शर्म / गौरव सोलंकी
-- माँ जी, हम पिपली में हैं। चंडीगढ़ जा रहे थे, बस से बीच में ही उतर गए हैं।
डरी हुई बबली की आवाज को सोमवती ने पहचान लिया। फ़ोन उठाते ही वह एक साँस में यही बोल गई थी। आस-पास से वाहनों का कुछ शोरगुल भी सुनाई दे रहा था।
-- संजय कहाँ है?
घबराकर सोमवती ने पूछा। उसे एकदम से अपने इकलौते बेटे की चिंता हो आई थी।
-- वो मेरे साथ ही है...यहीं...
बबली ने जल्दी से फ़ोन पास खड़े संजय को पकड़ा दिया। पी.सी.ओ. वाला पास खड़ा आश्चर्य से उन्हें देख रहा था और उनका वार्तालाप सुनकर ही उनकी घबराहट और हड़बड़ाहट का कारण समझना चाह रहा था।
-- माँ...
एक हफ़्ते बाद बेटे का स्वर कानों में पड़ते ही सोमवती का गला रूंध गया और आँखों से आँसू निकल पड़े। उसने कुछ कहना चाहा, मगर कह नहीं पाई।
-- शायद हमें छोड़ गया माँ। हमें बचा ले माँ, हम अभी मरना नहीं चाहते।
संजय अब तक स्वयं को सामान्य बनाए हुए था, किंतु माँ से बात करता हुआ अचानक गिड़गिड़ाने लगा। उसके इतना कहते ही बबली ने उसका हाथ और कसकर पकड़ लिया। उसके चेहरे पर भी हवाइयाँ उड़ रही थीं।
-- माँ, बबली का ताऊ था हमारी बस में...हम पुलिसवाले को कहकर उतर लिए।
संजय पसीने से भीग रहा था। हालांकि जून का महीना था, लेकिन पी.सी.ओ. के भीतर चलते पंखे के कारण अन्दर इतनी गर्मी भी नहीं थी। उन दोनों के सिवा उस छोटे से पी० सी० ओ० में तीन लोग और थे, लेकिन पसीने में केवल वही दोनों भीग रहे थे।
-- पुलिस तुम्हारे साथ है ना बेटा?
सोमवती ने किसी तरह अपने आप को संभाल कर पूछा।
-- नहीं माँ...एक पुलिसवाला था लेकिन यहाँ उतरने के बाद से वह भी अचानक कहीं गायब हो गया।
बात करते हुए वह इधर-उधर भी देख रहा था। वहीं से उसकी नजरें पूरे बस अड्डे में घूम रही थीं। बबली संजय की ओट में इस तरह होकर खड़ी थी कि उसे बाहर से न देखा जा सके और जैसे संजय उसे हर विपत्ति से बचा लेगा।
-- कहाँ गया?
सोमवती के स्वर की बेचैनी से ऐसा लगा, जैसे वह उड़ कर उन दोनों की रक्षा के लिए वहाँ पहुंच जाना चाहती हो।
-- शायद हमें छोड़ गया माँ। हमें बचा ले माँ, हम अभी मरना नहीं चाहते।
संजय अब तक स्वयं को सामान्य बनाए हुए था, किंतु माँ से बात करता हुआ अचानक गिड़गिड़ाने लगा। उसके इतना कहते ही बबली ने उसका हाथ और कसकर पकड़ लिया। उसके चेहरे पर भी हवाइयाँ उड़ रही थीं। पी.सी.ओ. वाला अब तक भी कुछ नहीं समझ पा रहा था। उसने सामने बैठे दो और आदमियों की ओर देखा। वे भी उन दोनों को ही घूर रहे थे।
-- डर मत बेटा...भगवान का नाम ले, सब अच्छा होगा। अब दूसरी बस से चंडीगढ़ चले जाओ।
अनहोनी की आशंका में सोमवती खुद भीतर तक काँप रही थी और बेटे को भरोसा दिलाते हुए भी यह भय उसकी आवाज में आ गया। तभी बबली ने संजय को बाहर की ओर इशारा किया। एक बस अभी आकर लगी थी।
- नहीं माँ, दिल्ली की एक बस आई है। हम अभी दिल्ली जाते हैं...वहाँ पहुंचकर फ़ोन कर देंगे।
हड़बड़ाते हुए संजय बोला। जितना जल्दी हो सके, वे इस छोटे सी जगह पिपली से निकल जाना चाहते थे। सोमवती शायद ‘हाँ’ कह रही थी। संजय ने बात पूरी सुने बिना ही फ़ोन रख दिया।
पैसे चुकाकर वे दोनों तेजी से इधर-उधर दृष्टि दौड़ाते हुए बस में चढ़ गए।
बस में बहुत भीड़ थी और बहुत तेज आवाज में कोई रोमांटिक गाना बज रहा था।
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-- काकी...यह संजय हमें गाने नहीं सुनने देता।
