शवयात्रा / राजकमल चौधरी

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घर की खिड़की से जब धीरे-धीरे शाम उतरने लगती तो लगता है अब एक चिर अंधकार फैल जाएगा। तब घर में बैठे रहने की इच्छा नहीं होती। सारा दिन तो घर में बैठे-बैठे ही कट गया। कपड़े धोते, इस्तरी करते, नन्दिता भाभी के साथ गप्पें लड़ाते और रेडियो सुनते हुए। रेडियो सेट भी लोकल है -- उसमें भी सिर्फ एक ही स्टेशन पकड़ता है -- कोलकाता। लेकिन उमा रानी को बंगला गीत अच्छे नहीं लगते। इसकी मिठास अच्छी नहीं लगती, उसके स्वरों की कोमलता और हल्का उतार-चढ़ाव और प्रेम का अनुष्ठान उसे पसन्द नहीं है। लेकिन उसे जो अच्छा लगता है, उसे पाने का कोई उपाय भी नहीं है, उसके पास। इसका उपाय वह कर भी नहीं सकती, क्योंकि सुकुमार सिर्फ सत्तर रुपए की नौकरी करता है। वह मैट्रिक फेल है। बार-बार परीक्षाएं देते रहने के बाद भी पास नहीं कर पाया। अभी कुछ वर्षों से एक दफ्तर में पीयन है। चालीस रुपए पर लगा था, अब बढ़ते-बढ़ते सत्तर पर पहुंच गया है।

जब सत्तर रुपए पगार हो गई तब उसने शादी की और उमा रानी को बेहाला कैंप के इस घर में ले आया। घर अपना नहीं-किराए का है। शंकरदास गली में ग्वालों के तबेलों के पीछे जो ढेर सारे कमरे बने हैं उसमें एक कमरा उसका भी है। घर का किराया पंद्रह रुपए है। बड़े कमरे का किराया बीस रुपया होता है। सुकुमार ने बारह रुपए में एक छोटा-सा कमरा ले रखा है। सामने हैंडपंप है और पीछे टूटी दीवारों वाला एक बाथरूम। जब बारिश होती है, गली में पानी जमा हो जाता है। पता नहीं कहां से सुकुमार एक रेडियो लाया था, तब उमा रानी बहुत खुश हुई थी। लोकल सेट था, बैटरी से चलता था। लेकिन अक्सर नई बैटरी खरीदने का पैसा उनके पास नहीं होता।

सुकुमार अक्सर देर से घर लौटता है। शराब पीकर लौटने के बाद कुछ खाता-पीता नहीं। चुपचाप सो जाता है। कोई खिटखिट नहीं करता। शराब पीने के बाद वह और भी चुपचाप रहता है, शायद वह डर के मारे ऐसा करता है। लेकिन उमा रानी को उसके शराब पीने से कोई ऐतराज नहीं है। ऐतराज है तो सिर्फ उसके इस तरह चुपचाप पड़ जाने से। उसे आंधी-तूफान चाहिए। जिस तरह बेहाला कैंप में आंधी-तूफान आते हैं। जिस तरह पुलिस की गाड़ी आती है और नरसिंह पान वाले को उठाकर ले जाती है-सभी जानते हैं कि नरसिंह पान नहीं बल्कि चोरी से चालान की शराब बेचता है। और देर रात गए जिस तरह श्रीपत कुमार के घर में तूफान शुरू होता है। कभी-कभी धूलधूसरित कपड़े पहने बाबू लोग टैक्सी से आते हैं। आते हैं और रात भर, सुबह होने तक टिके रहते हैं। केवल श्रीपत कुमार की ही नहीं बेहाला कैंप की सबसे बदनाम जगह थी नीलिमा मौसी की झोंपड़ी। वह झोंपड़ी कोई घास-फूस की नहीं बल्कि ईंट का पक्का-पुराना घर था। उस घर में छोटे-छोटे तीन चार कमरे थे। हर कमरे में रिफ्यूजी औरतें अपने बच्चे-कच्चे के साथ रहती थीं। कभी-कभी उसमें से किसी औरत का आदमी भी हठात आ जाता था।

इन्हीं सब कारणों से शाम होते ही उसका घर में मन नहीं लगता था। उमा रानी ने बक्से के अंदर से तेल की शीशी और कंधी निकाली। नारियल का तेल लगाकर बाल संवारे। शरीर पर पाउडर, मांग में सिंदूर और माथे पर सिंदूर का टीका लगाया। आंख में काजल भी लगा लिया। दरवाजे पर ताला लगाया और पड़ोसन के पास चाबी देते हुए कहा, ‘बहाला जा रही हूं। अगर सुकुमार आएं तो बता देना मेरी दीदी आई थीं, उन्हीं के साथ गई हूं।'

