था।

रात को खाना खाने के बाद वह सीधे कीर्तन घर में चला गया। उसने सोचा था कि रात में जब वह घर लौटेगा तब तक उसके माता-पिता सो गए होंगे। जगा जोर से दर्द भरी आवाज में गा रहा था "... अरे भुलक्कड़ ! हंसों के साथ खेलो –हंस उड़ गए -अब नाव डूब जाएगी, अरे ! पागल.... "

वह वहाँ कुछ समय तक बैठा रहा, झांझ लिए कोरस समूह के साथ। लेकिन कुछ समय बाद उसका मन नहीं लग रहा था। जगा ने उसे एक गाना गाने के लिए पूछा, मगर उसने अनिच्छा जताई।

जगा कहने लगा, "दरअसल, उसका दिल यहाँ नहीं है। उसकी नई नवेली दुल्हन उसका घर पर इंतजार कर रही है। " सभी ठहाका मारकर हंसने लगे। सभा वहीं खत्म हुई। दनई ने उससे कहा, "मेरे दोस्त,जाओ, पहले से ही चार दिन तुमने बर्बाद किए है"

जगा ने मज़ाक करते हुए कहा, "जाओ, जल्दी करो! अन्यथा तुम्हारा हंस उड़ जाएगा! "

बिदेई अपने दोस्तों के हँसने पर मंद-मंद मुस्कराने लगा। वह अपनी लुंगी की गाँठ ढीली कर फिर से कसकर बांधते हुए लाठी लेकर उठ जाने के लिए खड़ा हो गया।

ऐसा लग रहा था जैसे इन सात दिनों को पार होने में उसे सात महीने लगे हो। यहाँ तक कि वह अपनी पत्नी लजकुरी के पास भी नहीं गया था।

उनकी प्रथा के अनुसार शादी के चार रात बाद जब उन्हें पति और पत्नी के रूप में मिलना था, उस दिन वह जल्दी घर आ गया था। पहले पहले वह अच्युतानंद के भजन के छंद गाने लगा, फिर भीमा भोई के दोहे गुनगुनाने लगा। वह गा रहा था, "मेरी प्यारी! " क्योंकि वह घर में प्रवेश करने वाला था।

उसकी साली पारा उसे दहलीज पर यह कहते हुए चिढ़ाने लगी, " कहां जा रहे हो जीजाजी, अपने होठों पर इस तरह के रोमांटिक गाना गाते हुए? "

"क्यों, क्या मैं अपने ही घर में गाना भी नहीं गा सकता? "

"नहीं, बिलकुल नहीं। आप जानते हैं कि आपकी लजकुरी ‘वह’ है? "

"क्या हुआ है उसे? "

"हाय ! या तो समझ में नहीं आ रहा हैं या फिर नाटक कर रहे हो? अगले चार दिनों तक कोई उसे छुएगा नहीं। अब वहीं चले जाओ, जहां से आए थे। "

बिदेई फिर भी कुछ समय तक खड़ा रहा। पारा चिढ़ाने लगी, " आज रात कहाँ सोओगे? क्या आप शयनकक्ष में फिर से जाओगे? "

बिदेई तब तक थोड़ा परेशान हो गया था, कहने लगा "क्यों, मैं तुम्हारे साथ सोऊंगा !"

बिदेई लंबे लंबे डग भरते गाँव के रास्ते लगभग जाने वाला ही था। उसकी साली पीछे से चिल्लाने लगी, “ आप ऐसी बात करते हो ! रुको, मैं अभी जाकर लजकुरी को सब-कुछ बता देती हूँ। मैं कौन हूँ, आपको अच्छी तरह पता है, अपनी खनकती चूड़ियों से आपके सिर में छेद कर सकती हूँ ! "