संजय हाथ में छोटा सा रेडियोसैट लेकर आगे भाग रहा था और बबली उसके पीछे थी। सोमवती उनके बीच में आ गई थी और इस पर बबली सकपका कर रुक गई थी। संजय हाथ में रेडियो लहराता हुआ विजयी भाव से मुस्कुरा रहा था। आँगन में ही सरिता खाट पर बैठी बहुत देर से उनका दौड़-भाग का खेल देख रही थी। बबली के यह कहने पर सोमवती ने आँखें तरेरकर संजय की ओर देखा। संजय भी तुरंत अपनी मुस्कान को दबाकर गंभीर बनकर खड़ा हो गया।
-- माँ, मुझे मैच सुनना है आज। ये दोनों पता नहीं सारे दिन वही गाने-वाने सुनती रहती हैं।
कहकर उसने मुस्कुराती आँखों से बबली की ओर देखा। वह इस हार के कारण उसे खा जाने वाली निगाहों से देख रही थी।
-- चुपचाप इन्हें दे दे रेडियो...तू तो कहीं भी जाकर सुन सकता है।
सोमवती ने उसे डाँटते हुए कहा लेकिन वह माँ की फटकार सुनकर रुका ही नहीं, तेजी से बाहर चला गया। पीछे से सोमवती चिल्लाती रही और बबली हताश भाव से वहीं खड़ी उसे जाते हुए देखती रही। सरिता यह सब देखकर चुपचाप मुस्कुराती रही।
-- कोई बात नहीं। आने दे, इसे मैं बताऊँगी आज।
सोमवती ने बबली का गाल थपथपाया और फिर से अपनी गायों की ओर बढ़ गई, जो उसकी राह देख रही थीं।
बबली भी सरिता के पास खाट पर जाकर बैठ गई।
-- अब झूठ-मूठ ही दुखी होकर मत दिखा। मैं जानती हूँ कि अगर रेडियो तुझे मिल भी जाता तो तू उसे ही देती।
सरिता ने अपनी उसी मुस्कान के साथ कहा तो बबली के गाल शर्म से लाल हो गए। वह शरमाती थी तो सामने वाला उसके चेहरे का रंग देखकर साफ जान सकता था। कुछ देर तक दोनों सहेलियाँ चुप बैठी रहीं। फिर बबली ने ही चुप्पी तोड़ी।
-- तू सब जानती है तो बताती क्यों नहीं कि मैं क्या करूँ?
सरिता कुछ क्षण तक उसे देखती रही और फिर ठठाकर हँस पड़ी।
-- तेरी हालत देखकर बहुत हँसी आती है मुझे...
-- चल, मैं जाती हूँ फिर। तू यहाँ बैठकर मुझ पर हँसती रहना।
कहकर बबली चलने लगी तो सरिता ने उसका हाथ पकड़कर उसे फिर से बैठा लिया। अब उसने अपनी हँसी पर नियंत्रण कर लिया था।
-- तो तू मेरे प्यारे से भाई को चाहने लगी है?
बबली के गाल फिर लाल होने लगे थे। वह कुछ नहीं बोली।
बबली ने उसका हाथ पकड़ लिया। दोनों सहेलियों की आँखों में एक-दूसरी के प्रति विश्वास था।
लेकिन जिस पतंग की डोर हाथ से छूट चुकी हो, उसका कोई क्या कर सकता है?
-- कहूँ उससे?
बबली फिर कुछ नहीं बोली।
-- अब अगर यूँ ही चुप रहेगी तो मैं कुछ नहीं करने वाली। कल को तू तो मुकर जाएगी और फँसूंगी मैं...
-- तुझे सब पता तो है।
-- तो तू घर जा। शाम को आ जाना, शायद तुझे कोई अच्छी खबर मिल जाए।
कुछ सोचकर सरिता ने कहा तो बबली तुरंत उठकर चल दी।
-- सुन...
बबली मुड़कर लौट आई। सरिता गंभीर हो गई थी।
-- मुझे पता है कि प्यार कोई अपराध नहीं है। गाँव, जाति, दुनिया चाहे कितने भी नियम बनाए और तोड़ने वालों को चाहे कितना भी बुरा बताए।
बबली ने उसकी बातों में कुछ निष्कर्ष तलाशना चाहा, लेकिन असफल रही।
-- लेकिन ये भी सच है कि तेरा परिवार, हमारे परिवार से बहुत ऊँचा है। कल को कुछ होनी-अनहोनी हुई तो हमारे साथ ही होगी।
बबली प्रश्नवाचक नेत्रों से उसे देखती रही।
-- हँसी-मजाक की बात और है। अगर अब भी वापस लौट सकती है तो लौट आ। मुझे डर लगता है...
बबली ने उसका हाथ पकड़ लिया। दोनों सहेलियों की आँखों में एक-दूसरी के प्रति विश्वास था।
लेकिन जिस पतंग की डोर हाथ से छूट चुकी हो, उसका कोई क्या कर सकता है?