नन्दिता भाभी उमा के इस तरह सफेद झूठ बोलने पर मुस्कराई। वह भी तो बीच-बीच में उमा से इस तरह के झूठ बोलती रहती है। इसी तरह का कोई झूठा बहाना। लेकिन इसके अलावा कोई उपाय भी तो नहीं है। उपाय भी नहीं है और जीवन में जो क्षणिक मीठा स्वाद मिलता है वह भी नहीं मिल सकता।

इसी मिठास के लिए ही तो झूठ बोलना पड़ता है। और यह मिठास मिलती है बेहाला कैंप के चांदतारा के एक निहायत छोटे से कमरे में। चांदतारा नीलिमा मौसी के घर में किराए पर रहती है। बिल्कुल अकेली। हालांकि वह मांग में मोटी-सी सिंदूर की रेखा तो लगाती है, किंतु है निःसंतान। अंधेरे कमरे में उसकी शय्या पर सोने वाला कोई पति देवता भी नहीं है। कभी था भी या नहीं, यह भी किसी को नहीं पता। वह एक दिन टिन का बक्सा हाथ में लिए एक बूढ़े आदमी के साथ नीलिमा मौसी के घर में आई थी। उसे यहां छोड़कर वह बूढ़ा गायब हो गया था। उसके बाद वह फिर कभी इधर दिखाई नहीं दिया। नीलिमा मौसी ने भी कभी उस आदमी के बारे में नहीं पूछा कि क्यों रे, वो बूढ़ा फिर क्यों नहीं आया रे? बीच में भी कभी हाल समाचार लेने नहीं आया। जैसे ऐसी जगह से एक बार जाने के बाद दुबारा कोई कदम नहीं रखता।

हमारा सामाजिक जीवन छोटे-बड़े नाना तरह के भागों में बटा हुआ है। इन्हीं में से एक भाग है-बेहाला कैंप भी। यह रेलवे लाइन के नीचे एक छोटी-सी बस्ती है। इस बस्ती में कोई शरीफ आदमी नहीं रहता। सभी गरीब गुरबा लोग हैं। ठेले पर माल ढोने वाले कुली हैं। बस स्टैंड पर खामखा खड़ी रहने वाली लड़कियां हैं। भिखारियों का दल है। बस्ती एक खुले हुए बजबजाते हुए नाले के किनारे पर बसी है, जिसमें कीड़े बिलबिलाते रहते हैं। बस्ती में चारों तरफ पानी, कीचड़ से भरे गड्ढे हैं, उनमें कहीं-कहीं किसी मरे हुए कुत्ते की गली-पची लाश भी दिख जाती है।

इस तरह इस बस्ती में कोई शरीफ आदमी तो नहीं रहता लेकिन जब कहीं कोई ठौर नहीं मिलता तो वे चले आते हैं इसी बस्ती में। चले आते हैं और यहां रात बिताकर चले जाते हैं। इसी तरह उमा रानी भी दीदी और मां के साथ बेहाला कैंप में आई थी और सुकुमार का हाथ पकड़कर बाहर निकल आई थी। मां बीमार पड़कर कुछ दिनों बाद चल बसी थी। दीदी बच गई थी। दीदी के चार-पांच बच्चे-बच्चियां थीं। उसका बड़ा बेटा किसी चाय की दुकान पर नौकर था। बाकी बच्चे अभी छोटे थे। उमा रानी शंकर दास लेन से होते हुए आती है। लेकिन दीदी के पास नहीं जाती, सीधा चांदतारा के घर चली आती है, उसके मन में दीदी के प्रति एक बेवजह की नफरत पैदा हो गई है।

हालांकि उसकी इस घृणा का कोई कारण नहीं है। जब वह दीदी के साथ रहती थी तब दीदी ने उसे कोई दुख-तकलीफ नहीं दी। कोई शिकायत नहीं। कोई ताना नहीं। लेकिन बहुत प्यार भी नहीं था। और जब उमा ने सुकुमार के साथ जाने को कहा तब भी उसने कोई आपत्ति नहीं की थी। उसे रोका नहीं था। कोई आरोप नहीं लगाया। बल्कि कहा था कि “शंकर दास लेन बहुत दूर नहीं है, जब मन हो, चली आया करना।”