उस दिन बिदेई पूरी तरह अन्यमनस्क रहा। हालांकि, वह खेत में हल जोतकर हरे चने के बीज बोने गया था, मगर हल की रेखा सीधी नहीं पड़ी थी। वह अपने काले और भूरे बैलों की जोड़ी पर तब तक जमकर बरसा, जब तक उनकी पीठ लहूलुहान नहीं हो गई। उसने खेत में मिट्टी के टीले जुताई से पहले सपाट नहीं किए थे। इसलिए उसके पिताजी ने लापरवाही बरतने के लिए बहुत डांटा था। यहाँ तक कि उन्होंने गुस्से में एक तमाचा भी कस दिया था। उसका दिमाग इधर उधर था, वह उस लट्ठे से नीचे गिर पड़ा, जिससे वह जमीन समतल करने की कोशिश कर रहा था। उसे अगले चार दिनों तक घर में प्रवेश करने नहीं दिया। वह केवल भीतरी आंगन में जाता था, जहां उसकी मां उसे भोजन परोसती थी। खाना खाने के बाद वह कीर्तन कक्ष में चला जाता था,उसका मूड ठीक नहीं रहता था, इसलिए वह केवल झांझ बजाता था, मगर भजन नहीं गाता था। भले ही,उसके झांझ लयबद्ध बजती थी। भजन- संगीत कार्यक्रम खत्म होने के बाद वह कभी-कभी गांजा का एक कश लगाता और हर रात वहीं सो जाता था।

चार दिन के बाद लजकुरी ने नहाकर अपने बाल धोए और शेष पूजा का अनुष्ठान पुजारी ने पूरा करवा दिया। आज रात, बिदेई उत्सुकतावश अपने कमरे में घुसा। लेकिन आज रात भी उसकी शर्मीली दुल्हन, लजकुरी, किसी तालाब के बीचो-बीच एक कुमुद डंठल की तरह भ्रामक लग रही थी !

उसकी सांसें गरम होने लगी थी और उत्साहवश उसका दिल तेजी से धड़क रहा था। वह अपनी कामुक लालसा पर लगाम नहीं लगा सका। जब वह अपनी पत्नी को अपने सीने के करीब खींच रहा था, उनका खाट चरमराने लगा। उसकी शर्मीली दुल्हन धनुष की तरह सिकुड़ने लगी। लालटेन बाहर बुझ गई। रात के अंधेरे में लजकुरी शर्म से लाल हो गई।

थोड़ी देर के बाद बिदेई थक हार कर बिस्तर के किनारे सो गया।

अंधेरे में लजकुरी अन्यमनस्क होकर अपलक छत की ओर देखने लगी। बीच-बीच में उसके ससुर की सूखी खाँसी सुनाई दे रही थी। कपड़े की रैक के पास शिखा के ऊपर एक जुगनू उड़ रहा था। उसने कुछ साहस जूटाकर अंधेरे में बिदेई के पैरों को छुआ। लेकिन बिदेई सो रहा था और जोर से उसने उलटी लात मारी। वह खुद भी दीवार की तरफ चेहरा करके सोने लगी। गाँव में सियारों के हुंकारने के समय तक वह सो चुकी थी और सुबह कौओं की कांव-कांव करने से पहले घर का दैनिक कामकाज करने के लिए वह उठ गई थी। वह उठकर स्नान करने के बाद चूल्हा जलाने के लिए रसोई घर में चली गई।

