शशांक / खंड 2 / भाग-10 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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शंकरनद का युद्ध

दो दिन से आज सूर्य्यदेव ने पूर्व की ओर दर्शन दिए हैं। भास्करवर्म्मा की सेना का अधिकांश भाग नदी के बीच धारा में पहुँच चुका है। दूसरी ओर युवराज शशांक अपनी दो हजार सेना लिए पत्थर की चट्टान के समान शत्रु को रोकने के लिए निश्चल भाव से खड़े हैं। अश्वारोही सेना के पास धानुष बाण तो रहता नहीं कि वह दूर से शत्रु सेना की कुछ हानी कर सके। इससे वे चुपचाप डटे रहे। ज्योंही कामरूप की सेना पास पहुँची कि युवराज की सेना जय ध्वनि करती हुई वेग से आगे बढ़ी। जैसे मेघों के संघर्ष से घोर गर्जन होता है वैसी ही दो सेनादलों के संघर्ष से अस्त्र शस्त्रो की भीषण झनकार उठी। कामरूप की सेना आगे न बढ़ सकी, मागध सेना के आक्रमण के आघात से पीछे हटी। किन्तु पीछे खचाखच भरी हुई सेना ने उसे फिर आगे बढ़ाया। कामरूप सेना ने फिर पार उतरने का उद्योग किया, पर मागध सेना ने उसे फिर पीछे जल में ठेल दिया। किन्तु कामरूप के वीर सहज में हटनेवाले नहीं थे। बड़े तीव्र वेग से कई हजार सेना एक साथ मुट्ठी भर मागध सेना पर टूटी, पर फिर हार खाकर पीछे हटी। दो हजार मागध वीर चट्टान की तरह अड़े रहे। कई हजार सेना एक साथ आक्रमण करके भी उन्हें एक पग पीछे न हटा सकी। विजय की आशा छोड़ वे मरने मारने के लिए खड़े थे। उनके जीते जी उन्हें वहाँ से हटा दे, जान पड़ता था कि ऐसी सेना उस समय पृथ्वी पर न थी।

नदी के उस पार हाथी पर बैठे युवराज भास्करवर्म्मा सेना का परिचालन कर रहे थे। अपनी सेना को बार बार पीछे फिरते देख क्रोध और क्षोभ से अधीर होकर उन्होंने हाथीवान को हाथी बढ़ाने के लिए कहा। हाथी पानी में उतरा, पर पानी सुड़क कर ही वह अचल होकर खड़ा हो गया। हाथीवान ने बहुत चेष्टा की पर उसे आगे न बढ़ सका। हाथी अंकुश की चोट खा खाकर चिग्घाड़ने लगा, पर एक पैर भी आगे न रख सका। भास्करवर्म्मा हाथी की पीठ पर से कूद पड़े और एक सेनानायक से घोड़ा लेकर उस पर सवार हो गए। इतने ही में हजारो वज्रपात के समान ऐसा घोर और भीषण शब्द हुआ कि सब के सब सन्नाटे में आ गए। पक्षी अपने अपने घोंसलों को और पशु जंगल की झाड़ियों को छोड़ इधर उधर भागने लगे। युवराज भास्करवर्म्मा को पीठ पर लिए घोड़ा नदी का तट छोड़ एक ओर भाग निकला। लाख चेष्टा करके भी भास्करवर्म्मा उसे न फेर सके।