अब दीदी को मालूम है कि उमा रानी हमेशा ही बेहाला कैंप में अपने एक दोस्त के पास जाती है। फिर भी चांदतारा के पास अपने किसी बेटे-बेटी को उसकी खोज-खबर लेने के लिए नहीं भेजती। न ही कभी कोई आरोप ही उस पर लगाती।

उमारानी की दीदी जैसे पत्थर हो गई है। बच्चे-कच्चे रोते-चिल्लाते रहते हैं, लेकिन उसे उनका कोई ख्याल नहीं रहता। उसका पंद्रह साल का बड़ा बेटा शाम को दारू पीकर और पॉकेट में बीड़ी का बंडल रखकर घर लौटता है। उसकी लापरवाही की वजह से उसकी एक आठ साल की बेटी मन चुकी है। लेकिन दीदी उसके बाद भी पत्थर बनी हुई है। उसकी दीदी बेहाला से दो मील दूर अलीपुर के किसी घर में झाड़ू-बर्तन करने जाती है। वहां से सुबह-शाम कुछ-न-कुछ बचा खाना लेकर लौटती है। कभी-कभी वे लोग उसे छोटे बच्चों के छोड़े हुए कपड़े वगैरह दे देते हैं तो वह भी लेकर आती है। पूरे महीने काम करने के बाद उसे पच्चीस रुपए मिलते हैं। इसी सबसे उसके चार-पांच बच्चों का पालन-पोषण चलता है। जो सबसे बड़ा बेटा है वह पंद्रह साल का है। इस दुनिया में कोई एक पैसे की मदद करने वाला नहीं है। फिर भी उमा रानी दीदी के पास नहीं जाती। इन सबका कोई कारण नहीं, सिर्फ वही एक नफरत है। और उस नफरत का भी कोई कारण नहीं है।

नफरत का कोई कारण नहीं है। जब पहली बार उमा रानी चांदतारा के घर गई थी, तब भी अपनी मर्जी से गई थी। दीदी को पता है कि उमा वहीं जाती है। नीलिमा मौसी के घर। कमरा चाहे चांदतारा का हो या किसी और का उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन दीदी उसको रोकती-टोकती नहीं। मां मर गई, और दीदी है वह भी उसे रोकती-टोकती नहीं। उमा ने भी कभी खुद को नहीं रोका-टोका। हालांकि वह काफी समझदार हो चुकी थी तब तक। चौदह-पंद्रह साल की उम्र समझदारी के लिए कम नहीं होती। आजकल की लड़कियां तो पैदा होते ही उड़ने लगती हैं। और उमा रानी तो बेहाला कैंप की लड़की थी। अंधेरे में भी वो आदमी का चेहरा पहचान लेती थी। गंदी नीयत को दूर से ही सूंघ लेती थी।

शाम को कैंप की लड़कियां रिक्शे पर बैठकर कहां जाती हैं? निरखू पांडे से बस्ती के लोग क्यों इतना डरते हैं? राशन की दुकान वाले लालाजी रोज सुबह सुरमी देवी के घर क्यों जाते हैं? पुलिस की गाड़ी क्यों आती है? सीता रेल लाइन पर कटकर क्यों मर गई?

इन सारी बातों के बारे में उमारानी को बहुत अच्छी तरह मालूम है। फिर भी जिस दिन लाला जी की दुकान पर उसकी चांदतारा के साथ मुलाकात हुई थी उसी दिन उसने तय कर लिया था कि वह नीलिमा मौसी के घर जरूर जाएगी। चांदतारा से जरूर मिलने जाएगी।

और वह उससे मिलने गई। उसकी दीदी ने उसे जो लाल चौड़ी किनारी की साड़ी दी थी वही पहनकर वह रात के करीब सात-आठ बजे चांदतारा से मिलने गई थी, एकदम अकेली। चांदतारा भी अकेली थी। चारपाई पर बैठी थी। सिगरेट के खाली टिन में रखे खुल्ले पैसों को निकालकर गिन रही थी। सारे खुल्ले पैसे और एक रुपए-दो रुपए अलग-अलग रख रही थी। उमारानी ने इतने खुल्ले पैसे लालाजी की दुकान के अलावा और कहीं देखे ही नहीं थे। पचास रुपए से ज्यादा पैसे होंगे। उसे देखकर चांदतारा मुस्कुराई थी। गर्दन थोड़ी ऊपर उठाकर कहा था, ‘आओ आओ, बैठो। पैसे गिन रही थी। गिनने के बाद तुम्हें चाय पिलवाती हूं।'

जब उसने पैसे गिन लिए तो फिर से उसी टिन के बक्से में रखते हुए उसने उमारानी से कहा था, ‘तुम एक मिनट के लिए जरा कमरे के बाहर जाकर घूम आओ। पैसे कौड़ी छिपाऊंगी। बुरा मत मानना रानी, इसी का तो मुझे सहारा है। अगर अचानक कुछ हो जाए तो कहां जाऊंगी?'