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बस में चढ़ते समय बबली आगे थी और संजय पीछे। बबली ने आगे बढ़ने से पहले पूरी बस में नजर दौड़ाई। उसे डर था कि कोई ‘अपना’ न दिख जाए। कोई नहीं दिखा तो उसने पीछे खड़े संजय को हाथ से हल्का सा इशारा किया।
सबसे पीछे की सीट पर बैठने की थोड़ी जगह थी। वे सबसे बचते हुए से वहीं जाकर बैठ गए। अगली ही सीट पर एक आदमी बैठा था, जिसने मुँह पर एक साफा लपेट रखा था। बैठने के बाद संजय का ध्यान उसकी तरफ गया। उसने पहले से डरी हुई बबली का हाथ छुआ। बबली ने तुरंत उसकी ओर देखा तो उसने आँखों से अगली सीट की ओर इशारा कर दिया। बबली ने संदेह से उसे देखा, लेकिन उसकी केवल आँखें ही दिखाई दे रही थीं। वह उसका चेहरा नहीं देख सकती थी। डर से उसने संजय का हाथ कसकर पकड़ लिया। अब भी उन दोनों का पूरा शरीर पसीने में भीगा हुआ था। बबली ने दूसरे हाथ से अपना दुपट्टा अब सिर और चेहरे पर ढक लिया, जिससे कोई उसे भी पहचान न सके। संजय के मन में आया कि अभी इस बस से भी उतर जाना चाहिए। उसे दुनिया के सब छिपे-ढके चेहरे संदेहास्पद और डरावने लगने लगे थे। बीस मिनट पहले जिस बस में वे जा रहे थे, उसमें भी अगली सीट पर बबली का ताऊ इसी तरह मुँह लपेटकर बैठा था। बबली ने उसे फिर भी पहचान लिया था। उस समय उनके साथ एक पुलिसवाला भी था। वे उसे कहकर तभी बस में से उतर गए थे। उसका ताऊ भी उनके पीछे ही उतरकर कहीं गायब हो गया था, उसी तरह, जैसे कुछ मिनट बाद पुलिसवाला भी बिना कुछ कहे गायब हो गया था।
अब तो कोई सुरक्षा भी नहीं है, इस ख़याल के मन में आते ही संजय भीतर तक काँप गया। उसने बबली का हाथ और भी कसकर पकड़ लिया। उसने बबली के रूखे हो चुके वेदना भरे चेहरे की ओर देखा। वह अगली सीट के आदमी का चेहरा देखने की ही कोशिश कर रही थी और साथ ही यह कोशिश भी कि वह उसे न देख सके।
संजय की आँखों के सामने पन्द्रह दिन पहले की हँसती-खिलखिलाती बबली की तस्वीर घूम गई। उसने फिर से उसे देखा।
-- कितनी डरी रहती है यह हर वक़्त...हर इंसान पर शक करती है। मेरी वजह से भोली-भाली बबली कैसी हो गई है? हर पल यह लगता रहता है कि कहीं से कोई आएगा और हमें मार जाएगा।
उसके दिल में बबली के लिए असीम स्नेह उमड़ आया और साथ ही दुनिया के लिए क्षोभ भी, अपने लिए विवशता भी।
दुख आता है तो आँखें रोती हैं और डर आता है तो काँपती रहती हैं। संजय की काँपती हुई दो आँखों ने रोना चाहा, लेकिन उसने स्वयं पर नियंत्रण कर लिया।
बबली के दिल में एक हूक सी उठी। उसे लगा कि जैसे संजय ने भविष्य में झाँककर देख लिया था। उसने कुछ पल के लिए चेहरे पर ढके दुपट्टे से आँखों को भी ढक लिया। संजय ने जानबूझ कर उसकी ओर से दृष्टि हटाकर बाहर की ओर कर ली। उसे लगा कि वह एक और पल भी उसे देखता रहा तो वह फूट-फूटकर रोने लगेगी।
अब अगली सीट के आदमी ने गर्मी से तंग आकर अपने चेहरे पर लपेटा हुआ साफा उतार दिया था। कोई अनजान आदमी था। बबली ने बहुत दिन बाद एक क्षण की हल्की सी खुशी पाई। वह संजय की ओर देखकर हल्के से मुस्कुराई। संजय उसके ढके हुए चेहरे के पीछे की मुस्कान को नहीं देख पाया। उत्तर में वह फटी-फटी सी आँखों से उसे देखता रहा। बबली की मुस्कुराहट वर्तमान की डरी हुई आँखों को देखकर अगले ही क्षण विलुप्त भी हो गई।
-- बबली...तू अगले जन्म में भी जरूर मिलना।
वह बहुत धीरे से बोला। बस में बहुत शोर था, लेकिन बबली उसके होठों को देखकर ही उसकी बात समझ गई या शायद बिना होठों को भी देखे।
बबली के दिल में एक हूक सी उठी। उसे लगा कि जैसे संजय ने भविष्य में झाँककर देख लिया था। उसने कुछ पल के लिए चेहरे पर ढके दुपट्टे से आँखों को भी ढक लिया। संजय ने जानबूझ कर उसकी ओर से दृष्टि हटाकर बाहर की ओर कर ली। उसे लगा कि वह एक और पल भी उसे देखता रहा तो वह फूट-फूटकर रोने लगेगी। उसकी अपनी आँखें भी भर आईं थीं।
बस चल पड़ी।
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खेतों के बीच में बनी हुई संकरी सी पगडंडी पर बबली दौड़ी चली आई थी। छुटपुटा सा होने लगा था और खेतों से ज्यादातर लोग अपने घरों को जा चुके थे। एक आम के पेड़ के नीचे पहुँचकर वह रुक गई। उसने चारों तरफ देखा तो कोई नहीं दिखा। वह दो-तीन मिनट वहीं बेचैन सी होकर खड़ी रही। दौड़कर आते हुए उसके चेहरे पर जो उत्साह था, वह मन्द पड़ गया था। वह मुँह लटकाकर जैसे ही लौटने के लिए मुड़ी, किसी ने पीछे से उसकी आँखों पर हाथ रख लिए। उसके चेहरे की मुस्कुराहट एक क्षण में ही लौट आई।
-- पहचान?
-- मुझे नहीं पता। होगा कोई चोर डाकू।
अब तक उसका चेहरा पूरा खिल गया था। संजय ने आँखों से हाथ हटा लिए। हाथ हटाते ही वह मुड़कर उसकी बाँहों में समा गई।
-- कोई देख लेगा तो?