भयंकर शब्द सुनकर दोनों पक्षों की सेना खड़ी रही। उठे हुए खड्ग उठे ही रह गए, लम्बे लम्बे भाले लिए गौड़ीय सैनिक चकपकाकर चारों ओर ताकने लगे। युद्ध थम गया। सैनिकों ने चकित होकर देखा कि नदी में कुछ दूर पर पहाड़ के समान खड़ा जल वेग से बढ़ता चला आ रहा है, सैकड़ों पेड़, पशु, पक्षी धारा में पड़कर बहे चले आ रहे हैं। डर के मारे गौड़ीय सेना कगार पर जा खड़ी हुई। देखते देखते जलसमूह आ पहुँचा। क्षण भर में कामरूप की विशाल सेना न जाने क्या हो गई। गौड़ीय सेना ने जहाँ तक हो सका शत्रु के सैनिकों का उध्दार किया। जल बराबर बढ़ता हुआ देख युवराज ने सैनिकों को घोड़ों पर सवार हो जाने की आज्ञा दी। देखते देखते नदी के दोनों ओर की भूमि दूर तक जलमग्न हो गई। उस पार केवल दो या तीन हजार सेना बच गई थी, वह भी भाग खड़ी हुई। गौड़ीय सेना ऊँची भूमि पर जा टिकी।

पहले घाट पर युवराज जो हजार अश्वारोही छोड़ आए थे वे यथासाधय सेतु बाँधाने में बाधा दे रहे थे। इतने में बाढ़ आकर पुल को बहा ले गई। दोनों पक्षों की सेना ने ऊँची भूमि का आश्रय लेकर प्राण बचाए। दूसरे दिन सबेरे जब युवराज की सेना आकर उनके साथ मिली तब नदी के उस पार कोई नहीं दिखाई पड़ता था। बात यह थी कि भास्करवर्म्मा के साथ की सेना का भागना सुनकर उस स्थान पर जो सेना थी वह भी रात को ही भाग गई थी।

वीरेन्द्रसिंह शत्रु सेना के आक्रमण की प्रतीक्षा कर रहे थे, पर कामरूप की सेना ने नदी पार करने का कोई प्रयत्न नहीं किया। बाढ़ का जल जिस समय अकस्मात् आकर फैल गया, और सैकड़ों सैनिकों की मृत देह आ आकर किनारे पर लगने लगी उस समय कामरूप की सेना अपने युवराज को इधर उधर ढूँढ़ने लगी। चौथे दिन सबेरे दूर पर कलरव और जयध्वनि सुनकर वीरेन्द्रसिंह युद्ध के लिए तैयार हुए। वे समझे कि युवराज की जो थोड़ी सी सेना थी वह खेत रही और भास्करवर्म्मा अब उन पर आक्रमण करने आ रहे हैं। पर जय ध्वनि जब और पास सुनाई पड़ी तब उन्होंने सुना कि सम्राट महासेनगुप्त के नाम पर जयध्वनि हो रही है। उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। देखते देखते युवराज की सेना शिविर में आ पहुँची। साढ़े सात हजार कण्ठों की जयध्वनि नद के पार तक गूँज उठी। उस पार भास्करवर्म्मा का सेनापति समझा कि कामरूप की सेना हार गई। वह चटपट अपने साथ की सेना सहित भाग खड़ा हुआ। युवराज के मुँह से युद्ध की सारी व्यवस्था सुन वीरेन्द्रसिंह समझ गए कि जय नहीं हुई है, भगवान् ने रक्षा की है।

शंकरनद के युद्ध के एक सप्ताह पीछे संवाद आया कि नरसिंहदत्त पदातिक सेना लेकर पहुँच गए हैं और कल तक शिविर में आ जायँगे। नदी का जल थमते ही वीरेन्द्रसिंह ने उस पार के शत्रु शिविर पर अधिकार किया नरसिंहदत्ता के आगमन का समाचार पाकर युवराज ने अधिकांश सेना लेकर शंकरनद के उत्तर तट पर शिविर स्थापित किया।