लजकुरी का असली नाम लता था। वह नदी के उस पार महुलपाला गांव की रहने वाली थी। उसके पिता नाम पड़िया बिस्वाल था और उसकी मां का नाम कोटरी था। शुरू से ही उसकी नस-नस में कूट-कूटकर शर्म भरी हुई थी,सिर से पाँव और पायल से नथुनी तक ! यही कारण है कि स्कूल में भी उसका नाम लता होने के बावजूद भी हर कोई उसे लजकुरी,लाजवंती कहकर पुकारता था। लजकुरी बहुत दुबली पतली और गोरे रंग की थी। जब वह शर्माती थी, ऐसा लगता था मानो लाल कनेर के फूल उसके गाल पर खिल रहे हो। लजकुरी पढ़ाई में कमजोर थी। जिस समय वह पांचवीं कक्षा में पहुँची, तब तक वह जवान हो चुकी थी। सड़क, गांव का पंडाल और भागवत- मंदिर में एकत्रित हर कोई आदमी उसे घूरता हुआ नजर आता, जब वह स्कूल से वापस लौट रही होती। आखिर कब तक वह विनीत लड़की अपने आपको उनकी निगाहों से बचा पाती? यही कारण है कि वह हमेशा अनार की कमजोर झाड़ी की तरह झुककर चलती और पांचवीं के आगे वह पढ़ नहीं पाई।

भले ही, वह पढ़ाई में अच्छी नहीं थी, मगर अन्य कामों में वह अव्वल थी। घर के सारे कामकाजों में निपुण थी। उसे स्वादिष्ट पीठा बनाना आता था और धान से चावल भी। वह हर दिन अपने पिछवाड़े में बने सब्जियों के बगीचे में घड़े से पानी सींचती थी। जब वह पन्द्रह साल की हुई, उसका हाथ मांगने के लिए कई वर आए। उसके माता - पिता उसे अपने गांव से दूर नहीं देना चाहते थे। वह उनकी इकलौती बेटी थी। घर-परिवार में और देखने वाला कोई नहीं था। बिदेई नदी के उस पार रहता था। इसलिए पड़िया बिस्वाल बिदेई के साथ अपनी बेटी की शादी करने के लिए राजी हो गए थे।

बिदेई के पिता सदेई और माँ गुरेई थी। वे सिर्फ तीन लोग थे। और उसकी इकलौती बहन की शादी बहुत दूर बहुत पहले हो चुकी थी। उन्होंने सोचा था कि उनकी बेटी को शादी के बाद कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ेगा।

जब वह अपने माता पिता का घर छोड़ पति के घर चली गई, तब उसकी माँ ने उसके कान में कहा, “ तुम अपने ससुराल वालों का दिल जीतने की कोशिश करना। और उन्हें शिकायत करने का बिलकुल भी मौका मत देना, जिससे तुम्हारे माता-पिता का नाम खराब हो। "

अगले दिन अपने कमरे में आने से पहले बिदेई ने अपने दोस्त से सलाह-मशविरा किया था, जिसकी एक साल पहले शादी हुई थी। "बहुत ज्यादा निराश मत होना। तुम लालटेन बाहर रख देना और अपने पास एक टार्च रखना। थोड़ी देर अपनी पहली दुल्हन से बात करना और फिर उसको जीतने की कोशिश करना। "

उसके दोस्त ने अपने एक साल के अनुभव के आधार पर ये सुझाव दिए। लजकुरी उस दिन घर के काम पूरे होने के बाद उसका इंतजार करने लगी। जैसे ही उसने कमरे में प्रवेश किया, वह उठ खड़ी हुई और अपना घूंघट निकालने लगी।

बिदेई ने उसका हाथ पकड़कर नम्रता से पूछने लगा, "तुम नाराज़ हो?"

लजकुरी ने इनकार में अपना सिर हिलाया। अभी भी उसका घूंघट एक झंडे की तरह लटक रहा था। बिदेई ने उसे बिस्तर पर बैठाकर लालटेन बाहर रख दी। जब दोनों बिस्तर के बीच में पहुंचे, बिस्तर फिर से चरमराने लगा। सहमकर लजकुरी फुसफुसाने लगी, "पिताजी जाग रहे है।"

"बेवकूफ, यह खाट की आवाज है।” कहते हुए बिदेई खाट के नीचे फर्श पर गद्दे को बिछाने लगा। उसने अपनी पत्नी को उसमें मदद करने के लिए कहा।

लजकुरी हंसने लगी। वह बहुत ज्यादा शर्म महसूस कर रही थी। वह लंबे समय से अपना घूंघट लटकाए हुए थी। धीरे से वह फर्श पर गूंगे की तरह बैठ गई। बिदेई उसे छेड़ने लगा, " ताड़ी की तरह हर समय शर्म तुम्हारे चेहरे पर क्यों झलकने लगती है?"