उमारानी को उसकी बात बुरी नहीं लगी। उसकी बात पर कुछ सोचा भी नहीं। पैसे कौड़ी के मामले में किसी पर भरोसा नहीं करना चाहिए। किसके मन में क्या है, किसी को क्या मालूम! और सच बात तो यह है कि वह खुद भी तो चोर है। उसने दीदी के बहुत सारे पैस चुराए हैं। ज्यादा नहीं, एक आना या बहुत हुआ तो दो आने। चनाचूर या गोल-गप्पे खाने के लिए। कभी-कभी कैंची सिगरेट भी खरीदकर पी लेती थी।

उमारानी बाहर अंधेरे में खड़ी रही और चांदतारा भी अंधेरे में लुक-छिपकर पैसे का टिन रख दिया।

चांदतारा से सटा हुआ कमरा रामदुलाल माझी का है। पहले रामदुलाल मछली बेचा करता था। आजकल बीमार रहता है। बीच-बीच में अपनी दोनों बेटियों के बीच लड़ाई लड़ाकर मजा लेता रहता है। बीमार आदमी और कर भी क्या सकता है, बीच-बीच में उनमें मार-पीट लगा देता है। ये तो हुआ बेहाला कैंप का जीवन। इसे वहां के लोगों ने स्वीकार कर लिया है।

कुत्सित, कुरूपा लड़कियों से कौन शादी करेगा। बीस-पच्चीस की उम्र में ही बूढ़ी लगने लगती है। देह में सेर-दो-सेर मांस भी नहीं है कि कबाब भी बनाया जा सके। लेकिन फिर भी वे कबाब बनाती है। उमारानी ने देखा कि उधर घर के भीतर चारपाई पर रामदुलाल पड़ा हुआ था और उसकी दोनों बेटियां शांति और मांति निरखू पांडे से खुसुर-फुसुर कर रही थीं।

निरखू पांडे को देखते ही जैसे उमारानी का खून सूख गया। वह झट से कमरे के भीतर भाग आई थी। चांद ने कहा, ‘यहां बैठो। चौराहे की दुकान से दो गिलास चाय लेकर आती हूं।'

‘ना-ना...मैं अकेली यहां नहीं बैठूंगी। मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी।‘ उमारानी ने घबराते हुए कहा था।

‘...अरे नहीं रे। तू यहीं बैठ। शाम का समय है। मैं घर बंद करके थोड़े जाऊंगी? अगर कोई आएगा तो खाली हाथ लौट जाएगा। तू बैठ, मैं अभी गई और अभी आई। कोई आए तो डरना नहीं। बैठी रहना...'

जब चांदतारा माथे पर घूंघट खींचकर हाथ में दो कांच के गिलास लेकर बाहर निकलने लगी तो उमारानी ने एक बार फिर से विनती की, ‘मुझे भी अपने साथ लेती चलो न! ऊपर वाले घर में पांडे जी बैठे हैं। अगर इधर चले आए तो?'

‘आ गए तो क्या होगा?‘ चांदतारा हंसने लगी, ‘अरे वो तो रंगा सियार है साला। चेहरा ही उसका डरावना है, और क्या है उसमें। उससे तो सिर्फ मर्द ही डरते हैं, लड़कियां क्यों डरे? मैं पिछले छह महीने से यहां हूं लेकिन, साले की एक बार भी यहां आने की हिम्मत नहीं हुई।‘ चांदतारा हंसते-हंसते बाहर निकल गई।

उमारानी चुपचाप दरवाजे के पास खड़ी रही। जैसे दरवाजे के फ्रेम में कोई तस्वीर मढ़ दी गई हो। चारों तरफ घुप्प अंधेरा था। इसी अंधेरे में चारों ओर से हंसी-मजाक की आवाजें आ रही थीं। कहीं दूर से किसी के बच्चे की जोर से रोने की आवाज आ रही थी। अगर इसी वक्त निरखू पांडे यहां आ जाए तो? ...अगर कोई नया अजनबी आ जाए तो...यही सोचते-सोचते उमा उस छोटे से कमरे में चहलकदमी करने लगी। कहीं कोई खिड़की भी नहीं थी उस कमरे में। एक कोने में एक लालटेन लटक रही थी। तेल कम होने के कारण उसकी रोशनी भी काफी मद्धिम हो चली थी। एक तरफ की दीवार पर रामकृष्ण परमहंस की तस्वीर लगी थी। जैसे रामकृष्ण मद्धिम-मद्धिम मुस्करा रहे थे। परमहंस के सामने मां भगवती की कोई तस्वीर नहीं थी। चांदतारा का कमरा था और उस कमरे में उमारानी थी। पंद्रह-सोलह साल की उमा। उमा जानती थी कि इस घर में बिना जान-पहचान वाले अजनबी ही ज्यादा आते हैं। उसे और भी बहुत कुछ पता था।

