शर्म / हरि भटनागर

Gadya Kosh से
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कीचड़ भरा रास्‍ता किसी तरह पार करता जब मैं उस औरत के झोपड़े के सामने पहुँचा तो वह झोपड़े के बाहर पटे पर बैठी, छोटे-से पत्‍थर पर बर्तन घिस रही थी। हाथ उसके राख से रँजे थे। धोती घुटने के ऊपर चढ़ी थी और दोनों पाँव हवा भरे साइकिल के ट्‌यूब की तरह चिकने और चमकदार लग रहे थे। हल्‍के सुनहरे बारीक बाल घुटनों के नीचे से शुरू होकर पायल के घेरे तक चले गये थे। पटे पर वह एड़ी चढ़ाए बैठी थी, इसलिए दबाव की वजह से पाँवों की माँसपेशियाँ रह-रह और भी चमक उठती थीं जिन्‍हें कुछ क्षण पहले देखकर वह खुश भी हुई थी क्‍योंकि गुर्जर ने पिछली दफा की मुलाक़ात में उसके पाँवों की भारी तारीफ़ की थी कि ‘क्‍या मछली माफिक गोड़ हैं, आँखें जुड़ा जाती हैं। बीहड़ में कहीं टिकती नहीं, यहाँ सुकून पाती हैं '‘हट' कहकर वह मुस्‍कुरा दी थी। इस वक्‍़त भी वह मुस्‍कुरा दी और पाँवों को ग़ौर से देखने लगी। चटख लाल रंग की काले किनार की वह धोती पहने थी जिसका पल्‍लू सिर से सरककर पीठ पर था। बाल हल्‍का तेल डालकर कसके ओंछे गए थे, चोटी की शक्‍ल में जो ऐंठे हुए उसकी गोद में दबे थे। घुटनों का दबाव स्‍तनों पर था जो पीले ब्‍लाउज़ के घेरे से ऊपर की तरफ़ निकल से पड़ रहे थे। गले में चमकते मोतियों की माला थी। हाथों में सुनहरी चूडि़याँ जिन्‍हें अभी दो दिन पहले उसने मनिहार से पहनी थीं। पाँवों में गोजर जैसी पायलें थीं। नई हवाई चप्‍पल, माथे पर छोटी-सी लाल बिंदी और माँग में माथे पर ज़रा-सा ईंगुर

कुल मिलाकर अपनी धज में वह निहायत सुंदर लग रही थी। एक पल को मैं उसे देखता ही रह गया। या यों कहें कि पुलिस मुख्‍यालय के दबाव से मैं बेहाल था।

बीहड़ के थाने का यही रोना है। मुझे गुर्जर डाकू जिंदा या मुर्दा किसी भी हाल में चाहिए था। ऐसा न होने पर नौकरी के जाने का ख़तरा था, ऊपर से बचाव के आरोप में मुक़दमा चलाए जाने की धमकी थी। ऐसे में आप सोच सकते हैं कोई व्‍यक्‍ति सुकून से कैसे बैठ सकता है! मेरा उठना-बैठना, सोना, खाना-पीना सब तर्क था। कुछ सूझता न था। दिल-दिमाग़ और आँखें मुँद-सी गई थीं। कोई सनसनी शेष न थी।

लेकिन इस वक्‍़त, इस औरत को देखा तो लगा जैसे सोते से जागा कोई खूबसूरत चीज़ है जो आँखों के रास्‍ते होती हुई दिल में हलचल मचा रही है

मुझे देखते ही वह सचेत हुई। काम करते उसके हाथ रुक गए। जैसे कोई आँख उसे भेद रही हो, इस एहसास के चलते राख सनी चुटकी से पहले उसने सिर पर आँचल खींचा, फिर हथेलियों से घुटनों के नीचे धोती सरकाने लगी। यह सब करते उसके माथे पर बल था मानों कह रही हो, खाँस के आना चाहिए, ये क्‍या कि दबे पाँव सिर पर आ खड़े हुए उसने होंठ सिकोड़कर मन ही मन में गालियाँ दीं कि हट यहाँ से, दूर हो कमीन!

