शशांक / खंड 1 / भाग-15 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राजनीति

गंगाद्वार के बाहर घाट की एक चौड़ी सीढ़ी पर सम्राट बैठे हैं। उनके सामने यहाँ से वहाँ तक बालू का मैदान है। दूर पर जाद्दवी की धारा क्षीण रेखा के समान दिखाई पड़ रही है। सम्राट घाट पर बैठे बैठे बालक बालिकाओं की जलक्रीड़ा देख रहे हैं। एक प्रतीहार आया और अभिवादन करके बोला “महानायक यशोधावलदेव इसी समय महाराज के पास आना चाहते हैं।” सम्राट ने कहा “अच्छा उन्हें यहीं ले आओ।”

प्रतीहार अभिवादन करके चला गया और थोड़ी देर में यशोधावल को लेकर लौट आया। सम्राट ने हँसते हँसते पूछा “कहो भाई यशोधावल! क्या हुआ?” वृद्धप्रणाम कर ही रहे थे कि सम्राट ने उनका हाथ पकड़कर बैठा लिया। यशोधावल सम्राट के सामने बैठ गए और हाथ जोड़कर बोले “महाराजाधिराज! मेरे न रहने पर लतिका के लिए कहीं ठिकाना न रहेगा, यही समझकर मुट्ठी भर अन्न माँगने मैं महाराज की सेवा में आया था। किन्तु यहाँ आकर देखता हूँ कि उच्च वंश के जितने लोग हैं, प्राय: सबके सब भिखारी हो रहे हैं। उनके अनाथ बाल बच्चों के आश्रय महाराज ही हो रहे हैं। किन्तु आपके बाल भी अब सफेद हुए, आपके दिन भी अब पूरे हो रहे हैं। आपके न रहने पर साम्राज्य और प्रजा वर्ग की क्या दशा होगी, यही सोचकर मैं अधीर हो रहा हूँ। इस समय लतिका की सारी बातें मैं भूल गया हूँ। दोनों कुमार अभी बाल्यावस्था के पार नहीं हुए हैं, उन्हें राजकाज सीखते अभी बहुत दिन लगेंगे। ऋषिकेशशर्म्मा और नारायणशर्म्मा भी बूढ़े हुए, अब अधिक परिश्रम करने के दिन उनके नहीं रहे। नए कर्म्मचारियों को अपने मन से कुछ करने धारने का साहस नहीं होता, एक एक बात वे महाराज से कहाँ तक पूछें! इस प्रकार आपके रहते ही राज्य के सब कार्य अव्यवस्थित हो रहे हैं। चरणाद्रिगढ़ साम्राज्य का सिंहद्वार था। शार्दूलवर्म्मा के पुत्र महावीर यज्ञवर्म्मा वहाँ से भगा दिए गए। सम्राट को इसका संवाद तक न मिला। मंडलादुर्ग अंग और बंग की सीमा पर है। सदा से मण्डलाधीश साम्राज्य के प्रधान अमात्य रहते आए हैं। तक्षदत्ता का वह दुर्ग भी अब दूसरों के अधिकार में है। उनकी कन्या और पुत्र के लिए पेट पालने का भी ठिकाना अब नहीं है। महाराजाधिराज! इससे बढ़कर क्षोभ की बात और क्या हो सकती है?

“आपके रहते ही पाटलिपुत्र नगर की क्या अवस्था हो रही है, आप देख ही रहे हैं। तोरणों पर के फाटक निकल गए हैं। नगर स्थान स्थान पर गिर रहा है, उसका संस्कार तक नहीं होता। प्रासाद का पत्थर जड़ा विस्तृत ऑंगन घासफूस से ढक रहा है। कोष में अब तक धान की कमी नहीं है, प्रासाद में कर्म्मचारियों की भी कमी नहीं है, पर कोई काम ठीक ठीक नहीं होता। क्यों नहीं होता, आप इसे नहीं देखते। चारों ओर शत्रु साम्राज्य के धवंसावशेष पर गीधा की तरह दृष्टि लगाए हुए हैं। साम्राज्य के अन्तर्गत होने पर भी बंग देश पर कोई अधिकार नहीं रहा है। देवी महासेनगुप्ता जब तक जीवित हैं, तभी तक वाराणसी और चरणाद्रि भी प्रकाश्य रूप में थानेश्वर राज्य में मिलने से बचे हुए हैं। यह सब आप अच्छी तरह जानते थे। आज यदि महादेवी न रहें अथवा प्रभाकर उनकी बात न मानें तो इच्छा रहते भी थोड़ी बहुत सेना और शक्ति रहते भी साम्राज्य की रक्षा नहीं हो सकती। राजधानी में भी कोई रुकावट नहीं हो सकती, वह अनायास शत्रु के हाथ में पड़ सकती है।”