तभी बूढ़े पिताजी ने खाँसना शुरू किया। बिदेई चिढ़कर बुदबुदाने लगा, " अफीम का कोटा पूरा किए बिना वह सो नहीं सकते हैं !"

लजकुरी ने चिढ़ाते हुए कहा "क्या किसी को भी इस तरह बोलते हैं?"

"मैं साप्ताहिक बाजार से इस शुक्रवार को कुछ अफीम खरीद कर लाऊँगा जिसे तुम सब्जी में मिला देना। "

कुछ समय बाद बूढ़े आदमी की खाँसी बंद हो गई। बिदेई यह देखने के लिए बाहर चला गया,मगर उसके पिताजी वहाँ नहीं थे। अपने माँ के खलिहान वाले कमरे से कुछ आवाजें आ रही थी। उनकी बातचीत साफ सुनाई दे रही थी। "यह बूढ़ा आदमी मुझे चैन से सोने भी नहीं देगा!"

बिदेई वापस आकार कहने लगा, " दिन भर में लड़ते रहते हैं और अब आधी रात में लड़ना शुरू। "

लजकुरी खिलखिलाकर हंसने लगी, " जैसे अब आप मुझे परेशान कर रहे हो, वैसे ही वे लोग भी एक दूसरे को परेशान कर रहे हैं।"

दोनों जोर जोर से हँसने लगे। उसी समय उनके हंसने की आवाज चारों ओर फैलकर उनके कमरे से बाहर निकलने लगी कि फिर से बूढ़े आदमी की खाँसी शुरू हो गई।

लजकुरी सोचने लगी, अवश्य उसकी बूढ़ी सास ने उसे डांटकर बाहर निकाल दिया है।

कुछ समय के लिए वे चुपचाप अंधेरे में उसी तरह सो गए। उसके बाद बिदेई ने अपने हाथ लजकुरी की छाती पर रख दिए। लजकुरी ने शर्म के मारे विरोध करना चाहा, " मुझे गुदगुदी होती है, आप बहुत शरारती हो .... ..."

"तुम दिन में शर्माती हो और रात के अंधेरे में भी? ठीक है, अब उठो, हम बाहर जाएंगे। यहाँ कुछ भी नहीं किया जा सकता है। "

"आधी रात को?" लजकुरी ने पूछा।

"तुम न केवल बहुत शर्मीली हो, वरन बहुत डरपोक भी हो। जब मैं तुम्हारे साथ हूँ, तब डर किस बात का? "

उन्होंने एक योजना बनाई।

"पहले तुम सुराही लेकर बाहर जाओगी, और फिर पीछे-पीछे मैं आऊँगा।"

इस बार लजकुरी अपनी हँसी रोक नहीं सकी। उनके घर के पिछवाड़े में एक छोटी-सी रसोई बगीची थी, जिसमें

बैंगन, मिर्च, प्याज और लहसुन पंक्तिबद्ध लगे हुए थे। उनके बीचो बीच में एक सीधी संकरी पगडंडी बनी हुई थी मानो एक शादीशुदा महिला के बालों में मांग भरी हो।

उन्होंने बाड़ी का दरवाजा बांस के डंडे से बंद कर दिया। गांव में जंगली कुत्ते भौंक रहे थे। रसोई बगीची के अलावा उनकी जमीन पर भूसे की खली का एक टीला बना हुआ था, जिसके सहारे अलसी की टहनियों के बंडल रखे हुए थे।

बिदेई ने पूछा, "हम घास के उस टीले पर चलें?"