और जब मैं आ खड़ा हुआ तो बिना तहकीकात के पीछे हटने वाला न था। जीप सड़क पर थी। राइफलधारी हवलदार भी वहीं रोक दिए थे। कीचड़ के बीच जमें ईंटों पर किसी तरह लाल जूते टिकाता यहाँ आ भी गया था। काँख में कैप थी। दाएँ हाथ में रूल।

औरत को सचेत होता देख मैंने उस पर से नज़रें हटाईं और झोपड़े को देखने लगा जिसमें यह औरत रहती होगी। झोपड़ा खपरैलों का था, ऊपर बीच में धँसा-सा। जैसे शहतीर बैठ गई हो। खपरैल काई से भरे थे, बीच-बीच में उखड़े और टूटे। झोपड़े के ऊपर आगे की ओर एक नया सूप था जिसमें सूखने के लिये धनियाँ रखा था। दरवाज़ा यानी टटरा बाँस की खपच्‍चियों का था तारों और सुतलियों से बँधा, बाहर की तरफ़ ओलार। रोक के लिये ज़मीन में खूँटा गड़ा था जिसके सहारे वह ठहरा था।

झोपड़े के बाएँ हाथ पर नीम का विशाल पेड़ था।

झोपड़ा ऊँचाई पर था यानी टीले पर जिसके गिर्द गहरी ढलान थी जहाँ से खेतों का सिलसिला शुरू होता था। खेत ऐसे कि लगता था उनमें वर्षों से हल नहीं चले हैं, बंजर हो गए थे। ज़ाहिर था, गुर्जर जब पैसे बरसा रहा है, तो खेती क्‍यों की जाए! ख़ैर, खेत में इस वक्‍़त जंगली घास-फूस या कहें गाजर घास जमे थे।

झोपड़े के ऊपर कोने पर एक बड़ा-सा सफ़ेद, पीली चोंच का गिद्ध बैठा था,

बड़ा डैना फैलाए जैसे झोपड़े को किसी भी विपदा से बचाने वाला हो।

खेतों के पार जहाँ थोड़ी ऊँचाई दीखती थी, किसानों की आठ-दस झोपडि़याँ थीं। सामने नीम-पीपल के घने पेड़ थे जिनके नीचे गाय-भैसें बँधी थीं।

इस झोपड़े के पीछे शायद बकरियाँ बँधी थीं जिनकी मिमियाने की आवाजें आ रही थीं।

यकायक खाँसकर मैंने औरत का ध्‍यान अपनी ओर खींचा। उससे आँखें मिलते ही, मैं मुद्दे पर आने को था, तभी पैतरा बदल दिया। जैसे मैं किसी तहकीकात के लिये नहीं आया, बस यूँ ही चला आया। लेकिन यह औरत मेरा मंतव्‍य ताड़ गई, उसने मुँह बनाकर बग़ल में थूका। जब मैंने जेब से पाँच-पाँच सौ की गड्‌डी निकाली और एक-एक कर उन्‍हें गिनने लगा तो उसने और भी बुरा मुँह बनाया-कमीन नोट दिखला रहा है! और इतनी नाटक-नौटंकी काहे की! आया है गुर्जर की खोज खबर लेने और दिखा रहा है पैसे, जैसे मैं बिछ जाऊँगी! थू है तुझ पर, कितना भी पैसा दिखा, तेरा भरोसा नहीं, तू बदमाशों का सिरका है जिसके तार ऊपर तक जुड़े हैं जिनका काम ग़रीबों को सताना, उनका खून पीना है, और वह गुर्जर? वह डाकू ज़रूर है लेकिन मुझे सच्‍चे दिल से प्‍यार करता है, मैं भी उसे प्‍यार करती हूँ इसके लिये गाँव के लोग जलते हैं तो जलें इसकी मुझे रत्ती भर परवाह नहीं! और आदमी, तंगी से इतना आजिज़ आ गया है कि कुछ बोलने से रहा

यकायक खाँसकर मैंने कुछ नोट ज़मीन पर गिरा दिए जो हवा में उड़ने लगे। यह सोचकर कि उड़ते नोट औरत उठा लेगी लेकिन यह दुष्‍ट, नाकिस है कि उठाना तो दूर, उसने नोटों की तरफ़ नज़र न डाली। उल्‍टे बर्तनों को और भी लगन से और जो़र-ज़ोर से घिसने लगी जैसे जतला रही हो कि नोटों की तुलना में बर्तन घिसना अच्‍छा है।