यशोधावल चुप हुए। वृद्धसम्राट धीरे धीरे बोले “मैं क्या करूँ? मैं वृद्धहूँ, शशांक बालक दैवज्ञ कह चुके हैं कि शशांक के राज्यकाल में ही साम्राज्य नष्ट होगा”। सम्राट की बात सुनकर वृद्धयशोधावल गरज कर बोले “ऐसी बात आपके मुँह से नहीं सोहती। आप क्या पागलों और धूत्त की बात में आकर साम्राज्य नष्ट होने देंगे? दैवज्ञ न जाने क्या क्या कहा करते हैं। उनकी बातों पर धयान देने लगें तो संसार का सब काम धन्धा छोड़ वानप्रस्थ लेकर बैठ रहें। कुमार बालक होने पर भी बुध्दिमान, साहसी और अस्त्रविद्या में निपुण हैं, पर आपने उनकी यथोचित शिक्षा का कोई प्रबन्ध नहीं किया है। साम्राज्य चलाने के लिए शौर्य्य और पराक्रम की अपेक्षा कूटनीति की अधिक आवश्यकता होती है। लगातार बहुत दिनों तक राज्य परिचालन का क्रम देखते देखते अभ्यास होता है, आप स्वयं जानते हैं। आप ही को राजकाज की शिक्षा किस प्रकार मिली है? वंश में समय समय पर अद्भुत कर्म्मा प्रतापी बालक उत्पन्न होते हैं, उन्हीं को लेकर इतिहास की रचना होती है। चौदह वर्ष के समुद्रगुप्त ने उत्तरापथ के राजन्यसमुद्र को मथकर अश्वमेधा का अनुष्ठान किया था। पन्द्रह वर्ष की अवस्था में ही स्कन्दगुप्त ने अस्त्र उठाकर हूणों की प्रबल धारा की पहली बाढ़ रोकी थी। इसी प्रकार चौदह वर्ष के शशांक नरेन्द्रगुप्त प्राचीन साम्राज्य का उध्दार न करेंगे, कौन कह सकता है? महाराजाधिराज! दुश्चिन्ता छोड़िए, अब भी उध्दार की आशा है। अब भी समय है, पर आगे न रह जायगा”।

वृद्धसम्राट ने धीरे से कहा “तो क्या करूँ”?

यशोधावल ने धीरे धीरे कहा “आप को कुछ नहीं करना है। एक दिन यह सेवक महाराजाधिराज की आज्ञा से साम्राज्य के सब कार्य करता था। इन सूखे हुए हाथों में यद्यपि पहले का सा बल अब नहीं रहा है, किन्तु हृदय में अब तक बल है। महाराजाधिराज की आज्ञा हो तो यह दस राज कार्य का भार ग्रहण करने को प्रस्तुत है। कीर्तिधावल ने साम्राज्य के हित के लिए अपना शरीर लगा दिया। उसका वृद्धपिता भी वही करना चाहता है। आया तो था लतिका के लिए अन्न का ठिकाना करने, पर आकर देखता हूँ कि अन्नदाता का घर भी बिगड़ा चाहता है। उसे कौन आश्रय देगा? ऋषिकेशशर्म्मा और नारायणशर्म्मा अपने पद पर ज्यों के त्यों बने रहें। मैं आड़ में रहकर ही सम्राट की सेवा, जहाँ तक हो सके, करना चाहता हूँ।”

सम्राट सिर नीचा किए न जाने क्या क्या सोच रहे थे। कुछ देर पीछे सिर उठाकर उन्होंने कहा “यशोधावल! सच कहो, राजकाज का भार तुम अपने ऊपर लोगे?”

