शस्त्र उद्योग और चुनाव शास्त्र / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 21 सितम्बर 2019
केंद्र सरकार विचार कर रही है कि उद्योगपतियों को शस्त्र बनाने का लाइसेंस दिया जाए। दशकों से शस्त्र और असलहा सरकारी कारखानों में बनते रहे हैं। यह स्वाभाविक है कि उद्योगपति अपने लाभ को ही प्राथमिकता देंगे, जिससे शस्त्र निर्माण में गुणवत्ता की कमी आ सकती है। एक ही परिसर में बंदूक की गोली और चाॅकलेट के कारखाने बने हों तो कच्चे माल में हेराफेरी भी हो सकती है। सैनिक चाॅकलेट दागेगा और बच्चा गोलियों से कंचे खेलेगा।
अमेरिका में हथियार खरीदने या रखने के लिए कोई पाबंदी नहीं है। आप फल और सब्जी की तरह हथियार खरीद सकते हैं। अमेरिका का व्यक्ति हथियार रखने को अपना मौलिक अधिकार समझता है। जब कभी इसके खिलाफ कोई आवाज उठाता है तब उसे खामोश रहने की हिदायत दी जाती है और हिदायत नहीं मानने पर उसे खामोश कर दिया जाता है। अमेरिका में बनी फिल्म 'हिस्ट्री ऑफ वायलेंस' के एक दृश्य में एक किशोर अपने उस सहपाठी को गोली मार देता है, जिससे उसकी मामूली कहा-सुनी हुई थी। उसे गिरफ्तार किए जाते समय उसके पिता उससे पूछते हैं कि उसने यह क्यों किया, तो वह जवाब देता है कि उसके पिता ने भी अपने पड़ोसी को गोली मार दी थी, क्योंकि बिना आज्ञा लिए वह उनके परिसर में आया था। अमेरिका का हर घर एक किले की तरह है और बिना आज्ञा लिए आने को आक्रमण माना जाता है। आक्रमण करने वाले को दंडित करने का अधिकार भी उसे प्राप्त है। वह कानून भी है, अदालत भी है, वह स्वयं को ईश्वर के समक्ष समझता है।
एक फिल्म का नाम था 'क्लास ऑफ एटीफोर' (1984)। फिल्मकार ने यह फिल्म 1984 के बहुत पहले बनाई थी। फिल्म में छात्र किताबों के साथ रिवॉल्वर भी लेकर कक्षा में जाते हैं। अपने विवादों का निपटारा स्वयं ही कर लेते हैं। फिल्म में दिल दहलाने वाली हिंसा थी। फिल्मकार ने अपनी आशंका व्यक्त की थी कि भविष्य की स्कूलों में इस तरह हिंसा का विस्तार होगा। राम गोपाल वर्मा की पहली फिल्म में स्कूली हिंसा के तांडव को प्रस्तुत किया गया था।
भारत में उद्योगपतियों को शस्त्र बनाने की अनुमति अभी विचाराधीन है परंतु सरकार ताबड़तोड़ अध्यादेश जारी करती रही है। अगर ऐसा होता है तो इन कारखानों से कुछ हथियार अपराध जगत भी प्राप्त कर सकता है। भारत में अनेक लोगों के पास बिना लाइसेन्स के हथियार हैं। उत्तर प्रदेश इस मामले में अन्य प्रांतों से काफी आगे है। उद्योगपतियों को हथियार बनाने का लाइसेंस मिलते ही नकारात्मक विचार रखने वाले हुड़दंगियों की पौ बारह हो जाएगी। बंदूक की नली से सत्ता प्राप्त करने का व्यवसाय खूब पनप जाएगा। सब मिलाकर हम ऐसे समाज की रचना कर रहे हैं, जिसमें जिसके पास लाठी होगी, भैंस उसी की होगी। प्रकाश झा की फिल्म 'दामुल' में बंदूक के जोर पर गरीब मतदाताओं को मत देने के केंद्र तक जाने से रोका जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी हांका लगाकर मतदाताओं को बूथ के 'मचान' तक ले जाते हैं, जहां शिकारी नेता पहले से तैयार बैठा है। मोबोक्रेसी भारत महान की मौलिक खोज है। वर्तमान समय में केवल एक शास्त्र ही गढ़ा गया है- चुनाव शास्त्र। अभी इसके तीन चरण जारी हुए हैं। पहले चरण में मतदान पूर्व प्रचार, दूसरे चरण में बूथ मैनेजमेंट, तीसरे चरण में मतगणना की व्यवस्था! प्राचीन काल में कई ग्रंथ लिखे गए। उस समय चुनाव नहीं होते थे, इसलिए विद्वानों के पास लिखने का समय और प्रतिभा थी। बहरहाल, प्राचीन काल के शस्त्रों को मंत्र पढ़कर संहारक शक्ति प्रदान की जाती थी। आज मंत्र ही शस्त्र है। उद्योगपतियों के पास मंत्र है, जिसके जाप से उन्हें शस्त्र बनाने का लाइसेंस मिल जाएगा। ऐसे शस्त्र भी बन जाएंगे कि एक पड़ोसी देश पर तो वे चल जाएंगे और उस दूसरे पड़ोसी पर नहीं चलेंगे, जो हमारी जमीन धीरे-धीरे हड़पता जा रहा है। उसके पास लाठी है, अत: भैंस उसी के पास रहेगी। कमजोर पर गुर्राना और शक्तिशाली के सामने चिचियाते हुए दंडवत करना हमारी नीति है। शस्त्र निर्माण का कार्य सरकार के अधीन रहना ही उचित है। यह काम दिवाली के पटाखे बनाने से अलग है। कॉर्पोरेट सेक्टर के बनाए बम फुस्सी बम साबित हो सकते हैं। बुरे से कम बुरा चुनना ही तो विकल्प है।