-- तू भी कभी अच्छा ना बोला कर।
बबली का चेहरा उसके सीने को छू रहा था।
-- तू फिर भूल गया।
वह उसकी बाँहों के घेरे से बाहर आते हुए बोली।
-- क्या?
-- आज मेरा जन्मदिन है और तू मेरे लिए कुछ नहीं लाया।
-- पगली, ये सब शहर वालों के चोंचले होते हैं।
वह मुस्कुराते हुए बोला तो बबली अपने चेहरे पर झूठमूठ का गुस्सा ले आई और वहीं नीचे पालथी मारकर बैठ गई। कुछ क्षण वह नहीं बोली और संजय भी मुस्कुराता हुआ उसे देखता रहा।
-- बोलेगी नहीं?
उसने चेहरे का गुस्सा बनाए रखा और और दो बार इनकार में गर्दन हिला दी।
-- कैसे मानेगी?
संजय उसके सामने घुटनों पर झुककर बैठ गया। बबली ने एक बार प्यार भरे गुस्से से उसे देखा और चुप रही।
-- ऐसे मान जाएगी?
कहकर संजय ने उसके लाल हुए गालों को चूम लिया। उसके गाल शर्म से और भी लाल हो गए। उसने मुस्कुराते हुए धीमे से संजय की हथेली चूम ली। संजय भी पालथी मारकर बैठ गया था। जमीन पर जैसे आमों के पत्तों का बिछौना बिछा हुआ था और झींगुरों की हल्की-हल्की आवाज के बीच आमों की खुशबू एक आनंददायी सा रहस्य रच रही थी।
-- मुझे पता था कि आज तेरा जन्मदिन है।
संजय ने जेब से एक अंगूठी निकालते हुए कहा। उसने बबली की उंगली में वह पहना भी दी। उस दौरान बबली की आँखें बन्द हो गईं।
-- मेरे लिए इतनी महंगी चीजें मत लाया कर।
कुछ क्षण बाद आँखें खोलते हुए वह बोली। अब वह प्यार से अंगूठी को ही देख रही थी।
-- सरिता ने कहा था मुझसे तो...नहीं तो मैं थोड़े ही लाने वाला था तेरे लिए।
वह उसे चिढ़ाने के लिए बोला।
कहकर संजय ने उसके लाल हुए गालों को चूम लिया। उसके गाल शर्म से और भी लाल हो गए। उसने मुस्कुराते हुए धीमे से संजय की हथेली चूम ली। संजय भी पालथी मारकर बैठ गया था। जमीन पर जैसे आमों के पत्तों का बिछौना बिछा हुआ था और झींगुरों की हल्की-हल्की आवाज के बीच आमों की खुशबू एक आनंददायी सा रहस्य रच रही थी।
-- अच्छा, मैं भी तो कहूँ, तुझे याद कैसे रहा! इस सरिता की बच्ची ने बताया तुझे।
-- मेरी बहन को कुछ नहीं कहेगी।
संजय भी अपने चेहरे पर दिखावे का क्रोध ले आया था।
-- मैं तो अपनी सहेली को कह रही हूँ, जिसके घर जाने का बहाना बनाकर मैं यहाँ आई हूं। अब वह तेरी बहन भी है तो मैं क्या करूँ?
बबली जानबूझकर लापरवाही से बोली और फिर संजय की बनावटी मुखमुद्रा देखकर एकदम से खिलखिला पड़ी। संजय उसे हँसते हुए देखता रहा।
जब उसकी हँसी थमी तो बोला- तू हँसती हुई और भी सुन्दर लगती है।
-- और...
-- और क्या...तू क्या सोच रही है कि अब मैं तेरी तारीफ़ ही करता रहूँगा?
-- तू प्यार करता है ना मुझसे?
वह अचानक ही गंभीर हो गई थी।
-- अब जान निकाल कर दे दूँगा, तभी सच्चा मानेगी मुझे?
-- मुझे पता है कि तू सच्चा है पर कभी-कभी बहुत डर लगता है।
-- डर क्यों?
-- आगे क्या होगा? साल-दो साल बाद घरवाले मेरा ब्याह कर देंगे और तू क्या कर पाएगा?
-- इतना ही भरोसा है मुझ पर?
-- बात भरोसे की नहीं है संजय। पूरे गाँव में कोई भी हमें सही नहीं बताएगा। फिर मेरी माँ और भाई तो गुस्से में पागल ही हो जाएँगे, अगर उन्हें कुछ भी पता चल गया।
वह अब धीमी आवाज में बोल रही थी और एक तिनका उठाकर उससे जमीन कुरेदने लगी थी।
-- तो क्या सबके गलत बताने से हम गलत हो जाएँगे?
-- दुनिया ये सब नहीं सोचती संजय...मैं तो सोचकर ही डरती हूँ कि मेरा भाई क्या करेगा?