लजकुरी ने तुरंत यह कहकर वहाँ जाने से इंकार कर दिया, “ उस टीले पर? वहाँ देवी लक्ष्मी का निवास है! "

खलिहान वाली जमीन के अलावा उनके पास एक हरा-भरा खेत का मैदान भी था। वे धान के खेतों के बीच बनी लकीरों पर चल रहे थे। अचानक लजकुरी के पाँव में काँटा चुभ गया और वह दर्द से कराहने लगी। वह वहाँ अपना एक पाँव उठाकर सिर झुकाकर त्रिभंगी मुद्रा में खड़ी हो गई।

"रुको, पुनर्नवा कांटा (एक औषधीय पौधा) होगा? ."

"नहीं, यह हड्डी का एक टुकड़ा है, जिसे किसी सियार ने यहाँ फेंक दिया है। "

"हिलना मत! मैं तुम्हें अपने कंधे कुमुद तालाब तक ले जाऊंगा। "

"नहीं, नहीं, ऐसा मत करो, नहीं तो मैं वापस चली जाऊँगी ....... "

"दिन में तुम अजनबियों से शर्माती हो और अब मुझसे भी शर्म भी लग रही है?"

"चलो, चलते हैं। मैं अब ठीक हूँ। "

थोड़ी देर लंगड़ाकर चलने के बाद लजकुरी ठीक हो गई और सीधे चलने लगी। उनके दाहिनी ओर बौतिका देवी का स्थल था, जिसे देखकर लजकुरी श्रद्धा से प्रणाम करने के लिए रूक गई। एक भद्दे पत्थर की मूर्ति पर बहुत सारा सिंदूर लगा हुआ था। सामने मिट्टी के कुछ घोड़े रखे हुए थे, जिन्हें भक्तों ने चढ़ाया था।

कुमुद तालाब अब थोड़ी ही दूर पर था। बिदेई अब रूक गया, उन्हें तटबंध की चढ़ाई जो चढ़ना था। नीले आग की दो लपटें उसे अंधेरे में घूर रही थी। उन्हें वहाँ देखकर सियार पीपल पेड़ के पीछे भाग गए और उल्लू अंधेरे में घिघियाते हुए उड़ गए।

लजकुरी डर गई। वह अब बिदेई से सटकर पीछे-पीछे चलने लगी।

कुमुद का तालाब,जहां गाँव वाले स्नान करने और अपने कपड़े धोने के लिए जाते थे। वे अपने मवेशियों को भी वहाँ धोने और पानी पिलाने के लिए लाते थे। तालाब दस एकड़ जमीन पर फैला हुआ था और जिसके दलदल के कई प्रकार खतपतवार और पानी में लिली के पौधे लगे हुए थे। सीने की ऊंचाई तक पानी भरा हुआ था। गाँव वाले तालाब में मछली पालते थे।

पुरुषों और महिलाओं के लिए तालाब पर अलग अलग घाट बने हुए थे। बरगद का पेड़ पुरूषों और बेल का महिलाओं के घाट के लिए चिह्नित किया गया था। महिलाओं के घाटे के किनारे हरी घास के साथ-साथ आक की छोटी-छोटी झाड़ियां भी थी। घास के मैदान में ये झाड़ियां इस तरह लगी हुई थी जैसे वे भगवान को अंजलि भर कर नीले और सफेद फूल चढ़ा रही हो। तटबंध के किनारे कुछ अमरी पौधों की झाड़ियां (लपोमोइए कॉर्निया) भी लगी हुई थीं।

दोनों अब महिलाओं के घाट की ओर जाने लगे। धूसर आकाश में टिमटिमाते तारों के साथ हंसियानुमा चांद अकेले दिखाई दे रहा था। वह दृश्य ऐसा लग रहा था मानो एक राजकुमारी अपनी दासियों के साथ बादलों के बगीचे में टहल रही हो।

बेल के पेड़ के नीचे वे एक दूसरे से लिपटकर बैठ गए। ठंडी हवा के झोंके चल रहे थे। बिदेई से रहा नहीं गया। वह एक आदमखोर बाघ की तरह हताश महसूस कर रहा था। उसका शिकार अब उसकी गोद में था।

"आप कुछ भी नहीं लग रहा है, लजकुरी? "

"क्या?"