दूसरे दिन पहर दिन चढ़ते चढ़ते पदातिक सेना आ पहुँची और नद पार करके उत्तर तट पर उसने पड़ाव डाला। बार बार के पराजय और आकस्मिक विपत्ति से घबराकर भास्करवर्म्मा की बची बचाई सेना तितर बितर होकर भागी। सेना का छत्रा भंग देख उन्होंने बहुत चेष्टा की पर फिर सेना एकत्र न हुई। शंकरनद के युद्ध के एक मास पीछे पचीस हजार सेना लेकर भास्करवर्म्मा युवराज शशांक पर आक्रमण करने के लिए चले। शशांक उस समय भी शंकरनद के तट पर ही जमे रहे। वे कामरूप राज्य पर चढ़ाई करने की तैयारी कर रहे थे पर सेना की संख्या बहुत थोड़ी बताकर नरसिंहदत्त और वीरेन्द्रसिंह ने उन्हें रोक रखा।

शिविर से थोड़ी ही दूर पर सेना ने अड्डा जमाया। नरसिंह की पदातिक सेना पर्वत की चोटियों और संकीर्ण पथों पर अधिकार जमाकर बैठी। वीरेन्द्रसिंह और शशांक अश्वारोही सेना लेकर पर्वत की घाटी में जा छिपे। भास्करवर्म्मा जब घाटी पार करने के लिए बढ़े नरसिंहदत्त ने अपनी पदातिक सेना लेकर उन्हें कई बार पीछे हटा दिया। कामरूप सेना हारकर पीछे हट रही थी इतने में शशांक और वीरेन्द्रसिंह के अश्वारोही उस पर बिजली की तरह जा पड़े। भास्करवर्म्मा की सेना ठहर न सकी, तितर बितर हो गई। कई प्रभुभक्त सामन्तों ने जब देखा कि युद्ध अब समाप्त हो गया तब वे भास्करवर्म्मा को जबरदस्ती हाथी पर बिठा कर रणभूमि छोड़कर भागे।

युवराज शशांक और वीरेन्द्रसिंह ने भागती हुई शत्रुसेना का पीछा करके हजारों सैनिकों को बन्दी किया। सैकड़ों वीर मारे गए। पचीस हजार की चौथाई सेना भी कामरूप लौटकर न गई। युद्ध समाप्त हो जाने पर कर्तव्य निश्चित करने के लिए युवराज ने मन्त्रणा सभा बुलाई। शंकरनद के किनारे भास्करवर्म्मा के शिविरों में युवराज, वीरेन्द्रसिंह, नरसिंहदत्त और गौड़ देश के सामन्त लोग एकत्र हुए। शशांक ने पूछा “अब क्या करना चाहिए? कामरूप पर चढ़ाई करना उचित होगा या नहीं?”

वीरेन्द्र -यही मुट्ठी भर सेना लेकर? असम्भव!

नरसिंह -अठारह हजार सेना लेकर तो एक लाख सेना भगा दी गई और कामरूप पर चढ़ाई करना असम्भव है?

वीरेन्द्र -तुम लोग पागल हुए हो? पर्वतों से घिरे हुए कामरूप देश पर चढ़ाई एक लाख सेना लेकर भी नहीं हो सकती और नीलांचल पर आक्रमण करने के लिए तो नावों का बहुत बड़ा बेड़ा भी चाहिए।

शशांक-मैं यशोधावल को लिख भेजता हूँ, वे वसुमित्र के साथ सारी नौसेना भेज देंगे।

वीरेन्द्र -बंगदेश का क्या किया जायगा। पीछे शत्रु छोड़कर आगे दूर देश में बढ़ना रणनीति के विरुद्ध है।

गौड़ देश के सामन्तों ने एक स्वर से वीरेन्द्रसिंह की बात का समर्थन किया; उन्होंने कहा “कामरूप पर चढ़ाई करने का मुख्य उद्देश्य तो सफल हो गया। जो सेना बंगदेश में विद्रोहियो को सहायता देने जाती थी वह तो एक प्रकार से निर्मूल हो गई। अब जब तक भास्करवर्म्मा फिर से नई सेना न खड़ी करेंगे वे युद्ध के लिए नहीं आ सकते। अब इस समय चटपट लौटकर बंगदेश के विद्रोह का दमन करना चाहिए।”