-- तू डर मत बबली। हम यहाँ से भागकर कहीं दूर चले जाएँगे।
कहकर उसने उसे अपनी बाँहों में भर लिया और देर तक उसे समझाता रहा। लेकिन बबली के रूआब वाले परिवार और पूरे गाँव का डर उसके भीतर भी बैठता चला गया था।
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बस ने गति पकड़ ली थी। संजय भरी-भरी आँखों से बाहर के लहलहाते खेतों को ही देख रहा था। उन्हें देख उसे ऐसा लगने लगा था, जैसे सारी दुनिया बहुत खुश है और उन दोनों की दुनिया ही बंजर कर दी गई है। उसके मन में सबके प्रति पल रही वितृष्णा इससे और बढ़ गई। उसने अपना चेहरा बाहर की समृद्धि से हटाकर अन्दर की भीड़ की ओर ही कर लिया, ताकि वह स्वयं को कुछ क्षण के लिए खो सके। लेकिन बबली की उदासी में डूबी आँखें जब उसकी आँखों से फिर मिली तो सारी भीड़ जैसे फिर गुम हो गई और वह बहुत अकेला पड़ गया। उसने एक गहरी साँस ली और गर्दन झुकाकर एक हाथ से चेहरा ढाँपकर बैठ गया। दोनों ने एक दूसरे का हाथ अब भी कसकर पकड़ रखा था। दोनों के हाथ भी पसीजने लगे थे, जैसे आँसू आँखों से न बह पाए तो हाथों से बहने लगे हों।
और बबली डर से भागने के लिए अनजाने में ही बचपन की यादों में खो गई थी।
गाँव का सबसे बड़ा घर था उनका। हालाँकि पिताजी तभी गुजर गए थे, जब वह बहुत छोटी थी। लेकिन ताऊजी गाँव के सरपंच थे और संयुक्त परिवार में पिता की कमी भी उन्होंने पूरी कर दी थी। वह परिवार की इकलौती लड़की थी, इसलिए उसे लाड़-दुलार भी सबसे अधिक मिला। तीन साल बड़ा एक भाई था – राजबीर।
-- कोई भी भाई अपनी छोटी बहन को जितना प्यार करता है, उतना तो उसे भी था।
यह बात उसके दिल में बहुत जोर से गूँजी।
भाई की याद आते ही उसके मन में बहुत सारे दृश्य फ़िल्म की रील की तरह क्रम से दौड़ गए – उसे गोद में उठाकर गाँव भर में घुमाता भाई, साइकिल पर उसे पीछे बिठाकर खेत में जाता हुआ भाई, उसकी पढ़ाई जारी रखने के लिए घर में सबसे लड़ता हुआ भाई, रात को देर से लौटने पर उसके सामने बैठकर सबसे चोरी-छिपे खाना खाता भाई...... और दस दिन पहले फ़ोन पर उसे गालियाँ सुनाता भाई!
-- कोई भी भाई अपनी बहन को वह सब कैसे कह सकता है, जो उस दिन राजबीर ने कहा। वह मुझे मारना चाहता है और इसे भी, जिससे मैं प्यार करती हूँ। सब गुस्सा हैं, यह तो ठीक है मगर एक भाई अपनी छोटी बहन को मार भी सकता है?
अब वह डर नहीं रही थी। इस ख़याल से उसके दिल में बहुत तेज दर्द सा उठा और इस बार वह आँसुओं को आँखों में जकड़कर नहीं रख पाई। उस क्षण उसे लगा कि अब उसका जीवन ही निरर्थक है, जब उसका अपना भाई उसे मारना चाहता है। लेकिन ज़िन्दगी सच में बहुत बेशर्म होती है। अगले ही क्षण जान का भय उस पर फिर हावी होने लगा। - हम बहुत दूर चले जाते हैं संजय।
उसने दूसरे हाथ भी संजय के हाथ पर रखते हुए कहा। पिछले पन्द्रह दिन में वे दोनों यह बात कम से कम सौ बार तो एक-दूसरे से या स्वयं से, कह ही चुके थे।
संजय ने सिर उठाकर उसे देखा। वह भी शायद शोरगुल में उसके सब शब्द नहीं सुन पाया था, लेकिन उसकी आँखें पढ़कर समझ गया। वह जबरदस्ती हल्का सा मुस्कुराया। बबली के मन में हल्की सी आस जगाने के लिए वह बहुत प्रयास से मुस्कान चेहरे पर ला पाया था। लेकिन बबली वैसे ही बैठी रही, कुछ भयभीत और बहुत टूटी हुई।
तभी बस एकदम से तेज आवाज के साथ झटका खाकर रुक गई। बहुत से लोगों के सिर अगली सीट से टकरा गए। कई लोग गिरते-गिरते बचे। अगली सीट पर बैठे उसी साफे वाले आदमी ने जोर से ड्राइवर को एक भद्दी गाली दी। क्या हुआ, क्या हुआ की फुसफुसाहटों के बीच कई लोग खड़े हो-होकर आगे देखने की कोशिश करने लगे। संजय ने भी खड़े होकर देखा और वह डूबता चला गया।
उस दिन सूरज डूबने का नाम ही नहीं ले रहा था। वैसे भी जब जिस बात का इंतज़ार हो, वह मुश्किल से ही होती है। बबली को लग रहा था कि जैसे रात आएगी ही नहीं। लेकिन नियम की पक्की रात आ ही गई। उस दिन अमावस थी और वह दिन बहुत सोच-समझ कर तय किया गया था। सबके सोने के बाद बबली चुपके से उठकर घर से बाहर निकल आई थी। उनका घर गाँव के बिल्कुल बाहर की तरफ था, जिसके बाद इक्का-दुक्का ही घर थे और फिर खेत शुरु हो जाते थे। उसी जगह झाड़ियों के बीच एक मोटर साइकिल छिपाकर रखी हुई थी और उसके पीछे संजय छिपकर बैठा था। हर तरफ घुप्प अँधेरा था। बबली झाड़ियों तक पहुँची तो संजय एकदम से बाहर निकल आया। बबली तेजी से उससे चिपट गई।
-- अब जल्दी कर। तू कुछ भी नहीं लाई अपने साथ?