बिदेई ने अब उसे कसकर अपने सीने में भींचते हुए कहा, " क्या घर पर कभी किसी ने तुम्हें बताया नहीं? दिन भर ‘गोविंद मूषक’ की तरह दौड़ने से होगा? तुम दूसरों के लिए बहुत कुछ करती हो। तुलसी चौरा में पानी देने, घर के सारे कामकाज करने से लेकर मेरे माता-पिता के पैर धोकर पानी पीने का सारा काम करती हो। मगर,कभी मेरी सेवा नहीं? "

“छि: !इस तरह की बेशर्म बातें मत करो। "

बिदेई ने बातचीत का विषय बदल दिया।

"ठीक है, फिर से तुम शर्माने लगी ! मुझे बताओ,क्या बात है? तुम गोरी हो और मैं काला। इसलिए मुझे नापसंद करती हो? "

“नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। आप तो दिल से बहुत अच्छे आदमी हो? "

"तुम बहुत खूबसूरत हो। दिखने में भी और गुणों में भी। तुम्हारा हाथ मांगने में लोगों की कतार लगी होगी।"

“धत !मैं नहीं जानती। "

"आज तक तुम्हें किसी ने हाथ नहीं लगाया?" बिदेई ने हिचकिचाते हुए उससे पूछा।

लजकुरी उसकी तरफ भय से देखने लगी।

अब वह समझ गई थी कि उसे बहुत शर्म आती है। एक शाम उसके चाचा ने उनके आंगन में उसे भूसे की टीले की ओर खींचने की कोशिश की थी। एक ईल मछली की तरह उसे अपने आप को मुक्त कराने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा था।

लेकिन अब वह गुस्से से कहने लगी, "यदि आप इस तरह की बात करोगे, तो मैं तालाब में कूद जाऊँगी। "

रात गहराती जा रही थी और साथ ही साथ उसका रहस्य भी। आकाश में चाँद बादलों के साथ आंख मिचौनी खेल रहा था। ठंडी हवा तीर की तरह लग रही थी। इस नवविवाहित जोड़े की आँखें उनींदी होने लगी।

इस सर्दभरी रात में तालाब में पानी सीने तक गहरा था। दिन में तालाब के मध्य में मछलियाँ खेलती थी और शाम के समय अमरी, आक के पत्तों तथा उनके फूलों की पंखुड़ियों और रात को बरगद के पेड़ के गिरते फलों से आकर्षित होकर मछलियाँ तैरकर तालाब के किनारों को ओर चली जाती थी। गांव के चालाक मछुआरे इस अवसर का खास इंतजार करते रहते थे। वे रात भर चुपचाप उन छोटी मछलियों को जाल लगाकर पकड़ने का इंतजार करते थे।

तभी अचानक तपाक की आवाज से वे दोनों एक झटके के साथ उठ खड़े हुए। भय से दो सफेद जलमुर्गियाँ अमरी पेड़ की टहनियों से भागकर पानी के भीतर चली गई। तटबंध पर कुछ आदमियों की आवाजें आ रही थीं। लजकुरी चौंक गई और उसने बिदेई को अपने ऊपर से उठा दिया। बेल के पेड़ पर लटकी अपनी साड़ी को लेने के लिए वह जैसे ही उठ खड़ी हुई, वैसे ही तीन सेल वाली टार्च की रोशनी उसके नंगे गोरे बदन पर गिरी। पहले-पहल उसने अपनी आँखों को बंद करने की कोशिश की और फिर अपनी छाती को ढकने की। जैसे ही उसने अपनी साड़ी पहन ली, वैसे ही टार्च की रोशनी भी बुझ गई। वह टार्च पकड़ने वाले के हाथ से गिर गई थी। शायद मछली चोर इसके लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं थे और वे अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए खाँसने लगे।