तभी अचानक एक बारह-तेरह साल की लड़की वहां दौड़ती हुई आई। जोर-जोर से रो रही थी। चिल्लाते हुए कमरे में घुसी। उमा को देखकर वह थोड़ा ठिठकी फिर कहा, ‘मेरी मां मर गई। मेरी मां मर गई। बाबू रो रहे हैं। तारा चाची को बुला रहे हैं...‘

उमा इस लड़की को जानती-पहचानती थी। बस स्टॉप के पास भीख मांगती है। शायद इसका नाम मीनू है। मीनू की मां भी यहां इसी घर में आती थी। वो काफी बदनाम थी। उसकी बेटियां भी काफी सस्ती थीं। उसका पति भी कम न था। उसने अपनी बड़ी बेटी को दो सौ रुपए में बेच दिया था। क्या पता मीनू को भी एक-दो सौ में बेच दे।

मीनू कुछ देर तक वहीं खड़ी-खड़ी रोती रही, लेकिन चांदतारा नहीं लौटी। लगभग एक घंटा बीत गया। कुछ देर बाद मीनू चली गई। उमारानी एक बार फिर अकेली पड़ गई थी। इसके बाद जब एक घंटा और बीत गया तो एक अजनबी वहां आया। सफेद कुर्ता-पैजामा पहने हुए। दोहरा बदन, कलाई में चमकती हुई घड़ी। उंगलियों में अंगूठी नहीं थी। सोने के बटन नहीं थे। पैरों में पुरानी चप्पल। आंखों में कोई उम्मीद नहीं-उल्लास नहीं, उदासी भी नहीं। जैसे सब कुछ ठीक ठाक है-ऐसा भाव।

दरवाजे के बाहर चप्पल निकालकर वह आकर कुर्सी पर बैठ गया। उमा रानी उठकर खड़ी हो गई। अजनबी ने कहा, बैठो-बैठो, खड़ी क्यों हो गई? बैठ जाओ। तुम्हारा नाम उमारानी है न? चांदतारा मुझे चौराहे पर मिली थी। वो अभी आ रही है। पान-वान लेने में उसे देर हो गई होगी।

उस अजनबी के चेहरे पर पहली बार आने जैसा कोई लक्षण नहीं था। बल्कि अत्यंत आत्मीयता थी। उमारानी का डर दूर हो गया। बोली, ‘मीनू की मां मर गई।'

‘क्या? पीछे वाले घर में जो रहती थी, वही मीनू की मां? उसे तो मरना ही था। कौनी-सी बीमारी नहीं थी उसे? अच्छा ही हुआ। मुक्ति मिल गई उसे। अच्छा हुआ।‘ ...उसने एक सिगरेट सुलगाई फिर बोला, ‘उमारानी, जरा एक गिलास पानी पिला दो। गला सूखकर कांटा हो गया है।'

लेकिन चांदतारा नहीं लौटी। उधर से ही, मीनू की तरफ चली गई। मीनू की मां मर गई, शायद इसलिए वह देर से लौटेगी। ऐसी कोई बीमारी नहीं थी, जो उसे न हो। ...मर गई अच्छा हुआ...एक दिन मीनू भी मर जाएगी। चांदतारा भी मर जाएगी। दीदी भी मर जाएगी। सारे मर जाएंगे। केवल मैं नहीं मरूंगी। केवल मैं... केवल मैं... केवल मैं...