संजय ने उसे धीरे से खुद से अलग करते हुए फुसफुसाकर कहा।
-- मैंने कुछ कपड़े रखे थे, पर सब सामान अन्दर था और उसे लेने जाती तो किसी की भी आँख खुल सकती थी।
बबली ने भी फुसफुसाकर उत्तर दिया।
संजय ने जल्दी से झाड़ियों से मोटर-साइकिल बाहर निकाल ली। मोटर-साइकिल स्टार्ट होने पर बाद बबली पीछे बैठ गई। उसने अपने घर की ओर स्नेह भरी नज़रों से देखा, लेकिन अँधेरे में कुछ देख नहीं पाई। मोटर-साइकिल तेज गति से गाँव से बाहर की तरफ निकल गई।
जैसे दीवारों के कान होते हैं, उसी तरह अँधेरे की बड़ी-बड़ी आँखें होती हैं। राजबीर का एक दोस्त रात को अपने खेत में पानी लगाकर घर लौट रहा था। तेज गति से जाती मोटर-साइकिल उसे लगभग छूते हुए ही निकल गई। वह गिरता-गिरता बचा। अँधेरे में वह बबली का चेहरा तो नहीं देख पाया, लेकिन संजय को पहचान गया।
अगली सुबह जब बबली के लापता होने की खबर फैली तो उस दोस्त का शक सबसे पहले संजय पर ही गया। उसने तुरंत जाकर राजबीर को बताया कि कल रात उसने संजय के पीछे एक लड़की को बैठकर जाते देखा था। राजबीर का खून खौल उठा। गुस्से में वह संजय के घर अकेला ही पहुँच गया। वहाँ केवल सोमवती और सरिता ही थीं। वे दोनों संजय को निर्दोष बताती रहीं।
-- बेटा, वह तो कल चंडीगढ़ गया है। अकेला ही गया है...किसी ने तुझे भरमा दिया है।
सोमवती अपने स्वर में अतिरिक्त स्नेह घोलते हुए बोली तो राजबीर का गुस्सा और भी बढ़ गया।
-- देख बुढ़िया, अगर ये बात सच निकली ना...तो मैं तेरे पूरे परिवार को यहीं ख़त्म कर दूँगा...और ये एक जाट की कही हुई बात है, झूठी नहीं होगी।
उसकी आँखें गुस्से से लाल हो रही थीं और उसका पूरा शरीर काँप रहा था।
भय के मारे सोमवती कुछ नहीं बोली। बात जाति की थी तो जाट तो उसका बेटा भी था, लेकिन कमजोर का न कोई धर्म होता है और न ही जाति।
वह गुस्से में बहुत कुछ कहकर लौट गया। उस दिन दोनों घरों में चूल्हा नहीं जला। एक घर में बेटी ने शर्म से नाक नीची करवा दी थी और दूसरे घर में संभावित अनहोनी की आँधी ने चूल्हा बुझा दिया था। उस रात दोनों माँ बेटी सोई नहीं, बस मनौतियाँ ही माँगती रही। बबली की माँ भी अकेली पड़ी रात भर रोती रही और मनौतियाँ ही माँगती रही। तीनों स्त्रियों की सब मनौतियाँ उन दोनों प्रेमियों के लिए ही थीं।
संजय के पिता फौज में थे, जो करगिल की लड़ाई में शहीद हो गए थे। गाँव के इकलौते स्कूल का नाम उनके नाम पर ही था। लेकिन बात जाति के सम्मान की आई तो सब बलिदान और इज्जत भुलाने में सिर्फ़ एक दिन लगा।
अगले दिन पंचायत हुई। सोमवती को भी बुलाया गया।
-- साली...तेरे छोरे की इतनी हिम्मत कैसे हुई?
सरपंच ने बात इसी वाक्य से शुरु की। वह कुछ नहीं बोली। पूरी सभा के दौरान उसे और उसके बेटे को बहुत बुरा-बुरा कहा गया। वह नि:सहाय औरत चुपचाप सिर झुकाए सब कुछ सुनती रही। उसका पक्ष पूछा भी नहीं गया और यदि पूछा भी जाता तो वह कुछ न बोलती।
एक घंटे बाद गुस्से से तने हुए बबली के ताऊ ने फैसला सुनाया।
अदालत से सिपाही के साथ लौटते हुए बबली के दिमाग में एक ख़याल आया।
-- मुझे खतरा किससे है? अपने भाई से बचने के लिए मैं पुलिस की मदद माँग रही हूँ।
क्या आज तक की सब राखियाँ उसने इसीलिए बंधवाई थी कि वक़्त पड़ने पर मुझे मार सके?