लेकिन मैंने हार न मानी। यही भाव दर्शाता रहा कि मैं कोई ग़लत आदमी नहीं हूँ, तेरी खूबसूरती का दीवाना हो गया हूँ, तू चाहे कितना भी सताए, मैं उफ करने वाला नहीं।

नोट बीन कर मैं बहुत देर तक उसके सामने खड़ा रहा लेकिन उसने न मेरी ओर देखा और न ही मेरे दिल में उठ रही भावना को इज्‍़ज़त दी ऐसे में आप समझ सकते हैं, अच्‍छे-अच्‍छों का दिमाग़ फिर जाए, फिर मैं क्‍या हूँ! वर्दी का गुरूर अलग अपना रंग दिखाने लगा। उसी के बहाव में मैंने कहा बड़ा घमंड है तुझे?

इस बार उसने मुझे सवालिया निगाह से देखा, जैसे पूछ रही हो किस चीज़ का घमण्‍ड है?

गुर्जर का! मैंने दृढ़ता से कहा।

कौन गुर्जर? वह अनजान बनी।

अच्‍छा! कौन गुर्जर? अब कौन गुर्जर हो गया वह? मैंने आँखें मटकाकर कहा ऐसई होता है

क्‍या ऐसई होता है? वह और गहरे उतरी।

मैंने कहा जिसके हाथ रंगरेलियाँ मनती हैं, उसके साथ ऐसई होता है!

ढंग से बात कर! उसने राख सने हाथ बाल्‍टी में डाले और पानी में तूफान-सा उठाया जैसे उस तूफान में मुझे डूबो देगी।

ढंग से ही बात कर रहा हूँ! गुर्जर तेरे पास आता है रात-बिरात पूरा गाँव कह रहा है!!!

चोप्‍प हरामी! वह ज़ोरों से चीखी मूड़ीकाटा, कुछ भी बकबका रहा है! पुलिस है तो कुछ भी बोलेगा

मैंने ऐलान-सा किया बिल्‍कुल, कुछ भी बोलूँगा, गुर्जर का पता दे, नहीं, थाने चल!

यकायक उसने एक नाटक खड़ा कर दिया। वह ज़ोरों से चीखी और हन-हन के छाती पीटने लगी, ज़मीन पर बैठकर और रोने लगी चिल्‍ला-चिल्‍लाकर जैसे किसी ने उसके साथ गड़बड़ कर दी हो।

मुझे लगा कि अभी पलभर में गाँव का हुजूम इकट्‌ठा हो जाएगा और यह सबके सामने अपनी इज्‍ज़त की दुहाई देकर ज़मीन पर चीख-चीख के सिर पटकेगी कि इस नाकिस ने मेरी आबरू लूटी। मारो! पकड़ो! बचाओ! और लोग मुझे शक़ की निगाह से देखेंगे। थानेदार हूँ तो क्‍या? ऐसे नाटक में कुछ भी संभव है।

मैंने ऐसा सोचा और पलभर के लिये सकते में आ गया लेकिन दूसरे पल देखा उसके दुबले-पतले, मरियल से आदमी के सिवा कोई दौड़ा नहीं आया। आदमी झोपड़े के पीछे बकरियों को पत्तियाँ खिला रहा था। वह सफ़ेद, पीली चोंच का गिद्ध भी चुपचाप उड़ गया जो झोपड़े पर पंख पसारे बैठा था। दो-चार किसान ज़रूर अपने झोपड़े के बाहर दिखे, मगर वे भी वहीं, दूर खड़े रहे, उल्‍टे आड़ में आ गए; शायद यह सोचकर कि कसबिन के चक्‍कर में कौन पड़े। जैसा करती है, वैसा भरेगी, पुलिस नहीं आएगी तो भला कौन आएगा। अब मज़ा आएगा, ख़ूब गर्रा रही थी गुर्जर के नाम पर, अब भुगत यकायक उसका आदमी, धीरे-धीरे डुगरता-सा मेरे सामने आ खड़ा हुआ। आदमी मरा-मरा सा था। हडि़यल। लम्‍बी गर्दन। मुँह पिचका। काला। सूखा। चेहरे पर बिररी खिचड़ी दाढ़ी-मूँछें। दाँत ऐसे कि सुपारी के इंतहा सेवन से ऊपर से घिस गए हों। सिर पर वह गंदा-सा मटमैला गमछा बाँधे था। बदन पर गंदी, चीकट बनियान थी। नीचे लम्‍बा-ढीला, तेल के धब्‍बों से भरा पायजामा था। नंगे पाँव था। वह बीमार लग रहा था मानों लंघन से उठा हो।