बेहाला कैंप और शंकरदास लेने से आने वाले कई रास्ते आपस में एक-दूसरे से मिल सकते हैं। उमारानी ने इन्हीं में से एक रास्ता ले लिया। यह एक गली थी जिसका कोई आदि-अंत नहीं है। जिस तरह कोई नदी बिना रुके चलती रहती है उसी तरह वह चलती चली जा रही थी, बिना कोई आवाज किए, चुपचाप।

वह रेवले पुल के पास से नीचे उतर गई। और रेल-लाइन पकड़कर आगे बढ़ने लगी। फिर नीचे उतर आई। सामने ही बेहाला कैंप की बड़ी बस्ती थी। बस्ती के बाहर किसी सर्कस कंपनी ने अपना तंबू गाड़ रखा था। चारों तरफ बड़े-बड़े पोस्टर लगे थे। लाउडस्पीकर में फिल्मी गाने चल रहे थे। चौराहे की दुकानों पर काफी भीड़ थी। चाय की दुकान पर बेरोजगार युवक आपस में जोर-जोर से बातें कर रहे थे।

किसन दास भी उमारानी के साथ-ही-साथ आ रहा था। उसने बात शुरू की ‘चूंद तुमसे बहुत गुस्सा है। तुमने उसके छोटे भाई को फंसा रखा है। वो तो सत्तरह-अठारह साल का नादान बच्चा है। क्यों उसे बरबाद कर रही हो। चंदू बहुत गुस्सा है तुम पर।‘

‘गुस्सा है तो मुझे क्या? क्या कर लेगा वह मेरा?‘ उमा ने चलते-चलते ही प्रतिवाद किया, ‘बिंदु को मैंने तो बुलाया नहीं था। वह चांदतारा के पास खुद आया था। मैं भी वहां जाती हूं। अगर वह बरबाद हो रहा है तो उससे मेरा क्या? अगर चंदू गुस्सा है तो उससे बोलो मेरे सामने आए। मैं बेहाला कैंप की लड़की हूं, उससे डर जाऊंगी क्या?'

किसन दास वापस लौट गया। उमा रानी ने अकेले रास्ता पार किया। नीलिमा मौसी के घर से आगे एक चौराहा है। वहां एक चाय की दुकान है। दो चाय-पान की दुकानें हैं। एक सैलून है।

रंजन सैलून में बैठा सिर की मालिश करा रहा था। और उमारानी का इंतजार कर रहा था। उमारानी ने सैलून की तरफ देखकर मुस्कुरा दिया, लेकिन वहां रुकी नहीं। आगे बढ़ गई सैलून वाले ने रंजन से बोला, ‘दिल्ली मेल आ गई रंजन भाई।‘ और तेजी से रंजन के बालों में कंधी करने लगा।

उमारानी तेजी से कदम बढ़ाते हुए चांदतारा के घर पहुंच गई। वहां चांदतारा आंखें बंद किए अपने दोनों हाथ छाती पर बांधे कांपती लेटी थी। उमा ने चौखट के बाहर चप्पल उतारकर आंचल को कमर में लपेटा और उमारानी के पास आकर बैठ गई, ‘तकलीफ ज्यादा बढ़ गई है क्या?'

‘दो दिन से मर रही हूं रानी। इस बार तो बचना मुश्किल है। मीनू के बाबू डॉक्टर बुलाकर लाए थे। विलायती दवाई खा रही हूं। लेकिन खून निकलना बंद ही नहीं हो रहा। सार कपड़े खून से तर-ब-तर हो गए हैं। डॉक्टर तो दिलासा देकर चला गया। शाम को आया था, लेकिन अब मुझे भरोसा नहीं रहा...'

बोलते-बोलते चारपाई पर पड़ी चांदतारा की कंपकपी तेज हो गई। वह छटपट करने लगी। और थोड़ी देर बाद एकदम शांत हो गई।

उसके कुछ पल बाद ही रंजन वहां आ गया और कुर्सी पर बैठकर जूतों के फीते खोलने लगा। वह शाम को आकर चांदतारा का हालचाल पूछ गया था। बहुत अच्छा लड़का है। किसी फिल्म कंपनी में असिस्टेंट कैमरामैन का काम करता है। पिछले कई महीनों से चांदतारा के घर में उसका आना-जाना है। प्रायः तभी से उमा के साथ भी उसका आना-जाना है। कैमरा लाकर उसने चांदतारा और उमा की कई तस्वीरें भी खींची थी। कहा था, जब वह अपनी फिल्म बनाएगा तो उमा को हीरोइन बनाएगा, वह इसी तरह की बहुत सारी बातें करता था। वह चारपाई पर आकर बैठ गया।

आज उमा गुलाबी रंग की मुर्शिदाबादी सिल्क की साड़ी पहनकर आई थी। धुंधली रोशनी में भी उसके गले पर लगे पाउडर के सफेद धब्बे साफ नजर आ रही थे। चांदतारा ने कहा, ‘आज मैं बचूंगी नहीं रे रानी, लग रहा है कलेजा फट जाएगा... मांस का टुकड़ा-टुकड़ा होकर खून के साथ निकल रहा है। तुम लोग मेरी चिंता मत करो। बैठकर बातचीत करो। तुम लोग बातचीत करोगे, हंसोगे खिलखिलाओगे तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा...‘