वेदना के मारे बबली जोर से चिल्ला पड़ी थी।
-- रामपाल की विधवा सोमवती के बेटे संजय ने गाँव की और अपने ही गोत की लड़की पर बुरी नज़र डाली है और उसका अपहरण कर लिया है। पंचायत इस अपराध की फौरी सज़ा के तौर पर सोमवती के परिवार को जाति से बेदखल करती है। उसे पचास हज़ार रुपए जुर्माना भरना होगा। जो भी आदमी इस परिवार से सम्पर्क रखेगा, उसे भी यही सज़ा दी जाएगी। कोई दुकानदार इस परिवार को सामान नहीं बेचेगा, कोई डाक्टर इनका इलाज़ नहीं करेगा। यदि संजय पंचायत के सामने पेश हो जाता है तो फिर उसकी सज़ा भी पंचायत ही तय करेगी।
बबली के ताऊ के लिए यह सज़ा बहुत छोटी थी। असल सज़ा तो उन्होंने पहले दिन ही तय कर ली थी। उन दोनों की खोज जारी रही। दो दिन बाद संजय का मोबाइल नम्बर राजबीर को मिल गया। उसने फ़ोन करके अपनी बहन को चेता दिया था कि वह ज्यादा दिनों तक जीने वाली नहीं है। जाति का सम्मान, लाड़ से पाली गई छोटी बहन से अधिक आवश्यक था।
मौत की धमकी मिलने के अगले ही दिन उन्होंने अदालत के सामने सुरक्षा की गुहार लगा दी। उन दोनों को सुरक्षा के लिए एक सिपाही भी मिल गया।
अदालत से सिपाही के साथ लौटते हुए बबली के दिमाग में एक ख़याल आया।
-- मुझे खतरा किससे है? अपने भाई से बचने के लिए मैं पुलिस की मदद माँग रही हूँ।
क्या आज तक की सब राखियाँ उसने इसीलिए बंधवाई थी कि वक़्त पड़ने पर मुझे मार सके?
वेदना के मारे बबली जोर से चिल्ला पड़ी थी।
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बस के ठीक आगे सड़क के बीचों बीच एक लाल रंग की स्कॉर्पियो खड़ी थी। जब तक कोई कुछ समझ पाता, तीन आदमी तेजी से बस में चढ़ गए थे। एक की उम्र पचास के कुछ ऊपर थी, दूसरा उससे कोई सात-आठ साल छोटा था और तीसरा तेईस-चौबीस साल का हट्टा-कट्टा नवयुवक था। बस के कंडक्टर ने तेज आवाज में आपत्ति जताई तो सबसे आगे चल रहे उस नवयुवक ने उसके मुँह पर एक जोरदार तमाचा जड़ दिया। एक क्षण में ही बस में शांति छा गई। सब लोग अपनी सीटों पर बैठ गए। केवल हतप्रभ सा संजय अपनी जगह पर खड़ा रहा। उसने स्वयं को छिपाने की भी कोशिश नहीं की। बबली दुपट्टे से चेहरा ढककर बैठी थी। वह वैसे ही बैठी फटी-फटी आँखों से उन्हें अपनी ओर आते देखती रही।
आगे चल रहे राजबीर ने संजय को गाली दी और उसके मुँह पर थप्पड़-घूंसों की बरसात शुरु कर दी।
-- बहन..., मैं आज बताता हूं तुझे। तेरा वो हाल करूँगा कि पूरा गाँव याद रखेगा।
संजय ने बचाव में हाथ-पैर चलाए, लेकिन राजबीर उससे कहीं ज्यादा ताकतवर था। वह उसे गालियाँ देता जा रहा था और मारता जा रहा था। बबली के ताऊ ने आगे बढ़कर बबली को बालों से पकड़ लिया था। वह दर्द से चिल्लाई तो एक तमाचा उसे भी पड़ा। आस-पास के यात्री सहम कर दूर हट गए थे। बस में राजबीर की गालियाँ और बबली के रोने के अलावा कोई आवाज नहीं सुनाई दे रही थी। बीच-बीच में राजबीर के थप्पड़ों की आवाज गूंजती रही। हर थप्पड़ के बाद संजय के कराहने की आवाज भी आती थी।
-- चल, बाहर ले आ।
कुछ मिनट बाद पीछे खड़े आदमी ने राजबीर की पीठ पर हल्का सा हाथ रखते हुए कहा।
राजबीर रुका और उसने एक गुस्से भरी नज़र अपनी बहन पर डाली। बबली की आँखों में आँसुओं के साथ अनुनय भी था। उसकी आँखें भाई के सामने गिड़गिड़ा रही थीं, अपने प्रेम के लिए भीख माँगती हुई। कुछ क्षण राजबीर उसे देखता रहा, लेकिन फिर गुस्से से नजरें फेर लीं।
वह संजय की शर्ट का कॉलर पकड़कर उसे बस से बाहर घसीट लाया। पीछे-पीछे बबली भी लगभग इसी तरह खींचकर बाहर लाई गई। चुप बैठे बाकी यात्री इस तमाशे को देखते रहे। दोनों को घसीट कर आगे खड़ी गाड़ी में ले जाकर डाल दिया गया। वे तीनों भी गाड़ी में बैठ गए थे। स्कॉर्पियो जिधर से आई थी, फर्राटे से उधर ही लौट गई।
खचाखच भरी हुई हरियाणा रोडवेज़ की वह बस भी दो मिनट बाद वहाँ से चल पड़ी। सड़क के किनारे धूप में खड़ा एक कुत्ता बहुत देर तक भौंकता रहा।
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दोनों प्रेमियों को, जो एक आर्यसमाज मन्दिर में शादी भी कर चुके थे, आधे घण्टे बाद खेतों के बीच एक ट्यूबवैल पर बने कमरे पर लाया गया। दोनों की रास्ते भर पिटाई की गई थी और दोनों के गालों पर असंख्य उंगलियों के निशान इसकी गवाही दे रहे थे। संजय की शर्ट के सब बटन इस मार-पीट में टूट चुके थे और एक बाजू भी फट गई थी। बबली के बाल खुलकर बिखर गए थे और लगातार रो-रोकर उसकी आँखें लाल हो चुकी थीं।
लेकिन तीनों आदमियों का गुस्सा अभी शांत नहीं हुआ था। समाज और जाति की मर्यादा तोड़ने की सज़ा छोटी तो नहीं हो सकती थी।
उस छोटे से कमरे में ही ट्यूबवैल का कुँआ भी था। उसके पास ही उन्हें जमीन पर डालकर राजबीर और उसका ताऊ वहीं खड़े हो गए। दोनों के भीतर कई दिन का गुस्सा भरा हुआ था, जो उनकी लाल हुई आँखों में स्पष्ट नजर आ रहा था। तीसरा आदमी बाहर खड़ा था।
बबली और संजय अपने में ही सिकुड़कर बैठ गए और असहाय से होकर उनके अगले वार की प्रतीक्षा करने लगे। बबली रोती-रोती थक चुकी थी या शायद अब यह सब देखकर बेशर्म ज़िन्दगी को बचाने की चाह ख़त्म होने लगी थी, इसलिए वह चुप थी। थोड़ी देर तक दोनों चुपचाप खड़े रहे। फिर उसका ताऊ ही बबली से मुख़ातिब होकर एक एक शब्द पर जोर देकर बोला- तुझे तो कुछ शरम है नहीं। गाँव का लड़का भाई होता है। राखी बाँधेगी इसे?