लजकुरी शर्म से जमीन में गड़े जा रही थी। रात के अंधेरे में बेल पेड़ के पीछे छिपी लजकुरी साड़ी पहनने के बावजूद भी शर्म से पसीना पसीना हो गई।

साड़ी पहनते-पहनते वह अचानक तालाब में कूद गई। और बिदेई भी उसके पीछे। मछली-चोर ये अजीब घटनाएं देखकर मूर्तिवत चुपचाप खड़े थे। बिदेई कीचड़, शोला और कुमुद के दलदल में अपनी पत्नी को खोजने के लिए हाथ पाँव मार रहा था। मिट्टी के चारों ओर कुमुद की जड़ें बिखरकर पानी में डूबी हुई थी।

तभी चोर होश में आ गए और नीरव अंधेरी रात में मदद के लिए चिल्लाने लगे।

"सभी लोग दौड़कर आओ ! अपने मछली पकड़ने के जाल के साथ ...... "

"हे, फगुआ भाई!"

"हे, जगुआ भाई!"

"हे, सदेई चाचा!"

देखते देखते वहाँ वहाँ हलचल होना शुरू हुई। चारों तरफ आवाजें गूँजने लगी। गन्ने के खेतों की भालूओं से जगुयाली करने वाले चौकीदार भी पहुंच गए। वे टार्चलाइट जलाकर लाठी पकड़े और ड्रम बजाते हुए आ रहे थे जैसे भालूओं का दूर दूर तक पीछा कर रहे हो।

मछुआरे पहले से ही तालाब के अंदर थे, दोनों को डूबने से बचाने की कोशिश कर रहे थे। वे एक के बाद एक घूमा घूमाकर अपनी छोटी-छोटी जालियाँ पानी में फेंक रहे थे। तब तक गांव के कुछ युवक जलती हुई मशालों के साथ वहाँ पहुँच गए थे।

"क्या हुआ?"

"बिदेई की पत्नी तालाब पर आई थी। "

"वह हमें देख डरकर तालाब में कूद गई। " किसी ने कहा।

"खोजो, खोजो, देर मत करो। "

इस बार बड़ी जालियाँ तालाब में तैरने लगी और ज्यादा आदमी इस अभागे जोड़े को खोजने लगे। आखिरकार, बिदेई जाल में पकड़ा गया, सांस के लिए तड़पते हुए। उसका पेट दबाकर निगला हुआ पानी बाहर निकाल दिया गया और उसे किनारे पर लाया गया। वह अचेत हो गया था।

लेकिन लजकुरी कहाँ थी? वह कहाँ गायब हो गई? क्या उसने अपने आपको पानी में छुपा लिया? या वह कीचड़ भरे कुमुद की जड़ों में उलझ कर रह गई। लेकिन वह अचानक तालाब में क्यों कूदी? अगर वह रात में कुछ गलत काम करने के लिए बाहर आई थी? "

इस प्रकार की चर्चा वहाँ इकट्ठे हुए गाँव वालों के बीच में होने लगी।

लेकिन उन्हें जवाब दे कौन सकता था?

आकाश में एक भूखी तीतर तालाब के ऊपर गोल-गोल चक्कर काट रही थी, मानो वह लजकुरी को खोज रही हो।

सुबह होते-होते वहाँ भीड़ लगना शुरू हो गई। आदमी, औरत, बूढ़े, बच्चे सभी। उनकी आवाज़ घरघरा रही थी। पेड़ों, पत्तियों और हवा में मातम छा गया था। ऐसा लग रहा था, मानो यह दुःख अनंत काल तक बना रहेगा।

हर कोई उदास था और अपनी पीड़ा को व्यक्त कर रहा था। और वे सभी लजकुरी के गुणों का बखान कर रहे थे।

"हे, करुणा की मां, वह राऊत घर का एक हीरा थी !"