उमा ने बिछावन की चादर हटाकर एक दूसरी अधमैली चादर बिछा दी। बिछावन ठीक करते-करते बोली, ‘मैं बार-बार तुमसे गुजारिश करती थी कि पहले शरीर की चिंता करो। शरीर ठीक रहेगा तो चाहे जो मर्जी करो। लेकिन तुम तो सुनने वाली कहां थी। हर समय पैसे के लिए हाय-हाय करती रहती हो। अब पैसे लेके बैठी रहो।'

रंजन चेयर से उठकर बिछावन पर आ गया था। दूसरी तरफ एक टूटी हुई चारपाई पर चांदतारा पड़ी हुई थी। रंजन ने दीवार में एक छोटे से छेद से झांककर देखा, बाहर घना अंधेरा था। सर्कस कंपनी के लाउड-स्पीकर के फिल्मी गीत धीरे-धीरे सुनाई दे रहे थे। उमा ने बिछावन को झाड़-झूड़ कर साफ-सूफ कर दिया था। इसके बाद वह थोड़ी दूरी पर खड़ी होकर अपनी साड़ी उतारने लगी थी। साड़ी के नीचे पेटीकोट था। पेटीकोट के ऊपर पीले-नीले रंग के फूल कढ़े हुए थे। उसने मुर्शिदाबादी रेशमी साड़ी उतारकर कुर्सी पर रख दी। चांदतारा बेहोश पड़ी थी। रंजन अभी भी दीवार की उस दरार से बाहर झांक रहा था। उमा ने पास आकर आवाज दी, ‘अच्छा रंजन बाबू...!'

‘हां बोलो!‘ रंजन ने पलटकर जवाब दिया।

पेटीकोट और ब्लाउज में वह बहुत बुरी लगती है। रंजन को अच्छा नहीं लगता। उमा की टांगें खूब पतली हैं। छाती पर जैसे मांस ही न हो। कमर खूब मोटी। पेट पर चर्बी चढ़ी हुई है। रंजन ने पलटकर कहा, ‘अगर हम इसी तरह यहां बैठें तो कैसा रहेगा। अगर कहो तो एक बोतल देसी भी मंगा लूं। एक ढक्कन चांदतारा को भी पिला देंगे।' ‘मैं क्यों नहीं बैठूंगी रंजन बाबू। मैं तो तुम्हारे लिए ही इतनी दूर से आती हूं। इसके अलावा मुझे पैसों की भी तो जरूरत होती है। चांद को भी चाहिए होते हैं। वह बीमार है। आप आराम से बैठो बाबू।'

उमा के गले में जितना दर्द हो सकता है, उससे कहा और बिछावन पर एक तरफ बैठ गई। लेकिन बैठते ही पता नहीं उसके मन में एक अजीब तरह का भय उत्पन्न हो गया। वह उठी और जाकर दीवार की दरार को कपड़ा ठूंसकर बंद कर दिया, दरवाजा बंद कर दिया और कोने में लटकी हुई लालटेन की बत्ती को और भी कम कर दिया। चांदतारा की धीमी-धीमी कराह सुनाई दे रही थी। रंजन इस समय बुत बना बैठा था। लेकिन उमारानी रंजन को, खुद को, और बीमार चांदतारा को सुख देना चाहती थी। चांदतारा की थकी-थकी-सी कराह निकल रही थी।

उमा को वह दिन याद आ रहा था, जब वह चांदतारा के पास पहली बार आई थी और वह उसके पास अपने एक दोस्त को भेजकर मीनू के पास चली गई थी। उस दिन मीनू की मां मरी थी, काफी देर तक चांदतारा वापस नहीं लौटी थी। लाश को उठाने और शमशान तक पहुंचाने में वक्त तो लगता ही है। लेकिन उमारानी की लाश जलाने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। क्योंकि वह खुद जलना चाहती थी। उसके भीतर हर तरफ आग लगी थी। आग की लपटें उठ रही थीं, इसीलिए वह जलना चाहती थी। जल गई। लेकिन इस वक्त उमा जल नहीं पा रही। भीगी हुई लकड़ी की तरह उसमें से सिर्फ धुआं ही धुआं निकल रहा था। आग की कोई लपट नहीं थी।