जब वह औरत के चीखने-चिल्‍लाने पर पत्तियाँ फेंकता दौड़ा आया, उसका चेहरा उस वक्‍़त बुझा और आँखें राख-सी ठण्‍डी थीं। मानों दौड़े आने का उसे अफ़सोस हो। गर्दन उसकी झुकी थी और आँखें नीचे किए था। गोया आँखें मिलाने से बच रहा है। ऐसा लगता था, औरत के गुर्जर के खुले रिश्‍ते की वजह से गर्दन शर्म से मुकम्‍मल तौर पर झुक गई हो और जो कभी सीधी नहीं हो सकती। इसका असर आँखों पर भी था जिन्‍हें हर वक्‍़त वह नीचे किए रहता, किसी से मिलाता नहीं था।

मुझे देखते ही उसमें एक हौल तैर गया जैसे सोच रहा है कि यह राँड़ तो मरेगी ही, मैं भी बचने वाला नहीं। उसने गहरी साँस ली। यकायक अपने को सँभाला, अनजान-सा बनता, नीचे देखता मुझसे बोला-क्‍या बात है हुजूर? फिर चीखती सिर पीटती औरत से मुख़ातिब हुआ जैसे आँखों से बरजता कह रहा हो कि तूने तो मुझे कहीं का न रखा, अब और गत क्‍या करवाना चाहती है! पिट्‌टस क्‍यों डाले हैं? चुप हो जा। फालतू बखेड़ा न खड़ा कर! फिर भैराया-सा उसी अंदाज़ में झुकी गर्दन और नीची आँख किए मुझसे बोला बैठो हुजूर! खाट कहाँ है? खाट के लिये वह इधर-उधर निगाहें दौड़ाने लगा।

इस बीच औरत रोते हुए चीखी खाट दे रहा है हरामखोर! अर्थी दे!

आदमी ने उसकी ओर कड़ी निगाह से देखा।

औरत चीख़ी आँख न दिखा, नहीं निकलवा लूँगी। समझता क्‍या है अपने को, कौरहा कहीं का! नीच!

आदमी पर जैसे घड़ों पानी पड़ गया। खिसिया गया।

यकायक औरत रोती, चिल्‍लाती, पैर पटकती झोपड़े के अंदर चली गई। अंदर जाते-जाते उसने टटरा बंद करना चाहा, उसे खींचा, लेकिन तुरंत छोड़ दिया जो खूँटे से जा टकराया।

तुम इसके आदमी हो? गहरी साँस छोड़ते हुए मैंने पूछा तो उसने झुकी गर्दन, नीची आँखों गहरे अफ़सोस में ‘हाँ, हुजूर' कहा और हँड़ीली छाती पर हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। जैसे औरत की नादानी को माफ़ करने के लिये विनती कर रहा हो।

मुझे कुछ न सूझा तो उसे अपने पीछे आने का हुक्‍म दिया और सपाटे से, कूद-सी लगाता जीप के पास आ गया। वह लस्‍त-सा आगे बढ़ा कि पीछे से उसकी औरत की चीख़ उभरी कहाँ जाता है, लौट पीछे!