यशोधावल-दास कभी महाराज के आगे झूठ बोल सकता है?

सम्राट-यशोधावल! रात दिन की चिन्ता से इधर बहुत दिनों से मेरी ऑंख नहीं लगती। आगे क्या होगा, यही सोचकर मेरी दशा पागलों की सी हो रही है। तुम यदि कार्य भार ग्रहण कर लो तो मैं सचमुच निश्चिन्त हो जाऊँ।

यशो -मैं सच बातें देख रहा हूँ। भविष्यत् की चिन्ता महाराज को सदा व्याकुल किए रहती है, इसे बताने की आवश्यकता नहीं। भय के मारे कोई राजकर्म्मचारी महाराज के पास नहीं आता। काम बिगड़ता देखकर भी किसी को यह साहस नहीं होता कि महाराज के पास आकर कुछ पूछे और आज्ञा की प्रार्थना करे। ऋषिकेश शर्म्मा भी जिनका राजकाज में भी सारा जीवन बीता है, सामने आकर कुछ नहीं कह सकते। नागरिक बराबर कहते हैं कि स्थाण्वीश्वर के राजा के जाने के पीछे सम्राट के मुँह पर कभी हँसी नहीं दिखाई दी।

सम्राट-बात ठीक है। प्रभाकर का आना सुनते ही मेरा चित्ता ठिकाने न रहा। प्रभाकर जितने दिनों तक नगर में रहा, मैं छाया के समान उसके पीछे लगा फिरता रहा, दास के समान उसकी सेवा करता रहा, भृत्य के समान उसका तिरस्कार सहता रहा। यशोधावल! मैं इस बात को भूल गया था कि मैं गुप्त साम्राज्य का अधीश्वर हूँ, मैं समुद्रगुप्त का वंशज हूँ और प्रभाकर मेरा भानजा । बात बात में उसके अनुचर मेरे राजकर्म्मचारियों का अपमान करते थे। एक साधारण झगड़ा लेकर उन्होंने हमारी सेना पर आक्रमण किया, नगर में घुस कर लूटपाट की, नागरिकों को मारापीटा, अन्त में जब असह्य हो गया तब नागरिकों ने भी उन पर धावा किया और उनके डेरे जला दिए। यशोधावल! क्या यही सब अपमान सहने के लिए वीर यज्ञवर्म्मा ने लौहित्या के तट पर मेरी प्राणरक्षा की थी?

यशो -महाराज! मैं सब सुन चुका हूँ। नगर में आकर जो जो बातें मैंने सुनीं वे पहले कभी नहीं सुनी गई थीं। सब सुनकर ही मेरी ऑंखें खुली हैं। महाराजाधिराज! अब आज्ञा दीजिए, मैं फिर राज्य का कार्य अपने ऊपर लूँ।

सम्राट-तुम राज्य का कार्य ग्रहण करो, इससे बढ़कर मेरे लिए कौन बात होगी? इसमें भी मेरी अनुमति पूछते हो? मैं अभी मन्त्राणा सभा बुलाता हूँ।

यशो—मन्त्राणा सभा बुलाने की आवश्यकता नहीं। केवल ऋषिकेशशर्म्मा और नारायणशर्म्मा के आ जाने से ही सब काम हो जायगा।

सम्राट-अच्छी बात है। प्रतीहार!

प्रतीहार कुछ दूर पर खड़ा था। पुकार सुनते ही उसने आकर सिर झुकाया। सम्राट ने आज्ञा दी “विनयसेन को बुला लाओ।” द्वारपाल अभिवादन करके चला गया। थोड़ी देर में विनयसेन आ पहुँचे। सम्राट ने कहा “ऋषिकेशशर्म्मा, नारायणशर्म्मा और हरिगुप्त से जाकर कह आओ कि दोपहर को प्रासाद में आवें”। विनयसेन अभिवादन करके चले गए। सम्राट और यशोधावलदेव प्रासाद में लौट गए।