रंजन ने कहा, ‘ठीक है, लालटेन थोड़ी और मद्धिम कर दो रानी। रंजन की छाती पर जैसे दो विशाल, भारी-भरकम मांसपिंड झूल पड़े। बर्फ की तरह मांसपिंड। उमारानी भी लाश की तरह एकदम ठंडी पड़ गई थी। जैसे दूसरी तरफ टूटी हुई चारपाई पर सोई हुई चांदतारा ही इस वक्त गर्म थी। चांदतारा अचेतन अवस्था में बड़बड़ा रही थी, ‘एक आदमी के तीन रुपए। महीने के तीस दिन। इस तरह तीस दिन में तीस आदमी के हुए नब्बे रुपए, और तीस दिन माछ-भात खाने के होते हैं तीस रुपए, और एक आदमी की कीमत तीन रुपए। हिसाब नहीं मिल रहा... अगर मैं ठीक हो जाऊं... मगर बिछावन के नीचे एक गड्ढा है। उसी गड्ढे में एक सिगरेट का टिन है। उसी टिन में पैसे छुपे हैं। उसी सिगरेट के पैकेट में उमारानी के पैसे हैं। ...एक आदमी की कीमत तीन रुपए...'

लग रहा था चांदतारा होश खो बैठी है। लेकिन उमा अभी पूरे होश्शो-हवास में है। लाश की तरह ठंडी पड़ी उमा को अचानक रंजन ने धक्का मारकर बिस्तर से नीचे गिरा दिया। जब तक उमा संभलकर उठती रंजन उठकर खड़ा हो गया, धत् साला, आज के बाद यहां फिर कभी नहीं आऊंगा...”

रंजन ने झटपट कपड़े पहन लिए। जूते पहनकर जल्दी से कमरे से बाहर निकल जाना चाहा। उमा उसके गुस्से का कारण समझती थी। मगर उसने कुछ कहा नहीं। चुपचाप बिछावन पर लेट गई। निरीह-सी रंजन और चांदतारा को देखती रही। कुछ कहा नहीं। कोई प्रतिवाद नहीं किया। जूते पहनकर रंजन तेजी से घर से बाहर निकल गया। आज के पैसे भी उमा को नहीं दिए। उमा जानती थी कि वह अगर मांगती भी तो न देता।

रंजन के चले जाने के बाद उमा उठकर आंगन में आ गई और कुएं से पानी निकालकर हाथ-मुंह धोए। उसके बाद आकर उस टूटी चारपाई के पास खड़ी हो गई। चांदतारा एक सूती चादर ओढ़े बेहोश पड़ी थी। उमा ने पेटीकोट को ठीक तरह से बांधा, साड़ी बांधी और चप्पल पहन ली। उसके बाद बिस्तर की चादर बदली। चादर बदलने के बहाने उसने तोशक उठाकर बिछावन के नीचे के उस गड्ढे को तलाशा। उसे वह सिगरेट का पैकेट तलाशने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। और उस पैकेट को निकालकर उसे अपनी छाती के दो पिलपिले मांसपिंडों के बीच छिपाने में भी ज्यादा वक्त नहीं लगा।

आदमी जिंदा है, तभी तक समय की कीमत है-नहीं ंतो कौन पूछता है। मर जाने के बाद, लाश बन जाने के बाद समय की क्या कीमत है?

उसने बिछावन को ठीक कर दिया। चादर भी बिछा दी। और जाते-जाते चांदतारा से कहा, ‘अब जा रही हूं चांद। कल आऊंगी। रंजन ने आज मुझे पैसे नहीं दिए। तुम्हारे कमरे का पैसा भी नहीं दे पाऊंगी।...अगर वो कल देगा तो दूंगी।'

लेकिन चांदतारा के कानों तक उसका एक भी शब्द नहीं पहुंचा। वह स्थिर पड़ी रही। लगता है उसकी उम्र पूरी हो गई थी।

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राजकमल चौधरी की यह कहानी हिन्दी में उपलब्ध नहीं हो सकी। हिन्दी से इसका बंगला अनुवाद आनंद भट्टाचार्य ने किया था। यह अनुवाद बंगला की पत्रिका अमृत (एक गुच्छ हिन्दी गल्प), के जून 1976 अंक में प्रकाशित हुआ। उस बंगला अनुवाद से हिन्दी में अनुवाद सूर्यनाथ सिंह ने किया है। सभव है कि शब्द चयन में मूल कहानी से यह कहीं भिन्न हो गई हो। किन्तु संपादन के समय राजकमल चौधरी के कथ्य, शिल्प और तेवर की आत्मा अक्षुण्ण रखने की कोशिश की गई है। कोई मूल कहानी उपलब्ध करा पाए तो आभारी रहेंगे।