औरत झोपड़े के बाहर खड़ी चिल्‍ला उठी थी।

आदमी के पाँव रुक गए। मुमकिन है, औरत की धमकी से डर गया हो, लेकिन जब मेरी कड़क आवाज़ सुनी तो वह मेरी ओर बढ़ने लगा। गोया अपनी निर्दोषता के चलते ऐसा करने लगा। जो भी हो, औरत चीखती चिल्‍लाती और उसे धमकाती रही और वह बुरा-सा मुँह बनाता, बड़बड़ाता-सा जैसे अपने आप को कोस रहा हो मेरी ओर बढ़ा।

जीप में बैठालकर मैं उसे गाँव से काफ़ी दूर, एकांत में बँसवारी के बीच ले आया जहाँ लचकते बाँस और चिटकारी मारती गिलहरियों के अलावा दूर दूर तक कोई दिखलाई नहीं पड़ता था। बीहड़ में यह बीहड़ एकांत था। राइफलधारी मेरे पीछे खड़े थे।

तेज़ गर्मी थी और हवा में उमस और चिपचिपापन था। चारों तरफ़ काली मक्‍खियाँ मँडरा रही थीं जो शायद गर्मी से परेशान होकर हम लोगों को बेतरह काट रही थीं। पता नहीं क्‍यों मुझे लगा कि किसी से कोई बात उगलवा लेने या उसे सज़ा देने के लिए यह काफ़ी उपयुक्‍त जगह है। इसी का नतीजा था कि यह आदमी चार-छै रूल पर ही हाय-हाय करने लगा, लेकिन आश्‍चर्य था कि वह कोई सुराग देने के लिए मुँह नहीं खोल रहा था।

कब आता है गुर्जर?

वह चुप।

जब आता है, तू कहाँ रहता है?

वह निष्‍कंप, पुतले जैसा।

भेद देने पर एक लाख नकद दूँगा और काई आँच तुझ पर नहीं आएगी, भरोसा रख।

ऐसे बहुत सारे सवाल मैंने उससे किए और जवाब न देने पर मैंने वो सुताई उसकी की जिसके लिए पुलिस को बदनाम माना जाता है, लेकिन वह भी गज़ब के जिगरे का आदमी कि उसने मुँह नहीं खोला तो नहीं खोला, सिवा चीख-चिल्‍लाहट के!

तभी हुआ यह कि जब यह आदमी किसी तरह गुर्जर का सुराग़ नहीं दे रहा था, मदद के लिए मिनक नहीं रहा था, मैंने उसे हाथ-पैर बाँधकर पेड़ से उल्‍टा देने का आदेश हवलदारों को दिया। सज़ा का पुराना तरीका, नीचे आग जलाई जाए और उस पर मिर्च डाली जाए

हवलदार हाथ-पैर बाँधने को उद्यत हुए कि इस आदमी ने इतना भर क़बूल किया कि मालिक, गुर्जर उसकी घरवाली के पास आता है, मगर उसे खुद पता नहीं चलता कि कब आता है

घण्‍टों तंग करके, चुप्‍पी के बाद सिर्फ़ इतना बोलने पर, जिसका कोई ख़ास मतलब नहीं था, पता नहीं क्‍यों मुझे इस क़दर गुस्‍सा आया कि मैंने उसे कसकर एक झन्‍नाता थप्‍पड़ मारा और कहा तेरी औरत के साथ पराया मर्द सोता है और तुझे पता ही नहीं चलता! मुझे हँसी-सी आई, फिर थोड़ा रुककर अफ़सोस में बोला हद है! और इस पर तुझे ज़रा भी शर्म नहीं आती!

थप्‍पड़ इतना करारा था कि आदमी चौंधिया गया और जमीन पर लोट गया, कटे पेड़ सा। एक पल को लगा, निपट गया, लेकिन निपटा नहीं था। हाथों में उसके कंपन हो रहा था जिन्‍हें वह चोट खाई जगह पर रह-रह फिराने लगा।

कनपटी पर मार की झनक जैसे आँखों और दाँतों में उतर आई हो- इसका एहसास-सा करता वह सहसा कराहा, फिर इतने लम्‍बे वक्‍़त में पहली बार उसने गर्दन उठाई। और सूनी आँखों से मुझे देखा फिर मेरी बात का जवाब देने से जैसे अपने को वह रोक नहीं पाया, फटी-फटी-सी मुर्दार आवाज़ में बोला हुजूर, शरम तो आपको भी नहीं आती, हम तो आपके गुलाम हैं सरकार!

मेरे गुस्‍से को भड़काने के लिए उसका यह बोलना काफ़ी था। लात-घूसों से उसकी ख़ूब ख़बर ली। गुर्जर का पता तो नहीं चला, मगर पिटाई से मेरा जी हल्‍का ज़रूर हो गया।