बबली चुप बैठी एकटक उसे देखती रही, जिसे वह अब तक राखी बाँधती आई थी।
-- राखी बाँधेगी इसे?
अबके राजबीर ने चिल्लाकर पूछा और जोर से उसकी कमर में लात मारी। इस तेज वार से चोट खाकर वह कराहती हुई एक तरफ गिर पड़ी। संजय उसे उठाने के लिए झुकने लगा तो अगली लात उसके पेट पर पड़ी। वह दूसरी ओर गिर पड़ा।
-- राखी बाँधेगी इसे?
वह और जोर से चिल्लाकर बोला तो कमरे के रोशनदान में बैठा एक कबूतर पंख फड़फड़ाता हुआ बाहर उड़ गया।
-- नहीं। हम दोनों शादी कर चुके हैं।
वह धीमे स्वर में बोल पाई, लेकिन उसके स्वर में दृढ़ता थी।
यह सुनते ही राजबीर ने उसे दो लातें और जमा दीं। वह पड़ी-पड़ी सुबकने लगी।
छत से बंधी दो रस्सियों से संजय के पैर बाँधकर उसे उल्टा लटका दिया गया और राजबीर और उसका ताऊ लाठियों से उसे बहुत देर तक मारते रहे। बबली सिर झुकाकर बैठी रही और उसकी चीख-पुकार सुनती रही। वह एक बार भी गिड़गिड़ाई नहीं और न ही उसने एक बार भी सिर उठाकर देखा।
संजय भी उसे बहन कहने को तैयार नहीं हुआ। करीब आधे घंटे बाद उसने दम तोड़ दिया।
बबली रोई नहीं, वह पत्थर बनी बैठी थी। बाहर खड़ा आदमी एक पेस्टीसाइड की थैली ले आया। दो ने बबली का मुँह खुलवाया और भाई ने बहन के हलक में एक मुट्ठी जहर उड़ेल दिया। मरते-मरते उसने आखिरी बार भाई की ओर देखा। उसकी आँखों में असंख्य अनुत्तरित प्रश्न थे।
लाशों को ट्यूबवैल के कुँए में डाल दिया गया।
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लाश मिलने के अगले दिन स्थानीय अख़बारों में जिला जाट महासभा की एक विज्ञप्ति छपी।
लिखा था- मृतक लड़के और लड़की ने ऐसा काम किया था, जिसने जाति का सिर शर्म से झुका दिया। जाति की मर्यादा भंग करके और अपने ही गोत्र में शादी करने जैसा कुकृत्य करके उन्होंने ऐसा पाप किया, जिसने उन्हें मारने वाले व्यक्तियों को ऐसा करने के लिए प्रेरित किया।
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एक और बात :-
उनकी लाश मिलने के अगले दिन सोमवती अपने पुत्र की अस्थियाँ रखने के लिए मटकी ढूंढ़ती हुई गाँव भर में पागलों की तरह घूमती रही, लेकिन पंचायत के आदेश के चलते उसे किसी कुम्हार ने मटकी नहीं दी।
हिन्दू धर्म की मान्यताओं के अनुसार उन दोनों की आत्मा को कभी शांति नहीं मिली।
और हाँ, बबली का पूरा चेहरा गहरा लाल था। मरने के बाद शायद इंसान होने की शर्म उसके चेहरे से बोल रही थी।
000 यह कहानी लिखते समय लेखक का मंतव्य कहानी कहने का नहीं, अपितु केवल सत्य कहने का ही था। यह कहानी, लेखक की ओर से नायक और नायिका को श्रद्धांजलि है। लेकिन कहानी लिखने के लिए बहुत से स्थानों पर लेखक को सत्य का अतिक्रमण कर कल्पना से सत्य का अनुमान लगाना पड़ा। ऐसे किसी भी स्थल पर यदि लेखक का कथ्य या प्रस्तुतिकरण किसी को आहत करता हो, तो लेखक उसके लिए हृदय से क्षमाप्रार्थी है।