"हाँ, दीदी! सब उसे कितना प्यार करते थे ! एक बार मैं उसे मिलने गई थी, बिना मीठा पान खिलाए उसने मुझे जाने नहीं दिया ! "

"मैं भी एक बार उसके घर गई थी, यशोदा ! उसने मुझे कहा - दादी, मैं तुम्हारे दुखते पाँव दबा दूँ। ” धेदौनी की दादी ने कहा।

"उसने कभी किसी को अपशब्द नहीं बोला," बिस्वाल घर की बहू ने इसमें जोड़ा।

"हाँ, उसकी सास वास्तव में मनहूस है! वह हफ्ते-हफ्ते तक उसका घरेलू काम नहीं देखती थी ! "

चंपेई, उनमें से सबसे बूढ़ी औरत ने अधिकारपूर्वक कहा, "लेकिन यह बताओ, आखिरकार वह रात में तालाब पर क्या करने आई? "

अपने पति के पास खड़ी एक महिला ने उसे फटकारते हुए खामोशी तोड़ी, " यह कोई समय है ऐसी बात करने का? चाची, वह नई दुल्हन है इसलिए तालाब देखने नहीं आ सकती? " मछुआरे एकदम मूक-दर्शक रह गए, मानो किसी ने उनकी जुबान पर ताला लगा दिया हो। वे गांव की पंचायत के सामने ऐसे खड़े थे, मानो शर्मीली दुल्हन लजकुरी की दुखद मौत की पूरी जिम्मेदारी उनकी है।

अंत में, गाँव वाले इस नतीजे पर पहुंचे कि देवी बौतिका का सम्मोहन उसे खुद तालाब पर खींच लाया। बिदेई भी उसे रोक नहीं पाया और अपने अथक प्रयास के बाद भी वह अपनी पत्नी को बचा नहीं पाया।

सुबह का सूरज चमकने लगा था। अधिकांश गाँव वाले अपने घरों को ओर वापस जा रहे थे। कुछ पुरुष उदास मन से स्नान-घाट पर पानी में एक डुबकी लगा रहे थे, तो कुछेक तटबंध से तालाब की ओर घूर रहे थे। तभी किसी ने तालाब के बीच की ओर इशारा करते हुए चिल्लाना शुरू किया, “ वहाँ कुछ तैर रहा है।”

एक बार फिर तैराक लोग तटबंध पर चढ़ गए। हर कोई देखकर चिल्ला रहा था। सदेई राऊत अपनी कमर के चारों ओर धोती लपेटकर तालाब में लजकुरी की तैरती लाश की ओर डुबकी लगाई। भगवान जाने, उसमें इतनी ताकत कहाँ से आ गई, जैसे भी कर वह उसकी लाश को आखिरकार किनारे ले आया। और अपने तौलिए से उसके नंगे बदन को ढक दिया और उसके बाद वह जमीन पर बेहोश होकर गिर पड़ा।

अनार-पेड़ की कमजोर टहनी की तरह लगने वाला लजकुरी का शरीर ढोल की तरह सूज गया था। अब उसे तेज धूप का डर नहीं था और वह चारों ओर सभी को उदास निगाहों से देख रही हो, मानो अब उसे किसी चीज की शर्म नहीं थी। अब उन लोगों की बारी थी। कुछ लोग आक की झाड़ियों की तरफ देखने लगे, तो कुछ लोग तालाब में मासूम खड़े कुमुद डंठलों की ओर। कुछ लोग लजकुरी के नंगे शरीर से नजर हटाने की कोशिश कर रहे थे। न तो बच्चे और न ही बूढ़े शर्म के कारण उसकी तरफ देख पा रहे थे।