शशिकपूर के नैराश्य का कारण क्या है? / जयप्रकाश चौकसे

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शशिकपूर के नैराश्य का कारण क्या है?
प्रकाशन तिथि : 24 सितम्बर 2014


शशिकपूर मुंबई के अस्पताल में फेफड़ों के रोग से जूझ रहे हैं। विगत दो वर्षों से किडनी रोग के कारण वे सप्ताह में दो बार डायलिसिस कराते हैं। उनके बड़े भाई शम्मीकपूर ने डायलिसिस की सहायता से बारह वर्ष निकाले आैर मृत्यु का कारण किडनी रोग नहीं, कोई आैर रोग था। शम्मीकपूर सप्ताह में तीन बार डायलिसिस कराते थे। उनकी आैर छोटे भाई शशिकपूर की बीमारियां लगभग समान हैं परंतु बीमारी के समय दोनों के दृष्टिकोण में अंतर है। शम्मीकपूर का कहना था कि सप्ताह में तीन दिन अस्पताल में काटने के बाद बचे हुए चार दिनों में वे दबंग ढंग का जीवन जीते थे। उन्हें कार चलाने का शौक था आैर पैर निर्बल थे तो उन्होंने हाथों से नियंत्रित करने वाली एक विशेष कार आयात की थी। उनके सकारात्मक दृष्टिकोण के कारण उन्होंने अपनी बीमारी के दर्द के दंश को भोथरा बना दिया आैर तीमारदारी करने वाले परिजनों को भी यातना से बचा लिया। शशिकपूर का दृष्टिकोण ही उनके कष्ट को बढ़ा रहा है। विगत कई वर्षों से उन्होंने अपने निकट के लोगों से भी मिलना-जुलना बंद कर दिया है। वे अपने में सिमट कर रह गए हैं। उन्हें यश चोपड़ा ने 'वीर जारा' में उस भूमिका का प्रस्ताव दिया था जो अमिताभ बच्चन ने निभाई है। दरअसल यश चोपड़ा अमिताभ बच्चन को शशिकपूर से बेहतर अभिनेता मानते हैं परंतु उन्होंने यह भूमिका पुराने मित्र को अपने आेढ़े हुए नैराश्य से उबारने के लिए देनी चाही थी। अमिताभ बच्चन भी अनेक बीमारियों को झेलते हुए निरंतर काम कर रहे हैं। यह जुझारूपन आैर जीवट बने रहना पूरे जीवन के विचार का परिणाम है।

आखिर शशिकपूर काे वह कौन सा दु:ख है कि उन्होंने वर्षों पूर्व ही हथियार डाल दिए? अगर 'अजूबा' असफल रही तो वह भी उनका अपना विषय चयन था। शशिकपूर ने बतौर निर्माता सार्थक फिल्में बनाई जैसे जुनून, कलयुग, विजेता, 36 चौरंगी लेन आैर उत्सव तथा इन सार्थक फिल्मों की असफलता से यह गलत नतीजा निकाला कि फूहड़ फिल्में चलती हैं। प्रतिक्रिया स्वरूप लिए निर्णय ऐसे ही होते हैं। 'अजूबा' की असफलता के कारण हुए घाटे उन्होंने एक बहुमंजिला बनाकर चुकता कर दिए। 'उत्सव' के प्रदर्शन के समय उनकी पत्नी का निधन हुआ था। उस तरह के विरह अनेक लोगों को सहने पड़ते हैं। क्या शशिकपूर पर यह दबाव था कि उनके दोनों भाई उनसे अधिक सफल हैं? यह भी संभव नहीं है क्योंकि बतौर सितारा उन्होंने लंबी पारी खेली आैर पृथ्वी थियेटर के निर्माण ने उनके जीवन को सार्थकता दी है। समाज आैर सरकार ने उन्हें आदर दिया है।

यह भी संभव है कि शशीकपूर के नैराश्य के कारणों की खोज ही गलत है क्योंकि मनुष्य के अवचेतन में कहां कितने साये मंडराते हैं, यह स्वयं मनुष्य भी नहीं समझ पाता। शम्मीकपूर का दृष्टिकोण उनका अपना है आैर शशि को भी स्वतंत्रता है कि वह एकांत में रहे आैर नैराश्य का उत्सव भी अपने मन के जलसाघर में अकेले ही मनाये। घोर सामाजिकता भी कोई तसल्ली देने वाली नहीं हो सकती क्योंकि मुखौटों के बीच ही हम घूमते रहते हैं। मिलने से कोई व्यक्ति कब मिलता है? संभवत: सभी ने अपने बघनखे आस्तीन में छुपा रखे हैं। अत: हम सकारात्मक रूप से सोचें कि शशि ने सारा जीवन भीड़ में गुजारा आैर अब अपने इन वर्षों में वह अकेला रहना चाहता है। दरअसल अकेलेपन के होम्योपैथिक डोज सभी के लिए अनिवार्य हैं।

यह भी एक इत्तेफाक है कि शशिकपूर की अपर्णा सेन द्वारा निर्देशित एवं जैनीफर कैंडल कपूर अभिनीत '36 चौरंगी लेन' अकेलेपन का गीत था, तन्हाई के प्रति आदरांजलि थी। वही उसकी कम्पनी की श्रेष्ठतम फिल्म भी है। इस हादसे पर गौर करें तो शशिकपूर के जीवन की पहेली भी बूझी जा सकती है कि '36 चौरंगी लेन' ऑस्कर के लिए भेजी गई आैर उसे श्रेष्ठ फिल्म माना गया परंतु ऑस्कर नहीं दिया जा सकता था क्योंकि उसे फॉरेन भाषा कैटेगरी में भेजा गया था आैर अंग्रेजी भाषा में बनी होने के कारण अमेरिका में उसे 'फॉरेन कैटेगरी' की फिल्म नहीं माना गया। शशिकपूर स्वयं भी अपने देशी घराने में अंग्रेज की तरह रहा। उसने शेक्सपीएराना थियेटर में ज्योफ्रे कैंडल के मार्गदर्शन में अंग्रेजी नाटकों में अभिनय किया। उसकी पहली फिल्म इस्माइल मर्चेन्ट आैर आइवरी जेम्स की 'हाउसहोल्डर' भी अंग्रेजी भाषा में थी। उसका स्वाभाविक रुझान हमेशा अंग्रेजी नाटक रहे आैर उसकी पत्नी जैनीफर कैंडल अंग्रेज होते हुए भी उससे अधिक भारतीय थी। लंदन में उसकी इच्छा से उसका दाह-संस्कारहुआ। वह ताउम्र शाकाहारी महिला रही आैर शराब-सिगरेट से भी परहेज रहा। संभवत: ऐसी स्त्री का कैंसर की वेदना से मरना ही शशि के नैराश्य का कारण है।