शशांक ने विवश होकर कामरूप की चढ़ाई का संकल्प त्याग दिया। यह स्थिर हुआ कि एक सेनानायक दो हजार अश्वारोही और दो हजार पदातिक लेकर भास्करवर्म्मा की गतिविधि पर दृष्टि रखने के लिए ब्रह्मपुत्र के तट पर रहे, शेष सेना लौट चले। मन्त्रणा सभा विसर्जित होने पर वीरेन्द्रसिंह ने कहा “कुमार! मैंने भास्करवर्म्मा के शिविर में एक पेटी के भीतर कई रत्न पाए हैं, अब तक आपको दिखाने का अवसर नहीं मिला था”। युवराज और नरसिंहदत्त बड़ा आग्रह प्रकट करते हुए वीरेन्द्रसिंह के डेरे में गए। वीरेन्द्रसिंह ने कपड़े के एक बटन के भीतर से एक छोटासा चाँदी का डिब्बा निकालकर दिखाया और पूछा “इसके भीतर क्या है कोई बता सकता है?” युवराज बोले “न। डिब्बे के ऊपर कुमार भास्करवर्म्मा का नाम तो दिखाई पड़ता है”। वीरेन्द्रसिंह ने डिब्बा खोलकर उसके भीतर से कई फटे हुए भोजपत्र बाहर निकाले। उन्हें देख कुमार बोल उठे “ये तो चिट्ठियाँ जान पड़ती हैं। किसकी हैं?”

“पढ़कर देख लीजिए”।

युवराज पढ़ने लगे-

“आशा नहीं है। हमारी सेना शीघ्र चरणाद्रिगढ़ पर आक्रमण करेगी। माधव आजकल यहाँ आए हैं। देखना, यशोधावल और शशांक लौटकर न जाने पाएँ। मामा के जीते मैं प्रकाश्य रूप में शत्ु ताचरण नहीं कर सकता।

प्रभाकरवर्ध्दन”

पत्रा पढ़ते पढ़ते युवराज शशांक का रंग फीका पड़ गया। यह देख वीरेन्द्रसिंह बोले “कुमार! अभी दो पत्र और हैं”। युवराज ने बड़ी कठिनता से अपने को सँभालकर दूसरा पत्र हाथ में लिया और पढ़ने लगे-

“महाराज ग्रहवर्म्मा

लाख सुवर्ण मुद्राएँ मिलीं

स्थाण्वीश्वर से महाराजाधिराज का एक पत्र आया है। यदि किसी उपाय से शशांक की हत्या करा सकें तो युद्ध अभी समाप्त हो जाय। फिर यशोधावल हम लोगो के हाथ से निकलकर नहीं जा सकता।

आशीर्वादक

महास्थविर बन्धुगुप्त”

“तो बन्धुगुप्त आजकल बंगदेश में है”।

“अवश्य। यह पत्र महानायक के हाथ में देना चाहिए”।

“अभी एक अश्वारोही भेजो”।

“न। हम लोग अपने साथ ले चलेंगे। और एक पत्रा है, देखिए”।

युवराज फिर पढ़ने लगे-

“इस समय पाटलिपुत्र में दो तीन हजार से अधिक सुशिक्षित सेना नहीं है। आप यदि युवराज को पराजित कर सकें तो चटपट पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर दें। चरणाद्रि के उधर स्थाण्वीश्वर की सेना तैयार है।

आशीर्वादक

कपोतिक महाविहारीय महास्थविर बुद्धघोष”।

पत्रा पढ़कर कुमार उदास हो गए और चिन्ता करने लगे। वीरेन्द्रसिंह और नरसिंहदत्ता उन्हें समझा बुझाकर शिविर में ले गए। दूसरे दिन युवराज और वीरेन्द्रसिंह नरसिंहदत्ता को वहीं छोड़ मेघनाद तटस्थ शिविर की ओर लौट पड़े।